Book Title: Jinabhashita 2001 07 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित जुलाई-अगस्त 2001, संयुक्तांक बीसवीं शती के आद्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी समाधि दिवस पर्वराज पर्युषण वीर नि.सं.2527 भाद्रपद शुक्ल 2, वि.सं. 2058 Jai E minem FOTO Prvale Personalusen wwwn org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC जिनभाषित मासिक जुलाई-अगस्त 2001 संयुक्तांक अङ्क 2-3 वर्ष 1 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन पृष्ठ कार्यालय 137, आराधना नगर, भोपाल-462003 म.प्र. फोन 0755-776666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द लुहाड़िया पं. रतनलाल बैनाडा डॉ. शीतलचन्द्र जैन डॉ. श्रेयांस कुमार जैन प्रो. वृषभ प्रसाद जैन शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे. आर.के, मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश राणा, जयपुर अन्तस्तत्त्व सम्पादकीय : आचार्य श्री शान्तिसागर जी का समाधि दिवस लेख : आचार्य श्री शान्तिसागर : मुनि श्री क्षमासगर 5 पूजा : आचार्य श्री शान्तिसागर जी की पूजा : मुनि श्री योगसागर प्रवचनांश • मोक्ष मार्गी के लिये चिन्ता नहीं, चिन्तन आवश्यक : आचार्य श्री विद्यासागर •धार्मिक और धर्मात्मा : मुनि श्री समतासागर .लाखों घर बर्बाद हुए... : मुनि श्री प्रमाणसागर .हर समस्या सुलझेगी... : आर्यिका श्री पूर्णमती लेख : पर्वराज पर्युषण : प्रदूषण मुक्ति का पर्व : डॉ. सुरेन्द्र भारती • भक्ति, स्वाध्याय एवं क्षमादिभावों का मनोविज्ञान : प्रो. रतनचन्द्र जैन क्या आप भी हैं 'वेजिटेरियन' : डॉ. राजीव अग्निहोत्री बढ़ता गोवध और प्रदूषित होता दूध : डॉ. श्रीमती ज्योति जैन एकजुटता की आवश्यकता : डॉ. श्रेयांसकुमार जैन 26 शोध सम्भावनाओ से भरा जैन साहित्य : डॉ. कपूरचन्द्र जैन • इक्कीसवीं सदी में जैन संस्कृति का भविष्य : कुमार अनेकान्त जैन .राष्ट्रीय जनगणना में जैन समुदाय : सुरेश जैन आई.ए.एस. शंका समाधान शंका समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा नारी लोक : .कर्नाटक की ऐतिहासिक श्राविकाएँ : प्रो. विद्यावती जैन व्यंग्य : दोषारोपण का खेल : शिखरचन्द्र जैन कविता/गीत/गजल/भजन : श्री सम्यक्त्व भारती • अशोक शर्मा • डॉ. नरेन्द्र 'भारती' डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय 'विजय' कविवर दौलतराम जी मुनि श्री निर्णयसागर • ऋषभ समैया जलज .मुनि श्री क्षमासागर आवरण पृष्ठ 3 बालवार्ता : • एक वृक्ष की अन्तर्वेदना : शुद्धात्म प्रकाश जैन आदर्श कथा : मन के भूत : यशपाल जैन तीर्थक्षेत्र परिचय : सुदर्शनोदय तीर्थ : अशोक धानोत्या 38 चातुर्मास विवरण 39 विशेष समाचार 1,2 समाचार 6,9,12,13,15,26,29,32,37,44 आपके पत्र : धन्यवाद 43 75- द्रव्य-औदार्य श्री अशोक पाटनी (मे. आर.के. मार्बल्स लि.) किशनगढ़ (राज.) ल प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-351428,352278| ----NOM 34 सदस्यता शुल्क शिरोमणि संरक्षक 5,00,000रु. परम संरक्षक 51,000 रु. संरक्षक 5,000 रु. आजीवन 500 रु. वार्षिक 100रु. एक प्रति 10रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष समाचार मेनका गांधी से मुलाकात कर उनके आदेश | कि उन्हें भी अन्य जीवों की भाँति कष्ट होता पर अमल करने पर सहमति जता दी है। | है। साँप की खाल के बैग, जूते अथवा जैकेट चमड़े की चाबुक - सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रा- | के लिए जीवित ही उनकी खाल खींच ली इस्तेमाल करने से रोका लय के सूत्रों के मुताबिक दो प्रकार के हल्के जाती है। इस पीड़ा से वे कुछ घण्टों से लेकर चाबुकों का इस्तेमाल करने को कहा गया है। एक-दो दिन तक तड़पते रहते हैं, जब तक ___ अब घुड़दौड़ के पेशे में लगे लोगों पर घुड़सवार को इन्हीं दोनों में से किसी एक का उनकी मौत नहीं हो जाती। पशुप्रेमी मेनका गाँधी की गाज गिरने वाली इस्तेमाल करना होगा। गौरतलब है कि जीव- खाल प्राप्त करने के लिये घड़ियालों है। मेनका गाँधी ने घुड़सवारों द्वारा इस्तेमाल जन्तु प्रेमी मेनका गाँधी पहले घुड़दौड़ में की 'खेती' की जाती है। घड़ियालों को छोटेकिये जाने वाले चमड़े के चाबुक के इस्तेमाल चाबुकों के इस्तेमाल पर पूरी तरह से प्रतिबंध छोटे पिंजड़ों में रखा जाता है जो मांस, मल पर रोक लगा दी है। मेनका गांधी का तर्क है लगाने पर विचार किया था, लेकिन बाद में और सड़ते पानी की बदबू से गंधाते रहते हैं। कि घोड़े को तेज दौड़ाने के लिय चमड़े के घुड़दौड़ अधिकरियों के हल्के चाबुकों का | प्राकृतिक रूप से घड़ियाल 60 साल तक चाबुक मार कर इस निरीह प्राणी पर अत्याचार प्रयोग करने के कहने पर उन्होंने अपना इरादा जीवित रह सकते हैं परन्तु इन फार्मों में उन्हें किया जाता है। गाँधी ने इस पारंपरिक चाबुक बदल दिया। मुंबई में घुड़सवारी चैंपियन पेसी चौथे जन्मदिन से पूर्व ही नृशंसता पूर्वक मार के स्थान पर कुछ हल्के फाइबर के चाबुकों श्रॉफ ने कहा कि बिना चमड़े के चाबुक का दिया जाता है। इन्हें मारने के लिये हथौड़ों से के इस्तेमाल करने को कहा है। मेनका गाँधी इस्तेमाल किये घोड़े पर कैसे नियंत्रण रखा कूटा जाता है और कभी-कभी तो दो घण्टे की के इस कदम से हार्स रेसिंग से जुड़े लोगों जा सकता है? सदियों से घोड़े को काबू करने यातना सहने के बाद भी उनके प्राण नहीं में हड़कम्प मच गया है। के लिये चमड़े के नाजुक चाबुक का घोड़े पर निकलते। साँपों और छिपकलियों की खाल जीव जन्तु के संरक्षण में लगी केन्द्रीय कुछ भी असर नहीं होगा। घुड़सवार संघ के जीवित अवस्था में खींच लीजाती है। इसके सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री मेनका ध्यक्ष सिनक्लेर मार्शल ने कहा कि हम नाजुक पीछे विश्वास यह है कि जीवित अवस्था में गाँधी ने घुड़दौड़ को पशु प्रदर्शन अधिनियम कोड़े का प्रयोग नहीं करने की मांग पर अड़े खींची गयी खाल अधिक मुलायम रहती है। के तहत लाकर घोड़ों के साथ सहानुभूति रहेंगे। इस आदेश को मानने से घुड़दौड़ का जेना का सुझाव है कि जिन लोगों को पूर्वक व्यवहार करने का आदेश दिया है। रोमांच खत्म हो जाएगा और घोड़ा हमारे पशुओं की खाल से बने वस्त्र पसंद हैं उन्हें मेनका गांधी का कहना है कि पारंपरिक हिसाब से नहीं हम घोड़े के हिसाब से दौड़ेंगे। कृत्रिम रूप से बनाये गये खाल के वस्त्र और चाबुकों के इस्तेमाल से घोड़े को बहुत पीड़ा 'अमर उजाला' 25 जून 2001 से साभार | चीजें खरीदनी चाहिए. प्लेदर इनमें से एक पहुँचती है, जो कि एक बेजुबान प्राणी पर है। रोहित बल, मार्क बावर, टॉड ओल्डहैम अत्याचार है। गाँधी ने इसके स्थान पर विषधर के लिए और स्टैला मैककार्टिनी जैसे दिग्गज डिजावैज्ञानिक तौर पर परीक्षण किए गए हवा को यनर कभी भी पशुओं की खालों का प्रयोग सोखने वाले गद्देदार चाबुक इस्तेमाल करने विज्ञापन नहीं करते। रिनाल्डी डिजायन जैसे फैशन का आदेश दिया है ताकि घोड़ों को चोट न अंग्रेजी टीवी धारावाहिक बेवॉच में | बुटिक में ग्राहकों को कृत्रिम अजगर, पहुंचे। दर्शकों को मुग्ध करने वाली अभिनेत्री जेना छिपकली और मगरमच्छ की खालों से बने मेनका गाँधी के इस आदेश ने ली नेलिन अब एक नयी भूमिका में नजर आ हैण्ड बैग, बैल्ट और जूते मिल सकते हैं। घुड़सवारों को परेशानी में डाल दिया है। रही हैं। वन्य जन्तुओं की हत्या कर चलाये "यह साँप का वर्ष है" जेना कहती है, घुड़सवारों का कहना है कि हल्के चाबुकों के जा रहे अवैध व्यापार के विरुद्ध पेटा के "इसलिए यह उन्हें जीवित रहने का अधिकार इस्तेमाल से घोड़ों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। अभियान में शरीक जेना ने इसके पहले देकर मनायें।" घुड़सवारी के पेशे से जुड़े लोगों ने अरबों विज्ञापन में सनसनीखेज भूमिका निभाकर ___ 'दैनिक जागरण' 17 जून 2001 से साभार रुपये के इस खेल को जीवित बनाए रखने दर्शकों के होश उड़ा दिए हैं। पेटा द्वारा जारी के लिये अदालत का दरवाजा खटखटाया है। किये गये विज्ञापन में जेना एक साँप के रूप भारतीय घुड़सवार संघ ने मुम्बई की एक में नजर आयी हैं। निर्वस्त्र शरीर पर साँप का अदालत में इस आदेश के खिलाफ स्थग- पैटर्न उभारने के लिए जेना को मेकअप में पशु प्रेम नादेश भी प्राप्त कर लिया है। लेकिन घुड़दौड़ सात घण्टे देने पड़े। मुम्बई। फिल्मी सितारों में पशुओं के से जुड़े अधिकारियों ने बिना किसी विवाद में जेना का कहना है कि यदि आपको साँप प्रति प्रेम जागा है। हेमा मालिनी, मनीषा पड़े हल्के फाइबर के चाबुकों के इस्तेमाल का और घड़ियाल खूबसूरत और मासूम नहीं | कोईराला, अक्षय खन्ना, जैकी श्रॉफ आदि मन बना लिया है। इसी हफ्ते विभिन्न रेसिंग लगते तो कम से कम यह तो याद रखिये | लगभग दर्जन भर सितारों ने 'पेटा' नामक क्लबों के घुड़दौड़ अधिकारियों ने केन्द्रीय मंत्री । -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 1 फिल्मी सितारों में जगा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्ताक्षर से व्यक्त समर्थन wasakara ___ orha Jaye candra JANA 4 T2 V.NEL संस्था के उस ज्ञापन पर हस्तक्षर किए हैं जिनमें पशु के खिलाफ जारी अत्याचार पर रोक लगाने के लिये मौजूदा कानून को और कड़ा करने की मांग की गई है। 'पेटा' का कहना है कि मौजूदा कानून, जो 40 साल पहले पास किया गया था, उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया है तथा इसमें पशु पर अत्याचार के लिए बहुत ही कम सजा है। इस कानून के बारे में अभिनेत्री जूही चावला का कहना है कि मंत्री को इस कानून में मौजूदा स्थिति के अनुरूप परिवर्तन करना चाहिए तथा पशुओं को पर्याप्त संरक्षण दिया जाना चाहिए। ओमपुरी का कहना है कि मौजूदा कानून में संशोधन से पुलिस को पशुओं पर अत्याचार करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने का मौका मिलेगा। नवभारत, मुम्बई,7 जून 2001 से साभार nasson -- - Chaptoide - --- Handitan Awesompte Arad Akhtar भोपाल में यांत्रिक कत्लखाने का निर्माण स्थगित मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में नगर निगम द्वारा यांत्रिक कत्लखाना खोला जाना तय हुआ था। खबर लगते ही मांस निर्यात निरोध परिषद् के कार्यकर्ता श्रीपाल जैन 'दिवा' ने आर्यिका श्री पूर्णमती माताजी की चातुर्मास स्थापना के अवसर पर भाषण देते हुए कत्लगृह खोले जाने का घोर विरोध किया। माताजी ने भी अपने प्रवचन में एक जुट होकर विशाल रैली के द्वारा इसे रोकने की प्रेरणा दी। दिनांक 14 जुलाई को तिलवारा घाट में भी श्री विद्यासागर जी के समक्ष धर्मसभा में दिवा जी ने अपने विचार व्यक्त किये और कत्लखाना नहीं खुलने देने का निश्चय प्रकट कर आचार्यश्री से आशीर्वाद लिया। ___आर्यिका श्री पूर्णमती माता जी के सान्निध्य में समाज के प्रमुख लोगों की एक बैठक हुई जिसमें तय हुआ कि मुख्यमंत्री जी से पहले चर्चा की जाए, फिर ज्ञापनआन्दोलन की कार्यवाही की जाये। इस हेतु आनन्द तारण एवं अशोक जैन भाभा ने मुख्यमंत्री जी से चर्चा की। उनका रुख अनुकूल हआ। करीब 500 जैन बन्धुओं एवं जैनेतर अहिंसक समाज, जैसे आर्यसमाज, गायत्री शक्तिपीठ आदि ने मिलकर मुख्यमंत्री जी को ज्ञापन सौंपा। एक ज्ञापन महापौर श्रीमती विभा पटेल को भी दिया। श्रीमती विभा पटेल माताजी के दर्शन के लिये श्री दिगम्बर जैन मंदिर 3 बजे पधारी। माताजी ने देशना दी। महापौर के मन में भारी उथलपुथल मची। उन्होंने पार्षदों की बैठक बुलाई और तय किया कि यांत्रिक कत्लखाना भोपाल में अहिंसा वर्ष में नहीं खोला जावे। 4 घंटे कीबैठक के बाद रात्रि 9 बजे पुनः महापौर मंदिर आईं और माताजी को हर्षप्रद समाचार दिया कि आपकी भावना के अनुकूल यांत्रिक कत्लखाने का निर्माण स्थगित कर दिया गया है। इस हेतु श्री दिगम्बर जैन मंदिर समिति टिन शेड टी.टी. नगर,चातुर्मास व्यवस्था समिति एवं सकल जैन समाज ने मुख्यमंत्री जी एवं महापौर के प्रति आभार प्रकट किया। जैनमुनि के साथ अभद्र व्यवहार करने वाले युवकों की गिरफ्तारी की माँग सिलवानी (म.प्र.) में दिगम्बर जैन मुनि श्री विश्ववीरसागर जी महाराज के आहारचर्या के लिये जाते समय समुदाय विशेष के तीन युवक लट्ठ लेकर खड़े हो गये और मुनिश्री के साथ अभद्र व्यवहार किया। घटना की जानकारी मिलते ही दिगम्बर जैन समाज में रोष की लहर दौड़ गई। अखिल भारतवर्षीय दि. जैन महासमिति ने इस दुःखद घटना की निन्दा की है और म.प्र. के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर अपराधियों को अतिशीघ्र गिरफ्तार करने की माँग की है, ताकि कोई अप्रिय स्थिति उत्पन्न न हो। माणिकचंद जैन पाटनी राष्ट्रिय महामंत्री, दिगम्बर जैन महासमिति, इंदौर (म.प्र.) माण जैनं जयतु शासनम्। 2 जलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय बीसवीं शती के आद्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी का समाधि दिवस भाद्रपद शुक्ल द्वितीया स्व. आचार्य श्री शान्तिसागर जी | नामक छठवीं प्रतिमा में गृहस्थ को रात्रि में मौन धारण करने का वर्णन महाराज का समाधिदिवस है। वे बीसवीं सदी के आद्य आचार्य थे। | कया है। उस पर "श्रावक धर्मसंग्रह" में धर्मात्मा श्रावक सोधिया स्व. पं. सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर ने अपने 'चारित्रचक्रवर्ती' नामक ग्रन्थ दरयावसिंह जी लिखते हैं, "उसका भाव ऐसा भासता है कि भोजन, में लिखा है कि बीसवीं शती के आरम्भ होने तक सैकड़ों वर्षों से व्यापार आदि संबंधी विकथा न करे, धर्मचर्चा का निषेध नहीं।" (247 उत्तरभारत के श्रावकों को दिगम्बर जैन मुनियों के दर्शन का सौभाग्य पृष्ठ) आगम के प्रकाश में यह बात अतिरेकपूर्ण है। छठवीं प्रतिमावाला प्राप्त नहीं हुआ था। इसका खुलासा करते हुए वे लिखते हैं- स्वस्त्री सेवन द्वारा संतति तक उत्पन्न करता है, तब उसके विषय "शाहजहाँ बादशाह के समकालीन विद्वान् कवि बनारसीदासजी में रात्रि में मौन धारण करने का कथन आगम समर्थित नहीं है। के आत्मचरित्र 'अर्ध कथानक' से ज्ञात होता है कि साक्षात् दिगम्बर दौलतरामजी के क्रिया-कोष में पाँचवीं प्रतिमा में सचित्त-भक्षण-त्याग गुरु का दर्शन न होने के कारण वे अजानकारीवश विचित्र प्रवृत्ति में के स्थान में सचित्त-मात्र का त्याग मानकर गृहस्थ को सचित्त मिट्टी तत्पर थे। वे लिखते हैं कि चन्द्रभान, उदयकरण और थानसिंह नामक का स्पर्श न करने को कहा है। उसे मुनितुल्य मान वे पंखा भी हिलाने मित्रों के साथ अध्यात्म की चर्चा करते हुए एक कमरे में नग्न होकर | की अनुमति नहीं देते। उन्होंने लिखा है - फिरते थे और समझते थे कि हम निर्ग्रन्थ मुनिराज बन गये। यदि माटी हाथ धोयवे काज, सकल संयमधारी दिगम्बर मुनि का दर्शन हुआ होता तो वे नग्नमुनि लेय अचित्त दया के काज।।1871।। बनने का अद्भुत नाटक नहीं खेलते। मुनि पद में हिंसादि पापों का पवन करे न करावे सोय, सार्वकालिक परित्याग होता है, यह बात उनकी समझ में आई होती घट काया को पीहर होय।।1874।। तो वे कुछ समय दिगम्बर बन पश्चात् क्रीड़ा-कौतुक में कभी भी संलग्न __"गृहस्थों में मूलाचार के समान पूज्य माने जाने वाले क्रियन होते।" कोष में लिखा है कि छठवीं प्रतिमा में रात्रि के समय गमनागमन "जब वास्तविक सत्य रूप का दर्शन नहीं होता तब मनुष्य | नहीं करेकाल्पनिक जगत् में भ्रमण करता हुआ उपहासपूर्ण प्रवृत्ति करता है। गमनागमन सकल आरंभ, भूधरदासजी आदि प्राचीन हिन्दी के विद्वानों की रचनाओं के स्वाध्याय तजै रैन में नाँहि अचंभ ||1882।। से यही बात झलकती है कि उन मुनि-भक्त नर रत्नों के नेत्र जिनमुद्रा छट्टी प्रतिमाधारक सोई, धारी मुनि दर्शन के लिये सदा प्यासे ही रहे आये इसलिये वे अपनी दिवस नारि को परसत होई ।।1048।। रचना में चतुर्थकालीन वज्रवृषभसंहननधारी दिगम्बर गुरुओं की भक्ति रात्रि विषै अनशन व्रत धरै, करते हुए उनका ही इस काल में सद्भाव विचारा करते थे। चउ अहार को है परिहरै। दिवाकर जी आगे लिखते हैं कि "उत्तर भारत में मुनि दर्शन गमनागमन तजै निसि माँहि, होना असम्भव सरीखा समझा जाता था। इतना ही नहीं उच्च श्रावक मन वच तन दिन शील धराहिं 1049।। का जीवन व्यतीत करने वाली आत्मायें भी दृष्टिगोचर नहीं होती थीं। "इस प्रकार आज से लगभग तीन-चार सौ वर्ष पूर्व का उस समय चरित्र के समान ज्ञान की ज्योति भी अत्यंत क्षीण-सी | वातावरण तथा लोक धारणा को ध्यान में रखने पर मुनि जीवन की दिखती थी। जो तत्त्वार्थसूत्र तथा भक्तामरस्तोत्र का मूल पाठ कर | तो कथा ही निराली, प्रतिमाधारी श्रावक का पद कोई धारण कर सकेगा, लेता था वह आज के प्रकाण्ड पंडितों से अधिक सम्मान और श्रद्धा | यह अशक्य सोचा जाता था। यदि किसी ने सप्तम श्रावक के व्रत का पात्र समझा जाता था। उस समय धार्मिकता के रस से भींगे | धारण कर लिए, तो उस धर्ममूर्ति का दर्शन ऐसा ही धार्मिक लोगों अन्तःकरणवालों को भाईजी या भगतजी कहा जाता था। वे लोग | को हर्ष प्रदान करता था, जैसा कि पर्व काल में चारणादि ऋषिधारी सोचते थे कि आज का काल, व्रतादि, प्रतिमाओं का पूर्णतया पालन | मुनियों का दर्शन। ऐसे संयम के प्रति प्रोत्साहन-शून्य तथा कृत्रिम करने के भी प्रतिकूल है। इसलिये वे अपने पाप-भीरु मन द्वारा शास्त्रों जटिलताओं के कंटकों से पूर्ण वातावरण में महाव्रती बनने की बात से चुनी गयी बातों का अद्भुत संग्रह करके उसे जीवन का पथ-प्रदर्शक | को सभी लोग असंभव सदृश सोचते थे। ऐसी स्थिति में गुरुभक्त जानते थे।" गृहस्थ या तो विदेहभूमि में विराजमान साधु-समुदाय को परोक्ष ___ "उनमें अनेक बातें ऋषि-प्रणीत आगम से मेल नहीं खाती। | प्रणामांजलि अर्पित करता था या अपनी मनोभूमि में प्राचीन काल में उदाहरणार्थ दौलतरामजी ने अपने 'क्रिया-कोष' में रात्रि-भक्त-त्याग | हुए साधुओं को विराजमान करके बड़े भाव से पूजता था। इस समय -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम के प्रति भक्ति थी, ममता थी, किन्तु मन में भय का भाव भरा था, इससे संयम के पथ पर चलने की कल्पना भी कोई नहीं करता था । " विषय- लंपटतापूर्ण वातावरण "इस काल के पश्चात् नवीन वैज्ञानिक युग का आविर्भाव हुआ। इसने अपने संमोहन अस्त्रों, जलकल, वायुयान, रेल, मोटरों आदि के द्वारा लोगों को बहुत आश्चर्यप्रद इंद्रियपोषक सामग्री प्रदान की। लोग अधिक आमोद-प्रमोदप्रिय बन गए। अतः आचार-विचारों में अद्भुत शिथिलता का आविर्भाव हो गया। अब संयम का अनुराग भी नहीं दिखता है। संयमी को देखकर असंयमी समुदाय के मन में आदर का भाव नहीं जगता है। कारण उन असंयमी लोगों के आराध्य और वंदनीय लोग वे हैं, जो भोग, विषयलंपटता में सर्वोपरि बन रहे हैं। इससे आदर्श, सदाचार की बात चर्चा की वस्तु बन गई है। लोग यही कहने लगे हैं कि आचार में क्या धरा है? अपने विचार ठीक रखो यही सार की बात है आज शिथिलाचार में अपरिमित वृद्धि होने के कारण कौन सोच सकता था कि ऐसी भी कोई युगान्तर उत्पन्न करने वाली आत्मा होगी जो इस पंचम काल में चतुर्थकालीन महामुनि की उच्च तपस्या की स्मृति को साक्षात् रूप में दर्शन करायेगी। अविचलित शांति के सागर परीषहविजेता की कीर्ति का प्रसार "पुद्गल के विकास का वैभव बताने वाले विज्ञान के चमत्कार पूर्ण इस युग में (सन् 1953 से) लगभग 50 वर्ष पूर्व एक समाचार प्रकाश में आया था कि अपने आध्यात्मिक पवित्र जीवन में भव्यात्माओं के अंतःकरण में अपरिमित आनन्द की वर्षा करने वाली एक विलक्षण आत्मा दक्षिण प्रान्त में दिगम्बर जैन मुनिराज के रूप में विराजमान है। उनकी तपस्या सब को चकित करती है। वे मुनिराज किसी जंगल की गुफा में आत्मध्यान कर रहे थे कि एक नागराज ने उन पर उपसर्ग किया। वह उनके शरीर में ऐसे लिपट गया था मानो वह सचमुच में संतापहारी शान्तिदायी, सुवाससंपन्न चंदन का वृक्ष ही हो। वे मुनिराज सद्गुणों से अलंकृत थे। शान्ति के सागर थे। इससे उनकी आत्मा सर्पराज के लिपटने पर चंदन के समान अचल रही आयी। दो-तीन घंटे के बाद वह विषधर चला गया । " "यह दृश्य काल्पनिक अथवा पौराणिक नहीं है। इसे अनेक गृहस्थों ने अपने धर्मचक्षुओं से देखा था। मृत्यु के अत्यन्त विश्वस्त प्रतिनिधि सर्पराज की अग्निपरीक्षा में पूर्णतया उत्तीर्ण होनेवाले अविचलित धर्मधारी उन शान्ति के सागर महामुनि की कीर्ति और महिमा साधर्मी समुदाय ने अवर्णनीय आनन्द, प्रेम, भक्ति तथा ममतापूर्वक सुनी। लोग चकित हो उठे। प्रत्येक सहृदय इस भीषण पंचमकाल में चतुर्थकालीन दृश्य को नयनगोचर बनाने वाले उन तपोनिधि की मनोमंदिर में पूजा करने लगा।" चित्रदर्शन "जब उन निर्मन्थ गुरुदेव का वीतरागतापूर्ण दिगम्बर मुद्रामय चित्र प्रकाश में आया, तब सभी मानव अपने धर्म या सम्प्रदाय का मोह भुला उन श्रमणराज को बड़ी ममता से प्रमाण करते थे। उनकी 4 · जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित मुद्रा में अपार शांति थी। उनके रोम-रोम से वीतरागता का रस छलकता सा लगता था। वे सर्वपरिग्रहमुक्त, पूर्णतया स्वावलम्बी बन परिग्रह के पीछे पागल बननेवाले जनसमुदाय को अमर जीवन और सच्चे कल्याण का पथ बताते थे कि वैभव के विलास में फँसनेवाली आत्मा अपने विनाश की सामग्री एकत्रित करती है। जिसे अविनाशी आनन्द चाहिए, उसे अपरिग्रहवाद के प्रकाश में अपने अन्तःकरण को धोना चाहिए । उनका जीवन अहिंसामय था । मुनिराज के चित्र का प्रभाव " एक बार हमारे यहाँ उनके चित्र का दर्शन अनेक हिन्दू, मुस्लिम, पारसी आदि साक्षरों ने किया, तो उनकी आत्मा आश्चर्ययुक्त हो आनन्दविभोर हो गईं। सहृदय मुसलिम जागीरदार कह उठे, 'धन्य है ऐसी आत्मा को ।' उनके दिगम्बरत्व पर उन्होंने एक पद्य सुनाया तन की उरवानी से बेहतर है नहीं कोई निवास। यह वह जाता है कि जिसका नहीं उल्टा सीधा 'दिगम्बरत्व से बढ़कर और दूसरा कोई भी वेष नहीं है। यह वह पोशाक है, जिसमें सीधे या उल्टे का भेदभाव नहीं है। एक दूसरे तत्वप्रेमी भाई बोल उठे कि श्रेष्ठ और उच्च जीवन तो इन महात्मा का है, जिन्होंने अपनी इंद्रियों को जीता है। जिन्होंने व्याघ्र सर्प आदि भीषण जन्तुओं को मारा है, उन्होंने कोई बड़ा काम नहीं किया। सबसे बड़ा शैतान इन्द्रियों की लालसा है। जिसने इंद्रियों पर विजय प्राप्त की है, यथार्थ में वही व्यक्ति महान है। उससे बड़ा और कौन हो सकता है? पारे को मारकर सिद्ध रसायन बनाने वाले ने क्या बड़ा काम किया! यथार्थ में अपने अहंकार को जिसने मारा वही आत्मा श्रेष्ठ है। " ऋषिराज का दर्शन "कुछ वर्षों के पश्चात् उन ऋषिराज का साक्षात् दर्शन मिला, तब ज्ञात हुआ कि उनका असाधारण व्यक्तित्व पूर्णतया उनके निकट संपर्क में आने से ही समझा जा सकता है। उनकी समस्त क्रियाओं को देखकर प्रत्येक विवेकी विद्वान् यह अनुभव करता था कि वे इस पंचमकाल में चतुर्थ कालीन मुनियों के समान निर्दोष आचरण करते थे। वे ही चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के नाम से श्रमण संघ के शिरोमणि के रूप में विख्यात थे। " ( चारित्रचक्रवर्ती पृ.1-7) बीसवीं सदी के इन विश्वविश्रुत प्रथम आचार्य की जीवनयात्रा का संक्षिप्त दृश्य पूज्य मुनि श्री क्षमसागर जी ने 'श्रद्धा' नामक लघु पुस्तिका में उतारा है, साथ ही उनके उपदेशांशों (वचनामृत) का भी संग्रह किया है। इस महान व्यक्तित्व के गुणों की अष्टद्रव्यात्मक पूजा पूज्य मुनि योगसागर जी द्वारा रची गई है। यह सामग्री उनके समाधिदिवस के सन्दर्भ में 'जिनभाषित' में प्रस्तुत की जा रही है। अत्यधिक व्यस्तता के कारण जुलाई 2001 का अंक समय पर प्रकाशित करना हमारे लिये संभव नहीं हो पाया। इसलिये जुलाई और अगस्त दोनों महीनों का संयुक्तांक प्रकाशित करने के लिये बाध्य हुए हैं। इसके लिये कुछ पृष्ठों की वृद्धि भी की गई है। पाठक क्षमा करेंगे। रतनचन्द्र जैन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख आचार्यश्री शान्तिसागर : जीवन यात्रा एवं वचनामृत मुनि श्री क्षमासागर जीवन यात्रा में देवेन्द्रकीर्ति (देवप्पा-स्वामी) नामक दिगम्बर वन्दना की और अंत में नेत्रज्योति क्षीण होती मुनिराज के चरणों में जाकर आपने निम्रन्थ-दीक्षा जानकर कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर छत्तीस दिन कर्नाटक प्रान्त के बेलगाम जिले में अंगीकार करने की भावना व्यक्त की। तक सल्लेखना धारण करके समतापूर्वक देह येलगुल नाम का एक गाँव है। आपका जन्म मुनिराज देवप्पा स्वामी भोजग्राम में जब का परित्याग किया। इसी येलगुल ग्राम में अपने नानाजी के घर कभी एक-एक माह तक रहे आते थे, इसलिये कठोर तपस्या, निःस्पृह साधना और में हुआ। आपका बचपन का नाम सत्यगौड़ा आपकी धार्मिक-आस्था और दृढ़ता से अद्भुत आत्मनिष्ठा के बल पर आपने पूरे था। आपके पिता श्री भीमगौड़ा और माता श्री परिचित थे। उन्होंने आपको पहले क्षुल्लक का देश में दिगम्बर जैन मुनि की उज्ज्वल कीर्ति सत्यवती भोजग्राम के अत्यन्त प्रभावशाली व्रत ग्रहण करने की आज्ञा दी। गुरु आज्ञा से स्थापित की और विलुप्तप्राय दिगम्बर गुरु और वैभववान सद्गृहस्थ थे। घर-गृहस्थी में आपने सहर्ष क्षुल्लक-दीक्षा ग्रहण की। आपका परम्परा को पुनर्जीवित करके जैनशासन की रहकर भी आपके पिता का अधिकांश समय नाम शान्तिसागर रखा गया। महती प्रभावना की। संयमपूर्वक व्यतीत हुआ और अंत समय में एक बार श्रावकों का संघ सिद्धक्षेत्र वचनामृत उन्होंने सल्लेखनापूर्वक अपनी देह का गिरिनारजी की यात्रा के लिये जा रहा था। परित्याग किया। आपकी माता अत्यंत श्रावकों के निवेदन को स्वीकार करके आप गुणवती थीं। व्रत-नियम-संयम का पालन हिंसा आदि पापों का त्याग करना धर्म भी सभी के साथ गिरिनार-यात्रा को गए। करने में सदा तत्पर रहती थीं। आपके गर्भ है, इसके बिना विश्व में कभी शान्ति नहीं हो गिरिनार पर्वत पर पहुँचकर भगवान नेमिनाथ में आते ही माता को एक हजार आठ कमलों सकती। अहिंसा-धर्म का लोप होने पर सुख के चरण-चिन्हों को नमस्कार करके आपने के द्वारा भगवान जिनेन्द्र की पूजा करने का । और आनंद का लोप हो जाएगा। धर्म का अत्यंत वैराग्य-युक्त होकर मात्र कौपीन को आधार सब जीवों पर दया करना है। शुभ-भाव हुआ। तब कोल्हापुर के समीप रखकर शेष सब वस्त्रों का परित्याग कर दिया राज्यसंरक्षित सरोवर में से कमल मँगवाए | और एलक पद अंगीकार किया। गए और माता ने अत्यन्त भक्ति-भाव से इस अहिंसा धर्म ने हमें अवर्णनीय गिरिनार-यात्रा से लौटने के उपरान्त जिनेन्द्र भगवान की पूजा की। इस तरह एक | निराकुलता दी है। इससे हमें बड़ी शान्ति आपने यरनाल-ग्राम में होने वाले पंच-कल्याणक संस्कारवान धर्मनिष्ठ परिवार में आप जैसी मिली है। बाह्म-परिग्रह आदि से सुख पाने की के अवसर पर अपने दीक्षागुरु मुनिराज भव्यात्मा ने जन्म लेकर सभी का जीवन इच्छा करना भ्रम है। त्याग में ही सच्चा आनंद देवप्पा-स्वामी से मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। कृतार्थ कर दिया। मिलता है। उपवास आदि हमें इसलिये करते इसके चार वर्ष बाद समडोली में आपने श्री आपका विवाह नौ वर्ष की उम्र में एक हैं कि पूर्व में बाँधे गए कर्मों की निर्जरा हो वीरसागरजी एवं श्री नेमीसागर जी को मुनि सात वर्षीय कन्या के साथ कर दिया गया था। जाए। अग्नि के ताप के बना जैसे सुवर्ण शुद्ध दीक्षा दी और आचार्य-पद से अलंकृत हुए। विवाह के छह माह बाद ही उस कन्या का नहीं होता उसी प्रकार तपश्चरण के बिना संचित गजपंथा में पंचकल्याणक के शुभ-अवसर पर देहावसान हो गया। आपके माता-पिता ने कर्मों का नाश नहीं होता। अतः हम कर्मों की आपको चारित्र्यचक्रवर्ती पद से विभूषित पुनः विवाह करने का आग्रह किया पर आपने निर्जरा के लिय कायक्लेश आदि तप करते किया गया। आपके दीक्षागुरु मुनिराज देवप्पा विवाह करने से इंकार कर दिया और स्वामी ने आपकी शास्त्रानुकूल निर्दोष हैं। इससे हमें दुख नहीं होता। हमें बड़ा सुख सिद्धिसागर मुनिराज के समक्ष आजन्म और शांति मिलती है। मुनिचर्या देखकर आपसे पुनः मुनिदीक्षा ब्रह्मचर्य-व्रत धारण कर लिया। ग्रहण की इसलिए आप गुरूणां गुरु कहलाए। आप असाधारण शक्ति के धारक थे। परिग्रह के द्वारा मन में चंचलता, राग, आपने अपने चौरासी वर्ष के जीवन एक बार आप भोज ग्राम में पधारे मुनिराज द्वेष आदि विकार उत्पन्न होते हैं, जैसे पवन काल में सत्तावन वर्ष अन्न का त्याग किया को अपने कंधे पर बिठाकर वेदगंगा और के बहते रहने से दीपशिखा कंपनरहित नहीं और छत्तीस वर्ष के मुनि जीवन में पच्चीस दूधगंगा नाम की निदयों को सहज ही पार कर हो सकती है। पवन के आघात से समुद्र में वर्ष नौ माह उपवास किए। मुनि जीवन में गए थे। कर्त्तव्य मानकर घर गृहस्थी के कार्य लहरों की परम्परा उठती जाती है। पवन के आप उपसर्ग और परीषह-जय के समय करते हुए भी आप निःस्पृही रहे। सैंतीस वर्ष शान्त होते ही दीपक की लौ स्थिर हो जाती अत्यन्त दृढ़ और स्थिर रहे। समतापूर्वक की उम्र में पिता का देहावसान होते ही घर है। समुद्र प्रशान्त होजाता है। उसी प्रकार रागसहजता से सब सहन किया और सदा में रहकर भी आपने एक उपवास और एक द्वेष के कारणभूत धन, वैभव, कुटुम्ब आदि तपस्या में लीन रहे। दिन आहार करने का नियम ले लिया था। परिग्रह को छोड़ देने पर मन में चंचलता नहीं अनेक नगरों में विहार करके आपने एक दिन कर्नाटक-प्रान्त के उत्तूर ग्राम | लोक-कल्याण के कार्य किए। अनेक तीर्थों की रहती है। परिग्रह रहित निर्मल जीवन जीने से | मानसिक शान्ति मिलती है। -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म कहता है कि प्रत्येक आत्मा महावीर भगवान् के समान परमात्मा बन सकता है। संयमी बनकर स्वावलम्बी जीवन हुए प्रत्येक संसारी जीव निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। अकेले सम्यक्त्व के होते हुए भी जीव मोक्ष नहीं पाता है। ज्ञानकी स्थिति निराली है। वह तो गंगा गए गंगादास, जमुना गए जमुनादास के समान श्रद्धा के अनुसार अपना रंग बदलता है। वह ज्ञान सम्यक् श्रद्धा सहित सम्यग्ज्ञान हो जाता है और इसके अभाव में वही ज्ञान मिथ्या हो जाता है। इसलिये ज्ञान का भी मूल्य नहीं है। मूल्य है सम्यक्- चरित्र का । सम्यक् चरित्र होने पर नियम से मोक्ष होता है। धर्म का पालन कठिन है। यह ठीक है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि धर्म को बिल्कुल भुला दिया जाए। अगर पूर्ण रूप से उसका पालन नहीं होता है तो जितनी शक्ति है उतना पालन करो और जितना पालन करते हो उसे अच्छी तरह पालो । अकर्मण्य बनकर चुपचाप बैठना ठीक नहीं है और न स्वच्छंद बनने में ही भलाई है शक्ति को न छुपाकर धर्म का पालन करना प्रत्येक समझदार व्यक्ति का कर्त्तव्य है। हम व्यवहार धर्म का पालन करते हैं। भगवान का दर्शन करते हैं। अभिषेक देखते हैं। प्रतिक्रमण- प्रत्याख्यान करते हैं। सभी क्रियाओं का यथाविधि पालन करते है, किन्तु हमारी अंतरंग श्रद्धा निश्चय पर है। जिस समय जो भवितव्य है उसे कोई भी अन्यथा नहीं परिणमा सकेगा, किन्तु हमारा निश्चय का एकान्त नहीं है। दूसरों के दुःख दूर करने का विचार करुणावश होता है। धर्म पर अविचल श्रद्धा धारण करो । स्वाध्याय करो। यह स्वाध्याय परम तप है। शास्त्र के अभ्यास से आत्मा का कल्याण होता है। गरीब लोग शास्त्र नहीं खरीद सकते। उनको शास्त्र का दान करो। शास्त्रदान में महान पुण्य है। जिनेन्द्र भगवान की वाणी के द्वारा सम्यग्दर्शन का लाभ होता है। 