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प्रवचन उन्नति की खुराक : अचौर्यव्रत
आचार्य श्री विद्यासागर जी जिन्होंने इस विश्व के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लिया,। है, हमारा देखना-देखना तो है ही, साथ में लेना भी ऐसे सर्वज्ञ वीतरागियों ने सर्वज्ञत्व की प्राप्ति के लिये | है, हमारी दृष्टि में लेने के भाव हैं, प्राप्ति के भाव हमें एक सूत्र दिया है- वह है 'अस्तेय' (अचौर्यव्रत)।| हैं, और उनकी दृष्टि में लेने के भाव नहीं हैं, केवल 'स्तेय' कहते हैं अन्य पदार्थों के ऊपर अधिकार जमाने | देखने की क्रिया है। का वैचारिक भाव, जो असंभव है, उसे संभव करने | एक दर्शनिक ने जगत् की परिभाषा करते हुये की एक उद्यमशीलता, जो ब्रह्मा को भी संभव नहीं है, लिखा है कि- 'दूसरा जो भी है वही दुःख और नरक विषयकषायी उसे संभव करने का प्रयास कर रहा है। | है।' जो अपनी दृष्टि के माध्यम से उपजा हुआ 'सिद्धान्त' स्तेय का अर्थ है- चोरी, 'पर' का ग्रहण करना। जब | होगा वह 'सिद्धान्त' नहीं माना जा सकता, उन्होंने यह तक हम इस रहस्य को नहीं समझेंगे कि उसके ऊपर | घोषणा कर दी कि 'दूसरा' तुम्हारे लिये दुःख नहीं है, हमारा अधिकार हो सकता है? तब तक हमारा भवनिस्तार | अपितु दूसरे को पकड़ने की जो परिणति है, भाव है, नहीं होगा। 'स्व' के अलावा 'पर' के ऊपर हमारा अधिकार | वह हमारे लिये दु:ख और नरक का काम करता है। भी नहीं हो सकता। चोरी का अर्थ यही है कि हम | सिद्धान्त में यह परिवर्तन आया, यह अन्तर आया। वीर वस्तु के परिणमन को, वस्तुस्थिति को नहीं समझा पा | प्रभु सर्वज्ञ वीतरागी विश्व के अस्तित्व को मानते हैं, रहे हैं। 'स्व' क्या है और 'पर' क्या है, जब तक यह विश्व के अस्तित्व को जानते हैं, हमसे बहुत ऊँचा ज्ञान ज्ञान नहीं होगा तब तक संसारी जीव का निस्तार नहीं रखते हैं, तथा वे इनको जानते हुये भी पकड़ने का भाव होगा।
नहीं रखते। पकड़ना चोरी है, जानना चोरी नहीं है। हमारी सुख के लिये उद्यम करना परमावश्यक है। किन्तु | दृष्टि लेने के भाव से भरी हुई है और उनकी दृष्टि सुख के लिये उद्यम करना परमावश्यक होते हुये भी | ज्ञान भाव से भरी हुई है। वे साहूकार हैं और शेष जितने सुख क्यों नहीं हो रहा है? इस बारे में विवेक-ज्ञान प्राप्त | भी लोग हैं वे सब चोर हैं। आप दूसरों को चोर सिद्ध करना भी परमावश्यक है। भगवान् महावीर ने बताया | नहीं कर सकते, नहीं तो स्वयं चोर बन जायेंगे। हम है कि विस्मृति संसारी जीव को 'स्व' की ही हुई है, | तो अपने आपको साहूकार सिद्ध कर देंगे, क्योंकि हमारे 'पर' की विस्मृति आज तक नही हुई। 'पर' को पर पास बहुमत है। आप बहुमत के माध्यम से, चाहो तो समझना अत्यन्त आवश्यक है। 'पर' को पर जानते हुये | साहूकार कहला सकते हो, तब तो विश्व का प्रत्येक भी यदि हम उसको लेने का भाव करते हैं, तो ध्यान | व्यक्ति साहूकार बन जायेगा, किन्तु साहूकारी में जो मजा रहे हम चोर बन जायेंगे। आप कह सकते हैं कि इस | आना चाहिये, वह मजा आपको एक क्षण के लिये भी प्रकार चोर बनने लगें, तो सभी चोर सिद्ध होंगे। तो | नहीं आ रहा है। क्या आप अपने आप को साहूकार मान रहे हैं? ध्यान दुनियाँ की आखिर उस वीर प्रभु की ओर ही रहे साहूकार वही है, जिसके पास धर्म है, साहूकार वही दृष्टि क्यों जा रही है? अर्थ यही है कि हम मात्र चोरी है, जो चोरी के भाव नहीं लाता और विशेष सेठ-साहूकार | से डरते हैं, अर्थात् मोक्षमार्ग सिद्धान्त में जो प्ररूपित तो वही है, जो पर की चीजों के ऊपर दृष्टिपात भी | शब्द हैं, उनसे कुछ ज्ञान प्राप्त करके हम कह सकते नहीं करता। आत्मा के पास दृष्टि है आत्मा के पास | हैं कि- हमको साहूकार बनना है, या कि यह कानून ज्ञान है, दर्शन है, उपयोग, जानने की, देखने की, संवदेन | लौकिक शास्त्र में भी है, चोरी करना तो एक बहुत करने की शक्ति है। यदि आप इनके लिये भी मना | बड़ा पाप है और चोरी करनेवाला सज्जन नागरिक नहीं करते हैं, तो फिर सर्वज्ञ भी चोर सिद्ध होंगे, क्योंकि कहला सकता। राजकीय सत्ता का आज्ञा के अनुरूप वे भी तीन लोक का देखने जाननेवाले हैं, किन्तु अन्तर | चलना है, इसलिये चल तो देते हैं, किन्तु चोरी से बचते
4 जून-जुलाई 2008 जिनभाषितJain Education International
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