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सिंह और श्वान
आचार्य श्री विद्यासागर जी
मूकमाटी महाकाव्य की निम्नलिखित काव्यपंक्तियों में मिट्टी के घड़े पर चित्रित सिंह और श्वान के चरित्र का वर्णन छल-कपट, चाटुकारिता और दासता आदि गर्हित प्रवृत्तियों के प्रति घृणा तथा साहस, स्वाभिमान एवं स्वातन्त्र्य आदि अभिनन्दनीय गुणों के प्रति अनुराग जगाता है।
कुम्भ पर हुआ वह सिंह और श्वान का चित्रण भी सन्देश दे रहा हैदोनों की जीवन-चर्या, चाल परस्पर विपरीत है। पीछे से, कभी किसी पर धावा नहीं बोलता सिंह, गरज के बिना गरजता भी नहीं,
और बिना गरजे किसी पर बरसता भी नहीं यानी मायाचार से दूर रहता है सिंह।
परन्तु, श्वान सदा पीठ-पीछे से जा काटता है,
बिना प्रयोजन जब कभी भौंकता भी है। जीवन सामग्री हेतु दीनता की उपासना कभी नहीं करता सिंह जब कि
स्वामी के पीछे-पीछे पूँछ हिलाता श्वान फिरता है एक टुकड़े के लिए। सिंह के गले में पट्टा बँध नहीं सकता। किसी कारणवश बन्धन को प्राप्त हुआ सिंह पिंजड़े में भी बिना पट्टा ही घूमता रहता है, उस समय उसकी पूँछ ऊपर उठी तनी रहती है अपनी स्वतन्त्रता-स्वाभिमान पर कभी किसी भाँति आँच आने नहीं देता वह। और श्वान स्वतन्त्रता का मूल्य नहीं समझता, पराधीनता-दीनता वह श्वान को चुभती नहीं कभी, श्वान के गले में जंजीर भी आभरण का रूप धारण करती है।
मूकमाटी (पृष्ठ १६९-१७०) से साभार
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