6 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित आत्मा का चिंतन करो। आत्मचिंतन | द्वारा सम्यग्दर्शन होता है । सम्यक्त्व होने पर दर्शनमोह का अभाव होते हुए भी चरित्र मोहनीय कर्म बैठा रहता है। उसका क्षय करने के लिये संयम को धारण करना आवश्यक है। संयम से चारित्रमोहनीय कर्म नष्ट होगा। इस प्रकार सम्पूर्ण मोह के क्षय होने से अर्हन्तस्वरूप की प्राप्ति होती है। अरे! क्या देखते हो? व्रत पालोगे, तो स्वर्ग में तुम हमारे साथी रहोगे। वहाँ भी वर्षायोग प्रतिष्ठापन मिलते रहोगे। हमें वहाँ अच्छा साथी चाहिए। देखो, अभी हम तुमको आग्रह करते हैं। स्मरण रखो, आगे फिर शान्तिसागर तुमको कहने नहीं आनेवाला है। स्वर्ग में जाकर वहाँ से विदेह में पहुँचकर सीमंधर स्वामी के प्रत्यक्ष दर्शन कर सकोगे। उनकी दिव्य ध्वनि सुन सकोगे। नंदीश्वर आदि के अकृत्रिम जिनबिम्बों के दर्शन कर सकोगे। इससे तुमको सम्यक्त्व मिल जाएगा। वहाँ से विदेह में उत्पन्न होकर मोक्ष जा सकोगे। सोचो। एक बार फिर से सोचो । संयम धारण करो । आचार्य श्री विद्यासागर जी जबलपुर, 5 जुलाई। तिलवारा स्थित दयोदय जीव संरक्षण एवं प्रायवरण केन्द्र गोशाला में आज उत्सव सा माहौल था। हर श्रद्धालु का चेहरा खिला-खिला नजर आ रहा था। मंत्रों के स्वर हवा में घुल रहे थे। खचाखच भीड़ में हर निगाह मंचासीन आचार्य विद्यासागर जी व मुनिसंघ को निहार रही थी यहाँ आज आचार्यश्री ने अपने संघ सहित वर्षांवास योग (चातुर्मास ) धारण किया। चातुर्मास प्रारंभ होने के पूर्व महाराज श्री के सान्निध्य में प्रातः 9 बजे गोशाला में जिनालय की स्थापना हुई कलश स्थापना का सौभाग्य इंदौर निवासी अर्पित कुमार, निर्मल पाटोदी को प्राप्त हुआ। स्वास्थ्य कलश राजेश जैन, जीव रक्षा कलश कुमार कमलेश जैन कक्का ने स्थापित किया। इसी क्रम में कैलाश चन्द्र जैन चावल ने आचार्यश्री को शास्त्र प्रदान किए। उदयचंद वीरेन्द्र कुमार एवं सुंदरलाल जैन ने आचार्य ज्ञानसागर जी एवं कुंडलपुर के बड़े बाबा के चित्र का अनावरण किया। दीप प्रज्वलन महेन्द्र कुमार, अरविन्द कुमार, राजकुमार एवं अशोक कुमार जैन द्वारा किया गया। आरती कमल अग्रवाल एवं अरुणा अग्रवाल के संयोजन में हुई । आचार्यश्री के पिसनहारी मढ़िया से दयोदय गोशाला पहुँचने के पूर्व ही यहाँ भक्तों का जमावड़ा लग गया। चातुर्मास स्थापना के बाद आचार्यश्री ने अपने उद्बोधन में कहा कि जहाँ अहिंसा नहीं है वह तीर्थ हो ही नहीं सकता। उन्होंने कहा कि दया मनुष्य का आभूषण है और मोह दया के लिए व्यवधान है। मोह से बचने के साथ धर्मकार्यों में मुक्तहस्त से दान करना चाहिए। उन्होंने दयोदय गशाला को पशुसेवा के लिये एक माध्यम निरूपित करते हुए सभी से प्राणियों पर दया करने का आग्रह किया। आचार्यश्री ने कहा कि नर्मदा के पावन तट पर बनी यह गोशाला भी सेवाभाव से पवित्र हो जाएगी। आचार्यश्री ने कहा कि मैं भेड़ाघाट से सीधे चातुर्मास हेतु दयोदय गोशाला आ सकता था लेकिन पिसनहारी की मढ़िया में इसलिये रुका कि क्षेत्रपाल संतुष्ट हो जाएँ। आचार्यश्री ने मध्यप्रदेश शासन द्वारा जैन संप्रदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने की पहल पर पात्रजनों से उसका समुचित लाभ लेने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में इस सुविधा का सदुपयोग होना चाहिए। स्वजिल सपन जैन, बाकल Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री शान्तिसागर जी की पूजा मुनि श्री योगसागर (वसन्ततिलका छन्द) हे राग-द्वेष मद मोह विषापहारी, अन्वर्थ नाम तव अद्भुत कार्यकारी । आनन्द पंकज विकासक भानुरूप, श्री शान्तिसागर गुरु शिव के स्वरूप ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरजीमुनीन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरजीमुनीन्द्र अत्र तिष्ठतिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरजीमुनीन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भववषट्। आचार्य देव भवसागर से तिरा दो, या जन्म मृत्यु अघ को जड़ से मिटा दो। हे वीर काल यम को वश में किया है, आश्चर्य क्या सहज है न विलम्बता है ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । संतप्तमान मम जीवन है सदा से, कोई न शीतल पदार्थ मिला कहीं से । जो आपके चरण-पंकज धूल से मैं, पाया अपूर्व वर शान्ति सुधा सदा मैं | ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । भोगोपभोग तज के जिनलिंग धारे, वैराग्य दुदंर लिया भव को निवारे शुद्धोपयोग परमोत्तम ध्यान द्वारा, आत्मीय अक्षय निजातम पेय प्यारा ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। काला भुजंग सम काम डसा हुआ है, ऐसा प्रभाव सब मूर्च्छित विश्व ही है। जो सर्व संग तज संयम को वरा है, ब्रह्मात्म में सहज ही रमते सदा हैं। ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। अध्यात्म के रसिक हैं समता जगी है, जो भूख प्यास जिनको न सता रही है। पकवान जो सरस थाल चढ़ा रहा हूँ, मेरी क्षुधा विलय हो निज को निहा ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्त्वदीप यह ज्ञात करा रहा है, तेरी अनादि अविवेक विलीनता है। अज्ञाननाशक गुरो तुमको मिले हैं, ऐसी घड़ी सुलभ ही मिलती नहीं है। ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेच्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ज्यों धूप गन्धमय पावक में जलाते, त्यों आप कर्म अघ को तप से जलाते । हे अन्तरंग बहिरंग प्रशान्त मूर्ति, हो धर्म में मम सदा समकीत स्फूर्ति ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । संसार में फल अनेक हमें दिखाते, ये राग-द्वेषद्वय संसृति में भ्रमाते । त्रैलोक्य में विदित है फल मोक्ष सच्चा, ओ प्राप्त हो मम गुरो सुखधाम अच्छा ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। श्रद्धा समेत तव पूजन जो करेगा, मानो अनन्त भव के अघ को हरेगा। पावित्र्य मंगलमयी वसु द्रव्य लेके, पूजो सभी परिविशुद्ध सुभाव ले के, ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्थ निर्वपामीति स्वाहा | दोहा महासन्त की साधना, लोकोत्तर विख्यात । जिनके नाम स्मरण से, जीवन बने प्रभात ॥ जयमाला नाना प्रकार तप दुर्द्धर धारते थे, वे धैर्यवन्त उपसर्ग-जयी बने थे। आये अनेक पथ जीवन में प्रसंग, तो भी कभी न डिगती समता अभंग ॥1 ॥ या पुण्य सातिशय कारक सन्त जी में, सौगन्ध पुष्प समकीर्ति यहँ दिशी में। रक्षाकरी श्रमण संघ परम्परा की, निर्ग्रन्थ पंथ जय घोषित है सदा ही ॥ 2 ॥ सौभाग्य है उदय पंचम काल में भी, चर्चा रही सतयुगी बलहीन में भी। थी सिंहवृत्ति मुनिजीवन में सदा ही, शैथिल्य का न लवलेश दिखे कहीं भी ॥3 ॥ निर्द्वन्द्व निःस्पृह विरक्त निजात्मवेत्ता, चारित्र चक्र परमोत्तम कर्म भेत्ता । त्रैरत्न उज्जवल प्रभा मुख पै दिखाती, भक्तात्म के तिमिर को उर की मिटाती ॥ 4 ॥ तेरी कृपा वरदहस्त परोपकारी, जो नाम के स्मरण संकट को निवारी | अर्चा करो स्तवन वन्दन कीर्ति गाओ, जो पादपद्म-द्वय को उर में बिठाओ ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये महा निर्वपामीति स्वाहा | दोहा महाविषम कलिकाय में गुरु तो सुरतरु जान जिनके पाद सरोज में, बनते सभी महान । • जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्गी के लिए चिन्ता नहीं, चिन्तन आवश्यक आचार्य श्री विद्यासागर मोक्षमार्ग पर आरूढ़ हुए मोक्षमार्गी के संकेत को अनुभूति का विषय बनाकर इतने लिये चिन्ता नहीं, चिन्तन की आवश्यकता कोनी जी में 25 जून 2001 को | बड़े भार को उठा लिया है। होती है। संसारमार्ग मोक्षमार्ग से विपरीत होता | आचार्यश्री का 34वाँ मुनिदीक्षादिवस एक बार महाराज ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ है। संसार मार्ग में चिन्ता की मुख्यता होती मनाया गया। उस अवसर पर आचार्यश्री | का स्वाध्याय कराते समय कहा था - पाँचवें है। मुमुक्षु तो अपने हित के बारे में सोचता | द्वारा दिया गया प्रवचन। अध्याय के परस्परोप ग्रहोजीवानाम् को है, चिन्तन करता है। दीक्षित होने का अर्थ है समझाते हुए कहा था- परस्पर में एक दूसरे संकल्पबद्ध होना। आज गुरुदेव ने हम पर वह के उपकार की बात को भी नहीं भूलना चाहिए। उपकार किया। गुरुमहाराज ने जो संकेत दिये हैं, दिशाबोध हमारे लिये | जैसे मुनीम पर मालिक का बड़ा उपकार रहता है, वैसे ही मालिक दिए उनके अनुसार आज चल रहा हूँ। उनकी असीम कृपा से हमारे पर मुनीम का भी उपकार, मालिक के अनुसार काम करने से होता मोह का भार उतर गया, इसका मैं आभार मानता हूँ। मैं सदा सोचता | है। वैसे गुरु का उपकार शिष्य के ऊपर तो है ही लेकिन शिष्य का हूँ कहीं वह दुबारा न चढ़ जाये। मैं इतने बड़े संघ का भार कैसे धारण | गुरु के ऊपर कैसे उपकार होता है? तो कहा था- गुरु की आज्ञा, आगम करूँगा? यह बात मैंने उनके समक्ष कही थी, तो उन्होंने कहा था - की आज्ञा के अनुसार चलना भी सबसे बड़ा उपकार है। यह बात अपना शरीर कभी भार नहीं होता है, यदि शरीर स्वस्थ और नीरोग | हमें संकेत के रूप में उस समय मिली थी। और कहा था अपने आपको है तो वह शरीर कितना भी बड़ा हो सहज रूप में सब कुछ होता | नहीं भूलनारहता है। लेकिन शरीर भले ही दुबला पतला है, यदि अस्वस्थ रहता कोऽहं कीदृग्गुण:क्वत्यः किम्प्राप्यः किन्निमित्तकः। है उसे भी चलने में तकलीफ होती है, भारमय दिखता है। बस उनका इत्यूहः प्रत्यहं नोचेदस्थाने हि मतिर्भवेत्।। संकेत समझ गया उसी के सहारे चल रहा है। संसार मार्ग में ऐसा (क्षत्रचूडामणि) ही होता है, जब अन्य पदार्थ को उठाते हैं तो भारमय अनुभव होता मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? इसको भूलना नहीं। कहाँ से है, लेकिन जब एकदम अकेले हो जाता है तो आये हैं, और किसलिये आये, इसको भूलना भार रहित व्यक्ति हो जाता है। यह सब गुरुदेव नहीं है। हम आज इन महाराजों (मुनिगणों को की कृपा एवं आशीष है, जो इतने बड़े संघ का संकेत करते हुए) से कहना चाहते हैं- आपने जो निर्वाह सहज रूप से हो रहा है। माँगा था, हमने दे दिया, अब इसे भूलना नहीं एक लेखक होता है, वह लिखता है। वह है। अब भीतरी श्रामण्य का क्या स्वरूप है? उस ओर नहीं देखता कि इतना सारा लिख उसको समझना है। यह वह दुकान है जिससे लिया, वह तो यह सोचता है कि अभी कितना इधर-उधर की चीजों का व्यापार नहीं किया जाता और लिखना है। अपने लक्ष्य की ओर उसकी है। शुद्धोपयोगरूपी हीरे जवाहारात का व्यापार दृष्टि रहती है। समय के अनुसार हमें आगे बढ़ना किया जाता है। करोड़पति कौन बनता है? ज्वार, है, आगे बढ़ने में बाधा नहीं आये उस ओर दृष्टि बाजरा बेचने वाला नहीं बनता, हीरे जवाहारात रखना है, अपना रास्ता प्रशस्त करते जाना है। का व्यापार करने वाला बन सकता है। श्रमणों जैसे नदी कभी नहीं सोचती कि आगे पहाड़ है, के लए हीरे जवाहारातरूपी शुद्धोपयोग का अब कैसे होगा? वह तो आगे बढ़ती जाती है, व्यापार करना चाहिए। आत्मानुभूति हीरे-मोती और उस पहाड़ को काटकर आगे बढ़ जाती है। वह नदी अपने निर्धारित | की बात है। ऐसी दुकान से इधर-उधर की बात नहीं होना चाहिए। लक्ष्य को कभी नहीं भूलती और चली जाती है। वैसे ही हमें महाराज | इसके लिये विज्ञापन आदि देकर प्रचार आदि करने की, अनाज आदि (आ.श्री ज्ञानसागरजी) ने कुछ ऐसी युक्तियाँ दी, उनके माध्यम से | की तरह नमूना दिखाने की जरूरत नहीं होती है। बहुत लोग दिन काटने ये भार क्या, इससे बड़ा भार भी उठा सकते हैं। जैसे गाँव के बाहर | में लगे हैं। दिन नहीं कर्म काटने की बात करना है। इस मार्ग में सिंहवृत्ति जो चुंगी नाका होता है, जो बहुत भारी है, लेकिन युक्ति के साथ के साथ चला जाता है। श्वानवृत्ति से इस मार्ग पर नहीं चला जाता उसे लगाया जाता है, जैसे ही कोई वाहन आता है, एक दुबला-पतला | है। जैसे श्वान को कोई लाठी मारता है तो वह लाठी को काटता है, आदमी भी उसे नीचे झुका देता है। वाहन रुक जाता है, टेक्स देने | लेकिन सिंह को कोई मारता है तो सिंह मारने वाले के ऊपर प्रहार पर ऊपर उठा देता है। ऐसा ही युक्तियों का वरद हस्तभरा आशीष करता है। हमें निमित्त के ऊपर नहीं कर्मों के ऊपर प्रहार करना है। हमें मिला है। वरदहस्त का अर्थ ये नहीं कि उनके हाथ के नीचे बैठो | अपने कर्मों को चूर-चूर करना है। हम अपने परिणामों को देखेंगे तो रहो। उन्होंने जैसा कहा वैसा करता गया। वे (आ. श्री ज्ञानसागरजी) | कर्म चूर-चूर कर सकते हैं। ज्यादा बोलते नहीं थे, कम बोलते, लेकिन नपातुला सारभूत बोला महाराज जी (आ. श्री ज्ञानसागरजी) की वृत्ति इतनी वृद्धावस्था करते थे। उनका प्रत्येक संकेत अनुभूतिपरक हुआ करता था। उनके | में एकदम शान्त एवं आत्मानुभूति से जुड़ी हुई थी। प्रत्येक चर्चा में 8 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागृति रहती थी। हम उनके पास जाते थे, उनके पास रहते-रहते हमारी भी वैसी ही शान्त वृत्ति हो जाती थी। आचार्य कुन्दकुन्द, अकलंक देव आदि का परिचय हमें उनसे मिलता रहता था। वीतरागता उनकी दृष्टि में बनी रहती थी। ऐसे वीतरागी गुरुओं के चरणों के अनुसार चलते चले जायें तो हमारी वृत्ति शान्त बन जाती है। महाराज ने कहा था - अपने आपको लघु भी समझो और गुरु भी समझो, अपने आपको देखने की बात को याद रखो जब हम दूसरे को देखते हैं तो अपने आपको लघु समझो चार बातें कुन्दकुन्द महाराज ने मोक्षमार्गी को याद रखने के लिये कही है उववरणं जिणमरगे, लिंग जहजादस्वमिदि भणिदं । गुरुवयणं विय विणओ, सुतज्झणं च णिहि ॥ प्रवचनसार गा. 225 ।। यथाजात रूप लिंग, जिनमार्ग में उपकरण कहा गया है। गुरु के वचन, सूत्रों का अध्ययन और विनय भी उपकरण कहे गये हैं। अपने गुरुमहाराज ने हमें इन्हें याद रखने को कहा। गुरुमहाराज (ज्ञानसागरजी) की काया का हमारे बीच से अभाव हो सकता है, लेकिन उनके दिये गये सूत्र तो आज भी हमारे पास हैं। ये गुरुमंत्र रूप संकेत है, उनके सहारे ही आज हम चल रहे हैं। जैसे बेटरी को चार्ज करा देते हैं, तो वह काम करने लगती है, प्रकाश मिलने लगता है वैसे ही गुरुओं के वाक्य याद करने से हमें सही दिशाबोधरूपी प्रकाश मिल जाता है। काल कभी जाता नहीं है, वह तो सदा रहता है। आने-जाने का काम तो लगा रहता है, यह सब काल का परिणमन है। उसको जानना है, पहचानना है। काल को पहचानने की आवश्यकता नहीं है। जब हम अजर-अमर हैं तो हमें काल को जानने की आवश्यकता नहीं है, उसमें जो परिणमन हो रहा है उसको जानकर अपने आपको जानने की आवश्यकता है। साधुत्व के साथ जो निजानुभव की अनुभूति है। वर्षायोग प्रतिष्ठापन मेरठ। 4.7.2001 को दोपहर में सराकोद्धारक परम पूज्य उपाध्याय 108 श्री ज्ञान सागर जी महाराज, मुनि श्री वैराग्य सागरजी | महाराज एवं क्षु. श्री सम्यक्त्व सागर जी महाराज के वर्षायोग का | स्थापना समारोह का शुभारम्भ श्रीमती सपना जैन के मंगलाचरण से हुआ। गुरुभक्ति का दीप प्रज्वलित करते हुए इसी कड़ी में श्रीमती | पूनम जी एवं बहिन मोनिका जी ने भजन प्रस्तुत कर सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। ब्र जय कुमार निशान्त (टीकमगढ़) ने वर्षायोग का महत्त्व बताते हुए कहा कि वर्षायोग की पावन बेला अध्यात्म की यात्रा कराने में, अन्धकार से प्रकाश की ओर आने में माध्यम बनती है। साधु सन्तों के समागम से जीने की कला आ जाती है। पश्चात् ध्वजारोहण, दीप प्रज्वलन, शास्त्रभेंट, आरती तथा मंगल कलश की बोलियों का कार्य सम्पन्न हुआ। श्री सुनील शास्त्री ने ज्ञान की महिमा बताते हुए कहा कि परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद तथा सराकोद्धारक परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञान सागर जी महाराज की प्रेरणा से जम्बू स्वामी निर्वाण स्थली चौरासी मथुरा की पावन धरा पर जैन धर्म की शिक्षा के लिए श्रमण ज्ञान भारती संस्था की स्थापना की गयी है जिसका शुभ आरम्भ 11 जुलाई 2001 को होने जा रहा है। उसमें 15 विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जायेगा। वह आचार्य, उपाध्याय पद के साथ नहीं होती । दिगम्बरत्व की अपेक्षा से तीनों एक हैं, वीतरागता तीनों के पास है। व्यापक रूप में यदि है तो साधु ही होता है। अरहन्त परमेष्ठी जो हैं वे भी अपने सारे समवशरण आदि के वैभव को छोड़कर साधुत्व को स्वीकार करके मुक्तिश्री को प्राप्त करते हैं। यानि जीवन का उपसंहार इस साधुत्व के साथ ही हुआ करता है। हम अपना दीक्षा दिवस क्यों मनायें ? ये तो आप लोग इस प्रकार के समारोह करके मना रहे हैं। मैं तो सोच रहा था आज मुझे बोलना नहीं पड़ेगा। मैं तो अपने अनुसार दीक्षा दिवस मनाता । दीक्षा दिवस का अर्थ संकल्पदिवस है। इस दिवस के माध्यम से अपने आपके संकल्प को दृढ़ बनाया जाता है। इसके लिये ही दीक्षादिवस मनाया जाता है। हम इस प्रकार दिवसों के माध्यम से समता की साधना को बढ़ाते जायें। समता के अभाव में श्रमण अपने आपको भूल जाता है। समता तो श्रमण का भूषण है। सम्मान, अपमान को भूलकर अपने आपको जानना श्रमण का लक्षण है। इसलिये कुन्दकुन्द महाराज ने प्रवचनसार चूलिका अधिकार में लिखा हैसमसत्तुबंधुवग्गो, समसुदुक्खो पसंसदिसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ 249 ।। अर्थात् जो शत्रु और बन्धु वर्ग को समान दृष्टि से देखता है, सुख और दुख में समान भाव रखता है, प्रशंसा और निन्दा में समता भाव रखता है, और पत्थर और स्वर्ण को समान दृष्टि से देखता है, और जीवन मरण के प्रति जिसको समता है वह श्रमण है। आप लोगों को समय को याद रखना है, उसका सदुपयोग करना चाहिए। इन तिथियों के माध्यम से अपने आपका भान होता रहे कि मैं साधु हूँ। अपने आपका अनुभव करते जायें। णमो लोए सव्वसाहूणं... प्रस्तुति : मुनि श्री अजितसागर उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने कहा कि वर्षायोग का समय हम सभी को परपदार्थों से दृष्टि मोड़कर अपने आपसे दृष्टि जोड़ने में माध्यम बनता है। वर्षाऋतु के दिनों में चारों ओर हरियाली छा जाती है। जीव राशि की बहुलता हो जाती है। ऐसे समय साधु-सन्त चार माह एक स्थान पर रहकर आत्म-साधना करते हैं, श्रावकों का भी सीजन मन्दा रहता है, इस कारण श्रावक भी साधु सन्तों के द्वारा धर्म का लाभ लेते हैं। आप सभी वर्षायोग की बेला में संगठित उत्साहित होकर कार्य करें, कार्यकर्ताओं को इस बेला में समता का परिचय देकर मेरठ महानगर के गौरव को महान बनाये | रखना है। आने वाला प्रत्येक अतिथि आपके व्यवहार की जन-जन के सामने चर्चा करे। यह वर्षायोग जैन बोर्डिंग हाउस, वीरनगर, कचहरी रोड़, कमलानगर में नहीं हो रहा है, बल्कि यह मेरठ महानगर में हो रहा है। परस्पर के भेद भाव 'को' 'भुलाकर एकता के सूत्र में बँधकर कार्य करें। चारों दिशाओं में 20-20 कि.मी. की मर्यादा करते हुए उपाध्याय श्री ने कहा कि आज से हम सभी दीपावली तक के लिए बन्धन में बँध रहे हैं। चातुर्मास स्थापना की क्रियाओं के पश्चात् बाजों की ध्वनि के साथ श्रीचन्द्र जी के कर कमलों द्वारा मंदिर में मंगलकलश स्थापित किया गया। हंस कुमार जैन, वैभव कैरियर्स, प्रथम तल, 247, दिल्ली रोड, मेरठ • जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्मिक और धर्मात्मा : दो भिन्न व्यक्तित्व मुनि श्री समतासागर टीकमगढ में दिये गये रविवारीय प्रवचन का अंश श्रद्धा ऐसी होती है, भावना व भक्ति | डगमगा जाये, देशभक्ति डगमगा जाये तो | और न ही जी सकेगा। जिस व्यक्ति ने धर्म ऐसी होती है, जहाँ समर्पण हो, जहाँ सेवा हो। | देश का काम नहीं चल सकता। यदि देश में | के मूल स्वरूप को अपने जीवन में उतार भक्ति और श्रद्धा की कोई जाति-पाति नहीं | धार्मिक वातावरण है, यदि लोग शांतिपूर्वक | लिया, संसार की कोई प्रतिकूलता उसका कुछ होती, कोई वर्ग भेद नहीं होता, जो भी श्रद्धा | रह रहे हैं और धर्म कर रहे हैं तो यह मानिये | नहीं कर सकती। जिसने धर्म का आश्रय को धारण करता है उसी की प्यास लिया, बड़ी से बड़ी बाधाएँ उसका कुछ बुझती है। वही संतृप्त होता है। सच्ची नहीं कर सकती। इसलिये सम्पन्न जीवन श्रद्धा को अपनाकर ही व्यक्ति धर्म से जीने के लिये धर्म का आलम्बन बहुत जुड़ सकता है। जब तक सच्ची श्रद्धा, जरूरी है। सच्ची आस्था धर्म के प्रति नहीं होगी जिस व्यक्ति के जीवन में धर्म तब तक आत्मा का कल्याण संभव स्थान पा लेता है उस व्यक्ति के जीवन नहीं है। श्रद्धा तो जल के समान है। जल का वृत्त बदल जाता है। संसार की कोई ने कभी भेदभाव नहीं किया कि हम भी प्रतिकूलता वहाँ नहीं रहती। धर्म वहाँ गरीब की या अमीर की प्यास बुझायेंगे है जहाँ अधर्म नहीं है। चोरी अधर्म है, कि हम मनुष्य की या पशु पक्षियों की हिंसा अधर्म है, झूठ अधर्म है तो करुणा, ही प्यास बुझायेंगे। जल को तो जिन्होंने दया, प्रेम, वात्सल्य, कर्तव्य और श्रद्धा पिया उसी की प्यास समाप्त हुई। जल धर्म हैं। यदि हमारे जीवन में करुणा, तो सब की प्यास बुझाने के लिये है। दया, प्रेम, कर्तव्य, श्रद्धा का अंश मात्र इसीलिए आचार्य ने कहा है कि सच्ची भी है तो उसकी झलक हमारे व्यवहार श्रद्धा से जिन्होंने भी धर्म का आश्रय में दिखाई अवश्य पड़ेगी। इसलिये दया, लिया, धर्म ने उन सभी प्राणियों की करुणा आदिभाव हमारे जीवन में जब प्यास बुझाई है। धर्म तो सूर्य के प्रकाश तक नहीं आते, तब तक धर्म को की तरह है कि यदि आप दरवाजे और पहचानना बहुत कठिन है। और जब तक खिड़कियाँ बंद भी करलें तो भी सूर्य उजाले | कि कानूनी व्यवस्था ठीक है। देश की सीमाएँ | धर्म को नहीं पहचानोगे तब तक जीवन का को उस घर में जरूर भेजता है। धर्म तो उस | सुरक्षित हैं तो धार्मिक आयोजनों का छठवाँ | रूपांतरण बहुत कठिन है। जिसने धर्म के उद्यान के समान है जिसमें सभी प्रकार के पुष्प हिस्सा राजा के खाते में जाता है। वैभव के स्वरूप को नहीं समझा उसका जीवन व्यर्थ पुष्पित हो रहे हैं, लेकिन सुगन्ध किस पुष्प महल बहुत दिनों तक नहीं टिकते, रघुवीर की है। धार्मिक और धर्मात्मा दो प्रकार के व्यक्ति की है यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। गंध | कुटिया तो शाश्वत है क्योंकि वहाँ श्रद्धा का | होते हैं। धार्मिक होना अत्यंत सरल है। धार्मिक पर किसी एक फूल का अधिकार नहीं माना धर्म है। श्रद्धा के वशीभत हो श्रीराम ने शबरी | होने का मतलब धर्म की प्रक्रिया करना है। जा सकता। सुगंध कभी बँट नहीं सकती। | के बेर खाये। श्रद्धा की खातिर ही चन्दन बाला | धर्मात्मा होना बहुत कठिन है, क्योंकि धर्म पानी और प्रकाश कभी बँट नहीं सकते और की रक्षा हई। वैभव के महल तो खण्डहर में | को अपनी आत्मा में बसा लेना ही धर्मात्मा यही धर्म की पहचान है कि धर्म कभी बँटता बदल गये पर आस्था/श्रद्धा के बल पर धर्म की पहचान है। इसलिये आप धार्मिक होने को नहीं है। धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा की सौंधी की कुटिया सम्पूर्ण देश में जगमगा रही है। अपने जीवन की उपलब्धि मान लेने की भूल सुगंध ही सम्पूर्ण मानव समाज का कल्याण | इसलिये हे मानव श्रद्धावान बनो, तभी मत करना। जब तक धर्मात्मा के गुण अपने कर सकती है। रोशनी जहाँ भी जायेगी प्रकाश | तुम्हारा कल्याण संभव है। जीवन में न आ जायें, तब तक लोक में तो फैलायेगी। देश की खुशहाली के लिये सैनिक, दुनिया के लोग अपने जीवन को बगैर | प्रतिष्ठा मिल सकती है, परलोक में प्रतिष्ठा अनाज एवं राष्ट्र के प्रति सच्ची आस्था का मूल्यों के खराब करना चाहते हैं, लेकिन वह | प्राप्त नहीं हो सकती है। इसलिय धर्मात्मा ही होना बहुत जरूरी है। इन तीनों में से अनाज नहीं जानते कि धर्म वह आधार है, वह | बनो, तभी आत्मा का कल्याण संभव है। और सैनिक की कमी भी पड़ जाये तो कोई बुनियाद है जिस पर अपने जीवन के महल | धार्मिक की सुगंध तो कागज की फूल की तरह बात नहीं, इनकी कमी से भी काम चल को खड़ा कर सकते हो। धर्म के अभाव में | होती है, धर्मात्मा की सुगंध डाल के फूल की सकता है। परन्तु राष्ट्र के प्रति यदि आस्था | न तो कोई व्यक्ति संसार में जी सकता है | तरह होती है। पा हाता है। प्रस्तुति : अखिलेश सतभैया 10 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाखों घर बर्बाद हुए इस दहेज की होली में | टीकमगढ़ में दिये गये प्रवचन का अंश । मुनि श्री प्रमाणसागर आज समाज में दहेज की समस्या । में अग्रिम पंक्ति में बैठते हैं वे जब दहेज की । स्वाभिमान, सम्मान क्या मर चुका है या तुम्हें बहुत विकराल हो गई है जो आज हमारी बात आती है तो लाखों माँगने में नहीं चूकते। | अपने बाजुओं पर दो वक्त की रोटी कमाने संस्कृति के लिये अभिशाप बन गई है। दहेज जैसे लड़के का विवाह नहीं कोई व्यापार हो | का भरोसा नहीं रहा? आज नारी जाति के घट की शुरुआत मध्य युग में हुई, उस समय 12 | गया हो। लड़की के सुन्दर होने का आधार | रहे सम्मान को यदि कोई रोक सकता है तो से 14 वर्ष तक की कन्याओं की शादी होती आज नोट बन गये हैं, नोटों का बण्डल यदि | केवल युवा। क्यों हो रहा है नारी जाति का थी। इससे बड़ी उम्र की कन्या से कोई विवाह भारी है तो कन्याएँ योग्य व सुन्दर हो जाती इतना अवमूल्यन, क्यों आपकी बहिन और नहीं करता था और यदि कन्या की उम्र 15 हैं। आज जैन समाज भी इस पतन के मार्ग बेटियाँ अपमान का घूट पी रही हैं? इसके पीछे वर्ष से ऊपर हो जाती तो ब्रह्महत्या का पाप पर अग्रसर है, बहुत सी ऐसी कन्याएँ हैं जिन्हें | जितना उत्तरदायी पुरुष वर्ग है उससे कहीं कन्या के पिता को लगता था। इस धर्म की शादी के बाद भी दहेज की लिप्सा में मायके ज्यादा महिला वर्ग जिम्मेदार है। मुनिश्री ने आड़ में शीघ्र कन्या का विवाह हो जाये इस (पीहर) छोड़ दिया जाता है। जरा सोचो, | कहा कि स्टोव फटने से बहुएँ जलती सुनी हेतु कन्या के पिता अधिक धन देकर योग्य विचार करो, दुल्हन से बड़ा भी कोई दहेज | गईं पर आज तक ऐसा स्टोव नहीं बना वर अपनी कन्या के लिये ढूँढने लगे और होता है? कन्या के बलबूते पर तुम्हारे वंश जिससे सास या ननद जली हो। बहुएँ ही क्यों दहेजरूपी दानव ने जन्म ले लिया। आज की अमरबेल बढ़ती है। तुम्हारा नाम चलता जलती हैं, आप ने कभी विचार किया? दहेज रूपी वृक्ष फल-फूल रहा है, पर प्रश्न | है इसलिये कन्यारूपी रत्न से कीमती रत्न | सोचने का विषय है। इसलिये बंधुओं अपनी उठता है इसे कौन सींच रहा है? इसके लिये तुम्हें नहीं मिल सकता। 20 वर्ष तक कन्या कन्या की कुण्डली लड़के से बाद में मिलाना कन्या पक्ष व वरपक्ष दोनों उत्तरदायी हैं। कन्या | की शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण पर औसतन | पहले सास और ननद से मिल लेना, पटेगी पक्ष योग्य वर की तलाश में नये-नये प्रलोभन चार से पाँच लाख रुपया खर्च आता है, कि नहीं? अन्यथा निर्जीव स्टोव भी घर में देता है। यही कारण है कि गुणवती कन्या को आँखों के झूले और प्यार के आँगन में | पक्षपात करने लगेगा। योग्य वर नहीं मिल पाता। गुणहीन कन्या | पली-पुसी कन्यारूपी हृदय का टुकड़ा आपको मनुष्य पैसे का इतना भूखा हो गया अच्छे वर को वरण कर लेती है। ऐसे बेमेल सौंप दिया जाता है, इससे बड़ा त्याग पृथ्वी है कि जीती-जागती देवी लक्ष्मी-सी मूर्ति को विवाह से जीवन में समरसता नहीं आ पाती, पर दूसरा नहीं है। भी जलाने से नहीं चूकता। जो लोग ऐसा करते क्योंकि जहाँ परिणय खरीद-बिक्री, ऊँची आदिनाथ भगवान की ब्राह्मी और हैं वे यह सोचे कि तुम्हारी बेटी के साथ ऐसा बोली पर आधारित होते हैं। वहाँ सुख और | सुन्दरी दोनों बेटियों ने प्रण किया कि पूज्य | कार्य किया जाए तो तुम्हारे ऊपर क्या शांति का वृक्ष पुष्पित और पल्लवित हो नहीं | पिता का जो माथा कभी नहीं झुका वो हमारे बीतेगी? कभी विचार किया, वह भी किसी सकता। कारण भी न झुके, इसलिये आजीवन ब्रह्मचर्य की बहिन है, किसी की बेटी है? व्यक्ति के एक जमाना था जब कन्या जन्म लेती व्रत लेकर वैराग्य धारण कर लिया। दहेज जैसे ऊपर जो धन की दीवानगी छा गई है उस थी तब मातम मनाया जाता था और मध्य भस्मासुर का अंत करने के लिये कन्याओं को पर अंकुश लगना चाहिए। काल के प्रारंभ में कन्या जन्म लेती थी तो दुर्गा बनकर आगे आने की जरूरत है। यदि आज समाज के धनाढ्य व्यक्ति मार दिया जाता था। आज के वैज्ञानिक युग कन्याओं को वर का तो वरण करना चाहिए | गरीब की बेटियों को बहू बनाने का संकल्प में तो भ्रूणपरीक्षण कर कन्याओं को जन्म लेने पर दहेज के भिखारियों का बहिष्कार करना ले लें तो यह संदेश समाज में दहेज रूपी से पहले ही कोख में मार दिया जाता है। अब चाहिए, क्योंकि शादी वर से होती है किसी दानव को नष्ट कर सकता है। बंधुओं ताली तो कन्याओं को जन्म लेने का भी अधिकार । भिखारी से नहीं। बजाने से काम नहीं चलेगा, दहेज के विरोध नहीं है। यह दहेजरूपी दानव का परिणाम है लाखों घर बर्बाद हुए हैं, के लिये ताल ठोककर आगे आने की जरूरत कि आज आप के घरों की शोभा, कलेजे का इस दहेज की होली में। है। आज आप लोग संकल्प लें कि दहेज के टुकड़ा, आप के आँगन की किलकारी, कन्या सजी-सजाई लाखों दुलहन, अभाव में हमारे समाज की कोई कन्या कुँवारी जब जन्म लेती है तो मातम मनाया जाता बैठ न पायी डोली में।। नहीं रहेगी। तुम मंदिर बनवाते हो, लाखों का है और बेटे के जन्म में खुशी मनायी जाती मुनिश्री ने युवाओं को उद्वेलित करते दान देते हो, जितना पुण्य तुम दान देकर है। किसी के चार-पाँच बेटे क्या हुए कि घर | हुए कहा कि जब प्रत्येक बात आप नहीं मानते प्राप्त करते हो उतना ही पुण्य किसी गरीब में कल्पवृक्ष उग आया, जितना चाहो उसे | तो दहेज के वक्त तुम्हारा कंठ क्यों अवरुद्ध की बेटी की शादी में मदद करने से तुम्हें भुनाओ। मुनिश्री ने कहा कि बड़े-बड़े धर्मात्मा | हो जाता है, तुम्हारी जुबान क्यों लड़खड़ाने | मिलेगा। जो धर्म के कार्यों में आगे रहते हैं, धर्मसभाओं | लगती है, विरोध क्यों नहीं करती, तुम्हारा प्रस्तुति : अखिलेश सतभैया, टीकमगढ़ -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षायोग प्रतिष्ठापन मुनिद्वय श्री समतासागर जी एवं श्री प्रमाणसागर जी टीकमगढ़ में परमपूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर महराज के परम शिष्य मुनि श्री 108 समता सागर एवं मुनि श्री 108 प्रमाणसागर व ऐलक श्री 105 निश्चय सागर जी महाराज के चातुर्मास व मंगल कलश की स्थापना का कार्यक्रम विधि विधान व मंत्रो चारण के बीच सम्पन्न हुआ। चातुर्मास के प्रथम दिन धर्म सभा में बोलते हुए मुनि श्री 108 समता सागर जी ने कहा, 'कबिरा बदरी प्रेम की हमपे बरखा आई, अंतर भीगी आत्मा हरी भरी बदराई' । चातुर्मास के काल में हरी-भरी प्रकृति की गोद में श्रावकों का जीवन धर्म से भरा रहे। आज का दिन संकल्प का दिन है, आज संकल्प के साथ जो माँगोगे वह मिलेगा, राम माँगोगे तो राम मिलेंगे, महावीर माँगोगे तो महावीर मिलेंगे। हमें घर-घर में श्रद्धा के कलश रखना हैं। घर-घर में ज्ञान का दीप प्रज्वलित करना है। घर-घर में आचार्य श्री के चित्र डूबते सूरज में अभी उजास बाकी है सम्यक्त्व भारती स्थापित कर संपूर्ण मानव समाज को आलोकित करना है। यह संयोग आपके पुण्य से बना है कि कल ही परम पूज्य आचार्य श्री 108 गुरुवर विद्यासागर जी महाराज का डूबते सूरज में अभी उजास बाकी है पर तौलते पंछी में अभी परवाज़ बाकी है 12 जुलाई-3 - अगस्त 2001 जिनभाषित आशीर्वाद हमें प्राप्त हुआ। जब मंगलाचरण ही सर्वाधिक मंगलमय हो, इतना प्रभावकारी हो तो सम्पूर्ण चातुर्मास कितना प्रभावकारी होगा ! मुनि श्री ने कहा कि पच्चीस किलोमीटर तक की सीमा चातुर्मास में बनाई है. संत का जीवन तो लालिमा है, पूरब दिशा की भाँति संत का काम तो सारी धरती को जगाना है। गहन पीर के बाद नव शिशु का दर्शन होता है। रात पूरी कट गई जिसके उजाले में बुझते चिराग में अभी प्रकाश बाकी है प्राण थक गये तो क्या हुआ जनाब मरते हुए आदमी में अभी साँस बाकी है जी सको तो जियो इंसान की तरह वक्त के पन्नों पर अभी इतिहास बाकी है कोई तो बचाये आके विनाश से इसे अमन के बीच का अभी विकास बाकी है पूज्य मुनि श्री 108 प्रमाणसागर जी महाराज ने धर्म सभा को सम्बोधित करते हए कहा कि चातुर्मास की चौकी में बाहर की यात्रा को विराम देकर अंदर की साधना करते हैं और चाहते हैं कि हमारी साधना का लाभ आपको भी मिल सके। साधुसान्निध्य के बल पर हम अपने जीवन को रूपांतरित करने की प्रक्रिया को अपना सकें। आचार्य श्री कहते हैं कि भगवान महावीर की परम्परा बाँटने की रही है, इसलिये बाँटने में कोई कमी नहीं रहेगी, यदि कमी होगी तो तुम्हारे पात्र की होगी। वर्षा योग में वर्षा की धार तो बहेगी, लेकिन इस मंच से धर्म की लगातार वर्षा होगी, जिसमें जैन धर्म के क, ख, ग, से लेकर क्ष, त्र, ज्ञ तक के अक्षय भंडार आपके बीच खोल दिए जायेंगे। इसके लिये आपको अपने जीवन के वाल्व, ट्यूब खोल के रखना चाहिए। इस अवसर पर परम पूज्य ऐलक 105 निश्चय सागर जी महाराज ने अपना मंगल आशीर्वाद धर्म सभा को दिया। अखिलेश सतभैया, टीकमगढ़ आपके बिना मुझसे रहा नहीं जाता सम्यक्त्व भारती आपके बिना मुझसे रहा नहीं जाता कहना चाहता हूँ बहुत पर कहा नहीं जाता जख्म काँटों के लाख सह सकता हूँ मगर घाव फूलों का मुझसे सहा नहीं जाता रिश्तों की इबारत न जाने क्यों बदल गई उनसे दीवानगी में बेका नहीं जाता जहर मौत के लिए तमाम उम्र पीते रहे जिन्दगी के वास्ते अमृत पिया नहीं जाता Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर समस्या सुलझेगी, आप उलझना छोड़ दें आर्यिका श्री पूर्णमती दिनांक 8 जुलाई 2001 को भोपाल म.प्र. के टी.टी. नगर | आर्यिकाश्री ने प्रबोधित किया कि अभी समय आपके हाथ में स्थित दि. जैन मंदिर में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की | है। यदि समय पर चूक गये तो बुढ़ापे में अपने को ठगा हुआ पाओगे। विदुषी शिष्या आर्यिका श्री पूर्णमती तब पछताने के अलावा और कुछ भी जी के ससंघ वर्षायोग का भव्य हाथ नहीं लगेगा। आर्यिकाश्री ने कहा शुभारंभ कलशचतुष्टय की स्थापना कि गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी के साथ हुआ जिसमें निम्नलिखित ने मुझे यह कहकर भोपाल भेजा है कि कार्य सम्पन्न किये गये मैं यहाँ के लोगों की तमाम बुराइयाँ, । मंगलाचरण : अजय जैन परेशानियाँ और संकट अपनी झोली 'अहिंसा' वाकल (कटनी, म.प्र.) में ले लूँ और बदले में गुरुवर ने अपनी 2. दीप प्रज्ज्वलन : श्री अमृतवाणी से मुझे अध्यात्म के जो अजित पाटनी अनमोल मोती दिये हैं वे आपकी 3. ध्वजारोहण : श्री झोली में डाल दूँ। यह आपके ऊपर विमलचन्द्र जैन, अलंकार वस्त्रालय है कि आप इस चातुर्मास में इन 4. आचार्य श्री विद्यासागर मोतियों को लेने के लिये कितना समय जी के चित्र का अनावरण : श्री निकाल पाते हैं। रवीन्द्र जैन जिनभाषित को 5. स्थापनाकलश की स्थापना श्री प्रकाशचन्द्र जी जैन, आशीर्वाद 6. मंगल कलश की स्थापना आर्यिकारत्न पूर्णमती जी ने श्री संतोष कुमार जी जैन, संगीत 'जिनभाषित' को आशीर्वाद देते हुए सरिता वाले कहा- "जिनभाषित" में बिन्दु में 7. ज्ञानकलश की स्थापना : श्री रमेशचन्द्र जी मनया सिन्धु समाया है। यह पत्रिका वर्तमान 8. जीवदयाकलश की स्थापना : श्री वी.के. जैन भौतिक चकाचौंध के वातावरण में जन-जन की चेतना को अन्तर्मुखी .9. वन्दनीया आर्यिकाओं को शास्त्र भेंट : श्री मनोहरलाल जी बनाने का सामर्थ्य रखती है। वास्तव में मानवमात्र के लिये मानवता टोंग्या आदि दस श्रावकों के द्वारा का संदेश प्रदान कर सकने में यह पत्रिका पूर्णतः सक्षम है। विभिन्न 10. वन्दनीया आर्यिका पूर्णमती जी को 'जिनभाषित' जन | विषयों से ओतप्रोत 'ज्ञानामृतपान' इसके गम्भीर अध्ययन से संभव 2001 के अंक का समर्पण : प्रो. रतनचन्द्र जैन के द्वारा। वन्दनीया आर्यिका पूर्णमती जी ने श्रावकों को सम्बोधित करते | यह पत्रिका समाज में व्याप्त अज्ञान एवं कुरीतियों पर नियन्त्रण हए कहा- आज हर घर में समस्याएँ हैं, हर शहर में समस्याएँ हैं. | करने व सम्पूर्ण मानव समूह के लिये उपयोगी एवं आदरणीय बनेगी देश में भी कई समस्याएँ हैं। इन समस्याओं का मूल कारण यह है | एसा आशा ह, क्याक प्रकाशित हान कपूव हा इस अनक सन्ता कि हम अध्यात्म से भटक गये हैं। उन्होंने कहा - का आशीर्वाद प्राप्त हुआ है। अभी तक कई पत्रिकाएँ निकलीं, उनको हर समस्या सुलझेगी, आप उलझना छोड़ दें। पढ़ने से लोगों की पत्रिकाओं को पढ़ने की मानसिकता प्रायः समाप्त हर मंजिल मिलेगी, आप भटकना छोड़ दें।। होती चली जा रही है, क्योंकि उनमें ज्ञानवर्धक सामग्री की बजाय आर्यिकाश्री ने बतलाया कि तमाम समस्याएँ हमने स्वयं पैदा व्यक्तिगत आक्षेपों और विवादों की ही भरमार रहती है।" की हैं। मनुष्य एक-दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा में अपनी आत्मा आर्यिकाश्री ने आगे कहा - "आज जैसे विश्वभर की जानकारी से दूर होता जा रहा है और जब उसे आत्मा का ज्ञान होता है तब के लिये घर-घर में टी.वी. की जरूरत महसूस की जाती है वैसे ही बहुत देर हो चुकी होती है, वह बुढ़ापे में हताश होने लगता है कि जिनागम के हृदय को पढ़ने के लिये, रहस्य को जानने के लिये गुरुयह जिन्दगी भी मैंने अपनी आत्मा के कल्याण के बिना ही निकाल आशीष से प्रकाशित इस पत्रिका की जनमानस को आवश्यकता प्रतीत दी। आर्यिकाश्री ने कहा कि एक बार सन्त नानक ने शिष्य से कहा होगी। विशेष यह कि इस पत्रिका में साधु सन्तों या विद्वानों की निन्दा/ कि एक समय आयेगा जब सारी दुनिया ठग हो जायेगी। शिष्य ने आलोचना नहीं है इसलिये यह 'सत्यं शिवं सुन्दरं' की बोलती तस्वीर पछा कि जब सारी दुनिया ठग हो जायेगी तब ठगा कौन जायेगा? | है। अन्त में यही भावना है कि 'जिनभाषित' पत्रिका गुरुकल दीपक नानक जी ने बहुत ही सुन्दर जवाब दिया- 'जो समय पर चुक जायेगा | की तरह जलकर जन-जन के लिये धर्म का प्रकाश देती रहे।' वह ठगा जायेगा।' जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वराज पर्युषण : प्रदूषण मुक्ति का पर्व डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' पर्वराज पर्युषण पर्व आ गया है। जो कुछ आत्मिक प्रदूषण छा गया था उसे दूर करने का प्रमुख माध्यम है पर्युषण पर्व | आत्माराधना, आत्मिक गुणों का अनुभरन, आत्मशक्ति का जागरण और आत्मनिष्ठा पर्युषण पर्व के वे लक्ष्य हैं जिन्हें पाकर मनुष्य कषाय रहित सच्चे सुख का अनुभव लेखक ने पर्युषण पर्व की आराधना के मनोविज्ञान को अन्ततः मरना पड़ेगा? धर्म विचार डॉ. सुरेन्द्र ‘भारती’ प्राध्यापक होने के साथ-साथ मर्मस्पर्शी लेखनी के धनी एवं 'पार्श्वज्योति' मासिक के सम्पादक भी हैं। उनका यह लेख पर्युषणपर्व के विषय में नये ढंग से सोचने के लिये बाध्य करता है। भोगविलास से सृजन नहीं होता, तप त्याग के साथ ही सृजन का रिश्ता है' गाँधी जी के इन शब्दों के द्वारा 4 सहज ही करने लगता है। मानव कर्म कैसे हों ? इस विषय में 'विदुरनीति' सरलतया उद्घाटित किया है। में लिखा है दिवसेनैव तत्कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत्। अष्टमासेन तत्कुर्याद् चेन वर्षाः सुखं वसेत् ।। पूर्वे वयसि तत्कुर्याद् थेन वृद्धः सुखं वसेत्। यावज्जीवेन तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् 113/67-68 ।। अर्थात् मनुष्य को दिन में ऐसे कार्य करना चाहिए कि रात में सुखपूर्वक सो सके (और रात में ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जो सुबह किसी को मुँह न दिखा सके)। वर्ष के आठ मास ऐसा उद्योग करना चाहिए कि वर्षा के चार मास सुखपूर्वक रह सके। आयु के पूर्वार्ध में यानी युवाकाल में ऐसे कार्य करना चाहिए कि वृद्धावस्था सुखपूर्वक व्यतीत कर सके। पूरे जीवनभर ऐसे श्रेष्ठ आचरण करने चाहिए कि मरने के बाद अगले जन्म में भी सुखपूर्वक रह सके। अब ये नीति की बातें पालन के लिये नहीं, अपितु उदाहरण के लिये ही जैसे रह गयी हों? हम जितना अपनी परम्पराओं एवं संस्कृति से कटे हैं उतने ही धर्म से दूर हुए हैं, सुख से दूर हुए हैं। ऐसे में यह पर्युषण पर्व फिर आया है दिशादर्शन के लिये, सत्पथ पर ले चलने के लिए यदि नहीं चले तो हम बचेंगे कैसे? कबीर ने ठीक ही कहा है पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात । देखत ही छिपि जाइये ज्यों तारे परभात।। । किन्तु आज इसकी परवाह किसे है? सब भरपूर जीना चाहते हैं, कैसे भी, किसी भी तरह, चाहे वह किसी भी कीमत पर हो धर्म धारण करने का भाव था, एक दर्शन था जिसे प्रदर्शन का प्रतीक बना दिया गया है। जिन्दगी जीने के नाम पर हम क्रूरतम होते जा रहे हैं। हमारे घरों में मच्छर मारने, कॉकरोच मारने, जूँ मारने, चींटी मारने, छिपकली मारने, चूहा मारने से लेकर आदमी मारने तक की दवाएँ मौजूद है, फिर भी दरवाजे पर स्टीकर चिपके हैं 'अहिंसा परमोधर्मः 'जिओ और जीने दो', 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' जैसा व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो, वैसा दूसरों के साथ भी करो। क्या स्टीकर्स का प्रदर्शन ही हमारे धर्म की इति है या हमारे धार्मिक होने का सर्टिफिकेट, विचारणीय है। 14 जुलाई अगस्त 2001 जिनभाषित पर्युषण पर्व प्रदर्शन का नहीं, दर्शन का प्रसंग है, जिसमें हम विद्युत सजावट के साथ वह भी तो विचार करें कि इसमें कितने सूक्ष्म जीवों को प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा ? हम फूलों का श्रृंगार करें किन्तु यह भी तो विचार करें कि इससे कितनी चीटियों को पूर्वक होता है। अतः बिना विचारे हम कुछ न करें तथा ऐसा भी न करें जिसमें बाह्य प्रदर्शन तो अच्छा हो, किन्तु जिसका अन्त दुःखद हो । गाँधीजी के जीवन का एक प्रसंग है। वे प्रतिदिन सुबह या शाम को दिल्ली में लालकिले के पास टहलने जाते थे। एक दिन उनके साथ चर्चित स्वतंत्रता सेनानी समाजवादी श्री रामनन्दन जी मित्र भी टहलने के लिये गये। गाँधीजी ने उन्हें लालकिला दिखाते हुए पूछा, 'लाल किले के अंदर की क्या चीज उल्लेखनीय है ?' रामनन्दन जी सोचने लगे, कुछ बोलते, इससे पहले ही गाँधीजी ने जवाब दिया कि लालकिले के अंदर बड़े कमरों के बीच जो नालियों गुजरती है, मुगल बादशाहों के राज में इन नालियों से इत्र, गुलाबजल वगैरह बहता था। यह भाग ही मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना।' गाँधीजी ने आगे कहा कि 'भोग विलास से सृजन नहीं होता । तप-त्याग के साथ ही सृजन का रिश्ता है। भोग विलास का रास्ता तो पतन की मंजिल तक पहुँचाने के लिये अभिशप्त है । ' उक्त संस्मरण से हम अच्छी तरह जान सकते हैं कि भोग पतन का मार्ग है और व्यसनमुक्त धर्ममय जीवन उत्थान का मार्ग है। हमें ऐसा मार्ग ही प्रिय होना चाहिए। नीतिकार कहते हैं पाप समय निर्बल बनो, धर्म समय बलवान । वैभव समय विनम्र अति दुःख में धीर महान || अर्थात् जब पाप का समय हो तो हमें निर्बल बनना चाहिए ताकि हमसे कोई पाप कार्य न हो जाये। धर्म के समय अर्थात् जब धर्म का प्रसंग उपस्थित हो तो हमें तन, मन, धन से बढ़चढ़कर धार्मिक कार्य करना चाहिए ताकि अधिकाधिक पुण्य का संचय हो सके। वैभव पाकर हमें विनम्र बनना चाहिए ताकि अहंकार से बच सकें। तन, धन, वैभव का अहंकार दुर्गति का पात्र बनाता है जबकि विनम्रता सुगति की वाहक होती है। इसी प्रकार दुःख में हमें अत्यंत धैर्य धारण करना चाहिए। दुःख के समय हमें धैर्यरूप धर्म संबल प्रदान करता है। हम चाहते हैं कि 'हो भला' तो नीतिकार कहते हैं कि 'कर भला' । किन्तु हम चाहने और करने में विरोधाभासी आचरण करते हैं। यह विरोधाभासी आचरण हमें हर जगह विरोध की स्थिति पैदा करता है। अतः इससे बचें। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व नियति का मोड़ है, पर्व जीवन की साधना का फल है पर्व जीवन की भागमभाग के मध्य सुकून का क्षण है, पर्व वैभवविलासिता के मध्य आत्मा के उत्थान का अवसर है, पर्व शान्ति का सागर है, पर्व मुक्ति का क्षण है, पर्व क्षमा, मृदुता, सरलता जैसे आत्मिक भावों को पहचानने का निमित्त है, पर्व धर्ममय जीवन के संस्कार पाने की पाठशाला है, पर्व आत्मिक बल की पहचान कराने बाला पारदर्शी यंत्र है, पर्व कुरीतियों, कुगुरुओं, कुसंगतियों के विसर्जन का महत् अवसर है, बस चाहिए उसे अपने तन, मन, का निर्मल स्पर्श यदि यह स्पर्श, संगति मिल गयी तो धर्म का सुखद संगीत आपके जीवन में संचरित हो उठेगा। धन धर्म के दशलक्षण उत्तम क्षमा (क्रोध कषाय का अभाव, बैर रहित स्थिति), उत्तम मार्दव (मान कषाय का अभाव, अहंकार रहित स्थिति), उत्तम आर्जव (माया कषाय का अभाव, सरल भाव, सरल परिणति), उत्तम शौच (लोभ कषाय का अभाव, पवित्रता का जीवरक्षा के लये एक लाख इक्कीसहजार की राशि का संचय परमपूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से शिवपुरी (म.प्र.) में पूज्य मुनिश्री क्षमासागर जी एवं पूज्य मुनिश्री भव्यसागर जी का पावन वर्षायोग महती धर्म प्रभावना के साथ सानन्द चल रहा है। रक्षाबन्धन पर्व पर प्राणीमात्र की रक्षा का संकल्प कर जीवरक्षासंकल्पसूत्र बाँधा गया तथा जीवरक्षा के लिये जीवरक्षा कलश की स्थापना भी समाज की ओर से पूज्य मुनिद्वय के सान्निध्य में की गई तथा जीवरक्षा के लिये एक लाख इक्कीस हजार की राशि जीवरक्षा कलश एवं रक्षासूत्र के माध्यम से संचित की गई। शिवपुरी नगरी में जबसे मुनि श्री क्षमासागर जी एवं मुनिश्री भव्यसागर जी का पावन वर्षायोग स्थापित हुआ है, तबसे शिवपुरी के इतिहास में पहली बार इतनी अधिक धर्म प्रभावना हो रही है कि प्रतिदिन महाराज के प्रवचन में समाज के बन्धुओं के अलावा जैनेतर समाज भी धर्मलाभ लेने के लिये दौड़ा आ रहा है। शिवपुरी समाज ऐसे परम उपकारी मुनियों को पाकर धन्य हो गया है। प्रतिदिन महाराजश्री का मंगलप्रवचन हो या सायंकालीन भक्ति एवं शंकासमाधन का अनूठा कार्यक्रम, सम्पूर्ण कार्यक्रमों से समाज में एक धार्मिक वातावरण तैयार हो गया है। मुनिश्री क्षमासागरजी द्वारा श्रावकों की शंकाओं का समाधान सहजता एवं चित्ताकर्षक भाषाशैली के माध्यम से किया जाता है, जो अनूठी है। महाराजश्री के चातुर्मास से समाज को एक नई दिशा मिली है। सुरेश जैन, मारौरा । संरक्षण), उत्तम सत्य (असद् भावों / कार्यों का अभाव, सत्य व्यवहार), उत्तम संयम (आत्म नियंत्रण, इन्द्रिय विषयों पर नियंत्रण, जीव रक्षा का भाव), उत्तम तप (कर्मक्षय केलिये व्रत-उपवास), उत्तम त्याग (राग-द्वेष का त्याग, औषधि-ज्ञान- अभय और आहार रूप चार प्रकार का दान), उत्तम आकिंचन्य (मैं आत्म द्रव्य हूँ, मेरा कुछ भी नहीं है, सम्पूर्ण परिग्रह के प्रति अनासक्ति), उत्तम ब्रह्मचर्य (पूर्ण आत्मरति, आत्मरमण और आत्मविचरण) मानवीय संभावना की सार्थकता मोक्ष तक ले जाने वाले हैं। आपके / सबके जीवन में धर्म का वास हो, आप सबका आचरण धर्ममय हो, इसी भावना के साथ पर्युषण पर्वराज के प्रसंग पर आत्मिक सफलता हेतु कोटिशः शुभकामनाएँ प्रेषित हैं। एल-65, न्यू इंदिरा नगर (ए) अहिंसा मार्ग, बुरहानपुर (म.प्र.) पिन - 45031 गीत पानी बहता जिन आँखों से पर पीड़ा के नाम अशोक शर्मा पानी बहता जिन आँखों से पर पीड़ा के नाम उनके नाम सुबह लिखूंगा और लिखूंगा शाम। सबकी पीड़ा बाँट रहे जो, वे नेपथ्य हुए ऐसे लोग मेरी रचना के केवल कथ्य हुए। जो पीड़ा के स्वांग रचाकर, पीड़ादार दिखे हर बारी हर गीतकार ने उनके गीत लिखे। गढ़-गढ़ मीलों के पत्थर जो खुद में रहे अनाम उनके नाम सुबह लिखूँगा और लिखूँगा शाम ॥1॥ जिन प्यासों ने सदा बुझाई कंठ-कंठ की प्यास उनके घर तक आता कोई दिखा नहीं मधुमास । जो खाली गागर दिखलाकर ताक रहे आकाश उनका ही स्वर्णिम अक्षर से युग लिखता इतिहास | इतिहासों ने गहन- उपेक्षा लिख दी जिनके नाम उनके नाम सुबह लिखूँगा और लिखूँगा शाम ॥ 2 ॥ जिनने कंटक बीन पंथ के पथ को सरल किया। उन लोगों को भर-भर प्याली युग ने गरल दिया जिन लोगों ने आग तेजकर लपट बढ़ाई और उन लोगों का वर्तमान में चमक-दमक का दौर जेठ- दुपहरी जिनके तन ने हँस-हँस झेला पाम उनके नाम सुबह लिखूंगा और लिखूंगा शाम ॥3॥ 36- बी, मैत्रीविहार, सुपेला, भिलाई, जिला-दुर्ग (छत्तीसगढ़) - जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति, स्वाध्याय एवं क्षमादिभावों का मनोविज्ञान प्रो. रतनचन्द्र जैन भक्ति का मनोविज्ञान इस प्रकार तीव्रकषायोदयरूप संक्लेशपरिणाम के निमित्तों को इन्द्रियसंयम द्वारा इंद्रियों के भोगव्यसनरूप निमित्त को दूर कर टालने के लिए भक्ति एक शक्तिशाली उपाय है। देने पर भी इन्द्रियविषयों के दर्शन, चिन्तन, स्मरण आदि के निमित्त | स्वाध्याय का मनोविज्ञान से तीव्ररागादि की उत्पत्ति सम्भव स्वाध्याय भी इसका एक है। अतः इन निमित्तों को टालने उत्तम साधन है। इसके द्वारा मन के लिए पञ्चपरमेष्ठी के भजनपूआत्मा के मन्दकषाय-परिणाम को विशुद्धता कहते तत्त्वों के गूढ़ चिन्तन में खो जाता जन, गुणकीर्तन, चरितश्रवण आदि हैं। इससे अशुभ-कर्मों का संवर और निर्जरा तथा शुभकर्मों है। फलस्वरूप वस्तुस्वभाव के शुभ निमित्तों का अवलम्बन का आस्रव-बन्ध होता है। विशुद्धता के विकास में संयम, चिन्तन-मनन से जो स्वपरतत्त्व, अत्यन्त आवश्यक होता है। तप, अपरिग्रह, भक्ति, स्वाध्याय तथा क्षमादिभाव हिताहित एवं हेयोपादेय का विवक मंगलमय आत्माओं के मंगलमय मनोवैज्ञानिक भूमिका निभाते हैं। पूर्व आलेख में प्रथम होता है उसके बल से चारित्रमोह गुणों के चिन्तन-स्मरण के निमित्ति तीन तत्त्वों की मनोवैज्ञानिक भूमिका पर प्रकाश डाला का तीव्रोदय नहीं हो पाता। चित्त से तीव्र कषायोदय के निमित्त टल गया था। प्रस्तुत आलेख अन्तिम तीन साधनों के खाली न रहने से उसमें विषयजाते हैं और सत्ता में स्थित वासनाओं का भी प्रवेश नहीं होता। शुभाशुभ कर्मों की स्थिति और मनोविज्ञान का अनावरण करता है। भक्त कवि तुलसीदास जी ने यह अशुभ कर्मों का अनुभाग हीन हो तथ्य इस सूक्ति में अत्यन्त जाता है, जिससे आगे भी मन्दकषाय का ही उदय होता है। पंडित हृदयस्पर्शी शब्दों में प्रस्तुत किया है - टोडरमल जी लिखते हैं मन पंछी तब लगि उडै विषयवासना माँहि। "भक्ति करने से कषाय मन्द होती है। अरहंतादि के आकार ज्ञान बाज की झपट में जब लगि आया नाँहि।। का अवलोकन करना, स्वरूप का विचार करना, वचन सुनना, पंडित टोडरमल जी का कथन है- "तत्त्वनिर्णय करते हुए निकटवर्ती होना या उनके अनुसार प्रवर्तन करना इत्यादि कार्य तत्काल परिणाम विशुद्ध होते हैं, उससे मोह के स्थिति-अनुभाग घटते हैं।" निमित्त बनकर रागादि को हीन करते हैं।" (मो.मा.प्र. पृष्ठ 7) तत्त्वचिन्तनजन्य आनन्दानुभूति के निमित्त से असातावेदनीय जैसे इन्द्रियविषय एवं असत्पुरुषों का संसर्ग तीव्र कषाय के का भी उदय नहीं हो पाता। यदि उसका उदयकाल आ जाता है, तो उदय का निमित्त बनता है, वैसे ही पञ्चपरमेष्ठीरूप प्रशस्तविषयों के सातावेदनीय में संक्रमित होकर सातारूप फल ही देता है। दर्शनादि मन्दकषायरूप विशुद्ध परिणामों के निमित्त बनते हैं। आचार्य ___ इस तरह स्वाध्याय भी तीव्रकषायोदय का निरोधकर विशुद्ध नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने बतलाया है कि जिनदेव, जिनमन्दिर, परिमामों के विकास का शक्तिशाली माध्यम है, कदाचित् भक्ति से जिनागम, जिनागम के धारक, सम्यक् तप और सम्यक् तप के धारक, भी अधिक। ये छह आयतन सम्यक्त्व प्रकृति के उदय के निमित्ति हैं और इनसे क्षमा-समता-अहिंसादि भावों का मनोविज्ञान विपरीत अर्थात् कुदेवादि छह आयतन मिथ्यात्व प्रकृति के उदय के निमित्त हैं। (गोम्मटसार कर्मकाण्ड/गाथा 74) भक्ति की उपयोगिता आत्मा के अपने क्षमा, समता, धैर्य, विवेक, अहिंसा बतलाते हए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं (अनुकम्पा) आदि भाव भी तीव्रकषायोदय के निमित्तों को निष्प्रभावी "भक्तिरूप प्रशस्तराग का अवलम्बन पुण्यबन्ध का स्थूल | बनाने के अमोघ साधन हैं। लक्ष्य रखनेवाले भक्तिप्रधान अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि) करते हैं। कभी 'चारित्रसार' में कहा गया है - "क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानां कभी अनुचित विषयों में रागवृत्ति रोकने के लिए अथवा तीव्रकषायोदय | सन्निधानेऽपि कालुष्याभावः क्षमा" अर्थात् क्रोध उत्पन्न करने वाले का निरोध करने हेत शदोपयोग से च्यत जानी भी करते हैं।"। निमित्तों के होने पर भी कालुष्य (क्षोभ) का अभाव होना क्षमा है। भक्तिभाव से भरे मन में अशभभावों के लिए अवकाश कहाँ | आचार्य शुभचन्द्र का कथन है - से मिल सकता है? इस तथ्य का निरूपण कवि रहीम ने बहुत ही प्रत्यनीके समुत्पन्ने . यद्धैर्यं तद्धि शस्यते। सुन्दर शब्दों में किया है - स्यात्सर्वोपि जनः स्वस्थः सत्यशौचक्षमास्पदः।। प्रीतम छबि नयनन बसै, पर छबि कहाँ समाय। - स्वस्थचित्तवाले तो प्रायः सभी सत्य, शौच, क्षमादि से युक्त भरी सराय रहीम लखि, आप पथिक फिर जाय।। होते हैं, किन्तु शत्रु द्वारा उपसर्ग किये जाने पर धैर्य रखना ही वास्तविक - जिन आँखों में अपने आराध्य की छबि बसी होती है, उनमें | धैर्य है। किसी दूसरे की छबि कैसे समा सकती है? सराय भरी देखकर पथिक | ये कथन इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि जिन निमित्तों अपने आप लौट जाता है। से क्रोधादि जनक कर्मों का उदय होता है, वे यदि उपस्थित हों,तो 16 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी उनके प्रभाव को नष्ट कियाजा सकता है और क्रोधादि के उदय को रोका जा सकता है। निमित्तों के प्रभाव को नष्ट करने की शक्ति आत्मा के क्षमा, समता, धैर्य, अनुकम्पा, आर्जव, मार्दव, विवेक, अहिसा निष्ठा, सत्य निष्ठा, अस्तेय निष्ठा, ब्रह्मचर्य-निष्ठा, अपरिग्रह-निष्ठा, आदि आदर्श भावों में है, जैसा कि ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है - शमाम्बुभिः क्रोधशिखी निवार्यतां, नियम्यतां मानमुदारमार्दवैः । इयं च मायार्जवतः प्रतिक्षणं, निरीहतां चाश्रय लोभशान्तये ।।" क्रोधाग्नि को क्षमारूपी जल से शान्त करना चाहिए, मान को मार्दव से दूर करना चाहिए, माया को आर्जव से तथा लोभ को निःस्पृहता से निरस्त करना चाहिए। स्वामी कुमार का भी कथन है- "जो साधु समभाव और सन्तोषरूपी जल से तीव्रलोभरूपी मल को धोता है, उसी के शौच धर्म होता है। 7 क्षमा, मार्दव, आर्जव, समता, धैर्य आदि भाव ज्ञान से उत्पन्न होते हैं। आत्महितकारी होने से ज्ञानी आत्मा का इनमें अत्यधिक आदरभाव होता है, इनमें उसकी दृढ़ निष्ठा होती है। इन आदरणीय भावों में स्थित रहने का ही विवेकी जीव सदा अभ्यास करता है। ये उसके जीवन के प्रिय लक्ष्य होते हैं। इसलिये जब भी क्रोधादि-कर्मों के उदय के निमित्त उपस्थित होते हैं, वह क्षमादि भावों में स्थिर रहने के लिए दृढ हो जाता है और क्रोधादि के निमित्तों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता। जैसे कोई उसे गाली देता है, तो वह गाली से उत्तेजित होने में अपनी हानि का ख्याल कर क्षमाभाव में स्थित हो जाता है और गाली से विचलित नहीं होता। इससे गाली निष्प्रभाव हो जाती है और क्रोधकर्म के उदय का निमित्त नहीं बनती। इसी प्रकार असातावेदनीय कर्म के उदय में कोई उसे पत्थर मारता है, तो पत्थर की पीड़ा को वह ज्ञान के बल से अनार्तभावपूर्वक सह लेता है। परिणामस्वरूप आर्तभाव के अभाव में तीव्रकषाय का उदय नहीं होता। इसी तरह निःस्पृहता लोभ के निमित्तों को, निर्भयता भय के निमित्तों को. मार्दव मान के निमित्तों को आर्जव माया के निमित्तों को, सम्यक्त्व शोकादि के निमित्तों को प्रभावहीन बनाकर उक्त कषायों के उदय को असम्भव बनाते हैं। कर्मोदय के निमित्तों को शक्तिहीन बना देने वाले साधक को ही योगी और शूर कहा गया हैगुणाधिकतया मन्ये मन्ये स योगी गुणिनां गुरुः । तन्निमित्तेऽपि नाक्षिप्तं क्रोधाद्यैर्यस्य मानसम् ।।' जिस मुनि का मन क्रोधादि के निमित्त मिलने पर भी क्रोधादि से विक्षिप्त नहीं होता, वही गुणाधिक्य के कारण योगी और गुणीजनों का गुरु है। जो णवि जादि वियारं तरुणियण कडक्खबाणविद्धो वि। चेव सूरसूरो रणसूरो णो हवे सूरो। सो - जो युवतियों के कटाक्षरूपी बाणों से बेधा जाने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता, वही सच्चा शूर है, रणशूर शूर नहीं है। कर्मोदय के निमित्तों को निष्प्रभावी बनाकर ही तीव्र क्रोधादि को रोका जा सकता है, कर्मोंदय हो जाने पर नहीं, क्योंकि कर्म का उदय होने पर कषायादिरूप फल का अनुभव हुए बिना नहीं रहता । फलानुभव कराने का नाम ही विपाक या उदय है, जैसा कि पूज्यपाद स्वामी ने कहा है- " द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणां फलप्राप्तिरुदयः । ' 10 गोम्मटसार कर्मकाण्ड की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका (गाथा (264) में कहा गया है. "स्वस्वभावाभिव्यक्तिरुदयः स्वकार्य कृत्वा स्वरूपपरित्यागो वा ।" अर्थात् अपने फलदानरूप स्वभाव की अभिव्यक्त उदय कहलाती है अथवा अपना फलदानरूप कार्य कर कर्मस्वरूप का परित्याग उदय है। इस प्रकार कर्म स्वरूप या पररूप से फल दिये बिना अकर्मभाव को प्राप्त नहीं होता।" सार यह कि कर्मोदय होने पर जीव के परिणाम उस कार्य की प्रकृति के अनुसार अवश्य हो जाते है, अतः चारित्रमोह की क्रोधादि प्रकृतियों का तीव्रोदय हो जाने पर आत्मा में कालुष्य (क्षोभ, संक्लेश) उत्पन्न हो ही जायेगा, तब कालुष्याभावरूप क्षमा कैसे सम्भव होगी ? अतः निष्कर्ष यही है कि कर्मोदय के निमित्तों को टालकर या निष्प्रभावी बनाकर ही कालुष्याभावरूप क्षमा, मानाभावरूप मार्दव, मायाअभावरूप आर्जव, कामाभावरूप ब्रह्मचर्य आदि फलित होते हैं। . असातावेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न दुःख के समय यदि समताभाव धारण किया जाता है, तो आर्तभाव उत्पन्न नहीं होता । उत्पन्न हुए दुःख से द्वेष होना तथा सुख की आकांक्षा करना आर्तभाव कहलाता है। दुःख से घबराने व्याकुल होने, विलाप आदि करने के रूप में यह द्वेष व्यक्त होता है। इससे नवीन असातावेदनीय का बन्ध होता है। किन्तु समताभाव धारण कर दुःख को धैर्यपूर्वक सहने से नवीन कर्म का बन्ध नहीं होता और उदय में आया हुआ कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार समताभाव से संवरपूर्वक निर्जरा होती है, जो मोक्ष के लिए उपयोगी है। इस विषय में पं. सदासुखदास जी का निम्नलिखित विवेचन पठनीय है 2 "बहुरि यो मनुष्यशरीर है सो वातपित्तकफादिक- त्रिदोषमय है। असातावेदनीय कर्म के उदयते त्रिदोष की घटती बघतीते ज्वर, कांस, स्वास, अतिसार, उदरशूल, शिरशूल, नेत्र का विकार, वातादि पीड़ा होते (होने पर) ज्ञानी ऐसा विचार करे हैं जो ये रोग मेरे उत्पन्न भया है सो याकूं असातावेदनीय कर्म को उदय तो अन्तरंग कारण है अर द्रव्यक्षेत्रकालादिक बहिरंग कारण है। सो कर्म के उदयकूं उपशम हुआ (कर्म के उदय का उपशम होने पर) रोग का नाश होयगा। असाता का प्रबल उदयकूं होते बाह्य औषधादिक हूँ रोग मेटने कूं समर्थ नाहीं है अर असाताकर्म के हरने कूं कोऊ देव-दानव, मंत्र-तंत्र, औषधादिक समर्थ है नाहीं याते अब संक्लेशकू छांड़ि समता ग्रहण करना अर बाह्य औषधादिक हैं ते असाता के मन्द उदय होतैं सहकारी कारण हैं। असाता का प्रबल उदय होते औषधादिक बाह्य कारण रोग मेटने कूं समर्थ नाहीं है ऐसा विचारि असाताकर्म के नाश का कारण परम समता धारण करि संक्लेशरहित होय सहना, कायर नाहीं होना सो ही साधुसमाधि है । बहुरि इष्ट का वियोग होतैं अर अनिष्ट का संयोग होतैं ज्ञान की दृढ़ता तैं जो भय को प्राप्त नाहीं होना सो साधुसमाधि है। "12 । 'भगवती आराधना' की टीका के निम्न शब्द भी पठनीय हैं"बड़े-बड़े धन्वन्तरि-सदृश वैद्य, इलाज के करने वाले, तो कर्म के उदयकरि आई रोगजनित वेदना, ताहि दूर करने के समर्थ नाहीं । कूँ तातैं धैर्य धारण करि अपना बाँध्या कर्म का फल समभाव करि भोगो, तातैं तुमारे नवीन कर्म नाहीं होय, अर पूर्वे बाँध्या तिनकी निर्जरा होय उदय में आया कर्म कूँ जिनेन्द्र, अहमिन्द्र, समस्त इन्द्र, देव " - जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . टारिने कूँ समर्थ नाहीं हैं। तातै अरोक (अटल) जानि असाता का उदय में दुःख मति करो, दुःख करोगे तो अधिक असाता कर्म और बंधेगा, अर उदय तो टरेगा नाहीं। असातावेदनीयादिक अशुभकर्म कूँ उदय आवता समय विषै जो विलाप करना, रोवना, संक्लेश करना, दीनता भाखना निरर्थक है, दुःख मेटने को समर्थ नाहीं। केवल वर्तमान काल में दुःख बधावै (बढ़ाता है), अर आगाने (भविष्य में) तिर्यञ्चगति तथा नरक-निगोद । कारण, ऐसा तीव्रकर्म बाँधे, जो अनन्तकाल हूँ में न छूटे। ... तातें कर्म के ऋण से छूट्या चाहो तो कर्म के उदय में आकुलता त्यागि परमधैर्य धारण करो।"" इस प्रकार क्षमा, समता, अहिंसा आदि भाव तीव्रकषायोदय के निमित्तों को निष्प्रभावी बनाकर विशुद्धता का विकास करते हैं। संक्षेप में, संयम और तप शरीर को परद्रव्यों की अधीनता से मुक्त कर उसे परद्रव्येच्छारूप तीव्रकषाय के उदय का निमित्त बनने से रोकते हैं, अपरिग्रह, मूर्छारूप तीव्रकषायोदय के निमित्त को निरस्त करता है, भक्ति और स्वाध्याय विषयों के चिन्तन-स्मरण आदि के निरोध द्वारा चारित्रमोह के तीव्रोदय पर रोक लगाते हैं तथा क्षमा, समता, धैर्य, अहिंसादि भाव कर्मोदय के निमित्तों को प्रभावहीन बनाकर संक्लेशपरिणाम का प्रतीकार करते हैं। इस प्रणाली से विशुद्धता का विकास किस तरह होता है यह बात श्री जिनेन्द्रवर्णी के निम्न वचनों से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है "व्यक्ति ज्यों-ज्यों हृदय में उतरता हुआ प्रेम (अहिंसाक्षमादिभावों) तथा समता के क्षेत्र में प्रवेश करता है, त्यों-त्यों सत्ता में पड़े अशुभकर्म शुभरूप में संक्रमण करने लगते हैं। आगे जाकर उदय में आने वाले ये शुभकर्म भी अपकर्षण द्वारा नीचे खिंचकर समय से पहले उदय में आने लगते हैं। वर्तमान में उदय में आने योग्य अशुभ निषेक उत्कर्षण द्वारा पीछे चले जाते हैं, अर्थात् वर्तमान में उदय में नहीं आते। फलस्वरूप परिणाम कई गुने अधिक विशुद्ध हो जाते हैं। इन वृद्धिंगत विशुद्ध परिणामों के निमित्त से उपर्युक्त संक्रमण, अपकर्षण तथा उत्कर्षण और अधिक वेग तथा शक्ति के साथ होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि विशुद्धि में अनन्तगुनी वृद्धि होने लगती है।"14 इन युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि भक्ति, स्वाध्याय एवं क्षमादिभाव विशुद्धता के विकास के शक्तिशाली उपकरण हैं। संदर्भ पंचास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा 136 मोक्षमार्गप्रकाशक/पृष्ठ 112 सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्ख ॥ मलाचार/गाथा 971 चारित्रसार/चामुण्डराय/59/2 ज्ञानार्णव 19/38 वही 19/72 समासंतोषजलेण जो धोवदि तिव्वलोहमलपुंज। भोयणगिद्धिविहीणो तस्स सउच्चं हवे विमल ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा/गाथा 397 ज्ञानार्णव 19/75 कार्तिकयानुप्रेक्षा/गाथा 404 10. सर्वार्थसिद्धि 2/1 "ण च कम्म सगरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलमकम्मभावं गच्छदि विरोहादो।" जयधवला 3/22/430/पृष्ठ 245 12. रत्नकरण्ड श्रावकाचार/षष्ठ-भावना अधिकार/पृष्ठ 265 13. भगवतीआराधना/गाथा 1619-1641 14. कर्मसिद्धान्त/पृष्ठ 145 कविता सवाल ___ डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' दोस्तो! सवाल यह नहीं है कि रोटी, कपड़ा और मकान मिलेगा या नहीं सवाल तो यह है कि इनकी प्राप्ति के उपाय कितने पवित्र हैं धर्म हो या धर्मात्मा सभी कहते हैं कि साधनों की पवित्रता पवित्र साध्य की प्राप्ति कराती है सुख देती है और साधनों की अपवित्रता मिले हुए रोटी, कपड़ा और मकान को भी दुःखदायी बना देती है अब यह तुम्हें तय करना है कि तुम सुख चाहते हो या दुःख? म.दि.जैन हा.से. स्कूल, सनावद-451111 (म.प्र.) भूल अपने को जब हुआ तन्मय डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय 'विजय' भूल अपने को जब हुआ तन्मय, पञ्चतत्त्वी तन हो गया चिन्मय। जग उठी प्रज्ञा, चेतना फैली, हो गई उज्ज्वल वीथियाँ मैली। ढह गये ऊँचे भेद के टीले, हँस उठे लोचन दुःख से गीले॥ द्वन्द्व कुण्ठाएँ गिर चरण रोयेबीच नागों के जी रहा निर्भय। भूल अपने को जब हुआ तन्मय॥ पञ्च तत्त्वी तन हो गया चिन्मय। आ खड़े तीनों काल हम आगे, यम वृषभ काले डर कहीं भागे। रिद्धियाँ बैठीं डाल कर डेरा, जो असम्भव था सिद्धि ने हेरा॥ बन्ध कर्मों के टूट कर बिखरे हो गया अंशी अंश क्या विस्मय। भूल अपने को जब हुआ तन्मय, पञ्च तत्त्वी तन हो गया चिन्मय। 228 बी, विजयभवन, सिविल लाइन्स, कोटा-324001, 2. 18 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा ललाट उनका । उनका विस्तार से नीचे की प्रश्न- भगवान की मूर्ति के ऊपर तीन शुद्धोपयोग में स्वस्थान अप्रमत्त गुण वाले को शंका-समाधान "जिनभाषित" छत्र किस प्रकार लगने चाहिए? भी शुद्धोपयोगी कहा है। यदि ऐसा माना जाये उत्तर- भगवान की मूर्ति के ऊपर का स्थायी स्तम्भ है। इसमें पं. रतन- तो समयसार गाथा 14 की टीका में आ. लगाये जाने वाले तीन छत्रों में सबसे बड़ा लाल जी बैनाड़ा जिज्ञासुओं की जैन जयसेन द्वारा कहे गये उपर्युक्त कथन छत्र सबसे नीचे, बीच का छत्र बीच में और सिद्धान्त से सम्बन्धित शंकाओं का (अप्रमत्त विरत में शुभोपयोग भी होता है) सबसे छोटा छत्र सबसे ऊपर लगाया जाना समाधान करते हैं। जिज्ञासु अपनी के साथ सामंजस्य नहीं बैठता। वर्तमान में चाहिए। जितनी भी प्राचीन मूर्तियाँ आज से शंकाएँ उनके पास भेज सकते हैं। कुछ विद्वानों ने अपने लेखों में सातिशय लगभग 1000 वर्ष या उससे पुरानी हैं, जो अप्रमत्तविरत से शुद्धोपयोग माना है। वे पाषाण पर अष्ट प्रतिहार्य सहित निर्मित हैं उन एति... संजम णियमा उप्पाएति॥" विद्वान् स्वस्थान अप्रमत्तविरत में शुद्धोपयोग सबमें इसी प्रकार तीन छत्र दिखाई देते हैं। अर्थ- सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव, स्वीकार नहीं करते। ऐसे कई विद्वानों से जब कुन्दकुन्द श्रावकाचार में छत्र लगाने का कथन देव पर्याय से च्युत होकर एक मनुष्य गति इस प्रसंग पर चर्चा हुई तो वे कोई आगम इस प्रकार हैको ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य गति में उत्पन्न प्रमाण भी नहीं दे पाते हैं। फिर भी यदि ऐसा छत्रत्रयं च नासोत्तारि सर्वोत्तमं भवेत्। | उन मनुष्यों के नियम से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान माना जाये कि शुद्धोपयोग का प्रारंभ नासा भालं तयोमेध्यं कपोले वेधकृत भवेत्॥ | व अवधिज्ञान होते हैं। वे नियम से केवलज्ञान सातिशय अप्रमत्त से ही होता है तब __अर्थ- शिर पर सर्वोत्तम तीन छत्र हो । को उत्पन्न करते हैं तथा नियम से संयम को सातिशय अप्रमत्त तो मात्र श्रेणी आरोहण करने जो नासा के अग्रभाग में उतारवाले न हों, प्राप्त होते हैं। वाले मुनियों के ही होता है जिनका वर्तमान अर्थात् नासिका के समान ऊपर से नीचे की प्रश्न- सप्तम गुण स्थान की दो में एकदम अभाव है अर्थात् पंचम काल में ओर वृद्धिंगत हों। उनका विस्तार नासिका, अवस्थायें कही गयी हैं : स्वस्थान अप्रमत्त श्रेणी आरोहण नहीं होता, तो वर्तमान के ललाट उनका मध्य भाग और दोनों कपोल तथा सातिशय अप्रमत्त। इनमें क्या शुद्धोप समस्त साधुओं में शुद्धोपयोग का अभाव के विस्तार के अनुरूप होना चाहिए। योग सातिशय अप्रमत्त में ही होता है, या मानना पड़ेगा। जो आगमसम्मत प्रतीत नहीं भावार्थ- जिनमूर्ति के मस्तक, कपाल, दोनों में? होता क्योंकि आगम में ऐसा कोई प्रमाण कान और नाक के ऊपर बाहर की ओर निकले उत्तर- अशुभोपयोग, शुभोपयोग व देखने में नहीं आता। हए तीन छत्र होने चाहिए। शुद्धोपयोग का गुणस्थानपरक वर्णन प्रवचन अतः ऐसा मानना उचित प्रतीत होता उपर्युक्त प्रमाण से यह स्पष्ट है कि सार गाथा 9 की तात्पर्यवृत्ति तथा बृहद्रव्य है कि स्वस्थान अप्रमत्त में, शुद्धोपयोग व सबसे बड़ा छत्र सबसे नीचे, मझोला छत्र संग्रह की टीका में आता है जिसके अनुसार शुभोपयोग दोनों होते हैं तथा सातिशय बीच में और सबसे छोटा सबसे ऊपर होना प्रथम तीन गुणस्थानों में तारतम्य से अप्रमत्त में मात्र शुद्धोपयोग ही होता है। चाहिए। अधिकांश मंदिरों में इसके विपरीत अशुभउपयोग, बाद के तीन गुणस्थानों में विद्वानों से निवेदन है कि उपर्युक्त विषय को अर्थात् सबसे छोटा सबसे नीचे, मध्यम बीच अर्थात् चौथे से छठे गुणस्थान में तारतम्य और स्पष्ट करें। में और सबसे बड़ा सबसे ऊपर लगा दिखाई से शुभोपयोग तथा सातवें से बारहवें प्रश्न- अकाल मरण का क्या स्वरूप देता है जो उचित नहीं है। हमें आशा है कि गुणस्थान तक छह गुणस्थानों में तारतम्य से है? निश्चयनय से अकाल मरण होता है या इस समाधान को पढ़कर उन सभी मंदिरों के शुद्धोपयोग है। इसके अनुसार तो सप्तम नहीं? पदाधिकारीगण तीन छत्रों को उपर्युक्त प्रकार गुणस्थान में शुद्धोपयोग होता है परन्तु इन्हीं उत्तर- आयुकर्म के क्षय होने को मरण से ठीक कर लेंगे। आ. जयसेन ने समयसार गाथा 14 की टीका कहते हैं (श्री धवल पु. 1/234) आयुकर्म प्रश्न- क्या सर्वार्थसिद्धि से चयकर में कहा है- 'शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयता की स्थिति पूर्ण होने से पूर्व ही विशेष मनुष्य गति को प्राप्त सभी देव अवधि ज्ञान पेक्षया" (अर्थात् प्रमत्त और अप्रमत्त संयतों कारणवश आयुकर्म की उदीरणा होकर क्षय सहित होते हैं? की अपेक्षा शुभोपयोग में)। इससे यह स्पष्ट हो जाने को अकाल मरण कहते हैं। आ. उत्तर- श्री धवला टीका (6/500) में होता है कि सप्तम अप्रमत्त गुणस्थान में उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र (अ. 2/53) में कहा गया है - "सव्वट्ठसिद्धि विमाणवासिशुभोपयोग भी होता है। अब प्रश्न यह है कि लिखा है- औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवयदेवा देवेहि चुदसमाणा. एक्कं हि मणुस अप्रमत्त विरत गुणस्थान की उपर्युक्त दो र्षायुषोनपवायुषः। गदिमागच्छति। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा अवस्थाओं में से अर्थात् स्वस्थान और अर्थ- उपपाद जन्म वाले देव और तेसिमाभिविबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं च सातिशय में से शुद्धोपयोग किसमें माना | नारकी, चरमोत्तम शरीर वाले अर्थात् तद्भणियमा अस्थि... केवलणाणं णियमा उप्पा| जाए? आ. विरागसागर जी ने अपनी पुस्तक वमोक्षगामी जीव और असंख्यात वर्ष की -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयुवाले अर्थात् भोगभूमियाँ जीवों का | सान्निध्य में हुई थी उसमें प्रकरणवश पं. | असंयमी हैं, अर्घ्य चढ़ाना किसी प्रकार भी अकाल मरण नहीं होता। इसी सूत्र की सामर्थ्य फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री ने इसी बात का | उचित नहीं कहा जा सकता। मंदिर जी में तो से यह भी सिद्ध होता है कि इनके अतिरिक्त | उल्लेख किया था कि निश्चयनय की दृष्टि में | केवल नवदेवता (पंचपरमेष्ठी, जिनवाणी, अन्य संसारी जीवों का अकाल मरण हो अकाल मरण नहीं होता। तब पू. आ. श्री ने | जिनधर्म जिनमंदिर और जिन बिम्ब) के सकता है। उत्तर दिया था- "प. जी निश्चयनय की दृष्टि | अलावा अन्य किसी की पूजा नहीं होती। अतः तत्त्वार्थ सूत्र 2/53 की सुख बोधा- | में तो मरण ही नहीं होता।" उन देवी-देवताओं की पूजा कदापि करनी टीका में इस प्रकार कहा गया है "तेभ्योऽन्ये यदि वास्तव में अकालमरण घटित | योग्य नहीं है। यदि करेंगे तो सम्यक्त्व में तु संसारिणः सामर्थ्यादपवायुषोपी भव- | नहीं है तो आ. उमास्वामी जी तत्त्वार्थ सूत्र दूषण लगेगा। न्तीति गम्यते" 2/53 में इसका वर्णन क्यों करते। अकाल अतः सभी साधर्मियों से निवेदन है कि अर्थ- उक्त जीवों को छोड़कर शेष मरण नहीं मानने से उनका सूत्र निरर्थक सिद्ध | पृष्ठ 234 के पहले अर्घ्य को शुद्ध करके पढ़ें संसारी अपवर्तन-आयुष्क होते हैं (उनका होता है जो कदापि संभव नहीं है। श्री श्रुतसागर और शेष दो अर्यों को कदापि नहीं बोलें। अकाल मरण भी संभव है) ऐसा सामर्थ्य से सूरि ने तत्त्वार्थवृत्ति में लिखा है- 'अन्यथा प्रश्न- क्या सातवें नरक का जीव नरक ज्ञात होता है। श्लोकवार्तिक टीका में भी इस दया-धर्मोपदेशचिकित्साशास्त्रं च व्यर्थं स्यात्।' | से निकलकर नियम से सिंह ही होता है? तथा प्रकार कहा है- 'कर्मभूमियाँ मनुष्यों व तिर्यचों अर्थ- अकाल मरण न मानने से जितने सिंह होते हैं वे सातवें नरक से ही आते का मरण यदि विष, शस्त्र आदि बाह्य विशेष | दयाधर्म का उपदेश और चिकित्सा शास्त्र हैं? प्रश्नकर्ता - पं. राजकुमार जी शास्त्रीकारणों से होता है तो उनका अकाल मरण व्यर्थ हो जावेंगे. बरायठा होता है। वह मृत्युकाल व्यवस्थित न होकर आ.- कुन्द कुन्द ने भाव पाहुडगाथा उत्तर- सातवें नरक से निकले हुए जीव विषशस्त्र आदि की सापेक्षता से उत्पन्न हो 25 में ऐसा कहा है गर्भज कर्मभूमिज संज्ञी एवं पर्याप्तक तिर्यच जाता है। उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट विसवेयणरत्तक्खयसत्थग्गहणसंकिलेसेणं। ही होते हैं, अन्य नहीं। जैसा कि तिलोयपण्णत्ति है कि जो मरण बँधी हुई आयु को पूर्ण भोगने आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जाए आऊ।। अधिकारी 2/290 में कहा गया है-'तिरियं से पूर्व ही किन्हीं बाह्य कारणों से हो जाता है उसे अकाल मरण कहते हैं। जैसे किसी ने चिय चरम पुढविदो।' अर्थ- विषभक्षण, वेदना, रक्तक्षय, 100 वर्ष की मनुष्य आयु पायी है, यदि भय, शस्त्र, संक्लेश, आहारनिरोध, उच्छ्वास श्री राजवार्तिक भाग-1 पृष्ठ 168 में किसी बाह्य कारणवश वह 100 वर्ष से पूर्व निरोध, इन कारणों से आयु का क्षय होकर कहा है- "सप्तम्यां नारका मिथ्यादृष्टयो अकाल मरण हो जाता है। नरकेभ्यः उदवर्तिता एकामेव तिर्यग्गतिमायान्ति मरण को प्राप्त हो जाता है तो उसे अकाल तिर्यक्ष्वायाताः पञ्चेन्द्रियगर्भजप्रयाप्तकसंख्येय मरण कहा जाता है। अतः उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार वर्षायुषूत्पद्यन्ते नेतरेषु।" कुछ विद्वानों का मत है कि इस समय अकाल मरण की व्याख्या माननी चाहिए। अर्थ- सातवें नरक से मिथ्यादृष्टि से पूर्व मरण को सर्वज्ञ देव ने पहले से ही प्रश्न- 'पूजन पाठ प्रदीप' की ऋषिमं नारकी निकलकर एक तिर्यंच गति में आते जान लिया था। अतः सर्वज्ञ की दृष्टि में तो डल पूजा में पृष्ठ 233 और 234 पर जो हैं, तिर्यंचो में आकर पञ्चेन्द्रिय, गर्भज, इसे कालमरण ही मानना चाहिए, अकाल देवी-देवताओं को अर्घ्य चढ़ाने का विधान है, पर्याप्तक संख्यात वर्ष की आयु वालों में ही मरण नहीं। उन विद्वानों का ऐसा मानना उचित वह उचित है या अनुचित? उत्पन्न होते हैं, अन्य में नहीं। नहीं है। यद्यपि यह सत्य है कि समय से पूर्व उत्तर- पृष्ठ 234 में पहला अर्घ्य इस उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि सातवें होने वाले मरण को भी सर्वज्ञ ने इसी रूप प्रकार है नरक से निकला जीव कर्मभूमिज पञ्चेन्द्रिय, में देखा है। परन्तु उनके देखने में भी यह मरण दसदिश दस दिग्पाल, दिशा नाम सो नाम वर। सैनी गर्भज पर्याप्तक तिर्यंच बनता है, मात्र अकालमरणरूप से ही देखा गया है क्योंकि तिन गृह श्री जिनआल, पूजों मैं वन्दों सदा।। सिंह बनने का नियम नहीं है। ऐसा मरण उपर्युक्त परिभाषाओं के अनुसार अर्थ- दसों दिशाओं में उसी दिशा के सभी सिंह सप्तम नरक से ही आते हैं अकाल मरण के अन्तर्गत ही आता है और नाम वाले दस दिग्पाल हैं, उनके निवास | इस प्रश्न के समाधान में हमको भगवान उपर्युक्त परिभाषाएँ आगमवचन अर्थात् स्थानों में जो जिनेन्द्र भगवान के जिन मन्दिर | महावीर के पूर्व भव देखने चाहिए। भ. सर्वज्ञवचन ही तो हैं। सर्वज्ञ देव भी तो हैं उनकी मैं सदा पूजा करता हूँ। इसका अर्घ्य | महावीर के जिन पूर्व 34 भवों का वर्णन अकालमरण को अकालमरण के रूप में ही मिलता है उसमें वे 23 वें भव में पहले नरक जानेंगे। अतः समय से पूर्व मरण अकाल ऐसा बोलना चाहिए “ऊँ ह्रीं दशदिग्पालवि- के नारकी थे। वहाँ से आकर चौबीसवें भव मरण ही है। मानसम्बन्धि जिनालयोभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति | में पुनः सिंह बने। इस उदाहरण से यह स्पष्ट कुछ विद्वान ऐसा भी कहते हैं कि स्वाहा।" है कि सभी सिंह सातवें नरक से आते हों ऐसा अकालमरण व्यवहार नय से होता है, निश्चय इसके अलावा पृष्ठ 233 पर 'श्री देवी | नियम नहीं हैं। आगम के अनुसार तो चारों नय से नहीं। निश्चय नय से तो वह काल मरण प्रथम बखानी' तथा पृष्ठ 234 पर 'ऋषि | गतियों से चयकर आये हुए जीवों का सिंह है। उन विद्वानों की ऐसी धारणा ठीक नहीं है। मंडल शुभ यंत्र के' ये दो छन्द तथा उनके बनने में कोई विरोध दृष्टिगोचर नहीं होता। ललितपुर में श्री षटखण्डागम की जो वाचना जो अर्घ्य दिये हैं, वे उचित नहीं हैं। इन देवी 1205, प्रोफेसर्स कालोनी पूज्य आ. विद्यासागर जी महाराज के | देवताओं को, जो जिनभक्त होते हए भी | आगरा- 282002 (उ.प्र.) 20 जलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित मान वाले मरण सत्य है कि मानना उचित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या आप भी हैं 'वेजिटेरियन' डॉ. राजीव अग्निहोत्री शायद आप यह नहीं जानते भारी मात्रा में होता है, जिससे दिल का कि देश के सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्मी मांसाहार को हर तरह से हानिप्रद बताते हुए दौरा, कैंसर, स्ट्रोक या अन्य बीमारियाँ सितारे अमिताभ बच्चन पूरी तरह आहार-विशेषज्ञ शाकाहार के गुणों को तमाम तथ्यों हो सकती हैं। जो लोग ऐसे उत्पादों का वेजिटेरियन हैं। शायद आपको यह भी | के साथ सामने रखते हैं और कहते हैं कि शाकाहार सेवन करते हैं उन्हें मोटापा, अपेंडिसानहीं मालूम होगा कि फिल्म जगत की | से कई बीमारियों से बचा जा सकता है। साथ ही इटिस, आर्थराइटिस, डायबिटीज और चर्चित अभिनेत्री जूही चावला, महिमा शाकाहारी चीजों में विटामिन, मिनरल्स, प्रोटीन, | फूड पाइजनिंग का भी खतरा रहता है। चौधरी तथा सुप्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी रेशे, शर्करा आदि भरपूर होते हैं, जो हमें सेहतमंद अमेरिका की यूनिवर्सिटी आफ अनिल कुंबले भी मांसाहार नहीं करते।। कैलिफोर्निया के डॉक्टर डीन आर्निश शायद यह बात भी आपकी जानकारी जीवन प्रदान करते हैं.... मांसाहार से उपर्युक्त बीमारियाँ होने के में न हो कि सिर्फ ये भारतीय हस्तियाँ अलावा पैरालिसिस होने की बात भी ही नहीं, बल्कि विश्व के कई नामी कुछ तथ्य कुछ ऑकड़े करते हैं। उनके अनुसार मांस, अंडे और गिरामी लोग पूर्णतः वेजिटेरियन हैं। मांसाहार के कारण पानी की काफी बर्बादी होती है। हर दूध से बनी चीजों का आहार इन म्यूजिक लीजेंड सर पॉल मैक्कॉर्टिनी, बड़े कसाईखाने में लगभग 48 करोड़ लीटर पानी खर्च बीमारियों का कारक है। इसके अलावा पूर्व टेनिस खिलाड़ी मार्टिना नवराति मछली में पारे की अधिकता तथा अन्य लोवा, अभिनेत्री पामेला एंडरसन, किया जाता है। तत्त्व कैंसर पैदा करने वाले होते हैं। इसी किम बेसिंजर, एलिसिया सिल्वरस्टोन, एक पौंड मांस उत्पादन में ढाई हजार गैलन पानी खर्च तरह अमेरिका की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के जेक्विन फिनिक्स, अभिनेता रिचर्ड होता है। डॉ. टी. कॉलिन द्वारा इस संबंध में गेयर, ब्रायन एडम्स आदि उन हस्तियों कसाईघरों और पशुपालन केन्द्रों से जो दूषित पानी, खून काफी शोध के बाद बनाई गई रिपोर्ट की लम्बी-चौड़ी सूची के चंद नाम हैं, व गंदगी निकलती है, उनमें हानिकारक नाइट्रेट्स, जो मांसाहार करना पसंद नहीं करते। का सार भी यही है कि 'शाकाहार द्वारा परजीवी. प्रतिजीवी. हेवी मेटल्स व कीटनाशक दवाएँ कैंसर के साथ ही दिल तथा शरीर को दरअसल बीते कुछ सालों में लोग मौजूद होती हैं। कमजोर करने वाले रोगों को रोका जा बड़ी तेजी से शाकाहार की ओर |. मांसाहारी व्यंजनों में अगर चार हजार गैलन पानी लगता सकता है। आपको आश्चर्य में डाल देने आकर्षित हुए हैं। इस तथ्य को है, तो उसी मात्रा में बने शाकाहारी व्यंजनों में मात्र आठ अमेरिका की अव्वल दर्जे की आहार सौ गैलन पानी खर्च होता है। वाली एक और बात, कई डॉक्टर तो दूध के सेवन को भी तमाम बीमारियों पत्रिका 'बॉन एपिटिट' की एक रिपोर्ट भी सामने लाती है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है फॉर द इथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनीमल) के | का कारण बताते हैं। पूर्व अमेरिकन राष्ट्रपति कि 'हाल ही के कुछ सालों में लोगों का रुझान एक विशेष एड-कैंपेन हेतु सब्जियों से बनी | बिल क्लिटन के स्वास्थ्य सलाहकार डॉ. जान वेजिटेरियन खाने की ओर अधिक बढ़ा है। आकर्षक ड्रेसें भी तैयार की थीं। हेमंत की ही | मैक्डूगल तो जानवरों के दूध को सीधे वैसे मांसाहार नहीं करने के लोगों के तरह प्रसिद्ध मॉडल जॉन अब्राहम भी जानवरों | 'लिक्विड मीट' की संज्ञा दे देते हैं, क्योंकि अपने-अपने तर्क हैं। कुछ मांस को हाइजिनिक के प्रति अपनी दया और प्रेम के चलते मांस उनके अनुसार एनीमल फैट के कारण यह नहीं मानने के कारण इससे दूर हैं, तो कुछ को हाथ तक नहीं लगाते। जॉन के अनुसार, | स्वास्थ्य के लिए उतना ही हानिकारक है, जानवरों के प्रति अपनी दया अथवा धार्मिक 'जानवरों के प्रति अपना प्यार दिखाने और | जितना कि जानवरों का मांस। आस्था के चलते। मिस वर्ल्ड व मिस यूनिवर्स उनकी मदद करने के लिये शाकाहार सबसे मांसाहार को तमाम तरह से हानिप्रद के लिए मनमोहक गाउन बनाकर विश्व भर में अच्छा उपाय है। फिर एक महत्त्वपूर्ण बात यह बताते हुए यही विशेषज्ञ शाकाहार के गुणों चर्चित हुए प्रसिद्ध फैशन डिजाइनर हेमंत भी है कि यह मुझे हमेशा फिट रखता है।' को तमाम तथ्यों के साथ सामने रखते हुए त्रिवेदी भी जानवरों के प्रति अपने प्रेम के जानवरों के प्रति दया और प्रेम रखने वालों कहते हैं कि शाकाहारी भोजन में फैट की मात्रा कारण मांसाहार से कोसों दूर हैं। उन्हीं के शब्दों के अलावा एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है, बहुत कम होती है और कोलेस्ट्राल भी न के में कहें तो 'कमजोर और सताए हुए जानवरों जो मांस को हाइजिनिक नहीं मानता और बराबर, जिससे आदमी कई बीमारियों से इसलिए 'अपने स्वास्थ्य की चिंता' उन्हें का बासी मांस खाना कोई फैशन की बात बचा रहता है। साथ ही शाकाहारी चीजों में मांसाहार से दूर रखती है। दुनिया के कई जानेनहीं है, इसीलिए मैं तो शाकाहार ही पसंद माने आहार विशेषज्ञ भी मानते हैं कि करता हूँ।' हेमंत का जानवर प्रेम सिर्फ विटामिन, मिनरल्स, प्रोटीन व फाइबर्स आदि मांसाहारी लोगों की तुलना में शाकाहारी दिखावा भर नहीं है, बल्कि जानवरों के प्रति तो भरपूर होते हैं, जो आदमी को सेहतमंद अपने प्यार के कारण ही उन्होंने शाकाहार को ज्यादा स्वस्थ होते हैं। कारण यह कि मांस से | जीवन प्रदान करने में सहायक होते हैं। बढ़ावा देने के लिये 'पीटा इंडिया (पीपुल्स दैनिक भास्कर, जबलपुर बने सभी व्यंजनों में फैट और कोलेस्ट्राल 15 जुलाई 2001 से साभार -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बढ़ता गोवध और प्रदूषित होता दूध डॉ. श्रीमती ज्योति जैन अलि भारतीय संस्कृति 'जियो तत्त्वों से युक्त बताया है पर और जीने दो' के मूलमंत्र पर अधिकांश जनप्रतिनिधि शाकाहारी हैं। यदि हम | विडम्बना यह है कि दूध की नदियाँ आधारित है। प्रकृति का अपने आप सब दबाव बनायें तो सरकार को अपनी पशुवध एवं बहाने वाले हमारे देश का दूध ही ही एक संतुलन है। संतों-महापुरुषों मांसनिर्यात संबंधी नीति के बारे में सोचना ही पड़ेगा। प्रदूषित हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में ने इस संतुलन को धर्म का ही एक सभी शाकाहारी मिलकर एक ऐसा जनआन्दोलन दूध विक्रेता गंदा पानी मिलाते देखे रूप माना है। 'गाय' हमारी चलायें कि आम आदमी भी शाकाहार के सम्बन्ध में गये हैं, यह दूध अनेक संक्रामक सामाजिक/धार्मिक/ आर्थिक रोगों को जन्म देता है। व्यापारी भी जान सके और सरकार भी इससे प्रभावित हो। आचार्य व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु रही है। दूध को अधिक समय तक संरक्षित प्रारंभ से ही हमारी संस्कृति में घर श्री विद्यासागर जी का यह कथन कि 'हिंसा का उद्योग रखने के लिये यूरिया कास्टिक, में गाय का होना सम्पन्नता का देश में हिंसा ही फैलायेगा अहिंसा नहीं' शायद सरकार रीठा-पाउडर, पैराफिन आदि रसाप्रतीक माना गय है। घरेलू पशु की समझ में आ सके। यनों का प्रयोग करने लगे हैं। इससे परिवार का ही एक हिस्सा होते थे भी आगे बढ़कर अधिक से अधिक और इनके पालन-पोषण की जिम्मेवारी | विदेशी मुद्रा का लालच रोज लाखों पशुओं | धन कमाने की होड़ में कृत्रिम दूध भी बनाने परिवार में ही निहित थी। वर्षों तक विदेशियों | को मौत के घाट उतार रहा है और हमारी | लगे हैं। यूरिया, डिटर्जेन्ट, सफेद कैस्टर के आक्रमण एवं लम्बे समय तक गुलाम रहने अमूल्य पशु-सम्पदा को विनाश के कगार पर आयल, तरल ग्लूकोन, हाइड्रोजन ऑक्साके बाद अनेक सामाजिक, आर्थिक, राजनै- ले जा रहा है। कल्पना भी नहीं की गयी थी इड, फार्मोलिन आदि रसायनों को मिलाकर तिक परिवर्तन हुए पर गाय की महिमा कि 21वीं सदी आते-आते सभ्य समाज कृत्रिम दूध बनाया जा रहा है जो देखने तथा यथावत रही। इतना हिंसक हो जायेगा जितना कि वह अपनी स्वाद में सामान्य दूध-जैसा ही है पर यह अंग्रेजों द्वारा गो-मांसभक्षण को बढ़ावा असभ्य अवस्था में भी नहीं था। भगवान विषैला दूध स्वास्थ्य के लिये अत्यंत घातक देने के कारण गो-भक्तों को ठेस पहुंची थी, | महावीर, महात्मा गाँधी जैसे अहिंसावादी | है। इससे जिगर, आंत तथा गुर्दो को क्षति सामान्य जन की भावनाएं आहत हुईं। चिंतकों का देश अपनी समृद्धशाली परम्परा पहुँचती है। दूध में घातक रसायनों की इतिहास गवाह है, हमारे प्रथम स्वाधीनता को चूरचूर होते देख रहा है। मांसाहारियों के मिलावट एवं सिंथेटिक दूध ने दूध को तो आंदोलन 1857 का एक कारण गाय की नाम पर, प्रयोगशालाओं के नाम पर और न प्रदूषित किया ही, हमारे मानवीय नैतिक चर्बी से निर्मित कारतूस थे। अंग्रेजों ने जब जाने किस-किस के लिये जीवों का निरन्तर मूल्यों के सभी मानदण्ड तोड़ दिये हैं जो हमारे गो-वध को बढ़ावा दिया तो पूरा राष्ट्र गो-रक्षा | हनन किया जा रहा है। कृमिकीटों से लेकर सामाजिक एवं राष्ट्रीय चरित्र की गिरावट की के लिये संकल्पबद्ध हो गया था, अनेक लोगों विशालकाय जीव तक मानवीय हिंसा का ओर संकेत है। को अपना बलिदान भी देना पड़ा था तभी शिकार हो रहे हैं। मानवीय नैतिक मूल्यों के पतन की प्रत्येक शहर में गो रक्षा के लिये गोशालाओं ___हमारी पशु-आधारित अर्थव्यवस्था को | पराकाष्ठा सिन्थेटिक दूध तक ही नहीं है, वरन् की नींव पड़ी। महात्मा गाँधी भी गोरक्षा में | तहस-नहस किया जा रहा है। पड़ोसी देशों में गाय-भैंस के बच्चे मर जाने पर इंजेक्शन सदैव आगे रहे। भी पशु सम्पदा समाप्त होने की स्थिति में द्वारा दूध निकाला जा रहा है। पशुओं का दूध स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे संवि- | है, इसी कारण अवैध रूप से पशुओं की दुहने से पहले उन्हें आक्सोलिटिन एवं धान में भी व्यवस्था की गयी कि जीवों की तस्करी भी हो रही है। भारतीय गायों की पिपिटियुरिन नामक दवाओं का इंजेक्शन रक्षा करना हमारा राष्ट्रीय कर्त्तव्य है। प्रत्येक अनेक नस्लें समाप्त हो गयी हैं, अनेक लगाया जाता है। यह दूध स्वास्थ्य के लिये नागरिक प्रकृति का संरक्षण करे एवं जीवों पर समाप्ति की कगार पर है और अनेक नस्लों गंभीर खतरा है। नियमित इन्जेक्शन से दूध दया रखे। संविधान धारा 51 (ए-जी) में कहा को दूषित कर दिया गया है। प्रकृति का में पशुओं के खून और हड्डियों के तत्त्व आने गया है- प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके संतुलन बिगड़ता जा रहा है, इसी कारण लगते हैं। इंसानी क्रूरता की ऐसी मिसाल कहाँ अंतर्गत वन, झील, नदी, और जीव जन्तु प्रकृति का प्रकोप भी बढ़ता जा रहा है। मिलेगी? प्रदूषित दूध और उससे बने सभी हैं, रक्षा की जायेगी पर अभी अधिक वर्ष नहीं बढ़ते हुए गोवध से दूध जैसे पौष्टिक | पदार्थ गंभीर बीमारियों को जन्म दे रहे हैं। इस हुए संविधान को क्रियान्वित हुए कि हम खाद्य पदार्थ से देश की सामान्य जनता तरह की अनेक बीमारियाँ सामने आ रही हैं स्वतंत्र देश के नागरिक अपने स्वार्थ के लिये वंचित हो रही है। दूध एक पौष्टिक आहार है। कि डाक्टर भी नहीं समझ पा रहे हैं। विचार पशुओं का अंधाधुंध वध करने में लग गये | स्वास्थ्यविशेषज्ञों ने इसे प्रोटीन, कार्बोहाइ- करें! हम लालच के वशीभूत होकर आगे हैं और उनके मांस का निर्यात कर रहे हैं। ड्रेड, कैल्शियम, फॉस्फोरस आदि पोषक | आने वाली पीढ़ी के स्वास्थ्य को कैसे 22 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सँवारेंगे। खुली आयात नीति को बढ़ावा दिया है। | का उद्योग देश में हिंसा ही फैलायगा अहिंसा पूरे विश्व में इन असहाय, बेजुबान | बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा भारत में 'नानवेज | नहीं' शायद सरकार की समझ में आ सके। जीवों पर संकट मँडरा रहा है। अभी अधिक रेस्टोरेंट' खोलने से हमारे यहाँ भी अनेक गोशाला के माध्यम से भी हम गायों दिन नहीं हुए जब ब्रिटेन में लाखों गायों को | प्रकार के खतरे मँडराने लगे हैं। यहाँ तक कि का संरक्षण कर सकते हैं। आचार्यश्री पागल बताकर मौत के घाट उतार दिया गया | विदेशी कसाईघरों का अवशिष्ट भी यहाँ आ विद्यासागर जी के मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद था। बाद में परीक्षण से पता चला कि | रहा है। हमारे यहाँ भी पशुओं के रोगग्रस्त होने से जगह-जगह गोशालाएँ स्थापित हो रही हैं। शाकाहारी गाय को उसकी ही प्रजाति का मांस | की संभावना है। अभी समाचार पत्रों में स्थानीय स्तर पर भी हम सभी के प्रयासों से चारे में मिलाकर खिलाया गया, जिससे वह राजस्थान, हरियाणा आदि में मुँह और खुर यह सफलता प्राप्त हो सकती है। हाल ही में संक्रामक हो गयी। सच पूछो तो पागल गाय | की बीमारी से ग्रस्त पशु पाये गये। विदेशी राजस्थान के अकालग्रस्त क्षेत्र से साधु वर्ग नहीं वरन् वे मांस उद्योगी हैं जिन्होंने अधिक | दूध भी बाजार में आने को तैयार है। के आशीर्वाद से बहुत सा पशुधन बचाया जा से अधिक मुनाफा कमाने की होड़ में गाय को । अतः आज के परिप्रेक्ष्य में आवश्यक सका है। समाचार पत्रों में हम समाचार पढ़ते ही विकृत कर दिया। अभी हाल में | है कि हम जागरूक बनें। जैन ही नहीं, वरन् ही रहते हैं। सच भी है, यदि हम प्रयास करें अफगानिस्तान में तालिबान आतंकवादियों ने सभी शाकाहारी समुदाय के लोग मिलकर तो क्या कुछ संभव नहीं है। अपनी अनोखी जिद पूरी करने के लिये सौ अपनी आवाज बुलंद कर संसद तक पहुंचायें। गायों की अकारण बलि चढ़ा दी। यूरोप और अधिकांश जन प्रतिनिधि शाकाहारी हैं। यदि आइए, 2600वें महावीर जन्म जयन्ती अमेरिका में फैली मुँह और खुर की बीमारी हम सब दबाव बनायें तो सरकार को अपनी | के पुनीत पर्व पर, जो कि 'अहिंसा वर्ष' के से ग्रस्त पशुओं को खत्म किया जा रहा है। मांस निर्यात एवं पशुवधसंबंधी नीति के बारे | रूप में मनाया जा रहा है, हम संकल्प लें कि बीमारी की आशंका मात्र से ही लाखों पशुओं में सोचना ही पड़ेगा। सभी शाकाहारी मिलकर हम प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखते हुए का वध किया जा रहा है। इससे लगता है कि एक ऐसा जन आंदोलन चलायें कि एक आम | उनके संरक्षण के लिये कुछ भी कर-गुजरने मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर | आदमी भी शाकाहार के संबंध में जान सके | के लिये तैयार रहेंगे। सकता है। और सरकार भी इससे प्रभावित हो। आचार्य 6, शिक्षक आवास, जैन डिग्री कालेज, भूमंडलीकरण और विश्वव्यापार ने | श्री विद्यासागर जी का यह कथन कि 'हिंसा । खतौली (उ.प्र.) भजन कविवर दौलतराम जय श्री वीर जिनेन्द्र-चन्द्र, शत इन्द्र-वंद्य जगतारं॥ सिद्धारथ-कुल-कमल अमल रवि, भव-भूधर पवि भारं। गुन-मुनि-कोष अदोष मोखपति, विपिन-कषाय तुषारं। मदन-कदन शिव-सदन पद नमित, नित अनमित यति सारं। अर्थ सौ इन्द्रों द्वारा वन्दनीय और जगत को तारने वाले श्री महावीर जिनेन्द्र रूपी चन्द्रमा जयवन्त रहें। वे राजा सिद्धार्थ के कुलरूपी स्वच्छ कमल के लिये सूर्य हैं, संसाररूपी पर्वत के लिये मजबूत वज्र हैं, गुणरूपी मणियों के भण्डार है, निर्दोष मोक्ष के स्वामी हैं और कषायरूपी जंगल के लिये बर्फ के समान हैं। वे कामदेव को नष्ट करने वाले हैं और कल्याण के घर हैं। उनके चरणों में नित्य अगणित श्रेष्ठ यति नमस्कार करते हैं। वे अनन्त लक्ष्मी के पति हैं, मृत्यु का अन्त करने वाले हैं और प्राणिमात्र के हितकारी हैं। उन्होंने चन्दना के बन्धनों को काटा है और मेंढक के पापों को तुरन्त नष्ट किया है। रुद्र द्वारा किये गये महाभयंकर उपद्रवरूपी पवन के समक्ष वे श्रेष्ठ पर्वतराज हैं। कविवर दौलतराम कहते हैं कि हे जगत-शिरोमणि महावीर जिनेन्द्र! आपके सुगुण अनन्त और आचिन्त्य हैं। उन्हें कहने में कौन पार पा सकता है? मैं आपके चरणों में हाथ जोड़कर मस्तक झुकाता हूँ। प्रस्तुति : शुद्धात्म प्रकाश जैन रमा-अनन्त-कन्त अन्तक-कृत-अन्त जन्तु-हितकारं॥ फन्द चन्दना कन्दन दादुर, दुरित तुरित निर्वार। रुद्ररचित अतिरुद्र उपद्रव, पवन अद्रिपति सारं॥ अन्तातीत अचिन्त्य सुगुन तुम, कहत लहत को पारं। हे जगमौल! 'दौल' तेरे क्रम, नमें शीश कर धार।। dem जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारीलोक जैन संस्कृति एवं साहित्य का मुकुटमणि - कर्नाटक और उसकी कुछ ऐतिहासिक श्राविकाएँ प्रो. (डॉ.) श्रीमती विद्यावती जैन कर्नाटक प्रदेश भारतीय संस्कृति के लिये युगों-युगों से एक त्रिवेणी संगम के समान रहा है। भारतीय भूमण्डल के तीर्थयात्री अपनी तीर्थयात्रा के क्रम में यदि उसकी चरण-रज वन्दन करने के लिये वहाँ न पहुँच सकें, तो उनकी तीर्थयात्रा अधूरी ही मानी जायेगी। जैन संस्कृति, साहित्य एवं इतिहास से भी यदि कर्नाटक को निकाल दिया जाय तो स्थिति बहुत कुछ वैसी ही होगी जैसे भारत के इतिहास से मगध एवं विदेह को निकाल दिया जाए। यदि दक्षिण के इतिहास से गंग, राष्ट्रकूट एवं चालुक्यों को निकाल दिया जाय, तो स्थिति बहुत कुछ वैसी ही होगी, जैसे मगध से नन्दों, मौर्यो एवं गुप्तों के इतिहास को निकाल दिया जाय । दक्षिण भारत के जैन इतिहास से यदि पावन नगरी 'श्रवणबेलगोल' को निकाल दिया जाय, तो उसकी स्थिति वैसी ही होगी, जैसी, राजगृही, उज्जयिनी, कौशाम्बी एवं हस्तिनापुर को जैन- पुराण साहित्य से निकाल दिया जाय। जैन इतिहास एवं संस्कृति की एकता, अखण्डता तथा सर्वांगीणता के लिये, कर्नाटक का उक्त सभी आयामों की समान रूप से सहभागिता एवं सहयोग रहता आया है। यही क्यों? भारतीय इतिहास की निर्माण सामग्री में से यदि कर्नाटक की शिलालेखीय एवं प्रशस्तिमूलक सामग्री तथा कलाकृतियों को निकाल दिया जाए, तो स्थिति ठीक वैसी ही होगी, जैसे सम्राट अशोक एवं सम्राट खारवेल की शिलालेखीय पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक सम्पदा को भारतीय इतिहास से निकाल दिया जाय। इसी प्रकार, मध्यकालीन भारतीय सामाजिक इतिहास में से यदि कर्नाटक की यशस्विनी श्राविकाओं के इतिहास को उपे 24 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित प्रो. (डॉ.) श्रीमती विद्यावती जैन जैनजगत् की जानीमानी विदुषी हैं। ये प्रसिद्ध विद्वान् प्रो. (डॉ.) राजाराम जी जैन की सहधर्मिणी हैं। श्रीमती विद्यावती जी लेखनकार्य में अपने पतिश्री के साथ ही साथ चल रही हैं। उनके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। पत्रिकाओं में उनके लेख भी प्राय: प्रकट होते रहते हैं। प्रस्तुत लेख में उन्होंने कर्नाटक की ऐतिहासिक श्राविकाओं के यशस्वी जीवन को उद्घाटित किया है। इसे 'जिनभाषित' में क्रमश: प्रकाशित किया जा रहा है। क्षित कर दिया जाय, तो भारत का सामाजिक इतिहास निश्चय ही विकलांग हो जायेगा। उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भारत के बहुआयामी इतिहास के लेखन में कर्नाटक का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। उसके मध्यकालीन राजवंशों ने जहाँ अपनी राष्ट्रवादी एवं जनकल्याणी भावनाओं से अपनी-अपनी राज्य सीमाओं को सुरक्षित रखा और अपने यहाँ के वातावरण को सुशान्त एवं कलात्मक बनाया, वहीं उन्होंने अपनी संस्कृति, सभ्यता, कला एवं साहित्य के विकास के लिये साधकों, चिन्तकों, लेखकों, कलाकारों एवं शिल्पकारों को बिना किसी भेद-भाव के सभी प्रकार की साधन-सुविधाएँ उपलब्ध कराईं, उनके लिये विद्यापीठ, अध्ययन-शालाएँ एवं ग्रन्थागार स्थापित कर जो भी कार्य किये, वे भारतीय परम्परा में आदर्श एवं अनुपम उदाहरण हैं। वहाँ के पुरुष वर्ग ने जो-जो कार्य किये, वे तो इतिहास के अमिट अध्याय हैं ही, वहाँ की महिलाओं के संरचनात्मक कार्य भी अत्यन्त अनुकरणीय एवं आदर्श प्रेरक रहे हैं। चाहे साहित्य-लेखन के कार्य हों, पाण्डुलिपियों की सुरक्षा एवं प्रतिलिपि सम्बन्धी कार्य हों, मंदिर एवं मूर्ति निर्माण अथवा प्रतिष्ठा कार्य हों और चाहे प्रशासन सम्बन्धी कार्य हों, वहाँ की जागृत नारियों ने पुरुषों के समकक्ष ही शाश्वत मूल्य के कार्य किये हैं। आज भारत की राजनैतिक पार्टियाँ भले ही महिलाओं के आरक्षण एवं समानाधिकार के नारे लगाते-लगाते वर्षों तक नारीसमाज को छल-छद्म या शब्दों के चक्रव्यूह में उलझाये रखें, किन्तु कर्नाटक की आदर्श राज्यप्रणाली ने उसे सातवीं-आठवीं सदी से बिना किसी रोक-टोक के समानाधिकार दे रखे थे। कर्नाटक के सामाजिक इतिहास के निर्माण में योगदान करने वाली ऐसी सैकड़ों सन्नारियाँ हैं, जिनकी इतिहास - परक प्रशस्तियाँ वहाँ के शिलालेखों, मूर्तिलेखों एवं स्तम्भ लेखों में अंकित हैं, तथा वहाँ की किंवदन्तियों, कहावतों एवं लोकगाथाओं में आज भी जीवित हैं । किन्तु यह खेद का विषय है कि अभी तक उसका सर्वांगीण सर्वेक्षण एवं मूल्यांकन नहीं हो सका है। उपलब्ध सन्दर्भसामग्री में से सभी का यहाँ परिचय दे पाना तो सम्भव नहीं, किन्तु कुछ महिलाओं का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही हूँ विदुषी कवियित्री कन्ती देवी कवियित्री कन्ती (सन् 1140 के लगभग) उन विदुषी लेखिकाओं में से है, जिसने साहित्य एवं समाज के क्षेत्र में बहुआयामी कार्य तो किये, किन्तु यश की कामना कभी नहीं की। जो कुछ भी कार्य उसने किया, सब कुछ निस्पृह भाव से । कन्नड़ महाकवि बाहुबली (सन् 1560) ने अपने 'नागकुमार चरित' में उसकी दैवीप्रतिभा तथा ओजस्वी व्यक्तित्व की चर्चा की है और बतलाया है कि वह द्वार समुद्र (दोर समुद्र) के राजा बल्लाल द्वितीय की विद्वत्सभा की सम्मानित विदुषी कवियित्री थी । बाहुबली ने उसके लिये विद्वत्सभा की मंगललक्ष्मी, शुभगुणचरिता, अभिनव वाग्देवी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसी अनेक प्रशस्तियों से सम्मानित कर उसकी गुण- गरिमा की प्रशंसा की है। इन संदर्भों से यह स्पष्ट है कि कन्ती उक्त बल्लालराय की राज्यसभा की गुण-गरिष्ठा सदस्या थी। 1 महाकवि देवचन्द्र ने अपनी 'राजाव लिक में एक रोचक घटना का चित्रण किया है उसके अनुसार दोरराय ने दोरसमुद्र नामक एक विशाल जलाशय का निर्माण कराया तथा एक ब्राह्मणकुलीन धर्मचन्द्र को अपने मन्त्री के पद पर नियुक्त कर लिया। उस मन्त्री का पुत्र वहीं शिक्षक का कार्य करने लगा। उसकी विशेषता यह थी कि वह ज्योतिष्मती नामकी एक विशिष्ट तैलौषधि का निर्माण भी करता था, जो बुद्धिवर्धक थी वह मन्दबुद्धिवालों की बुद्धि बढ़ाने के लिये एक खुराक में केवल आधी-आधी बूँद ही देता था लेकिन सभी लोग उसका साक्षात् प्रभाव देखकर आर्यचकित रहते थे। कन्तीदेवी भी उस औषधि का सेवन करती थी। एक दिन उसने अवसर पाकर तत्काल ही तीव्रबुद्धिमती बनने के उद्देश्य से एक ही बार में उस दवा का अधिक मात्रा में पान कर लिया। अधिक मात्रा के कारण उसके शरीर में इतनी दाह उत्पन्न हुई कि उसे शान्त करने के लिये वह दौड़कर कुएं में कूद पड़ी कुआँ अधिक गहरा न था । अतः वह उसी में खड़ी रही। उसी समय उसमें कवित्व शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और तार - स्वर से वह स्वनिर्मित कविताओं का पाठ करने लगी। उसकी कविताएँ सुनकर सभी प्रसन्न हो उठे। जब राजा दोरराव को यह सूचना मिली तो उन्होंने परम विश्वस्त उभयभाषा- कवि अभिनव पम्प को उसकी परीक्षा लेने हेतु उसके पास भेजा। वहाँ जाकर पम्प ने उससे जितने भी कवित्व-मय प्रश्न किये, कन्ती ने सभी का सटीक उत्तर देकर पम्प को विस्मित कर दिया। दोरराय ने यह सब सुनकर तथा उसकी अलौकिक काव्य प्रतिभा से प्रसन्न होकर उसे तत्काल ही अपनी विद्वत्सभा का सदस्य घोषित किया तथा उसे 'अभिनव वाग्देवी' के अलंकरण से अलंकृत किया। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आर. नरसिंहाचार्य की मान्यता के अनुसार दोरराय का अपरनाम ही बल्लाल था और उसकी राज्य सभा में महाकवि अभिनव पम्प, कन्ती आदि प्रसिद्ध कवियों का जमघट रहता था। कन्ती की शृंखलाबद्ध रचनाएँ वर्तमान | दान- चिन्तामणि अत्तिमव्वे में अनुपलब्ध है। 'कन्ती पम्पन समस्येगलु इस नाम से कुछ प्रकीर्णक पद्य अवश्य मिलते है। उन्हें देखकर यह विदित होता है कि वह समस्या- पूर्ति करने में उसी प्रकार निपुण थी, जिस प्रकार कि चम्पा नरेश राजा श्रीपाल की महारानी और उज्जयिनी नरेश राजा पुहिपाल की पुत्री राजकुमारी मैनासुन्दरी । कहा जाता है कि अभिनव पम्प एवं कन्ती में प्रायः ही वाद-विवाद चलता रहता था। किन्तु वह पम्प से न तो कभी हार मानने को तैयार रहती थी और न कभी वह उसकी प्रशंसा ही करती थी, यद्यपि भीतर से आदर का भाव अवश्य रखती थी। एक दिन पम्प ने प्रतिज्ञा कि वह कन्ती से अपनी प्रशंसा कराकर ही रहेगा। अतः उसने अवसर पाकर कन्ती के पास झूठ-मूठ में ही अपनी मृत्यु का समाचार भिजवा दिया। इस दुखद समाचार को सुनकर कन्ती बड़ी दुखी हुई । तुरन्त ही वह उनके आवास पर पहुँची और वहीं दरवाजे के बाहर की बैठकर रुदन करने लगी और कहने लगी- "हे कविराय हे कविपितामह, हे कवि-कण्ठाभरण, हे कविशिखामणि, हाय, अब मेरे जीवन की सार्थकता ही क्या रही जब मेरे गुणों की प्रशंसा करने वाली ही संसार से उठ गया? अभिनवपम्प जैसे महाकवि से ही राजदरबार की शोभा थी। उनकी काव्य- सुषमा के साथ मेरा भी कुछ विकास हो रहा था। थोड़ी ही देर में पम्प हँसता हुआ बाहर आया और कन्ती से बोला "हे प्रिय कवियित्री आज मेरा प्रण पूरा हो गया है, क्योंकि तुमने मेरे घर पर आकर मेरी प्रशंसा की है।" किन्तु धन्य वह कन्ती जो नाराज होने के बदले उन्हें अपने सम्मुख साक्षात् देखकर प्रफुल्लित हो उठी। कन्नड़ साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् पं. के. भुजबली शास्त्री के अनुसार 'कन्ती पम्पन समस्येगल' इस नाम के जो भी पद्य वर्तमान में उपलब्ध होते हैं, वे साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर है यहाँ पर उनमें से केवल एक पद्य, जो कि निरोष्ठ्य-काव्य का उदाहरण है, प्रस्तुत किया जा रहा है सुरनरनागाधी शरही रकिरीटामलग्नचरणसरोजा धीरोदारचरित्रोत्सारितकलुषौघरक्षिसल्करिनर्हा ॥ बस, कन्ती के विषय में इससे अधिक कुछ नहीं मिलता। महासती श्राविका अत्तिमव्वे (10वीं सदी) न केवल कर्नाटक की अपितु समस्त महिला जगत के गौरव की प्रतीक है। 11वीं सदी के प्रारम्भ के उपलब्ध शिलालेखों के कल्याणी- साम्राज्य के उत्तरवर्ती चालुक्यअनुसार यह वीरांगना दक्षिण भारत के नरेश तैलपदेव आहवमल्ल के प्रधान सेनापति मल्लप की पुत्री तथा महादण्डनायक वीर नागदेव की धर्मपत्नी थी। उसके शील, सदाचार, पातिव्रत्य एवं वैदुष्य के कारण स्वयं सम्राट भी उसके प्रति पूज्य दृष्टि रखते थे। कहा जाता है कि अपने अखण्ड पातिव्रत्य धर्म और जिनेन्द्र-भक्ति में अडिग आस्था के फलस्वरूप उसने गोदावरी नदी में हुई प्रलयंकारी बाढ़ के प्रकोप को भी शान्त कर दिया था। और उसमें फँसे हुए सैकड़ों वीर सैनिकों एवं अपने पति दण्डनायक नागदेव को वह सुरक्षित वापिस ले आई थी। कवि चक्रवर्ती रन्न (रत्नाकर) ने अपने अजितनाथपुराण की रचना अत्तिमव्वे के आग्रह से उसी के आश्रय में रहकर लिखी थी। महाकवि रन्न ने उसकी उदारतापूर्ण दान - वृत्ति, साहित्यकारों के प्रति वात्सल्य प्रेम, जिनवाणी- भक्ति, निरतिचार शीलव्रत एवं सात्विक सदाचार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और उसे 'दान चितामणि' की उपाधि से विभूषित किया है। उसने अत्तिमध्ये स्वयं तो विदुषी थी ही, कुछ नवीन- काव्यों की रचना के साथ ही प्राचीन जीर्ण-शीर्ण ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों के उद्धार की ओर भी विशेष ध्यान दिया। उसने उभय-भाषा चक्रवर्ती महाकवि पोन्नकृत शान्तिनाथ पुराण' की पाण्डुलिपि की 1000 प्रतिलिपियाँ कराकर विभिन्न शास्त्र भण्डारों में वितरित कराई थीं। यही नहीं, उसने स्वर्ण, रजत, हीरा, माणिक्य आदि की 1500 भव्य मूर्तियाँ बनवाकर भी विभिन्न जिनालयों में प्रतिष्ठित कराई थीं। इन सत्कार्यों के अतिरिक्त भी उसने जिनालयों की पूजा-अर्चना हेतु प्रचुर मात्रा में भूदान भी दिया और सर्वत्र चतुर्विध दानशालाएँ खुलवाई थीं। इस प्रकार उसने भगवान महावीर के सर्वोदयी आदर्शों का चहुँ ओर प्रचार-प्रसार कर यशार्जन किया था। महाजन टोली नं. 2, आरा- 802301 (बिहार) - जुलाई- - अगस्त 2001 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकजुटता की आवश्यकता डॉ. श्रेयांसकुमार जैन आज की आवश्यकता समाज को | जाते हैं। महाकवि माघ भी कहते हैंएकसूत्र में बाँधने की है। एकसूत्र में बँधे बिना | उक्त कथन से शिक्षा लेना आवश्यक बृहत्सहायः कार्यान्तं क्षोदीयानपि गच्छति। समाज का बिखराव हो रहा है। साधु संस्था | है कि यदि दिगम्बर जैन समाज छोटे-छोटे सम्भूयाभ्भोधिमभ्येति महानद्या इवापगा। अलग-अलग पंथ और पक्ष को पुष्ट कर रही | निजी स्वार्थों को तिलाञ्जलि देकर एक नहीं अर्थात् जिस प्रकार साधारण नदी है। श्रावकों में तो विभिन्न घटक बनते ही जा | होता है, तो वह राष्ट्रीय स्तर के कार्यों को महानदी के सहयोग (मेल) से समुद्र में रहे हैं। विद्वान् परस्पर के विरोधभाव से बँटते करने/कराने में सक्षम नहीं हो सकता। वर्तमान प्रविष्ट हो जाती है उसी प्रकार साधारण मनुष्य जा रहे हैं। यह अलगाव और स्वार्थ की प्रवृत्ति में समाज को राष्ट्रस्तर पर अपनी प्रतिष्ठा को भी महापुरुषों की सहायता को प्राप्त होकर धर्म और समाज दोनों की बहुत बड़ी क्षति प्रतिष्ठित करना है। राजनीतिक, धार्मिक और कर्यसिद्धि कर लेता है। का कारण है। कोई ऐसा संगठन बने जो सभी | आर्थिक जगत् में विशिष्टता प्राप्त करने के सम्पूर्ण सामाजिक संस्थाएँ विद्वत्को जोड़ने का कर्य करे। लिये सबसे बड़ी आवश्यकता परस्पर | संस्थाएँ, शैक्षिक संस्थाएँ, धार्मिक संस्थाएँ, भगवान महावीर के अनुयायी यदि एक | भगवान् महावीर के पञ्चशील : अहिंसा, धारा में नहीं हुए तो भगवान महावीर का मध्यवर्गीय लोगों से जुड़कर चले। विद्वानों के सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह 2600 वाँ जन्मोत्सव मनाने का क्या साथ विचार-विमर्श करके निर्णय लिए जायें। सिद्धांतों को घर-घर में पहुँचाने का ही उद्देश्य परिणाम है? हम सभी को यह प्रयास करना प्रत्येक व्यक्ति के प्रति समानता और सम्मान लेकर कार्य करें तो निश्चित ही सफलता चाहिए कि अन्तर्विरोधों का अन्त हो, ताकि की दृष्टि रखी जाए तो समाज का विकास ही मिलेगी, भगवान महावीर का 2600वाँ छोटे-छोटे स्वार्थों के वशीभूत होकर संस्कृति नहीं होगा, अपितु समाज संस्कारसम्पन्न भी जन्मोत्सव मनाना पूर्ण सार्थक होगा। और समाज का जबरदस्त नुकसान न हो होगा। सहयोग की भावना से होने वाले कार्य 24/32, गांधी रोड, बड़ौत-250611 सके। सभी को इष्ट होते हैं और सकलार्थसिद्धि संगठित होकर जो भी कार्य किया दायक होते हैं। अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जायेगा, उसका विशेष महत्त्व होगा, उसके सहयोग की अपेक्षा तो सभी को होगी, | जैन विद्वत्परिषद् स्वर्णजयन्ती परिणाम दूरगामी होंगे। समाज और संस्कृति | क्योंकि भगवान महावीर का धर्म प्राणीमात्र का का उत्कर्ष होगा। राजनीतिक क्षेत्र में सफलता धर्म है, वही अहिंसा धर्म है, उसी की वर्ष समापन समारोह एवं तो मिलेगी ही धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र छत्रछाया में प्रत्येक प्राणी सुखी हो सकता है। राष्ट्रीय विद्वत्संगोष्ठी में भी विशेष गौरव की वृद्धि होगी। यह जब जैनधर्म में प्रत्येक प्राणी के कल्याण की अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन वास्तविकता है कि संगठन के बिना भावना की मान्यता है तो क्या दिगम्बर विद्वत्परिषद् स्वर्ण जयंती वर्ष समापन सामाजिक शक्तियाँ विशृंखलित हुई हैं और जैनधर्मानुयायी भी परस्पर में एक नहीं हो समारोह के अंतर्गत 155 विद्वानों की होंगी। बिखरी हुई सूर्य की रश्मियाँ किसी काँच सकते? यह वर्ष भगवान् महावीर के उपस्थिति में विद्वत्परिषद् का 21 वाँ साधारण विशेष में केन्द्रित हो जाने से अपने नीचे रखी सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार का है। इसमें सभा का अधिवेशन एवं '20वीं शताब्दी की हुई रुई आदि को अग्निरूप में प्रज्वलित भगवान् महावीर के द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं को दिगम्बर जैन विद्वत्परम्परा का अवदान' कराने में सहायक हो जाती हैं। इसके विपरीत जीवन में उतारकर समस्त विरोधभावों को विषय पर आयोजित समारोह 15-17 जून असंगठित छोटे से शक्तिहीन तिनके को पक्षी छोड़कर या गौणकर अनेकान्त, अपरिग्रह 2001 तक सराकोद्धारक परम पूज्य उपाअपने कोमल चञ्चुपुट से भी तोड़ डालता है। और अहिंसा के सिद्धान्तों का भरपूर प्रचार ध्याय 108 श्री ज्ञानसागर जी महाराज, पूज्य यदि वे ही तिनके संगठित हो जाते हैं, तो करना ही एकमात्र उद्देश्य बनाया जाए। घर- 108 श्री मुनि वैराग्यसागर जी महाराज एवं उनसे हाथी को भी बाँध लिया जाता है, जैसा घर में महावीर की वाणी को पहुँचाया जाए पूज्य 105 क्षुल्लक सम्यक्त्वसागर जी कि नीतिकार का भी कहना है और जीवमात्र के उद्धार के कार्यक्रमों को महाराज संघस्थ आदरणीय ब्र. अनिता दीदी अल्पानामपि वस्तूनां संहतिः कार्यसाधिका। आयोजित कराया जाए। यह सब निर्ग्रन्थ | एवं विदुषी ब्र. मंजुला दीदी के ससंघ तृणैर्गुणत्वमापन्नध्यन्ते मत्तदन्तिनः।। दिगम्बर वीतरागी महावीर के उपासकों की सान्निध्य में श्री दिगम्बर जैन प्राचीन पार्श्वनाथ अर्थात् छोटी-छोटी वस्तुओं की एकता- एकजुटता और परस्पर के सहयोग के बिना अतिशय क्षेत्र बडागाँव (खेकड़ा) वागपत कार्यसिद्धि में समर्थ होती है, क्योंकि संगठित | संभव नहीं है। सहयोग से दुर्लभ और असंभव (उ.प्र.) में अपार जनसमूह की उपस्थिति में रस्सीरूप तृणों के द्वारा मन्दोन्मत्त हाथी बाँधे | कार्य सुलभ और संभव बन जाते हैं जैसा कि | सम्पन्न हुआ। 26 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 जून 2001 को प्रातः 8 बजे | सागर, श्रीमती सुमनलता जैन, शाहपुर, डॉ. | बासौदा, डॉ. विमलकुमार जैन, जयपुर, पं. ध्वजारोहण के साथ कार्य प्रारंभ हुआ। | शोभालाल जैन, जयपुर, डॉ. पुष्पराज जैन, | सनतकुमार जैन, खिमलासा, पं. माणिकध्वजारोहण क्षेत्र कमेटी के मंत्री श्री सुभाषचन्द्र | ग्वालियर, डॉ. कस्तूरचन्द्र सुमन, श्री | चन्द जैन, बांसातारखेड़ा, श्रीमती सरोज जी जैन ने किया। तदुपरान्त प्रथम सत्र '20 | महावीर जी, श्री पद्मचन्द शास्त्री, पानीपत, | जैन, बीना, पं. ज्योतिबाबू जैन, जयपुर, डॉ. वीं शताब्दी की दिगम्बर जैन विद्वत् परम्परा | पं. विजयकुमार शास्त्री, श्री महावीर जी ने | सनतकुमार जैन, जयपुर, श्री सुरेशचन्द जैन, का अवदान' विषय पर पूज्य उपाध्याय जी आलेख प्रस्तुत किये। इस सत्र की अध्यक्षता मारौरा, पं. राजकुमार जैन, जयपुर, पं. महाराज के ससंघ सान्निध्य एवं डॉ. | कर रहे पं. रतनलाल जी शास्त्री ने कहा कि हेमचन्द जैन, रेवाड़ी, प्रो. के.के. जैन, बीना। भागचन्द जी भास्कर की अध्यक्षता में प्रारंभ पूज्य उपाध्याय श्री की प्रेरणा से 20वीं | सत्र की अध्यक्षता कर रहे पं. आदित्यजी ने हुआ। संगोष्ठी का मंगल कलश स्थापन क्षेत्र शताब्दी के विद्वानों के अवदान को स्मरण कर | उद्बोधन में कहा कि विद्वत्परिषद् के कमेटी के निर्माण मंत्री पदमसेन जैन ने किया | विद्वत् परिषद् ने सराहनीय एवं प्रशंसनीय | स्वर्णजयन्ती समापन समारोह के अवसर पर एवं दीप प्रज्वलन पं. रतनलाल जी जैन | कार्य किया है। विद्वानों ने जो आलेख प्रस्तुत | 56 वर्ष के इतिहास में इस संगोष्ठी का (इंदौर) ने किया। सत्र में डॉ. श्रेयांसकुमार | | किये वे शोधपूर्ण थे। इन आलेखों के छपने | आयोजन महत्त्वपूर्ण कार्य है। इस संगोष्ठी से जैन, बड़ौत, डॉ. फूलचन्द्र 'प्रेमी', वारा- से नई पीढ़ी के विद्वानों को लेखन की प्रेरणा विस्मृत विद्वानों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की णसी, डॉ. नेमीचन्द्र जैन, 'प्राचार्य' खुरई, | मिलेगी। गई है। संगोष्ठी से अनेक विद्वानों पर पं. निर्मल कुमार जैन सतना, ने महत्त्वपूर्ण | 15 जून, 2001 रात्रि 8 बजे संगोष्ठी महत्त्वपूर्ण आलेख प्रस्तुत हुए हैं। इस पत्रवाचन किये। इस सत्र के अध्यक्ष डॉ. | तृतीय सत्र प्रारंभ हुआ। इसकी अध्यक्षता पं. महत्त्वपूर्ण उपलब्धि का श्रेय पूज्य उपाध्याय भागचन्द जी भास्कर ने अध्यक्षीय उद्बोधन | सुमतिचन्द शास्त्री मुरैना ने की। इस सत्र में | ज्ञानसागर जी महाराज को है। में कहा कि पंचकल्याणक हों, किन्तु 10 | निम्नलिखित विद्वानों ने आलेख प्रस्तुत 16 जून 2001 को दोपहर 1 बजे से प्रतिशत व्यय साहित्य सृजन एवं विद्यार्थियों |किये: विद्वत् परिषद् की साधारण सभा का के अध्ययन अध्यापन हेतु प्रयोग हो, ऐसी | पं. गजेन्द्र जैन, फर्रूखनगर, पं. | अधिवेशन हुआ। व्यवस्था में उपाध्याय श्री का आशीर्वाद एवं पूर्णचन्द्र सुमन, दुर्ग, पं. निर्मल कुमार 16 जून 2001 रात्रि 8 बजे पं. प्रेरणा प्राप्त हो। सत्यार्थी, जयपुर, श्रीमती प्रभा जैन, श्रेयांस निहालचन्द जी प्राचार्य, बीना की अध्यक्षता ___ पूज्य उपाध्याय श्री ने प्रथम सत्र के | कुमार शास्त्री, किरतपुर, प्रेमचन्द्र जी दिवाकर में निम्नलिखित विद्वानों ने महत्त्वपूर्ण आलेख पत्रवाचकों के आलेखों की गहन एवं | डीमापुर, डॉ. कैलाशकमल ग्वालियर, पं. प्रस्तुत किये। डॉ. ज्योति जैन, खतौली, डॉ. महत्त्वपूर्ण समीक्षा करते हुए कहा कि 20 वीं | सरमनलाल दिवाकर हस्तिनापुर, पं. भाग- शिवदर्शन तिवारी, दमोह, कु. समता जैन, सदी में विद्वानों ने अनेक कष्टों के बीच कार्य | चन्द इन्दु गुलगंज, डॉ. विमला जैन, शिवपुरी, डॉ. जी.पी. स्वर्णकार, डॉ. किया है। पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, श्री | फिरोजाबाद, डॉ. बारेलाल जैन, रीवा, पं. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर, डॉ. अशोक कुमार ए.एन. उपाध्ये, डॉ. हीरालाल जैन ने साहित्य | दयाचंद शास्त्री सतना, पं. कैलाशचन्द्र जैन, लाडनूं, श्रीमती सिन्धुलता जैन, जयसृजन समर्पण भाव से किया है। उन्होंने | मलैया, पं. छोटे लाल जी जैन झांसी, पं. पुर, डॉ. हुकुम चन्द संगवे, डॉ. लालचन्द समाज के मानसम्मान की परवाह नहीं की, | विमल कुमार जैन, जयपुर। जैन, वैशाली, पं. विजयकुमार जैन, लख नऊ, डॉ. हरिश्चन्द्र जैन, मुरैना, पं. कुमार जी, पं. बाबूलाल जमादार आदि | शास्त्री ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि रतनचन्द जैन, रहली, डॉ. सूरज मुखी जैन, विद्वानों ने भी कर्य किये हैं। भगवान महावीर | 20वीं शताब्दी के विद्वानों पर संगोष्ठी करके डॉ. शीतलप्रसाद जैन, मुज्जफरनगर। के 2600वें जन्मकल्याणक महोत्सव पर भी विद्वत् परिषद् के मंत्री डॉ. शीतलचन्द्र जैन साधारण सभा के अधिवेशन के क्रम भगवान महावीर और उनकी 20वीं शताब्दी ने सराहनीय कार्य किया है। आपके नेतृत्व में में अखिल भा.दि. जैन वि.परिषद् द्वारा तैयार की विद्वत्परम्परा पर ग्रन्थ प्रकाशित होना विद्वत्परिषद् का संगठन मजबूत हुआ है और ग्रंथ 'ज्ञानायनी' ग्रंथ का विमोचन पूज्य चाहिए। सत्र का सफल संचालन विद्वत्परिषद् परिषद् में चेतना आयी है। उपाध्याय श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज के के मंत्री डॉ. शीतलचन्द्र जैन ने किया। 16 जून 2001 को प्रातः 8 बजे कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। ग्रन्थ के 15 जून 2001 दोपहर 1 बजे से | | पूज्य उपाध्याय ज्ञानसागर जी महाराज के प्रकाशन में अर्थसौजन्य श्री भोपाल सिंह संगोष्ठी का द्वितीय सत्र पूज्य उपाध्याय श्री ससंघ सान्निध्य में संगोष्ठी का चतुर्थ सत्र अशोक कुमार जी, शामली श्री ज्ञानचन्द जी के सान्निध्य एवं पं. रतनलाल जी शास्त्री | प्रारंभ हुआ जिसकी अध्यक्षता पं. गुलाबचन्द्र ठोलिया, शामली, शेखचन्द जी पाटोदी, इंदौर की अध्यक्षता में प्रारंभ हुआ। इसमें डॉ. जी आदित्य, भोपाल ने की। इस सत्र में शामली ने प्रदान किया। इस अवसर पर उक्त भागचन्द जी भास्कर नागपुर, डॉ. ऋषभ | निम्नलिखित विद्वानों ने आलेख प्रस्तुत श्रेष्ठियों का स्वागत भी किया गया। चन्द्र जैन फौजदार, वैशाली, डॉ. नरेन्द्र | किये डॉ. शीतलचन्द्र जैन कुमार जैन, सनावद, पं. शीतल चन्द्र जैन, पं. लालचन्द जी जैन राकेश, गंज मंत्री जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध सम्भावनाओं से भरा जैनसाहित्य आज का युग विज्ञान का युग है। आज हर क्षेत्र में विज्ञान का बोलवाला है। विज्ञान का अर्थ विशेष ज्ञान भी है। क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप में किया गया कोई भी कार्य वैज्ञानिक कहा जा सकता है। जैन साहित्य / संस्कृति / कला / पुरातत्त्व / आगम / न्याय/ दर्शन/ पुराण / योग / गणित / राजनीति / समाजशास्त्र / भूगोल /शिक्षा/अर्थशास्त्र/ कर्मविज्ञान/ मनोविज्ञान/ इतिहास / नीतिशास्त्र / आचारशास्त्र आदि अनेक विषयों पर जैन साहित्य उपलब्ध है, जिसमें अपरिमित शोध सम्भावनाएं हैं। इतना ही नहीं हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, मराठी, कन्नड़, राजस्थानी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओं में जैन साहित्य रचा गया है। यहाँ तक कि उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में भी पर्याप्त जैन साहित्य लिखा जा चुका है। पिछले दिनों हमें मुजफ्फरनगर जिले के एक ग्राम में लगभग 25 उर्दू भाषा में लिखित जैन पुस्तकें होने की जानकारी मिली उन बन्धु ने पं. डोटरमल द्वारा लिखित 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' तो हमें स्वयं दिखाई। इस प्रकार अनेक भाषाओं में अनेक विषयों पर अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। गुणवत्ता की दृष्टि से भी ये इक्कीस हैं, उन्नीस नहीं पर प्रश्न है कि कितने लोग इन्हें जानते हैं। सामान्य जन की बात तो दूर, साहित्य और संस्कृति से सरोकार रखने वाले अजैन तक जैन साहित्य के संदर्भ में कुछ विशेष नहीं जानते। इसका कारण खोजने का हमने कभी विशेष प्रयत्न नहीं किया। जहाँ तक हम समझ सके है इसका मूल कारण यही है कि हमने जैन धर्म के घटक मंदिरों/धर्मायतनों पर तो विशेष ध्यान दिया साहित्य पिछड़ता ही गया। यही स्थिति कमोवेश आज भी है। आज आवश्यकता है कि श्रीमान् और श्रीमान् दोनों मिलकर एक ऐसी कार्य योजना बनायें जो जैन साहित्य और शोध के विकास 28 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित डॉ. कपूरचन्द्र जी जैन कुन्दकुन्द जैन पी. जी. कालेज खतौली उ.प्र. में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष हैं। ये न केवल कुशल शोधकर्ता और शोधनिर्देशक हैं, अपितु जैनविद्या में हुए शोधकार्यों का लेखा-जोखा भी रखते हैं। इन्होंने 'प्राकृत एवं जैनविद्या शोधसन्दर्भ' नाम का ग्रन्थ भी प्रकाशित किया है जिसमें पी-एच.डी., डी.लिट्. आदि उपाधियों के लिए लिखे गये शोध प्रबन्धों का विवरण है। इससे जहाँ विद्याप्रेमियों को जैनविद्या के क्षेत्र में सम्पन्न हुए शोधकार्यों की झलक मिलती है, वहीं भावी शोधकर्ताओं को शोधविषय निर्धारित करने हेतु मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है। प्रस्तुत लेख जैनसाहित्य में निहित प्रचुर शोध सम्भावनाओं के तथ्य को अनावृत करता है। में मील का पत्थर सिद्ध हो। श्रीमान् अपनी श्री (लक्ष्मी) और धीमान् अपनी धी (बुद्धि) के समर्पण से इस कार्य योजना को मूर्तरूप दे सकते है। हमारे दिगम्बर समाज में तो इसकी महती आवश्यकता है। क्योंकि श्वेताम्बरों में तो जैन विश्व भारती लाडनूं, पा.वि. शोध संस्थान, वाराणसी, एल.डी. इंस्टीट्यूट, अहमदाबाद, बी. एल. इंस्टीट्यूट, दिल्ली जैसी कुछ संस्थाएँ हैं जो सर्वतोमावेन इस कार्य के लिए समर्पित है, परन्तु दिगम्बर जैन समाज में एकाध को छोड़कर कोई भी ऐसी सर्वमान्य संस्था नहीं है जिसका नाम इस विषय में लिया जा सके। विदेशों में आंग्ल भाषा में जो कुछ साहित्य है वह अधिकांशतः श्वेताम्बर मान्यता को पुष्ट करने वाला ही है और सम्भवतः उन्हीं के द्वारा / उन्हीं के प्रयत्नों से अनूदित/प्रकाशित / प्रसारित है। बीसवीं शताब्दी में विपुल मात्रा में जैन साहित्य का प्रकाशन हुआ है, विशेषतः पिछले 20 वर्षों में अनेक सुन्दर और गुणात्मक पुस्तकें बाजार में आई हैं, पर शोध प्रबन्धों की दृष्टि से देखें तो कम ही शोधप्रबन्ध प्रकाश में आ सके हैं। जैन साहित्य में शोधकार्य उपाधिनिरपेक्ष और उपाधि - सापेक्ष दोनों रूपों में हुए डॉ. कपूरचन्द्र जैन हैं, परन्तु यहाँ हम उपाधिसापेक्ष शोध की ही चर्चा करेंगे, क्योंकि उपाधि-निरपेक्ष शोध का क्षेत्र विशाल है, उसका आकलन ऐसे लघु निबन्ध में सम्भव भी नहीं । उपाधि - सापेक्ष शोध से तात्पर्य ऐसे शोध कार्य से है, जो किसी उपाधि की प्राप्ति हेतु किया गया हो। विभिन्न विश्वविद्यालय डी.लिट्. पी. एच. डी., विद्या वाचस्पति, विद्यावारिधि, डी. फिल्. आदि शोध उपाधियाँ देते हैं। एम.ए. और एम. फिल. के लघु शोध-प्रबन्ध ( डेजर्टेशन) के लिए भी अपेक्षाकृत छोटे शोध-प्रबन्ध लिखे जाते हैं। ये एक प्रश्न पत्र के रूप में होते हैं। प्राकृत, अपभ्रंश और जैन विषयों पर भी अनेक शोध-प्रबंध लिखे जा रहे हैं और पूर्व में भी लिखे जा चुके हैं। एक अनुमान के आधार पर लगभग डेढ़ हजार शोध-प्रबंध प्राकृत, अपभ्रंश और जैन विद्याओं पर लिखे जा चुके हैं। इनमें से लगभग एक हजार शोध प्रबन्धों की प्रामाणिक सूची हमारे पास उपलब्ध है। इसी प्रकार लगभग 200 शोध प्रबन्ध (प्रकाशित और टंकित) हमारे पास उपलब्ध हैं। 1988 में हमने विश्व विद्यालय अनुदान आयोग नई दिल्ली के आर्थिक सहयोग से 'A Survey of Prakrit Jainological Research' प्रोजेक्ट पूर्ण किया था जो रिपोर्ट आयोग को भेजी उसमें 425 शोध प्रबन्धों की जानकारी थी। इस रिपोर्ट का प्रकाशन 1988 में ही 'प्राकृत एवं जैन विद्या शोध संदर्भ' नाम से किया गया था। 1991 में इस पुस्तक का दूसरा संस्करण और 1993 में परिशिष्ट निकला। अब यह संख्या बढ़ते-बढ़ते एक हजार पर पहुँच गई है। 1990 में श्री कैलाश चंद्र जैन, स्मृति न्यास, खतौली ने प्राकृत एवं जैन विद्या . Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केन्द्रीय महिला-परिषद द्वारा पशुचिकित्सा कैम्प का आयोजन शोध-प्रबन्ध संग्रहालय की स्थापना की | एवं भाषा विज्ञान-31 (7) जैनागम-25 जिसमें वर्तमान में लगभग 200 शोध प्रबन्ध (8) जैन न्याय-दर्शन-122, (9) जैन संगृहीत हैं। अपनी तरह का यह पहला पुराण- 38 (10) जैन नीति/आचार/धर्म/ संग्रहालय है। योग-42, (11) जैन इतिहास/संस्कृति/ वर्तमान में लगभग 75 विश्वविद्या- कला/पुरातत्त्व-65 (12) जैन-बौद्ध तुलनालयों से जैन विद्याओं में शोध हो रहा है। त्मक अध्ययन-17, (13) जैन- वैदिक लगभग 35 स्वतंत्र संस्थान जैन विद्याओं पर | तुलनात्मक अध्ययन 21 (14) जैन रामशोध कराने का दम भरते हैं, किन्तु 4-5 को कथा साहित्य-38 (15) व्यक्तित्व एवं छोड़कर कहीं से भी शोध उपाधियाँ नहीं मिली कृतित्व- 60, (16) जैन विज्ञान एवं हैं। सच पूछा जाए तो वहाँ न शोध है न | गणित-09 (17) जैन समाज शास्त्र-13 संस्थान, मात्र कागजी शोध-संस्थान हैं। । (18) जैन अर्थशास्त्र-05, (19) जैन शिक्षा अनेकों के पास न स्वतंत्र भवन हैं, न शास्त्र-06 (20) जैन राजनीति-14, (21) पुस्तकालय, यह कटु सत्य है। पन्द्रह जैन मनोविज्ञान/भूगोल-08 (22) अन्यविश्वविद्यालयों में प्राकृत एवं जैन विद्याओं के 22, (23) विदेशी विश्वविद्यालयों से शोध अध्ययन के लिए स्वतंत्र या संयुक्त विभाग लगभग-80 इस प्रकार हमे देखते हैं कि जैन अब तक लगभग 100 निदेशकों के विद्याओं पर काफी शोध-कार्य हो चुका है, पर नाम हमें मिले हैं, जिनके निर्देशन में जैन | इससे भी कई गुना क्षेत्र आज भी अछूता पड़ा विद्याओं पर शोध कार्य हुए हैं। इनमें अनेक | है। जैन आगम और न्याय/दर्शन पर ही अजैन हैं। जैन विद्याओं पर हुए शोधकार्य में | सहस्रों शोधकार्य हो सकते हैं। जैन संस्कृत महिलाएं भी अग्रणी रही हैं। शोध कार्य करने साहित्य का बहुत सा भाग तो आज अछूता वालों में जैन एवं जैनेतर दोनों तरह के विद्वान ही है, अनेक संस्कृत पुस्तकें है जिनके सम्पादन और आलोचनात्मक या एकपक्षीय विदेशों में भी जैन विद्याओं पर अध्ययन पर शोध कार्य किया जा सकता है। लगभग 50 शोध प्रबंध लिखे जाने की प्राकृत और अपभ्रंश के भी अनेक ग्रन्थ जानकारी है। मुनि सुशील कुमार जी के प्रयास | शोधार्थियों की बाट जोह रहे हैं। जैन साहित्य से 1993 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय में में समाज/अर्थ/ मनोविज्ञान/ भूगोल/शिक्षा एक जैन चेयर की स्थापना हुई थी। मुनि श्री आदि के जो तत्त्व हैं उनका आकलन होना सुशील कुमार जी ने ही न्यूयार्क में अहिंसा बाकी है। आवश्यकता है एक समन्वय केन्द्र विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। कनाड़ा एवं की जो इस विषय में शोधार्थियों को मार्गदर्शन यू.एस.ए. में ब्राह्मी सोसायटी नामक संस्था दे सके। कार्यरत है, साथ ही लगभग 40 जैन सेन्टर आज भारत वर्ष में सभी भाषाओं की अपनी शैशवावस्था में हैं। अकादमियाँ हैं परन्तु प्राकृत भाषा की कोई अभी तक जो शोध कार्य जैन विद्याओं अकादमी नहीं। भगवान महावीर की 2600वीं पर हुआ है उसका लगभग बीस प्रतिशत ही जन्म-जयन्ती के उपलक्ष्य में यदि ऐसी प्रकाशित हो सका है। किसी संस्थान को इन अकादमी की स्थापना हो जाय तो वह स्थायी प्रबन्धों को प्रकाशित करने का वीणा उठाना कार्य होगा। विस्तृत अध्ययन के लिये लेखक चाहिए। की 'प्राकृत एवं जैनविद्या शोध संदर्भ' ___ अब तक हुए शोध प्रबन्धों का | द्वितीय संस्करण, पुस्तक तथा 'इक्कीसवीं विषयवार विवरण निम्न रूप में प्रस्तुत किया | सदी में जैन विद्या शोध' (प्राकृत विद्या, जा सकता है। (1) संस्कृत भाषा एवं | अप्रैल-जून 1997) तथा 1991-93 में साहित्य-161 (2) प्राकृतभाषा एवं | जैन विद्या शोध : एक विश्लेषण (अर्हद्वसाहित्य-41, (3) अपभ्रंश भाषा एवं | चन, अप्रैल 1994) लेख द्रष्टव्य है। साहित्य-41, (4) हिन्दी भाषा एवं साहित्य 6, शिक्षक आवास, 94, (5) जैन गुजराती/मराठी/ राजस्थानी/ श्री कुन्दकुन्द जैन कालेज, दक्षिण भारतीय भाषाएँ- 50 (6) व्याकरण खतौली-252201 (उ.प्र.) "प्यार की कोई भाषा नहीं होती। पशु हमारे स्नेह भरे स्पर्श को पहचानता है। निरीह पशु की देखभाल करना, सेवा करना सर्वश्रेष्ठ सेवा है। भगवान महावीर ने भी कहा है 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'। धरावरा धाम गोशाला में 13 अप्रैल 2001 को आयोजित पशु चिकित्सा केम्प के समय ये विचार प्रगट किये श्रीमती आशा विनायका केन्द्रीय अध्यक्ष महिला परिषद ने। आपने बताया कि अभी तक लसुड़िया, मांगलिया और पालदा ग्रामों में 3000 पशुओं को खूसडा रोग से बचाव हेतु टीके लगाये गए हैं एवं स्वास्थ्य चेकअप करके डीवार्मिंग की दवा भी दी गई है साथ ही 10 मेटाडोर भूसा दिया गया। 21 पानी पीने की हौदें जगह-जगह पर लगाई गईं। डॉ. डी.आर. पाटील जिला चिकित्सक ने बताया कि इस बीमारी से पशु के खुर और मुँह गल कर गिर जाते हैं और वह दो दिन में मर जाता है। यह बीमारी विशेषकर पंजाब और म.प्र. में बहुतायत से फैल गई है। महिला परिषद ने इस बीमारी को रोकने का सराहनीय कार्य किया है। ग्रामवासियों को पानी छानने का महत्त्व बताते हुए कपड़े की थैलियाँ, क्लोरिन आदि बाँटी गई। साथ ही कम-से-कम पानी का उपयोग कैसे किया जाए एवं स्वच्छ स्वास्थ्यवर्धक भोजन से बच्चों एवं परिवार के स्वास्थ्य का ख्याल कैसे रखा जाए इसकी विस्तृत जानकारी दी गई। श्रीमती आशा विनायका, इन्दौर, म.प्र. -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवीं सदी में जैन संस्कृति का भविष्य कुमार अनेकान्त जैन ___ अब तक तो यह बात। श्री कमार अनेकान्त जैन का यह लेख महत्त्वपूर्ण है। यह मिशनरी आंदोलन प्रक्रिया के सर्वमान्य हो चुकी है कि जैन तहत विकास करते चले परम्परा उतनी ही प्राचीन है। उन हेतुओं को उद्घाटित करता है जो जैन संस्कृति और समुदाय आए। धन और सेवा के बहाने जितनी कि वैदिक। विश्व की को हाशिये पर डालकर रखने के लिये उत्तरदायी हैं। यदि जैन इन्होंने बहुतों को अपना प्राचीनतम संस्कृतियों में वैदिक | संस्कृति और समाज को विश्वसमाज में सम्माननीय और बनाया। बड़े-बड़े संस्कृति तथा श्रमण संस्कृति का अनुपेक्षणीय स्थान बनाना है तो उन उपायों का अवलम्बन करना विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, नाम आदर से लिया जाता है। | होगा जिनकी ओर लेखक ने ध्यान आकृष्ट किया है। कॉन्वेंट स्कूलों के माध्यम से संख्या में अल्प होने के बावजूद लेखक उदीयमान हैं। उनमें जैन समाज और संस्कृति के अंग्रेजी और क्रिश्चयेनिटी के जैन संस्कृति की कुछ ऐसी चक्र को वांछित दिशा में मोड़नेवाले विचार जनमने की अनन्त पैर इन्होंने बखूबी जमाए। मौलिक शाश्वत विशेषताएँ हैं जो इन्हें भी दिल से सरकारी उसे आज तक चिरजीवित रखे सम्भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यद्यपि यह लेख कई पत्र सहयोग इसलिये मिलता रहा हुए है। न जाने कितने धर्म उठते | पत्रिकाओं में छप चुका है, तथापि इसमें व्यक्त विचार प्रत्येक कि इनके माध्यम से विदेशी हैं, नष्ट हो जाते हैं किन्तु शाश्वत पत्रिका के पाठकों तक पहुँचना आवश्यक हैं। इस प्रयोजन से मुद्रा विदेशों से सहज प्राप्त सामर्थ्य वाले कुछ ही होते हैं प्रस्तुत लेख के महत्त्वपूर्ण अंश 'जिनभाषित' में प्रकाशित किये होती है। मुसलमान अपनी जिनके साथ उठने और नष्ट होने जा रहे हैं। कट्टरपंथी आक्रामक छबि के की घटनाएँ नहीं होतीं। वे त्रिकाल चलते, वोट बैंक के चलते स्थायी एवं प्रासंगिक होते हैं। जैन संस्कृति अपनी पृथक् सत्ता बनाये हुए हैं। इस्लाम को ऐसी ही एक संस्कृति है। किन्तु जब-जब तो पायेंगे कि विश्व के मानचित्र पर हमारी | पढ़ने-पढ़ाने के लिये भरपूर सरकारी अनुदान संस्कृति पर आक्रमण हुए, इसे नष्ट करने का भूमिका एक बिन्दु के समान भी नहीं है। अब मिलता है। सिक्ख धर्म अभी कुछ सौ वर्ष हम चर्चा करें जैनेतर धर्मों की जो कि जैनों कुचक्र रचा गया तब-तब ऐसे जैन संतों, पुराना ही है, किन्तु फिर भी साहित्यिक, महापुरुषों, श्रावकों का जन्म हुआ जिन्होंने से काफी अर्वाचीन हैं। हम जानते हैं बौद्ध, सांस्कृतिक दृष्टि से इनकी पहचान है। इनका इसकी गरिमा को कम नहीं होने दिया। आज इसाई, इस्लाम, सिक्ख धर्म विश्व में अपनी दबदबा भी है। विदेशों में सभी स्तरीय ऐसा लगता है कि ऐसे सक्षम नेताओं का एक अलग पहचान बना चुके हैं। बौद्धों की पुस्तकालयों में इनका स्तरीय साहित्य मौजूद अभाव है जो सम्पूर्ण जैन संस्कृति को सही नीति आरम्भ से साफ रही है, उन्हें राजाश्रय है। वैदिकों की पहचान भी पृथक् है। उनकी दिशा दे सकें। आज जैन संस्कृति, धर्म, प्राप्त हुआ है, सरकारी सहयोग प्राप्त हुआ संस्कृति, उनका साहित्य सभी कुछ सरकारी दर्शन पर संकट के बादल गहरा रहे हैं और है और सबसे बड़ी बात उनकी शिक्षा नीति अनुदान से पलते-पुसते हैं। हम पता नहीं कितनी रुढ़ियों, विचारों की आरम्भ से विकसित रही। बात चाहे हम इस संदर्भ में हम जैन संस्कृति, संकीर्णताओं में जकड़े हुए भगवान महावीर नालंदा विश्वविद्यालय की कर लें या फिर साहित्य और जैन समाज की तुलना कर का 2600वाँ जन्मोत्सव मनाने की तैयारी तक्षशिला विश्वविद्यालय की, शिक्षा के क्षेत्र सकते हैं। बिना किसी सरकारी सहायता के, कर रहे हैं। में आरम्भ से ही बौद्ध धर्म प्रसिद्ध रहा है। बिना वोट बैंक के, बिना किसी हिंसात्मक बौद्ध अधिक से अधिक संख्या में बौद्ध धर्म आज का वातावरण दबाव के मात्र गिने चुने विद्वानों, संतो और का अध्ययन-अध्यापन आरम्भ से करते आए छोटे से समाज और उसके अनुदान के द्वारा यदि हम आज के माहौल की बात करें हैं। यहाँ यह जिज्ञासा सहज ही उठती है कि अपनी संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, दर्शन, तो साफ जाहिर है कि 'जिसकी लाठी उसकी जब भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध की कला और पहचान को जीवित रखने के लिए भैंस' का माहौल है। प्रश्न सत्य या झूठ का | आचार्य परम्परा समानान्तर चल रही थी तब थोड़ा बहुत जितना भी हो सके, पुरुषार्थ किया नहीं, प्रमाणिकता या अप्रमाणिकता का नहीं, जैनों ने बौद्धों के समकक्ष नालंदा, तक्षशिला जाता है। क्या यह काफी है? उसमें भी वणिक वक्त की सच्चाई का है। वर्तमान परिदृश्य जैसे विश्वविद्यालय स्थापित क्यों नहीं किये? मानसिकता विद्या के साथ कितना न्याय कर में संप्रदाय/धर्म का अध्याय खोला जाय तो आचार्य अकलंक देव को भी बौद्धों के यहाँ पाती है? यह सभी को पता है। साहित्य, सामाजिक कला के विकास के क्षेत्र मात्र इसलिए पढ़ने जाना पड़ा कि जैनों के में जैन अन्य की अपेक्षा कम ही नजर आता ज्ञान-विज्ञान का कोई केन्द्र नहीं था। शिक्षा के यह उपेक्षा क्यों? है। ऐसा क्यों? इस 'क्यों' की सच्चाई को इस क्रमिक विकास का ही परिणाम है कि भले भारत में ही जन्मे बौद्ध, सिक्ख और समझना आसान नहीं है। हम धार्मिक प्रचार- ही बौद्ध भारत से लुप्तप्राय हो गये, किन्तु बाहर से आये ईसाई, मुसलमान आज संख्या प्रसार और साहित्यिक उत्थान की चर्चा करें | सम्पूर्ण विश्व में फैले हुए हैं। ईसाई धर्म अपनी में कई गुना होने के बाद भी अल्पसंख्यक 30 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोषित हैं, जिसका सबसे बड़ा लाभ उन्हें यह मिलता है कि उनकी संस्कृति, साहित्य और कला को सुरक्षित रखने की जिम्मेवारी सरकार की भी हो जाती है। वे सरकारी अनुदान से अपने धर्म के प्रचारार्थ शिक्षण केन्द्र खोलते हैं जिनमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। भारत में ही जन्मी, अहिंसा धर्म का पालन करने वाली जैन संस्कृति, जैन समाज आज हिन्दू बहुसंख्यक में रखी जाने के कारण गहरी उपेक्षा का शिकार हो रही है। हमारा अपना पृथक् कोई वजूद ही नहीं है। हम विदेशी नहीं हैं, हम हिंसक नहीं हैं तो क्या यह हमारी कमजोरी है ? इस उपेक्षा का हम सीधा सादा प्रत्यक्ष उदाहरण देखें कि U.G.C. ने Net परीक्षा से बड़ी ही आसानी से जैन विद्या एवं प्राकृत भाषा का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त कर दिया था। बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, इस्लाम, वैदिक इनका विषय हटा कर देखते। तब आग लगने का डर रहता है। कुछ बनाना होगा तब दृष्टि इन पर जाती है। कुछ बिगाड़ना हो तो सीधा निशाना प्राकृत भाषा एवं जैन विधाएँ बनती हैं। हम तो यह विचार करते हैं कि यदि आचार्य विद्यानंदजी न होते तो शायद ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग पुनः प्राकृत भाषा स्वतंत्र रूप से स्थापित करता। हमारे इस दर्द को समझने वाले कितने हैं ? डॉ. मण्डन मिश्रजी के माध्यम से आचार्यप्रवर ने प्राकृत भाषा को पुनः U.G.C. में स्थापित कराके यह जो अभूतपूर्व कार्य किया, विद्यार्थी वर्ग उनके इस उपकार का सदैव ऋणी रहेगा। विकास बिना कट्टरवाद के संभव नहीं हमने जिन विकसित धर्मों की चर्चा की उनकी इस स्थिति का मुख्य कारण खोजें । उसका मुख्य कारण है कट्टरवाद । कट्टरवाद का रूढ अर्थ बहुत बिगड़ गया है। हम इसे नकारात्मक अर्थों में न लें। कट्टरवाद का अर्थ है अपने धर्म, संस्कृति और साहित्य के प्रति श्रद्धापूर्ण गहन आस्था उपदेशों को पालने की अपेक्षा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के यथार्थ को समझना होगा। इन सभी धर्मों की पृष्ठभूमि में यह भी छिपा हुआ है। ये सार्वजनिक उत्थान की बातें जरूर करते हैं ताकि उनकी छबि व्यापक बने, किन्तु ये करते वस्तुतः स्वयं का ही उत्थान हैं। हम समन्वय की मान्यता को लेकर चले थे किन्तु इतने ज्यादा समन्वित हो गये कि हमें हमारी पहचान बनाना मुश्किल हो गया। हमें समन्वय का पक्ष तो लेना है किन्तु इस बात की सावधानी रखनी है कि कहीं हमारा यह समन्वय विलय में परिवर्तित न हो जाये। अल्पसंख्यक के प्रति गलतफहमी पिछले कुछ वर्षों में जैनों को अल्पसंख्यक बनाने की माँग तेजी से उठी। काफी बहस हुई । 'अल्पसंख्यक' शब्द को लेकर जैनों के मध्य भी कुछ वहम हुए। कुछ कहने लगे ऐसा हुआ तो हम पिछड़े माने जायेंगे, कुछ ने कहा यह तो आरक्षण है, कुछ ने कहा हिन्दुओं की शक्ति कमजोर हो जायेगी। फलत: बात आयी गई हो गई। अल्पसंख्यक होने का मतलब मात्र संख्या में कम होने से है। संस्कृति, सभ्यता, साहित्य की रक्षा बिना सरकारी सहयोग के नहीं होती। इससे सरकारी सहयोग की गारंटी रहती है। हमारे अधिकार बढ़ते हैं। हम जैनविद्या और प्राकृत भाषा को कहीं भी लागू करने की मांग कर सकते हैं। जैनों में ऐसे कई सम्प्रदाय है जो मूर्ति और मंदिर नहीं मानते हैं ठीक है किन्तु उन्हीं श्रावकों को जैनेतर मूर्तियाँ और मंदिर बनवाने में करोड़ों रुपया लगाते हुए मैंने देखा है। ऐसे भक्त न तो घर के रह जाते हैं और न घाट के ये मात्र जैन मंदिर और जैन मूर्तियों का दर्शनपूजन नहीं करते। शेष सभी जैनेतर मूर्तियों, फोटो का इनके घरों में भंडार रहता है। सभी जैनेतर रागद्वेषी देवी-देवताओं के मंदिरों में जाकर दर्शन, पूजन, आरती, भजन ये बहुत ही भक्ति भाव से करते हैं। यह सहिष्णुता नहीं है, अज्ञानता और मिथ्यात्व है। ऐसा वे ही करते हैं जिन्हें अपने धर्म संस्कृति के प्रति बहुमान नहीं है या उसका ज्ञान नहीं है, दृढ़ आस्था नहीं है। हमारी स्थिति सभी को यह ज्ञात ही होगा कि वर्ष 1993 में शिकागो में द्वितीय विश्वधर्म संसद का आयोजन हुआ था। हम अपनी स्थिति का अंदाजा इसी आँकड़े से लगा सकते हैं कि उस विश्वधर्म संसद में मुख्य सत्रों जैसे वीडियो फिल्म प्रसारण, विद्वत् परिषद्, बहुसांस्कृतिक परिवेश, संघर्ष और विश्वीकरण, विज्ञान, विश्व का प्रारम्भ और मानव का भविष्य, व्यापार- कार्य स्थल में नैतिकता, इक्कीसवीं सदी के प्रचार माध्यम, ललित कला प्रदर्शन, शारीरिक और मानसिक व्यायाम जैसे महत्त्वपूर्ण सत्रों में जैन धर्म का प्रतिनिधित्व और भूमिका शून्य प्रतिशत रही जबकि इन विषयों से जैन साहित्य भरा पड़ा है। भाषण, व्याख्या- संगोष्ठियों, जनसंसद, धर्म और हिंसा, पवित्र ललित कला उत्सव और प्रदर्शनी सत्र में जैनों की भागीदारी 4 प्रतिशत से लेकर 7 प्रतिशत तक ही सिमटी रही। इसकी विस्तृत समीक्षा डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल के अभिनंदन ग्रंथ में डॉ. अम्बर जैन का महत्वपूर्ण आलेख करता है। कितने आशर्य की बात है कि विश्व की सर्वाधिक प्राचीन जैन संस्कृति अपने परिचय को मुहताज हो गयी ? वास्तव में आवश्यकता है कि इसी ओर समय शक्ति और धन लगाया जाए। मौलिकता के बिना पहचान मुश्किल किसी भी धर्म या समाज का उत्कर्ष मात्र एक क्षेत्र से नहीं होता। जब सर्वविध उन्नति होती है तब उत्कर्ष होता है। अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, शिक्षा की उन्नति महत्त्वपूर्ण है किन्तु मात्र इनसे चहुंमुखी विकास संभव नहीं हम देखें तो पायेंगे कि हममें मौलिकता का अभाव प्रायः रहा है। संगीत के क्षेत्र में भक्ति रसमय भजन प्रायः फिल्मी धुनों पर आश्रित हैं, लोक प्रचलित पुराने भजनों में अपने इष्टदेवता का नाम जोड़कर हमने काम चलाया है। अभी इसका ज्वलंत उदाहरण भगवान महावीर की 2600वीं जन्म जयन्ती पर इन्डोर स्टेडियम, नई दिल्ली में आयोजित महोत्सव समिति के कार्यक्रम में देखने को मिला। इतने विशाल कार्यक्रम में 'मैने पायल जो छमकाबी फिर भी आया न हरजायी' वाले बेहूदे गीत की धुन पर जैन बालाओं ने धार्मिक नृत्य किया। साफ जाहिर है हमारे पास न कोई धार्मिक शास्त्रीय नृत्यकला है न संगीत कला । यदि हो भी तो हमें पता नहीं क्योंकि उसका प्रचार नहीं है। जब शब्दचेतना और कला की बारीकियाँ समाप्त हो जाती हैं। तो दिमाग में अपसंस्कृति का कीड़ा इसी तरह उपजता है। ऐसी अवस्था में समाज में कला का विकास नहीं हो पाता। कोई खुद की आवाज में नहीं गाता, अपनी नयी धुनें सृजित • जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करता। पूजन पद्धतियों से लेकर भजन | उनके विद्यार्थियों में भी बड़ी भ्रामक धारणाएँ । प्रवचनों/विधानों के हो-हल्ले और ध्यान-योग तक अधिकांश मंत्र, श्लोक, धुनें जैनेतर हैं। यदि इस तरह के विवरण पढ़े जावेंगे तो की फैशनबाजी के सिवाय शैक्षणिक स्तर पर परम्पराओं से ग्रहण करके परिवर्तित की गयी पश्चिम की रुचि नकारात्मक ही होगी। इसका | कोई प्रभावी कार्य नहीं हुए हैं। हैं मौलिक नहीं हैं। यदि गहराई से विचार करें कारण तो यह है कि हमारा साहित्य अधिकांश अब क्या करना है? तो हमारी कोई व्यवस्थित शिक्षा पद्धति भी लेखकों, विद्वानों तथा प्रकाशकों तक नहीं नहीं रही या यूं कहें, इस पर विचार भी पहुँचा है और जो पहुँचा है उसके परम्परागत आजादी के बाद से आज तक जो हुआ लगभग नहीं के बराबर किया गया है। नया निरूपण के आधार पर ही उनकी ऐसी धारणाएँ वह पहली और दूसरी पीढ़ी ने किया। प्रश्न है तो भौतिक पीढ़ी क्या रचे? प्राचीन मौलिकता बनी हैं। इन विवरणों से विद्वानों के अध्ययन अब हमें क्या करना है? नयी पीढ़ी को यह को सँभालना, सुरक्षित रखना भी उसे झंझट | की एकांगिता भी प्रकट होती है।... इनके बागडोर सँभालनी होगी। पिछली पीढ़ी ने कुछ दिखने लगने लगा है। अध्ययन से मुझे ऐसा भी लगा कि विदेशों दिया उसे अपनाना होगा, जो भूलें की उन्हें हटाना होगा। अब इक्कीसवीं सदी में तराजू में किये जाने वाले प्रवचन प्रसारणों से पश्चिम विदेशों में जैन धर्म का सच जगत प्रायः अछूता ही रहा है। 'सेवन को छोड़कर कलम धारण करनी होगी। हिसाब पिछले कुछ दशकों में बहुत शोर हुआ सिस्टम्स आफ इंडियन फिलोसोफी' और 'दी लिखने की जगह इतिहास लिखना होगा। कि जैनधर्म का प्रचार-प्रसार विदेशों में खूब वर्ल्ड रिलिजयन्स रीडर (रटलज)' जैसी एकजुट होकर युग के अनुरूप अपनी प्रस्तुति हुआ है। किन्तु यह प्रचार मूलतः वहाँ पर अनेक पुस्तकों में जैन धर्म का विवरण ही नहीं देनी होगी तभी इक्कीसवीं शताब्दी सार्थक निवास कर रहे भारतीय जैनों के मध्य तक है। हाँ, सिक्खधर्म का विवरण प्रायः सभी में होगी और जैन संस्कृति का वजूद बच ही सीमित रहा। जैन गजट 2 दिसम्बर, 99 है, उनका साहित्य भी सभी स्थानों पर पायेगा। में प्रो. नन्दलाल जैन, रीवा का प्रकाशित एक दिखा।" इस प्रकार लेखक ने ऐसे कई तथ्य अब भी न सँभलेंगे तो मिट जायेंगे खुद ही, महत्त्वपूर्ण आलेख इसी विषय को बतलाता उजागर किये हैं जिनसे यह पता लगता है कि दास्ताँ तक भी न होगी हमारी दास्तानों में। है। वे लिखते हैं कि "जैन धर्म के विषय में, विदेशों में भारतीय जैनों की तरफ से जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय पश्चिमी विद्वानों में (कुछ को छोड़कर), तथा लाडनूं -341306 (राज.) प्रतिष्ठाचार्य पं. गुलाबचन्द्र जी पुष्प का अखिल भारतीय सम्मान कश्रेष्ठ भातष्ठाचार्यों ] भी इनका त कर प्र भगवान् महावीर स्वामी के 2600वें | परम्परा हमें केवली भगवन्तों के माध्यम से । गया। लगभग पाँच घण्टे तक चले इस भव्य जन्म महोत्सव के पावन प्रसंग पर दिल्ली के | मिली जिसे विद्वानों ने सरल भाषा में समाज | कार्यक्रम का सफल संचालन अभिनन्दन ग्रन्थ निकटवर्ती अतिशय क्षेत्र बड़ागाँव (खेकड़ा) | को प्रदान किया। पं. 'पुष्प' निःस्पृही, व्रती, | के संयोजक-सम्पादक डॉ. भागचन्द्र जैन में आयोजित भव्य समारोह में विख्यात अनुशासित एवं चरित्र के प्रति जागरुक, श्रेष्ठ | 'भागेन्दु' ने किया। विद्वान् प्रतिष्ठाचार्य पं. गुलाबचन्द्र जी जैन | विद्वान हैं। अन्य प्रतिष्ठाचार्यों एवं विद्वानों को सम्मान समारोह की अध्यक्षता श्री 'पुष्प' को स्वर्णप्रशस्ति, शाल, श्रीफल, एवं | भी इनका अनुकरण करना चाहिए। धर्मचन्द्र जैन (प्रीत बिहार) ने की। अभिनन्दन| पगड़ीबन्धन से सम्मानित कर 'प्रतिष्ठा समारोह के मुख्य अतिथि श्री शान्ति ग्रन्थ का लोकार्पण श्री राजेन्द्र कुमार जैन रत्नाकर' की उपाधि से अलंकृत किया गया। कुमार जैन (आई.पी.एस.) उपमहानिरीक्षक (शालीमार बाग) के द्वारा सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर श्री 'पुष्प' जी के साथ उनकी (एस.पी.जी.) ने कहा कि 'पुष्प' जी का समागत मनीषियों और अतिथियों का सम्मान धर्मपत्नी श्रीमती रामबाईजी को भी सम्मानित सम्मान ज्ञान का सम्मान है। विषमताओं के स्वागताध्यक्ष श्रीचन्द्र जैन, चावल वाले, किया गया। बीच अडिग रहना उनकी विशिष्टता है। इस मुजफ्फरनगर के साथ-साथ अखिल भारतीय विद्वत् सपर्या का यह अनूठा समारोह | अवसर पर श्री डी.टी. बार्डे (आई.पी.एस.) अभिनन्दन समारोह समिति के अध्यक्ष श्री सराकोद्धारक सन्त उपाध्यायरत्न श्री ज्ञानसा- | भी उपस्थित थे। इस अवसर पर 'पुष्प' जी बाबूलाल पहाड़े, हैदराबाद, महामंत्री श्री गर जी मुनि महाराज के ससंघ सान्निध्य में | के व्यक्तित्व, वैदुष्य और कर्तृत्व को उजागर चमनलाल जैन राजस्थली, कार्याध्यक्ष श्री सम्पन्न हुआ। करने वाला 800 पृष्ठ का विशाल अभिन कपूरचन्द्र घुवारा एवं अन्य सदस्यों ने किया। समारोह में अखिल भारतीय विद्वत् | |न्दन ग्रन्थ 'पुष्पाञ्जलि' भी समर्पित किया विद्वत् सपर्या के इस अनुपम कार्यक्रम को परिषद् और शास्त्री परिषद् के लगभग 300 गया। बीच-बीच में संगीत की रस माधुरी से भावख्यातिप्राप्त विद्वानों, हजारों गण्यमान्य नाग- समारोह में बालब्रह्मचारी श्री जयकुमार विभोर किया अहिंसा म्युजिकल ग्रूप, टीकरिकों एवं शताधिक संस्थाओं ने पं. 'पुष्प' | 'निशान्त' जी को अखिल भारतीय समाज मगढ़ के श्री डी.के. जैन और उनके साथियों जी को सम्मानित किया। उपाध्याय श्री ने पं. | की ओर से 'प्रतिष्ठाचार्य' पद पर प्रतिष्ठित 'पुष्प' जी को आशीष देते हुए कहा कि श्रुत | कर प्रशस्ति समर्पित कर सम्मानित किया 32 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यंग्य दोषारोपण का खेल शिखरचन्द्र जैन कर पाने खल वाछित ला से मेरा विफलता का दोष किसके श्री शिखरचन्द्र जी जैन पेशे से इंजीनियर हैं। भिलाई दोषारोपण के खेल में किसी नियम का सिर मढ़ दिया जाय, यह समस्या, पालन होगा अथवा कोई आचारस्टील प्लांट के महाप्रबंधक पद से हाल ही में सेवानिवृत्त आदमी के सामने, सृष्टि के प्रारम्भ से संहिता मानी जायेगी, ऐसा सोचना ही रही है। यहाँ विफलता से मेरा हुए हैं। अभिरुचि शुरू से ही साहित्यिक रही है। व्यंग्यलेखन भी नादानी होगी। आशय न केवल वांछित लक्ष्य प्राप्त में इन्हें विशिष्ट दक्षता हासिल है। 'सरिता', 'मुक्ता' आदि विदित हो कि यह खेल न कर पाने से है, बल्कि किए गए प्रसिद्ध पत्रिकाओं में इनके व्यंग्य प्रकाशित हो चुके हैं। मेरे सर्वव्यापी है, बहु-आयामी है। अंतकिसी कार्य या प्रयत्न के अप्रिय | विशेष आग्रह से 'जिनभाषित' के लिए नियमित रूप से र्राष्ट्रीय स्तर पर भी खेला जाता है और परिणाम से भी है। दोषारोपण से मेरा लिख रहे हैं। प्रस्तुत व्यंग्य इसी की अगली कड़ी है। अंतर्राज्यीय स्तर पर भी। देश के तात्पर्य न केवल एक की असफलता दोषारोपण आनन्दानुभूति कराने वाला महत्त्वपूर्ण खेल है। अन्दर यह खेल न केवल राज्यों के के लिए दूसरे को दोषी ठहरा देने से इस व्यंग्य को पढ़कर यदि आप चाहें तो अपनी अनुभूतियों बीच बल्कि शहरों, नगरों, कस्बों और है, बल्कि ऐसा कर, बच निकलते के भण्डार से दोषारोपण के कुछ और उदाहरण हमें प्रेषित | गाँवों के बीच भी खेला जाता है। हए, परमानन्द की अनुभूति प्राप्त । कर सकते हैं। भौगोलिक सीमाओं के परे, यह खेल करने से भी है। प्रकट है कि ऐसा कर विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों, पाना सहज नहीं है। विशेषकर तब, जबकि अन्य । मश्किल है। पर शनैः-शनैः ज्यादा से ज्यादा । कुनबों, पुरुषों, महिलाओं, पति-पत्नी, बापलोग भी चतुर होते जा रहे हैं। वस्तुतः वो हो । लोग इस पद्धति को अपना कर प्रसन्न होने लगे | बेटों आदि के बीच समान रूप से प्रिय है और ही गए हैं और इस कारण यह समस्या अब और और इस तरह एक-दूसरे पर दोषारोपण का खेल | बिला-नागा खेला जाता है। भी जटिल हो गई है। प्रचलन में आया। इस खेल में कुश्ती प्रतियोगिता की तरह पहले ऐसा नहीं था। मानव-सभ्यता की कहते हैं कि सफलता का श्रेय लेने, लोगों एकल अथवा कबड्डी की तरह सामूहिक भागीदारी आरम्भिक अवस्था में लोग बहुत थोड़े में ही संतुष्ट की लाइन लग जाती है, पर विफलता का बोझ हो सकती है। एक व्यक्ति एक समूह से भिड़ हो जाया करते थे। मसलन, मानव-जाति की उठाने कोई आगे नहीं आता। इसके लिये जब सकता है अथवा पूरा समूह एक व्यक्ति के पीछे उत्पत्ति तथा इसके फलस्वरूप, कालांतर में आवश्यकता होती है, जाँच आयोग का गठन | पड़ सकता है। समूह में खिलाड़ियों की संख्या उपजे बवंडर के लिए, जो कि अभी तक थमा | करना होता है, जो कि अनगिनत बैठकें, अनेक | पर भी कोई पाबंदी नहीं है। प्रादेशिक स्तर का नहीं है, केवल वर्जित फल को दोष देकर ही लोग अवधि-विस्तार तथा काफी मशक्कत के बाद कोई अदना-सा राजनीतिक दल, राष्ट्रीय स्तर के संतुष्ट होकर रह गये। भाग्य, जिसे न कभी किसी यह तो पता लगा देता है कि दोषी कौन नहीं | किसी विशाल राजनीतिक दल पर निर्भय हो ने देखा न जाना, युगों-युगों तक, विफलता के है पर बहुधा यह नहीं बतला पाता कि दोषी कौन दोषारोपण कर सकता है। बड़े दल तो, खैर, छोटे लिए दोषी ठहरा दिए जाने का उत्तरदायित्व भली- है! दोषी खोजने हेतु जाँच आयोग का गठन, दलों को, अगर वे उनके गठबंधन में नहीं हैं तो, भाँति निभाता रहा है। एक अहम युद्ध में करारी सर्वप्रथम कब हुआ, यह तुरंत बतला पाना तो हिकारत की नजर से देखते ही हैं। हार के लिए, एक अदने से घोड़े की मामूली-सी | मेरे लिए संभव नहीं है, शोध करना होगा, पर ज्ञातव्य है कि हमारे देश के एक समय नाल के न होने को ही दोषी मानकर संतोष कर ऐसा लगता है कि इसका संबंध, शासन में लिया गया। इस तरह, कई-एक अदृश्य अथवा के प्रसिद्ध राजनीतिक दल के सदस्य एवं अध्यक्ष प्रजातांत्रिक प्रणाली के आविर्भाव से रहा होगा। निर्जीव वस्तुएँ, एक लम्बे अरसे तक, आदमी जिसमें अब केवल एक ही सदस्य शेष है उस क्योंकि इस प्रणाली में किसी कृत्य अथवा निर्णय को, असफलता की पीड़ा से राहत दिलाने का दोषारोपण के खेल में सबसे कुशल खिलाड़ी माने के लिए किसी एक व्यक्ति को उत्तरदायी ठहराना कार्य सफलतापूर्वक करती रहीं और आदमी जाते हैं। वह कभी भी, किसी पर भी, किसी भी सहज नहीं होता। सबकी सामूहिक जिम्मेदारी बाकायदा इनसे संतुष्ट होता रहा। प्रकार का दोषारोपण बेखटके कर जाते हैं और मानी जाती है। इस बात से ऐसा भी आभासित लेकिन यह स्थिति शाश्वत नहीं रही। होता है कि वस्तुतः प्रजातंत्र की स्थापना का ऐसा करते हुए अच्छी-भली चलती हुई सरकार कारण कि आदमी हर क्षेत्र में निरंतर अनुसंधान उद्देश्य ही यह रहा होगा कि शासन अथवा को गिराने की क्षमता रखते हैं। एक राजनीतिक करते हुए, आनंद प्राप्ति के नए-नए तरीके | राजनीति में लिए गए निर्णय के लिए किसी एक दल ने तो चुनाव में अपनी हार के लिये सीधे खोजता रहा तथा अपने जीवन को अधिक से व्यक्ति को दोषी न ठहराया जाए तथा कम से। चुनाव आयोग को ही दोषी करार दिया। कतिपय अधिक सुखमय बनाने का प्रयास करता रहा। कम इन क्षेत्रों में तो व्यक्तिगत दोषारोपण से बचा राजनीतिक दलों के सदस्य, अपने ही गोल-पोष्ट यद्यपि शास्त्रों में इस बात का स्पष्ट उल्लेख कर जाए। इस तरह खेल को कुछ और जटिल बनाते पर गोल करते हुए पाये जाते हैं। इस तरह, इस दिया गया था कि संसार में सुख है ही नहीं, फिर हुए इसके नियम और आचार-संहिता के निर्माण खेल में, सभी राजनीतिक दलों की सक्रिय भालाग, रत सतलनिकालनकमाफिक, यन- | का प्रयत्न भी किया गया। भागीदारी के उदाहरण अपरिमित हैं। आप यदि केन-प्रकारेण आह्लादित हो लेने के अवसर पर प्रयत्न कोई कितना ही कर ले, नियमों चाहें तो अपनी पसंद के कुछ और उदाहरण यहाँ तलाशन म लग रह आर इस प्रक्रिया में कब, | और आचार-संहिताओं से आदमी का वैसे भी | जोड़ कर इस लेख को और आगे बढा सकते किसने. अपनी असफलता का दोष किसी और | छत्तीस का आँकडा है। सबसे ज्यादा आनंद. | हैं। मैं बस यहीं विराम लगा। के सिर मढ़ दिया और फिर उसे तिलमिलाते हुए | आदमी को, नियम तोड़ने और आचार-संहिता 7/56-ए, नेहरू नगर (पश्चिम), भिलाई देख कर आनन्द का अनुभव कर लिया, कहना | का उल्लंघन करने में ही आता है। अतः (दुर्ग) छत्तीसगढ़-490020 -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 33 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालवार्ता एक वृक्ष की अन्तर्वेदना शुद्धात्मप्रकाश जैन, प्राकृताचार्य . जेठ माह की दुपहरी थी। सिर पर सूर्य । सुनकर अपने गन्तव्य के लिये विलम्ब करते | अतीव पीड़ा से कराह उठा। अपने अंगों को आग के गोले की भाँति तप रहा था। पसीने | हो? चले जाओ अपने गन्तव्य की ओर | कटते देखकर उसकी आँखों में खून उतर के कारण सारे कपड़े बदन पर चिपक गये थे। अन्यथा...।' आया पर क्या कर सकता था वह निरुपाय। माथे से निरन्तर पसीना चू रहा था। मैं काफी मैं वृक्ष की बात बीच में ही काटकर कभी प्यास लगती तो यहाँ कौन उसे पानी थक गया था। एक तो लम्बा सफर और दूसरे बोला- 'वृक्षराज, क्यों मुझे संवेदनाशून्य पिलाने आता? इस प्रकार क्षुधा-तृषा सहते भूख भी जोरों की लग आई थी। मैंने सोचा बनाते हो? क्यों मेरे मनुष्यत्व को लज्जित हुए दैव के भरोसे वह धीरे-धीरे बढ़ने लगा। अब कहीं पर थोड़ा विश्राम कर लिया जाये। करना चाहते हो? वह मनुष्य ही क्या जो दूसरों वही पौधा आज तुम्हारे सामने इतने विशाल कुछ दूर जाने पर मार्ग में एक घना वृक्ष दिखाई के दुःखों को नहीं बँटाये? मैं तुम्हारी दर्दकथा रूप में फैला हुआ है।' दिया। मैं वृक्ष के पास जाकर अपने घोड़े से सुनने को आतुर हूँ।' मैं डबडबाये नेत्रों से उसकी ओर उतरा। उसे थोड़ा चारा-पानी देकर सहलाया 'क्या तुम मेरा दुख दूर कर भी देखता रहा और वृक्ष ने आगे कहना प्रारंभ और सुस्ताने के लिये एक ओर बाँध दिया। | पाओगे?' वृक्ष का कथन था। किया- 'इस प्रकार कुछ दिन बीते, महीने बीते मैंने भी अपनी पोटली खोली और खाना 'हाँ, मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि अपनी और कई वर्ष गुजर गये। मैं काफी कष्टों को खाया। बावड़ी का शीतल जल पीकर बहुत सामर्थ्य के अनुसार मैं तुम्हारा दुखड़ा दूर सहता हुआ किशोर हुआ। कभी इस मार्ग से राहत मिली। विश्राम के लिये कुछ समय वृक्ष | करूंगा। मैं तुम्हारी अन्तर्वेदना जानने के लिये | ऊँट गुजरता तो वह अपनी लम्बी गर्दन को के नीचे लेटा कि न मालूम कब मेरी आँखें | सन्नद्ध हूँ।' ऊँचा करके मेरी टहनियों को बेरहमी से लग गईं और मैं स्वप्नलोक में विचरने लगा। तो सुनो।' वृक्ष अपनी वेदनाभरी कथा | तोड़कर चबा कर खा जाता था। कोई पथिक सपने में देखता हूँ कि मैं जिस वृक्ष | सुनाने लगा अपने पशुओं के आहार के लिये मेरी डालियों के नीचे सोया था वही वृक्ष मुझसे बातें कर 'पथिक! बरसात की ऋतु थी। वर्षों को कुल्हाड़ी के तीक्ष्ण प्रहार से काटकर ले रहा है। वृक्ष ने पूछा- 'राहगीर! कहाँ से आये पहले इसी भूमि पर एक छोटा सा अंकुर फूटा जाता था। बहुत समय बीतने पर वापस मेरे हो और कहाँ जा रहे हो?' मैंने उत्तर दिया- और धीरे-धीरे उसमें कोंपलें निकलने लगीं। घाव भरते थे और मैं पुनः लहलहाने लगता। 'राजस्थान प्रान्त के करौली जिले के वह नन्हा सा पौधा सारा समय अपनी नन्हीं- किसी दिन एक वानर-समूह आकर मेरे शरीर गुढ़ाचन्द्रजी नाम के एक छोटे से कस्बे से नन्हीं आँखों से सृष्टि को निहारा करता था। पर उछल-कूद करने लगा। मेरी डालियों को चला आ रहा हूँ और इन्द्रप्रस्थ की ओर जा वह अकेला ही चुपचाप यहाँ सृष्टि के रंगमंच जोर से झकझोरने लगा, परन्तु उन दुष्ट वानरों रहा हूँ।' वृक्ष बोला- 'पथिक! तुम ग्रीष्म के | पर होने वाले क्रियाकलापों को शान्तभाव से ने मेरी पीड़ा की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। आतप से बचने के लिये मेरी छाया तले देखता रहता था। कभी जोरों की हवा चलती अपितु उन्होंने जी भरकर मस्ती की, जिससे विश्राम करने बैठे हो, पर यह भी कभी सोचा | थी तो वह भूमि पर चित्त होकर सो जाता था। मेरे बहुत सारे पत्ते जमीन पर गिर गये। कभी कि मैं इस आतप से बचने के लिये कहाँ दिनभर सूर्य की धूप में तपता रहता था। शीत के कारण पाला पड़ा तो मेरे सारे पत्ते जाकर विश्राम करूँ? क्या मैं भी कहीं जा | प्रकृति की कठोर प्रवृत्ति से उसका कोमल जीर्ण-शीर्ण हो गये और कभी तेज गर्मी के सकता हूँ? क्या मेरे पैर हैं?' मैंने वृक्ष पर | गात मुरझा जाता था। कारण सारे पत्ते सूख गये। मैं प्यास से एक सहानुभूतिपूर्ण नजर डाली। वृक्ष ने कहा एक दिन किसी नटखट बालक ने उस व्याकुल हो जाता था, परन्तु यहाँ मेरी कौन - 'क्या तुम मेरी वेदना समझते हो? क्या पौधे के अनेक पत्ते लकड़ी की मार से गिरा सुनने वाला था? आखिर दैव के द्वारा रक्षित मैं किसी से मेरी वेदना कह भी सकता हूँ? दिये थे। बेचारा पौधा आँसुओं से भीग गया। मैं इतना बड़ा हुआ। यदि मैं किसी से कहूँ भी तो कौन मेरी इतना ही नहीं, एक बार आकाश से ओलों वसन्तऋतु का समय आ गया था। मैं सुनेगा?' मैंने तरुवर को धैर्य बँधाते हुए कहा की बौछारें आईं तब वह पौधा बेसुध होकर | पूरी तरह मस्ती में झूम रहा था। मेरा हरा- 'हे तरुवर! तुम क्यों इतने व्यथित होते हो? लड़खड़ाते हुए अचेत हो गया। काफी समय भरा शरीर प्रातःकालीन सूर्य की आभा में तुम्हें क्या कष्ट है? जरा मुझे भी तो सुनाओ बाद उसके जख्म भरे और कुछ स्वस्थ हुआ दमक रहा था। मैं बहुत खुश होकर गाना गा अपनी दुखभरी कहानी। मैं सुनूँगा तुम्हारी तब फिर से अपने आपको सँभाला, पर अभी रहा था, पर अभी मेरे भाग्य में बहुत दुःख पीड़ा को। बोलो, तुम्हें क्या कष्ट है?' उसका दुर्भाग्य सोया न था। एक दिन इसी देखना बाकी था। इस तरह मेरे कुछ दिन भी वृक्ष ने एक लम्बी आह भरी और | मार्ग पर जाती हुई एक गाय ने उस पौधे की चैन से न बीते थे कि फिर एक विपदा आ बोला- 'पथिक! क्यों व्यर्थ मेरा दुखड़ा | कुछ टहनियों को चबा डाला। बेचारा पौधा | खड़ी हुई। एक दुष्ट निर्दयी और पापी मनुष्य 34 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बड़ा भारी कुल्हाड़ा अपने कंधे पर रखकर मेरे ऊपर चढ़ गया और मेरे एक बड़े हिस्से को काटने के लिये तेजी से मुझ पर प्रहार करने लगा। मेरे दुःख का पारावार नहीं रहा । मैं बुरी तरह चीखता रहा, चिल्लाता रहा। कराहने लगा। आँसू गिराये गिड़गिड़ाया, परन्तु उसने मेरी एक नहीं सुनी और मेरे शरीर पर एक गहरा घाव बना दिया। फिर वह थक जाने पर खाना खाने के लिये अपने घर चला गया और वापस आकर मुझ पर प्रहार करने लगा। मैं तड़फने लगा। मैं मछली की तरह छटपटाता रहा। आखिर मेरा एक बड़ा भारी हिस्सा उसने काटकर जमीन पर गिरा दिया।' वृक्ष की दुःखभरी कहानी सुनकर मेरी आँखें बरसने लगी। मेरा कंठ अवरुद्ध हो गया। मुझमें उस के प्रति असीम सहानुभूति का भाव जागा । मैंने वृक्ष को अनेक प्रकार से ढाढस बँधाया और कहा कि 'सुनो! अब मैं अपना सारा जीवन तुम्हारी रक्षा और सुरक्षा में समर्पित कर दूँगा। मैं स्वयं तो किसी वृक्ष को पीड़ा पहुंचाऊँगा ही नहीं और अन्य लोगों को भी तुम्हारी रक्षा करने के लिये प्रेरित करूँगा। मैं आज से प्रतिदिन नये-नये पौधे लगाऊँगा। मैं अब तुम्हारे उद्धार संबंधी कार्य करूँगा। मैं तुम्हारे उद्धार संबंधी लेख लिखूँगा। इससे संबंधित व्याख्यान दूँगा । पूर्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने भी यह सिद्ध किया है कि तुम एक भौतिक पिण्ड मात्र नहीं हो, अपितु सजीव संवेदनशील चेतन प्राणी हो । उनके भी पूर्व हमारे आचार्यों, ऋषियों एवं मुनियों ने अनेक धर्मग्रन्थों और पुराणों में तुमको चेतन प्राणी कहा है और तुम्हारी रक्षा एवं दया सम्बन्धी उपदेश भी स्थान-स्थान पर दिया है, परन्तु आज इस विज्ञान के युग में लोगों ने उस उपदेश को भुला दिया है, पर अब विज्ञान भी तुम्हारे साथ है। विज्ञान ने तुम्हें जीव सिद्ध कर दिया है। मैं तुम्हारी समृद्धि के लिये जनजागरण का अभियान चलाऊँगा। मुझे आशा है कि लोग मेरी बात को सुनेंगे और समझेंगे। अब तुम्हारे दुःख बहुत दिन नहीं रहेंगे।' वृक्ष के चेहरे पर धीमी सी मुस्कान फूट पड़ी। वह खुश नजर आ रहा था। तभी मेरी निद्रा टूट गई मैं अपने वचनों के प्रति संकल्पबद्ध था। मैं उठा और अपने घोड़े पर बैठकर अपने गन्तव्य की ओर चल दिया। 149-ए, कटवारिया सराय, नई दल्ली- 110016 प्रार्थना गीत वीर प्रभु की हम संतान हमको बनना है भगवान ॥ टेक ॥ सत्य अहिंसा इनका गान जीव सताना दुःख की खान। वीर प्रभु की...... निशि भोजन में हिंसा जान पानी पीना पहले छान कविता जिनदर्शन का रखना ध्यान वीर प्रभु की...... इससे बनते सब भगवान वीर प्रभु की णमोकार का करना ध्यान देह आत्मा पृथक् जान हर मानव की इसमें शान वीर प्रभु की. 'निर्णय' बनना तुम भगवान वीर प्रभु की...... शाकाहार चाहिए ऋषभ समैया 'जलज' तन भी शाकाहार चाहिए, मन भी शाकाहार चाहिए, इन प्रवृत्तियों के पोषण को धन भी शाकाहार चाहिए। " मुनि श्री निर्णयसागर सबको जीने की अभिलाषा, मरने को किसका मन चाहे, जलचर- नभचर - थलचर सबको, जीने का अधिकार चाहिए। काँटे की भी चुभन अगर हो, मूक असहाय प्राणियों को फिर मन के तंतु हिल जाते हैं, क्यों पैनी तलवार चाहिए? एक तरफ रसधार दया की, एक तरफ हिंसा का लावा, बोलो सरस फुहार चाहिए, या जलते अंगार चाहिए? ऐसा कोई धर्म नहीं है, जिसकी नींव रही हो बर्बर, प्रबल वासना की तृप्ति को, बस झूठा आधार चाहिए। मनुज जन्म से शाकाहारी, उसकी यह कैसी लाचारी, उदर बना डाला क्यों मरघट, इसका सोच विचार चाहिए। निखार भवन, कटारा बाजार, सागर (म.प्र.) • जुलाई-3 ई-अगस्त 2001 जिनभाषित 35 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रीय जनगणना में जैन समुदाय - सुरेश जैन, आई.ए.एस. मध्यप्रदेश सरकार द्वारा जैन समुदाय को 29 मई 2001 से अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया जा चुका है। भारत सरकार के गृहमंत्रालय के आदेशानुसार भारतीय जनगणना में जैन समुदाय की जनगणना अन्य अल्पसंख्यक समुदायों मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध एवं पारसी समुदायों की भाँति स्वतंत्र रूप से की जाती है। स्वतंत्रता के पश्चात् 1961 से 1991 तक की जैन समुदाय की जनगणना की पूर्ण जानकारी उपलब्ध है। 2001 में संकलित जनगणना की जानकारी का अध्ययन, विवेचन एवं प्रकाशन शीघ्र किये जाने की संभावना है। भारत की जनगणना के अनुसार जैन समुदाय की जनसंख्या वर्ष 1961 से 1991 तक निम्नानुसार रही है लाखों में वर्ष योग ग्रामीण नगरीय प्रतिशत व्यक्ति | महिला | व्यक्ति पुरुष महिला व्यक्ति | पुरुष | महिला | वृद्धि 1961 20.27 1971 26.04 13.42 | 12.61 | 10.46 5.23 | 5.22 | 15.58 | 8.18 | 7.39 28.48 1981 32.06 16.51 15.54 1991 133.52 17.22 16.29 | 9.97 | 5.05 4.92 23.54 12.17 11.37] 4.57 मध्यप्रदेश में जैन समुदाय की जनगणना वर्ष 1961 में 1991 तक निम्नांकित रही है- वर्ष 1991 में ग्रामीण क्षेत्र 10.68 प्रतिशत ऋणात्मक वृद्धि हुई है। इससे स्पष्ट है कि जैन समाज प्रामों से नगरों में स्थानांतरित होता जा रहा है। लाखों में योग ग्रामीण नगरीय प्रतिशत व्यक्ति | महिला | व्यक्ति | पुरुष | महिला | व्यक्ति पुरुष । महिला वृद्धि वर्ष पुरुष .533 .676 1916 1971 1981 1991 2.47 3.45 4.44 4.90 1.30 1.80 2.32 2.55 1.17 1.64 2.12 | 2.35 1.03 | 1.30 1.43 1.28 .496 .626 .688 .612 1.44 2.14 3.01 | 3.62 .772 .675 1.12 1.02 39.24 1.57 | 1.43 | 28.90 1.88 | 1.73 | 10.20 .744 .668 वर्ष 1981 एवं वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार सम्पूर्ण भारत में जैन.समाज की जनसंख्या क्रमशः 32.06 लाख एवं 33.52 लाख है। संबंधित दशाब्दि में वृद्धि 4.57 प्रतिशत हुई है। __ वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार निम्नांकित प्रदेशों में जैन समाज की जनसंख्या प्रत्येक प्रदेश के सामने उल्लिखित की जा रही है - स.क्र. राज्य का नाम जनसंख्या (लाख में) महाराष्ट्र 09.65 राजस्थान 05.63 गुजरात 04.91 मध्यप्रदेश 04.90 कर्नाटक 03.26 उत्तरप्रदेश 01.76 . दिल्ली 00.95 मध्यप्रदेश में वर्ष 1981 तथा 1991 में जैन समाज की जनसंख्या क्रमशः 4.45 एवं 4.90 लाख रही है। इस दशाब्दि में राज्य की औसत जनसंख्या वृद्धि दर 27 प्रतिशत की तुलना में जैन समाज की जनसंख्या वृद्धि दर केवल 10 प्रतिशत रही है। यह तथ्य निःसंदेह प्रमाणित करता है कि जैन समाज ने संयम एवं ब्रह्मचर्य पर आधारित प्राकृतिक उपाय एवं परिवार नियोजन के सघन कृत्रिम उपाय अपनाकर राष्ट्रीय कार्यक्रम की सफलता में सराहनीय योगदान किया है। अन्य अल्पसंख्यक समाजों में से क्रमशः मुस्लिम 31 प्रतिशत, ईसाई 24 36 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिशत बौद्ध 188 प्रतिशत एवं सिक्ख समाज में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। मध्यप्रदेश में जैन समाज का सर्वाधिक घनत्व सागर, इंदौर, जबलपुर, मंदसौर एवं रतलाम जिलों में है। इन जिलों की कुल जनसंख्या से जैन समाज की जनसंख्या की तुलना करने पर सागर जिले में जैन समाज की जनसंख्या 3 प्रतिशत, इंदौर जिले में 2.3 प्रतिशत, जबलपुर जिले में 1.1 प्रतिशत, मंदसौर जिले में 2 प्रतिशत एवं रतलाम जिले में 2.7 प्रतिशत है। इन जिलों में जैन समाज की कुल जनसंख्या क्रमशः 48,000, 42,000, 30,000, 30,000 एवं 26,000 है। मध्यप्रदेश के जिलों में न्यूनतम जैन समाज सीधी जिले में 114 एवं दतिया जिले में 353 है। सीधी की जनसंख्या में 1981 से 1991 में कोई वृद्धि नहीं हई है। यहाँ की जनसंख्या आश्चर्यजनक रूप से 1981 तथा 1991 से 114 रही है। बालाघाट जिले में इन दस वर्षों में केवल 0.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि होशंगाबाद जिले तथा राजगढ़ जिले में इस दशाब्दि में जैन समाज की जनसंख्या क्रमशः 5 प्रतिशत एवं 4 प्रतिशत कम हुई है। सीधी, रीवा एवं बालाघाट जिले में वर्ष 1991 में जैन समाज की जनसंख्या क्रमशः 114, 547 एवं 4,007 रही है। जैन समाज की जनसंख्या में इस दशाब्दि में सर्वाधिक वृद्धि दर भोपाल में 38 प्रतिशत तथा सरगुजा में 36 प्रतिशत रही है। भोपाल तथा सरगुजा की वर्ष 1991 की जनसंख्या क्रमशः 15,000 एवं 1,300 रही है। प्रदेश की राजधानी होने के कारण भोपाल नगर में जैन समाज की जनसंख्या में सतत वृद्धि हो रही है। आदर्श कथा मन के भूत यशपाल जैन एक बार एक न्यायाधीश की अदालत में एक मामला पेश हुआ। एक आदमी ने दूसरे आदमी की ओर संकेत करते हुए कहा, "इसने मेरा सिर फोड़ दिया है। " दूसरे ने पहले की ओर इशारा करके कहा, "इसने मेरा सिर फोड़ दिया है। " "तुम दोनों ने एक-दूसरे के सिर न्यायाधीश ने दोनों की बात सुनी और पूछा, फोड़ डाले, आखिर इसका कारण क्या है ?" एक ने कहा, "हम दोनों दोस्त थे। मैंने इसे एक दिन बताया कि मैं एक खेत खरीद रहा हूँ। इसने कहा, मैं एक भैंस खरीद रहा हूँ। मैंने इसे समझाया कि तू भैंस मत खरीद। पर यह नहीं माना। बोला, मैं तो खरीदूँगा और जरूर खरीदूँगा।" - इस पर दूसरे ने कहा, "मैंने इससे आग्रह किया कि तू खेत मत खरीद में भैंस खरीदने का तय कर चुका हूँ। पर इसने मेरी बात नहीं सुनी। " न्यायाधीश ने पहले आदमी से पूछा, "तुमने इसे भैंस खरीदने को क्यों रोका?" वह बोला, "देखिये, साहब, मैं अपने खेत में अनाज बोता, फसल उगती और तभी इसकी भैंस खेत में घुस आती और फसल को खा जाती । मेरा कितना नुकसान हो जाता।” न्यायाधीश ने दूसरे से पूछा, “तुमने इसे खेत न खरीदने को क्यों कहा?" उसने जवाब दिया, "खेत में फसल उगती तो मेरी भैंस उसे देखकर ललचाती और खाने पहुँच जाती । जानवर जानवर है साहब, मैं हर घड़ी उसके सिर पर थोड़े खड़ा रहता।" न्यायाधीश ने पूछा, "तुम्हारा खेत कहाँ है ? और तुम्हारी भैंस कहाँ है?" न कहीं खेत था, न कहीं भैंस थी। न्यायाधीश ने हँसकर कहा, "भले आदमियो, तुमने एक-दूसरे के सिर फोड़ डाले उन चीजों के लिए, जो थीं ही नहीं। इसमें कहाँ की बुद्धिमानी है ?" थोड़ा रुककर न्यायाधीश ने आगे कहा, "दुनिया में बहुत से झगड़े इसी प्रकार बेबुनियाद होते हैं। हम अपने भीतर मन के भूतों को बिठा लेते हैं ये भूत हमें आपस लड़ाते हैं। तुम्हारे भीतर भी वे भूत बैठे हैं। जाओ, उन्हें भगाओ और चैन से रहो।" दोनों ने अपनी भूल अनुभव की और फिर दोस्त बन गये। इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश बालचन्द इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी, सेठ डब्ल्यू. एच. मार्ग, पो. बा. 635, सोलापुर, 413006 महाराष्ट्र, दूरभाष 0217-65388 653040 फैक्स 651538 ने भारतीय नागरिकता प्राप्त जैन छात्रों से बी.ई. कोर्स की कम्प्यूटर, मैकेनिकल प्रोडक्शन, इलेक्ट्रनिक्स, इनफारमेशन टैक्नालॉजी, इलेक्ट्रनिक्स एण्ड कम्युनिकेशन एवं सिविल इंजीनियरिंग शाखाओं के प्रथम वर्ष में प्रवेश के लिये 23 अगस्त 2001 तक निर्धारित प्रपत्र में आवेदन पत्र आमंत्रित किये हैं। निर्धारित आवेदन पत्र 450/- की डी.डी. बालचन्द इंस्टीट्यूट आफ टैक्नालॉजी सोलापुर, 413006 महाराष्ट्र के पक्ष में भेजकर प्राप्त किया जा सकता है। -सुरेश जैन, आई.ए.एस. भोपाल - जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 37 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थक्षेत्र-परिचय श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र 'सुदर्शनोदय' आँवा (राजस्थान) अशोक धानोत्या राजस्थान के नागर चाल क्षेत्र के टोंक | अनुमान है कि भोजन व्यवस्था में 750 मन यह क्षेत्र जयपुर-कोटा राष्ट्रीय राजमार्ग जिले में अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे लाल मिर्च का उपयोग हुआ। प्रतिष्ठा में एक | नं. 12 पर सरोली मोड़ से वाया दूनी दक्षिण अति रमणीय प्राकृतिक छटा बिखेरते हुए चमत्कार और हुआ दर्शनार्थियों की अपार | पश्चिम में 12 किलोमीटर पक्के सड़क मार्ग पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपनी भव्यता भीड़ थी। जितना घी एकत्रित किया गया था | से जुड़ा हुआ है। यहाँ से वीरोदय सांगानेर एवं ऐतिहासिकता को संजोये हुए 'श्री वह समाप्त हो गया तब प्रतिष्ठा कारक एवं 150 कि.मी., ज्ञानोदय नारेली अजमेर शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र प्रतिष्ठाचार्य दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर लगने | 150 कि.मी. कोटा 150 कि.मी. केशवराय 'सुदर्शनोदय' विद्यमान है। इस क्षेत्र पर लगी तो कुएँ में से पानी की जगह घी निकल पाटन 100 कि.मी. चाँद खेड़ी 250 भूगर्भ में विराजमान देवाधिदेव भगवान आया। कार्यक्रम समाप्ति पर उतना ही शुद्ध किमी., भव्योदय रैवासा सीकर 25C शान्तिनाथ की सातिशय श्वेतपाषाण की घी तोल कर वापिस कुएँ में डाला गया। इसे कि.मी. दूरी पर स्थित है। 48x42 इंच आकार की पद्मासन प्रतिमा देखकर चारों तरफ जैन धर्म की जय-जयकार नगर के पश्चिम में सुरम्य एवं मनोहारी समस्त विश्व को मानव मैत्री एवं करुणा का होने लगी। अरावली पहाड़ी श्रृंखलाओं के मध्य एक सहज सन्देश देते हुए मनमोहक लगती है। हमारे सातिशय पुण्य के योग से वर्षों विशाल पन्द्रहवीं शताब्दी की अतिप्राचीन पदमासन स्थिति में इतनी विशाल प्रतिमा के की आराधना, प्रार्थना से सन्तशिरोमणि | जीर्ण-शीर्ण नसिया है जो प्रायः खण्डहर हो सहज ही दर्शन नहीं होते। शान्तिनाथ कामदेव चतुर्थकालीन साधुपरम्परा के आचार्य 108 चुकी है। यह नसिया अतीत में साधु सन्तो भी थे इसलिए इस प्रतिमा की छबि भी | श्री विद्यासागर जी महाराज के परम शिष्य की तपस्या स्थली रही है। नयनाभिराम है प्रतिमा के सभी अंग प्रत्यंग वास्तुविज्ञानी, तीर्थक्षेत्र जीर्णोद्धारक, ज्ञान इस क्षेत्र को एक गौरवमयी अखिल सर्वांग सुन्दर है। ध्यान, तप में लीन आध्यात्मिक संत मुनि भारतीय स्तर का तीर्थ बनाने हेतु विशाल 11 आंवा में मूर्ति प्रतिष्ठा संवत् 1593 पुंगव 108 श्री सुधासागर जी महाराज एवं फुट उत्तुंग पद्यासन श्री शान्तिनाथ भगवान, में प्रतिष्ठा-शिरोमणि कालूराम छाबड़ा उनके क्षुल्लक 105 श्री गम्भीरसागरजी, क्षुल्लक 7 फुट उतंग पद्मासन सहस्रफणी (1008 पुत्र रणमल्ल, तेजमल्ल, रणमल्ल के पुत्र 105 श्री धैर्यसागर जी एवं ब्रह्मचारी संजय फण) पार्श्वनाथ भगवान एवं 7 फुट उतंग वेणीराम छाबड़ा एवं परिवार द्वारा करवाई भैया के पावन चरण इस क्षेत्र पर पड़े। दिनांक पद्मासन जटावाले आदिनाथ भगवान तथा गई। उन्होंने उस समय सवा लाख रुपया खर्च 7 मार्च से 22 मार्च 2000 तक यह संघ त्रिकाल चौबीसी (भूत, भविष्य, वर्तमान) किया जो आज तो करोड़ों से भी ज्यादा है। | इस क्षेत्र पर विराजमान रहा। जिन बिम्ब, मानस्तम्भ धर्मशाला (विद्यासाआंवा के शासक सूर्यसेन थे जिन्होंने दिल पूरे संघ को इस क्षेत्र एवं प्रतिमा के गर त्यागी आश्रम) सिंह द्वार आदि योजनाओं खोलकर प्रतिष्ठा को सफल बनाने में पूर्ण दर्शन से अलौकिक आनन्द की अनुभूति हुई। | का महाराज श्री ने आशीर्वाद एवं प्रेरणा दी। सहयोग दिया एवं स्वयं ने भी जैन धर्म | इस प्रतिमा के अतिशय को देखते हुए पूज्य उक्त योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिये स्वीकार कर लिया जिससे सर्वत्र जैनधर्म की महाराज जी ने इस क्षेत्र का नाम 'श्री दानवीर श्रेष्ठियों का उत्साह उमड़ पड़ा प्रभावना हुई। शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र | जिन्होंने अपनी शक्ति अनुसार धनराशि की प्रतिष्ठाचार्य धर्मचन्द्र भट्टारक ने प्रतिष्ठा 'सुदर्शनोदय' आंवा घोषित किया। उन्होंने | घोषणाएँ कर पुण्यार्जन किया। के समय अपने पूर्वज भट्टारकों की निषीधि- इस क्षेत्र के विकास के लिये स्थानीय समाज 'सुदर्शनोदय' आंवा का जैन समाज काएँ नगर से 1 किलोमीटर दूर सुरम्य को प्रेरणा दी। समस्त दिगम्बर जैन समाज से निवेदन पहाड़ियों में खड़ी करवाकर बड़ा ही ऐतिहा- नगर के हृदय स्थल, मुख्य बाजार के करता है कि इस पवित्र ऐतिहासिक क्षेत्र के सिक कार्य किया जिसकी स्मृति हजारों वर्षों केन्द्र में दो भव्य और विशाल प्राचीन जैन विकास हेतु अधिक से अधिक आर्थिक तक बनी रहेगी। प्रतिष्ठा के समय अनेक मंदिर हैं जिनमें 12वीं शताब्दी की प्रतिमा सहयोग देने व दिलवाने में अपना महत्त्वपूर्ण चमत्कारिक कार्य स्वतः ही सम्पन्न हुए। विस्तीर्ण चैत्यालय, विशाल प्रांगण, बरामदे, सहयोग कर पुण्य लाभ अर्जित करें। यह प्रतिष्ठाचार्य के पद पर मण्डलाचार्य धर्म भव्य द्वार, और विशाल शिखर सुशोभित हैं। संस्था पंजीकृत है और दिगम्बर मूल कुन्दचन्द्रजी पधारे। वे अपनी साधना के बल पर शान्तिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का प्रबंध कुन्द आम्नाय अनुसार संचालित है। ही बिना चले दिल्ली से आंवा तक पहुंचे। यह बघेरवाल समाज करता है और पार्श्वनाथ प्रचार मंत्री, पंच कल्याणक प्रतिष्ठा पूरे एक सप्ताह तक दिगम्बर जैन मंदिर का प्रबंध अग्रवाल एवं श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र चली जिसमें भाग लेने वालों की संख्या का खण्डेलवाल समाज। सुदर्शनोदय, आँवा (टोंक) राजस्थान 38 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित - Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्ति-वीर-शिव-ज्ञान-विद्यासागरेभ्यो नमः वर्षायोग : चातुर्मास 2001 1 (2) (3) साहित्यमनीषी ज्ञानवारिधि दिगम्बर जैनाचार्यप्रवर श्री 108 पर्यावरण केन्द्र, गौशाला, तिलवारा घाट, पुराने पुल के पास, ज्ञानसागर जी महाराज के द्वारा दीक्षित-शिक्षित जैन श्रमण-परम्परा के जबलपुर -482003, मध्यप्रदेश, फोन नं. (0761) आदर्श सन्तशिरोमणि जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज तथा उनके 518185, फैक्स-346009 द्वारा दीक्षित शिष्यों का वीर निर्वाण संवत् 2527, विक्रम संवत् सम्पर्क सूत्र - अध्यक्ष- अरविन्द जैन चावल वाले (0761) 2058, सन् 2001 का वर्षायोग विवरण : 345904 (नि.), 653178, 512129 (दु.), महामंत्री(1) सन्त शिरोमणी आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी, मुनि श्री वीरेन्द्र जैन वीरू (नि.) 345944 (दु.) 348480, मो. समयसागर जी, मुनि श्री योगसागर जी, मुनि श्री पवित्रसागर 98270-68035, इंजी. अशोक जैन (का.) 426231, जी, मुनि श्री विनीतसागर जी, मुनि श्री निर्णयसागर जी, मुनि मो. 98270-45046, सतीश जैन नेता- (नि.) 512628, श्री प्रबुद्धसागर जी, मुनि श्री प्रवचनसागर जी, मुनि श्री मो. 98272-41163, चक्रेश मोदी- मो. 98270प्रसादसागर जी, मुनि श्री अभयसागर जी, मुनि श्री अक्षयसागर 21636, संजय जैन 'अरिहंत' मो.- 98270-92688 जी, मुनि श्री प्रशस्तसागर जी, मुनि श्री पुराणसागर जी, मुनि मुनिश्री नियमसागर जी महाराज, मुनि श्री पुण्यसागर जी श्री प्रयोगसागर जी, मुनि श्री प्रबोधसागर जी, मुनि श्री महाराज, मुनिश्री वृषभसागर जी महाराज प्रणम्यसागर जी, मुनि श्री प्रभातसागर जी, मुनि श्री चन्द्रसागर चातुर्मास स्थली : श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर जी, कपड़ा जी, मुनि श्री अजितसागर जी, मुनि श्री सम्भवसागर जी, मुनि बाजार, कोपरगाँव, अहमदनगर (महाराष्ट्र), फोन-(02423) श्री अभिनन्दनसागर जी, मुनि श्री सुमतिसागर जी, मुनि श्री 25505 पद्मसागर जी, मुनि श्री चन्द्रप्रभसागर जी, मुनि श्री सम्पर्क सूत्र - डॉ. अभयकुमार डगरे (02423) 22080, पुष्पदन्तसागर जी, मुनि श्री श्रेयांससागर जी, मुनि श्री नितिन कासलीवाल- 23303, प्रवीण गंगवाल-25499, पूज्यसागर जी, मुनि श्री विमलसागर जी, मुनि श्री अनन्तसागर धरमचंद अजमेरा-22325 जी, मुनि श्री धर्मसागर जी, मुनि श्री शान्तिसागर जी, मुनि मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज श्री कुन्थुसागर जी, मुनि श्री अरहसागर जी, मुनि श्री मल्लिसागर चातुर्मासस्थली : श्री दिगम्बर जैन महावीर जिनालय महल जी, मुनि श्री सुव्रतसागर जी, मुनि श्री नमिसागर जी, मुनि श्री कालोनी, शिवपुरी- 473551, मध्यप्रदेश नेमी सागर जी, मुनि श्री पार्श्वसागर जी, ऐलक श्री निर्भयसागर सम्पर्क सूत्र- मोतीलाल जैन, मंगलम् लॉज, महल कॉलोनी, शिवपुरी, फोन (07492) 34364, सुरेश कुमार मारौरानोट- आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के द्वारा दीक्षित प्रायः 33364 (नि.), 33632 (का.) सभी साधुगण बालब्रह्मचारी हैं। जैन श्रमण-परम्परा के ज्ञात मुनि श्री गुप्तिसागर जी महाराज इतिहास/जानकारी में यह प्रथम श्रपण संघ है जिसमें वर्तमान चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी निर्माण विहार, दीक्षित 184 साधुगण एवं आर्यिकाएँ भी बालब्रह्मचारिणी हैं। नई दिल्ली-117092 आचार्य श्री जी से आज्ञा प्राप्त कर देश के विभिन्न नगरों में मुनि श्री सुधासागर जी महाराज, क्षुल्लक श्री गम्भीरसागर जी लगभग 100 बालब्रह्मचारी भाई एवं 200 बालब्रह्मचारिणी महाराज, क्षुल्लक श्री धैर्यसागर जी महाराज, बहनें भी चातुर्मास कर रही हैं। चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ नसियाँ, आचार्य श्री जी के द्वारा प्रतिदिन प्रातःकाल 'षट्खंडागम' दादाबाड़ी, कोटा- 324009 राजस्थान, फोन- 0744(वर्गणाखण्ड) पुस्तक 14 का तथा अपराह्नकाल 'समयसार' 431000 ग्रन्थ का स्वाध्याय कराया जाता है। सम्पर्क सूत्र : श्री राजकुमार बड़जात्या, 195/196 ए, वंदना, प्रत्येक रविवार को अपराह्न 3 बजे से आचार्यश्री का सार्वजनिक तलवण्डी, कोटा-5, फोन- (नि.) 0744-425936, प्रवचन होता है। 425421, (का.) 421802, 423391-96, फैक्सभगवान महावीर के 2600वें जन्मकल्याणक महोत्सव एवं 422104, मो.-98290-96079, ई-मेलअहिंसा वर्ष के प्रसंग पर भारत वर्ष के नाभिस्थल जबलपुर rkb@dscl.com, श्री ऋषभ मोहिवाल,393, दादावाड़ी नगर में ऐतिहासिक त्रिपुरी कांग्रेस की अधिवेशन स्थली एवं विस्तार योजना, कोटा-9, फोन- 0744 (का.) 434653, नर्मदा (रेवा) नदी के तट पर यह इक्कीसवीं सदी का प्रथम (नि.) 433653 चातुर्मास गोशाला में हो रहा है। (6) मुनि श्री समतासागर जी महाराज, मुनि श्री प्रमाण सागर जी चातुर्मास स्थली - दयोदय तीर्थ, दयोदय पशु संवर्धन एवं | महाराज, ऐलक श्री निश्चयसागर जी महाराज -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 39 जी, | (4) (5) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7) चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मांझ का मंदिर जी, मेन | समाज भाटापारा, 22417, मो. 98271-10417 रोड, टीकमगढ़- 472001, मध्यप्रदेश (13) मुनि श्री सुखसागर जी महाराज सम्पर्क सूत्र - अध्यक्ष- गुलाबचन्द जैन धमासिया, फोन- चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर मझगाँव(07683) 42263, मंत्री- ज्ञानचंद नायक-42281, 590008, जिला- बेलगाँव, कर्नाटक जयकुमार निशान्त- 43138, अरविन्द जैन- 42636, सम्पर्क सूत्र - श्री बी.जे. गंगई- (0831) 488813, 45369, चक्रेश टडैया- 42706, कल्याणचन्द्र नायक- 480625, ए.ए. नेमन्नावर, बेलगांव (0831) 452712 40515, 44515 (14) मुनिश्री मार्दवसागर जी महाराज मुनिश्री स्वभावसागर जी महाराज चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र आदीश्वर चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी, टिकैतनगर, गिरि, नोहटा-477204, दमोह, मध्यप्रदेश (बाराबंकी) उत्तरप्रदेश। सम्पर्क सूत्र -डॉ. संतोष गोयल, फोन- (07606) 97224, सम्पर्क सूत्र - सेठ रमेशचन्द्र शान्ति प्रकाश जैन (05241) 97222,भाटिया जी- 57261 72211 (15) मुनि श्री अपूर्व सागर जी महाराज, मुनिश्री सुपार्श्वसागर जी (8) मुनि श्री समाधिसागर जी महाराज महाराज चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र नेमगिरि, चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन बस्ती, साहू नगर, पो. जिन्तूर-431509, (परभणी) महाराष्ट्र जयसिंहपुर- 416101 (कोल्हापुर) महाराष्ट्र सम्पर्क सूत्र - शान्तराव कलमकर (02457) 20113, सम्पर्क सूत्र - श्री डी.के. चौगुले, फोन (नि.) (02322) 20022 25679, (का.) 25448, 28348, मो. (9) मुनि श्री सरलसागर जी महाराज 9822131292, बी. पाटिल (0230) 27951 चातुर्मास स्थली : श्री चन्द्रप्रभु दिगम्बर जैन मंदिर, पिपरई। (16) मुनि श्री प्रशान्त सागर जी महाराज, मुनिश्री निर्वेगसागर जी गाँव-473440 गुना, मध्यप्रदेश। महाराज, सम्पर्क सूत्र - नाथूराम सुरेशचन्द्र जैन, किराना मर्चेन्ट, पिपरई चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, छतरपुर -471001 गाँव (गुना) म.प्र. (07541) 47223, 47208, 47262 (म.प्र.) (10) मुनिश्री आर्जवसागर जी महाराज (17) आर्यिका श्री गुरुमती जी, आर्यिका श्री उज्जवलमती जी, चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, पोदमामूर स्ट्रीट, आर्यिका श्री चिन्तनमती जी, आर्यिका श्री सूत्रमती जी, आरनी, तालुका- वन्दवासी, जिला- तिरुवन्नमलै, तमिलनाडु, आर्यिका श्री शीतलमती जी, आर्यिका श्री सारमती जी, फोन- (04173) 26236 आर्यिका श्री साकारमती जी, आर्यिका श्री सौम्यमती जी, सम्पर्क सूत्र - एम. जगनागन, श्रुतकेवली विशाखाचार्य आश्रम आर्यिका श्री सूक्ष्ममती जी, आर्यिका श्री शान्तमती जी, तपोनिलयम, कुंदकुंदनगर (04183) 25912, 27018, आर्यिका श्री सुशान्तमती जी, बुधराज कासलीवाल, पाण्डिचेरी (0413) 33537, चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन अटा मंदिर जी, सावरकर 333536, सोहनलाल कोठारी, सेलम (0427) 212060, चौक, ललितपुर-284403, उत्तर प्रदेश 212401, 212179 सम्पर्क सूत्र- प्रबंधक- प्रेमचंद जैन बिरधा, चम्पालाल जैन (11) मुनि श्री उत्तमसागर जी महाराज, मुनि श्री पायसागर जी महाराज नोहरकला- (05176) 72470, ज्ञानचंद जैन इमलिया चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, रामटेक, 72715, सतीश नजा-74101, 72585, सुभाष सर्राफनागपुर (महाराष्ट्र), फोन- (07114) 55117 72445, अजित कुमार जैन, एडवोकेट -72650, नरेन्द्र सम्पर्क सूत्र- अनिल कुमार जैन, बाम्बेसागर रोडवेज नागपुर- जैन (छोटे पहलवान) 73150 (0712) 771491, 764889 (नि.), (का.) 770085, | (18) आर्यिका श्री दृढ़मती जी, आर्यिका श्री पावनमती जी, आर्यिका 762184, 762375, फैक्स-762184, गोकुलचन्द्र जैन श्री साधनामती जी, आर्यिका श्री विलक्षणामती जी, आर्यिका बड़कुल, अध्यक्ष- परवारपुरा दिगम्बर, जैन मंदिर ट्रस्ट कमेटी, श्री वैराग्यमती जी, आर्यिका श्री अकलंकमती जी, आर्यिका श्री नागपुर (0712) 764379, (3) मैनेजर- विजय कुमार निकलंकमती जी, आर्यिका श्री आगममती जी, आर्यिका श्री जैन, रामटेक (07114) 55117 स्वाध्यायमती जी, आर्यिका श्री प्रशममती जी, आर्यिका श्री (12) मुनि श्री चिन्मयसागर जी महाराज, मुनि श्री पावन सागर जी मुदितमती जी, आर्यिका श्री सहजमती जी, आर्यिका श्री महाराज संयममती जी, आर्यिका श्री सत्यार्थमती जी, आर्यिका श्री चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन भवन, सदर बाजार, समुन्नतमती जी, आर्यिका श्री शास्त्रमती जी, आर्यिका श्री भाटापारा- 493118, जिला- रायपुर, छत्तीसगढ़, फोन- सिद्धमती जी, (07726) 20372 सुरेशमोदी चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी जैन वार्ड, छपारासम्पर्क सूत्र- प्रकाश मोदी, अध्यक्ष- चातुर्मास व्यवस्था 480884 (सिवनी) मध्यप्रदेश कमेटी, (07726) 20015, 21411, फैक्स- 122344, सम्पर्क सूत्र - अध्यक्ष- रमेशचन्द्र जैन, पूर्व विधायक, फोन मो. 98271-10402, संतोष कुमार जैन- अध्यक्ष, जैन (07681) 34335, मंत्री नरेन्द्र जैन-34272, धन्यकुमार 40 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित सम्पर्क सूत्र, कुंदकाल. पा. मेला Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- 34407 (19) आर्यिका श्री मृदुमती जी, आर्यिका श्री निर्णयमती जी, आर्यिका श्री प्रसन्नमती जी चातुर्मास स्थली श्री दिगम्बर जैन नन्हे मंदिर जी जैन धर्मशाला, असाटी वार्ड, दमोह 470661 (म.प्र.) सम्पर्क सूत्र- महेश कुमार जैन बड़कुल, फोन - (07812) 470661, संतोष सिंघई (नि.) 22394, (दु.) 22047, पदमलहरी- 22407 (20) आर्यिका श्री ऋजुमती जी आर्यिका श्री सरलमती जी, आर्यिका श्री शीलमती जी चातुर्मास स्थली श्री दिगम्बर छोटा पार्श्वनाथ जैन मंदिर, सोधिया मोहल्ला, महाराजपुर 470226, सागर म.प्र. सम्पर्क सूत्र श्री महेन्द्र सोधिया (07586) 22234, डॉ. पी. सी. जैन- 22128, अनिल सोधिया-22228, ताराचन्द सिंघई- 22236 (21) आर्यिका श्री तपोमती जी, आर्यिका श्री सिद्धान्तमती जी, आर्यिका श्री नम्रमती जी आर्यिका श्री पुराणमती जी, आर्यिका श्री उचितमती जी, " चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, पुलिस थाने के निकट, तेन्दूखेड़ा- 470880, दमोह, मध्यप्रदेश सम्पर्क सूत्र- सिंघई सुमेरचंद जैन (07603) 63672, डॉ. शिखरचंद जैन 63686, 63687, प्रेमचंद गोयल 63738 22) आर्यिका श्री सत्यमती जी, आर्यिका श्री सकलमती जी चातुर्मास स्थली श्री चन्द्रप्रभु दिगम्बर जैन मंदिर जी, देवेन्द्र नगर- 488333 (पन्ना), मध्यप्रदेश : सम्पर्क सूत्र - अध्यक्ष- राकेश जैन, लाइटवाले, देवेन्द्रनगर, मंत्री प्रमोद जैन (23) आर्यिका श्री गुणमती जी, आर्यिका श्री जिनमती जी, आर्यिका श्री कुशलमती जी, आर्यिका श्री धारणामती जी, आर्यिका श्री उन्नतमती जी, : चातुर्मास स्थली श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर जी खिमलासा470118 (सागर) मध्यप्रदेश सम्पर्क सूत्र - स्वतन्त्र जैन सराफ (07581 ) 84264 84112, 84412, अध्यक्ष- अरविन्द सिंघई, मंत्रि- कमल नायक, चन्द्रकुमार जैन-84250, कोमल चन्द सिंघई- 84234 24) आर्यिका श्री प्रशान्तमती जी, आर्यिका श्री विनम्रमती जी, आर्यिका श्री विनतमती जी, आर्यिका श्री अनुगममती जी, आर्यिका श्री संवेगमतीजी, आर्यिका श्री शैलमती जी, आर्यिका श्री विशुद्धमती जी चातुर्मास स्थली श्री चन्द्रप्रभु दिगम्बर जैन मंदिर जी, कटंगी483105 (जबलपुर) मध्यप्रदेश सम्पर्क सूत्र - अध्यक्ष - डॉ. निर्मल जैन (07621) 68614, दिनेश जैन- 68685, 68631, 68657, विजय सिंघई68656, सुरेन्द्र बड़कुल - 68675, ब्र. संजीव जैन68691, ब्र अरुण जैन- 68671 25) आर्यिका श्री पूर्णमती जी, आर्यिका श्री शुभ्रमती जी, आर्यिका श्री साधुमती जी, आर्यिका श्री विशदमती जी, आर्यिका श्री विपुलमती जी आर्यिका श्री मधुरमती जी आर्यिका श्री एकत्वमती जी आर्यिका श्री कैवल्यमती जी. आर्यिका श्री सतर्कमती जी, आर्यिका श्री श्वेतमती जी : चातुर्मास स्थली श्री दिगम्बर जैन मंदिर, तात्या टोपे नगर (टी.टी. नगर), टीन शेड, भोपाल-462003, मध्यप्रदेश, फोन- 0755-778441 सम्पर्क सूत्र श्री अमर जैन (0755) 778471, मो. 98260-24485, शरद जैन (नि) 543522 (दु.) 254075, रवीन्द्र जैन (नि.) 661065, (का.) 530182, (मो.) 98270-54116 (26) आर्यिका श्री अनन्तमती जी, आर्यिका श्री विमलमती जी, आर्यिका श्री निर्मलमती जी, आर्यिका श्री शुक्लमती जी, आर्यिका श्री अतुलमती जी, आर्यिका श्री निर्वेगमती जी, आर्यिका श्री सविनयमती जी आर्यिका श्री समयमती जी, आर्यिका श्री शोधमती जी, आर्यिका श्री शाश्वतमती जी, आर्यिका श्री सुशीलमती जी, आर्यिका श्री सुसिद्धमती जी, आर्यिका श्री सुधारमती जी, , चातुर्मास स्थली श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी कुम्भराज473222 (गुना) म.प्र. सम्पर्क सूत्र - राकेश कुमार जैन, अध्यक्ष, स्वर संगम रेडियो, कुंभराज " (27) आर्यिका श्री प्रभावनामती जी आर्यिका श्री भावनामती जी, आर्यिका श्री सदयमती जी चातुर्मास स्थली श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी अरथूना37032 अरथूना तह. कड़ी (बांसवाड़ा) राजस्थान सम्पर्क सूत्र सेठ वास्तुपाल जी (02963) 38204, गोंदालाल जी 38201 ( 28 ) आर्यिका श्री आदर्शमती जी आर्यिका श्री दुर्लभमती जी, आर्यिका श्री अन्तरमती जी, आर्यिका श्री अनुनयमती जी, आर्यिका श्र अनुग्रहमती जी, आर्यिका श्री अक्षयमती जी, आर्यिका श्री अमूर्तमती जी, आर्यिका श्री अखण्डमती जी, आर्यिका श्री अनुपममती जी, आर्यिका श्री अनर्धमती जी. आर्यिका श्री अतिशयमती जी, आर्यिका श्री अनुभवमती जी. आर्यिका श्री आनन्दमती जी आर्यिका श्री अधिगममती जी, आर्यिका श्री अमन्दमती जी आर्यिका श्री अभेदमती जी. आर्यिका श्री उद्योतमती जी, , चातुर्मास स्थली श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर जी पुराना बाजार, मुंगावली- 473 443 (गुना) मध्यप्रदेश सम्पर्क सूत्र- देवेन्द्र सिंघई, अध्यक्ष (07548) 46659, 46562, (07548) 72082 सुधीर सिंघई 72097. संजय सिंघई- 72093, 72218 (29) आर्यिका श्री आलोकमती जी, आर्यिका श्री सुनयमती जी चातुर्मास स्थली श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर जी हटा (दमोह), मध्यप्रदेश सम्पर्क सूत्र मुकेश शाह (07604) 62845, 62878, 62509, मनीष जैन-62355 (30) आर्यिका श्री अपूर्वमती जी, आर्यिका श्री अनुत्तरमती जी. • जुलाई- अगस्त 2001 जिनभाषित 41 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी, बाँदकपुर- | (नि.), मो.-98270-61926, जयकुमार गोयल-42268, 470664 (दमोह), मध्यप्रदेश अशोक जैन- 42660 सम्पर्क सूत्र - अनुज सिंघई (07812) 51229, जिनेन्द्र | (36) ऐलक श्री सिद्धांतसागर जी महाराज सिंघई 51260, दीपक डबुल्या-51214 चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी, घाटोल(31) आर्यिका श्री उपशान्तमती जी , आर्यिका श्री ॐकारमती जी (बांसवाड़ा) राजस्थान चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन वीभवन, बाजार चौक, सम्पर्क सूत्र - श्रीपाल कन्हैयालाल उमावत (02961) कर्रापुर- 470366 (सागर) मध्यप्रदेश 20041, 20241, धनपाल जी जोधावत एडवोकेटसम्पर्क सूत्र - अध्यक्ष- राकेश कुमार जैन, राकेश मेडीकल 41741, 20400 स्टोर्स (07582) 83237, बसंत कुमार जैन- 83216, | (37) ऐलक श्री सम्पूर्णसागर जी महाराज नेमीचंद जैन-83267, चातुर्मास स्थली : श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर जै (32) आर्यिका श्री अकम्पमती जी, आर्यिका श्री अमूल्यमती जी, पालमगाँव- नई दिल्ली-110045 आर्यिका श्री आराध्यमती जी, आर्यिका श्री अचिन्त्यमती जी, सम्पर्क सूत्र - बाबूलाल जैन, प्रधान- (011) 5085015, आर्यिका श्री अलोल्यमती जी, आर्थिक श्री अनमोलमती जी, ज्ञानचन्द जैन-5083514, महेन्द्र कुमार जैन-5084321 आर्यिका श्री आज्ञामती जी, आर्यिका श्री अचलमती जी, सतीशचन्द्र जैन-5037152 आर्यिका श्री अवगममती जी, | (38) ऐलक श्री नम्रसागर जी महाराज चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन बड़ा मंदिर जी, गैरतगंज- चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी बड़ागांव, धसान, 464884 (रायसेन) म.प्र. (टीकमगढ़) म.प्र. सम्पर्क सूत्र- श्री टेकचन्द जैन, अध्यक्ष (07481) 21237, सम्पर्क सूत्र - पंडित सुरेन्द्र कुमार जैन (07683) 57334, संजय मेडीकल स्टोर्स-21522, गिरीश कुमार जैन-43365 हुकमचन्द हटैया-57228 (33) ऐलक श्री दयासागर जी महाराज | (39) ऐलक श्री प्रभावसागर जी महाराज चातुर्मास स्थली : श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर जी, चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन मंदिर जी टड़ा- 470235 कन्देली, नरसिंहपुर - 487001, मध्यप्रदेश (सागर) मध्यप्रदेश सम्पर्क सूत्र-डॉ. सुधीर सिंघई, अध्यक्ष- (07792) 30715, सम्पर्क सूत्र - श्री देशराज जैन एडवोकेट, छोटे जैन मंदिर के विमल बड़कुल -30201, राजेश बजाज- 30243 पीछे, टड़ा (सागर) म.प्र. (34) ऐलक श्री निःशंक सागर जी महाराज (40) क्षुल्लक श्री ध्यानसागर जी महाराज चातुर्मास स्थली : श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर जी, चातुर्मास स्थली : श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरी, पो. छत्रपति नगर, एरोड्रम रोड, इंदौर-452005, मध्यप्रदेश मुक्तागिरि, (बैतूल) मध्यप्रदेश सम्पर्क सूत्र : वीरेन्द्र कुमार जैन- (0731) 414773, मैनेजर- मुक्तागिरि सिद्ध क्षेत्र कमेटी, मुक्तागिरि, फोनमुलायम चन्द्र जैन- जैन मंदिर के सामने, डॉ. जिनेन्द्र कुमार (07223) 21402 जैन- 411125 (नि.), 546138 (का.), संजय जैन (41) क्षुल्लक श्री पूर्णसागर जी महाराज मेक्स-537522, मो.- 98260-37522, चातुर्मास स्थली: श्रीदिगम्बर जैन मंदिर जी, चौपरा, नोहटा (35) ऐलक श्री उदारसागर जी महाराज, क्षुल्लक श्री नयसागर जी (दमोह) मध्यप्रदेश महाराज नोट- आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज से दीक्षित वर्तमान चातुर्मास स्थली : श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर जी, में 59 मुनि महाराज, 111 आर्यिकाएँ, 9 ऐलक महाराज तथा गोलगंज, छिंदवाड़ा- 48001, मध्यप्रदेश 5 क्षुल्लक महाराज जी, कुल 184 साधकगण मध्यप्रदेश, सम्पर्क सूत्र- अशोक वाकलीवाल, बाम्बे ड्रेस हाउस, गोलगंज राजस्थान, कर्नाटक, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ छिंदवाड़ा, फोन- (07162) 44860 (दु.), 42726 एवं तमिलनाडु प्रान्तों में वर्षायोग कर धर्मप्रभावना कर रहे हैं। कः पूज्यः सदवृत्तः कमधनमाचक्षते चलितवृत्तम्। केन जितं जगमेतत् सत्यतितिक्षावता पुंसा।। पूज्य कौन है? सच्चरित्रवान्। निर्धन किसे कहते हैं? चरित्र हीन को। संसार पर विजय प्राप्त कौन करता है? सत्य और क्षमा से युक्त पुरुष। कस्मै नमः सुरैरपि सुतरां क्रियते दयाप्रधानाय। कस्मादुद्विजितव्यं संसारारण्यत: सुधिया।। देवों के द्वारा भी वन्दनीय कौन है? दयाशील मनुष्य। भयभीत किससे होना चाहिए? संसाररूपी अरण्य से। 42 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित कस्य वशे प्राणिगणः सत्यप्रियभाषिणो विनीतस्य। वत्र स्थातव्यां न्याये पथि दृष्टादृष्टलाभाय।। प्राणी किसके वश में होते हैं? सत्य और प्रियभाषी विनयशील मनुष्य के। मनुष्य को कहाँ स्थित रहना चाहिए? न्याय के पथ पर, क्योंकि उसी पर स्थित रहने से इहलोक और परलोक में सुख होता है। "णमो लोए सव्वसाहूणं' Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपके पत्र : धन्यवाद, सुझाव शिरोधार्य __ 'जिनभाषित' का मई 2001 अंक | कलेवर, आकर्षक साज-सज्जा और मौलिक । अंक में छपा लेख 'जैन आचार में प्राप्त कर हर्ष है। उसके विषय महत्त्वपूर्ण, | सामग्री पत्रिका का वैशिष्ट्य है। "जैन आचार | इन्द्रियदमन का मनोविज्ञान' अनूठा है, जो प्रासंगिक और पठनीय हैं। 'जैन आचार में | में इन्द्रियदमन का मनोविज्ञान" लेख स्वच्छन्द आपके मौलिक चिन्तन की गहराइयों से भरा, इन्द्रियदमन का मनोविज्ञान' पढ़ा। उन्मुक्त | भोगवादी लोगों को एक नई दिशा देता है। मन को छूने वाला हैं। श्रुतपंचमी सम्बन्धी कामभोग का दुष्परिणाम एक भगवान् साथ-साथ ओशो को भी यह सटीक जवाब सभी लेख भी उत्कृष्ट है। अतिनिन्दनीय और आचार्य के आश्रम में भी सुना, जहाँ सेक्स है। सच में, इन्द्रियदमन की नई अवधारणा अतिप्रशंसनीय' भी श्रेष्ठ बोधकथा है। के लिये, गर्मी-सुजाक रोग के उपचार हेतु को प्रकट कर आपने जैनाचार की युक्तियु ब्र. हेमचन्द्र जैन 'हेम' अस्पताल हैं। शम-दम से संवर होता है जो क्तता एवं वैज्ञानिकता को स्थापित किया है। कुन्द-कुन्द छाया, एम.आई.जी. 10/ए, पूर्णरूपेण संवर में शामिल है। आपने सोनागिरी, भोपाल-462021 आपके इस स्तुत्य प्रयास के लिये कोटिशः ऐन्द्रियिक उत्तेजनाओं के शक्त्यनुसार क्रमिक धन्यवाद। उत्तमचन्द्र जैन, एडवोकेट 'जिनभाषित' का मई 2001 का अंक दमन में इच्छाओं के नाड़ीतन्त्रीय स्रोत का निष्क्रिय होना बताया। क्या स्वदारसन्तोष लिंक रोड, सागर (म.प्र.) मिला। पहली बार जैन समाज की श्रेष्ठ पत्रिका इसका उपचार नहीं हो सकता? इधर देखी, जबकि भगवान महावीर का विषयविषमाशनोत्थित मोहज्वरजनिततीव्रतृष्णस्य। "जिनभाषित' मई 2001 अंक मिला। 2600वाँ जन्मोत्सव राष्ट्रव्यापी रूप में निःशक्तिकस्य भवतः प्रायः पेयाद्युपक्रमः श्रेयान्॥ '1200 मवेशी कटने से बचे' समाचार मनाया जा रहा है। आपने पत्रिका में (आत्मानुशासन 17) विचार करें। वास्तव में विशेष है। इस सम्बन्ध में सागर सारगर्भित, ज्ञानवर्धन और नानाविध सामग्री परम पूज्य आचार्य श्री आदि गुरुओं के नगरवासियों की सक्रियता सराहनीय है। संकलित की है। पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर सदुपदेश, गोरक्षा के माध्यम से अहिंसा का गोरक्षा के क्षेत्र में आचार्यश्री द्वारा किये गये जी के दो लेख/प्रवचन अच्छे लगे। श्रुतपंचमी पालन, जीवनोपयोगी अनेक रचनाओं के ठोस, व्यावहारिक दिशानिर्देशन से जीवदया पर आचार्य श्री ने अच्छा प्रकाश डाला और कारण यह पत्रिका अत्युपयोगी है। सम्पादन, का यह क्षेत्र सक्षम एवं व्यापक हो सका है। | सम्पादकीय भी इस विषय पर पसन्द आया। इन्द्रियदमन की आवश्यकता को वैज्ञानिक प्रकाशन सुन्दर है। धन्यवाद। एक लेख में 'मूकमाटी महाकाव्य' पर पं. नाथूलाल जैन शास्त्री एवं तार्किक ढंग से बताकर आपने कई लोगों प्रशासनिक दृष्टि से विचार किया गया है। पं. 40, हुकुमचन्द मार्ग, इंदौर-2 म.प्र. की शंकाओं का समाधान किया है। आसक्ति, फूलचन्द्र जी का लेख उत्तम है। शंकासमाधान आदत को दूर करने के लिये मन और तन | ज्ञानप्रद तथा मार्गदर्शक है। ऐसी उत्तम पत्रिका 'जिनभाषित' पत्र का मई 2001 का पर लगाम तो लगानी ही पड़ेगी। के लिये हार्दिक बधाई। अंक प्राप्त हुआ। बहुत प्रसन्नता हुई। प्रथम आशा है 'जिनभाषित' माँ जिनवाणी प्रो. निजामुद्दीन, मोहल्ला- साजगरीपोरा तो अंक का कागज, छपाई, बनावट आदि की सेवा करते हुए समाज को ऐसा सोच देगा, श्रीनगर-190011 (जम्मू-कश्मीर) भी बहुत सुन्दर है। दूसरे सभी लेख पढ़ने जिससे समाज, सत्य, अहिंसा, अनेकान्त पर योग्य आगमानुसार हैं। इस प्रयास के लिये | 'जिनभाषित' पत्रिका पढ़कर प्रसन्नता बद्धचित्त होकर रचनात्मक कार्यों के द्वारा आपको हार्दिक धन्यवाद। व्यक्तिगत एवं सामाजिक विकास की ओर हुई। 'श्रुतपञ्चमी' सम्पादकीय में जैनजगत का पं. लाड़ली प्रसाद जैन पापड़ीवाल | वर्गीकरण और निष्कर्ष पढ़कर अच्छा लगा। अग्रसर हो सकेगा। सवाई माधोपुर, (राजस्थान) अजित जैन 'जलज' 'स्वाध्यायः परमं तपः' की सिद्धि और ककरवाहा (टीकमगढ़) म.प्र. उसका व्यवहाररूप पुनर्विचार हेतु प्रेरित "जिनभाषित' के अप्रैल-मई के अंक करता है। यह आश्चर्य है कि प्रत्येक वर्ग अपने मिले। अद्वितीय अनुपम, आकर्षक है यह 'जिनभाषित' के अप्रैल और मई को अल्पसंख्यक वर्ग (अन्तिम वर्ग) की श्रेणी पत्रिका। इसे सत्यं, शिवं, सुन्दरम् भी कहा 2001 के अंक प्राप्त हुए। भतीजा बोला | में मानता है। भ्रम कैसे दूर हो, विचारणीय पूजा सकता है। सम्पादक, प्रकाशक एवं मुद्रक 'दादाजी! 'इंडिया टुडे' में ऊपर कवर पर है। आचार्यश्री का आलेख 'ज्ञान और सभी साधुवाद के पात्र हैं। भ. महावीर स्वामी का एवं गोम्मटेश्वर म. | अनुभूति' मननीय है। 'सम्यक् श्रुत' आलेख अनूपचन्द्र जैन, एडवोकेट बाहुबली का फोटो छपा है। मैंने ध्यान से देखा ज्ञानवर्धक है। आकर्षक साजसज्जा एवं फिरोजाबाद (उ.प्र.) तो पाया यह तो जैन/मासिक पत्रिका है और | कुशल संयोजन हेतु बधाई। उसके लेख व सम्पादकीय उच्चकोटि के हैं। डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल 'जिनभाषित' पत्रिका देखी। पहली ही अप्रैल के अंक में छपा लेख 'महावीर प्रणीत बी/369, ओ.पी.एम. कालोनी बार में आद्योपान्त पढ़ डाला। अभिनव जीवनपद्धति की प्रासंगिकता' एवं मई के अमलाई-484117 (शहडोल) म.प्र. -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 43 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जिनभाषित' जून 01 का अंक प्राप्त हुआ। अंक बहुत ही अच्छा लगा। मुनिश्री के शब्द 'जिनवाणी माता की चिट्ठी पढ़कर रोमांचकारी अनुभूति प्राप्त हुई। माता की चिट्ठी' का यह रूप अबाधित रखना, 'जिनभाषित' को इसी स्तर पर हमेशा प्रकाशित करना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। और आप जैसे आगमनिष्ठ प्रतिभाशाली, जिनवाणी- भक्त ही यह जिम्मेदारी सुचारुरूप से निभा सकते हैं। आदरणीय पं. रतनलाल जी बैनाड़ा जैसे स्वाध्यायरत लक्ष्मीसरस्वती दोनों के कृपापात्र श्रेष्ठी का साथ आपको प्राप्त है। प. पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का आपके ऊपर पावन वरदहस्त है। मुनिश्री समतासागर जी और मुनिश्री प्रमाणसागर जी से भी आपको शुभाशीष मिला है। निश्चय ही आपके कुशल और तत्त्वदृष्टिसम्पन्न सम्पादन में यह पत्रिका अपना नाम सार्थक करेगी। प्रा. रतिकान्त शहा जैन 'कमलायतन' शिवाजीनगर, मेनरोड कोरेगाँव (सातारा) 415501 महाराष्ट्र 'जिनभाषित' का अप्रैल 2001 का अंक प्राप्त हुआ। पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। आपने इस पत्रिका का प्रकाशन भगवान् महावीर के 2600 वें जन्मकल्याणक महो त्सव वर्ष में प्रारंभ किया तथा पत्रिका के नाम के अनुरूप ही विभिन्न विषयों से सम्बन्धित लेखों का समावेश किया है, जो अत्यंत प्रशंसनीय है। आध्यात्मिक एवं धार्मिक लेखों के साथ अन्य ज्ञानवर्धक लेखों ने भी पत्रिका की उपयोगिता को द्विगुणित किया है। पत्रिका का मुख-आवरण अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक है। छपाई भी उत्तम है। इस सुन्दर पत्रिका के प्रकाशन हेतु आप बधाई के पात्र हैं। 44 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित के.सी. विनायका श्रीमती आशा विनायका ए-34, रविशंकर शुक्ल नगर इंदौर- 45211 'जिनभाषित' पत्रिका पढ़ी अच्छी गी। हमें पूर्ण आशा है कि यह पत्रिका समाज में अपना विशिष्ट स्थान अवश्य बनायेगी। परन्तु आप इसे व्यक्तिवाद से बचाकर रखियेगा, क्योंकि जिस पत्रिका में व्यक्तिवाद आ गया, बस वह पत्रिका समाप्त ही हो गई। इसका कवर पृष्ठ बहुत ही सुन्दर व आकर्षक लगा। शुद्धात्यप्रकाश जैन प्राकृताचार्य श्री लालवहादुरशास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, कटवारिया सराय नई दिल्ली- 110016 'जिनभाषित' मासिक पत्रिका के प्रायः अभी तक के सभी अंकों को पढ़ने का इंदौर। 10 अप्रैल 2001 सशक्त परिवार और अशक्त राष्ट्र का निर्माण सशक्त नारी द्वारा ही संभव है और भगवान महावीर ने नारी शक्ति को सम्मान देकर जो गौरव प्रदान किया है वह आज भी प्रासंगिक है। उक्त विचार केन्द्रीय राज्य महिला बाल विकास मंत्री श्रीमती सुमित्रा महाजन ने भगवान महावीर के 2600वें जन्मोत्सव दिगम्बर जैन राष्ट्रीय समिति के तत्त्वावधान में अखिल भारतवर्षीय महिला परिषद् द्वारा आयोजित सर्वधर्म महिला सम्मेलन के अवसर पर व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि मादा भ्रूण हत्या एवं नारी पर हो रहे अत्याचार को नारी को स्वालम्बी साक्षर और स्वस्थ बनाकर ही रोका जा सकता है। महिला परिषद् के कार्यों की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि भगवान महावीर के 2600 वें जन्म महोत्सव वर्ष और महिला सशक्तीकरण वर्ष में जो सौभाग्य मिला। समय-समय पर सुखद अनुभूति के साथ ही ज्ञान, मनन तथा चिन्तन में वृद्धि हुई मेरा विनम्र सुझाव है कि जैनसमाज के ऐसे व्यक्तियों से निरन्तर परिचित कराने की श्रृंखला जारी करें, जिन्होंने नये आयाम स्थापित किये हों। साथ ही 'जैनधर्म / जैनदर्शन की ऐसी लेखमाला शुरु की जावे जो बच्चों के साथ ही साथ युवकों में भी ज्ञान का संचार करे। 'जिनभाषित' परिवार को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ। डॉ. चन्दा मोदी सी/3, एम.पी.ई.बी. कालोनी विद्युत नगर, रामपुर, जबलपुर (म.प्र.) सर्वधर्म महिला सम्मेलन का आयोजन 'जिनभाषित' का मई अंक प्राप्त हुआ। उसे प्रारंभ से अन्त तक एक साथ ही पढ़ा। यह पत्र बहुत ही उपयोगी शिक्षाप्रद और सुन्दर रूप में प्रकाशित करके आप महान् परोपकार कर रहे हैं। मई अंक में आपका सम्पादकीय एवं 'जैन आचार में इन्द्रियदमन का मनोविज्ञान एवं सभी लेख बहुत ही उच्चकोटि के हैं। 'जिनभाषित' को आपने सुरुचिसम्पन्न प्रकाशित किया है। मेरे पास 100 जैनपत्र आते हैं। उनमें 'जिनभाषित सर्वश्रेष्ठ है। आपको हार्दिक बधाई। डॉ. ताराचन्द्र जैन बख्शी वखशीभवन, न्यू कालोनी जयपुर 302001 ( राजस्थान) - आपने 2600 महिलाओं और 2600, बालकों को शिक्षित करने एवं स्वावलम्बी बनाने की तथा 2600 पेड़ लगाने की जिम्मेदारी ली है वह प्रशंसनीय है। कार्यक्रम संयोजिका एवं केन्द्रीय अध्यक्षा श्रीमती आशा विनायका ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि महावीर के सर्वोदय धर्मतीर्थ और सर्वजातिसद्भाव के अनुसार आज सर्वधर्म महिला सम्मेलन का आयोजन किया गया है और आत्मकल्याण और विश्वकल्याण की भावना को साकार करने के लिये संस्थाओं एवं सभी धर्म की सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं को कार्यक्रम के साथ जोड़ा गया है ताकि महावीर के सिद्धान्त तथा जियो और जीने दो का संदेश फैलाने और पर्यावरण, सामाजिक शान्ति एवं लोकसेवा के कार्यक्रम में उन्हें साझीदार और सहभागी बनाया जा सके। श्रीमती आशा विनायका, इन्दौर . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECENE Preso Eमप रोज हम ये दीप धूप ये गंध मानो कह रही है हमारी ही है यह आत्म-सौरभ-अगंध ये गीत-गान वन्दना के छन्द मानो कह रहे हैं हमारा ही है यह आत्म-गान अमन्द ये प्रतिमा अपलक निष्पन्द मानो कह रही है हमारा ही है यह आत्म-दर्शन अनन्त रोज हम इनके करीब आयें और इन्हें अपने में-पायें पुलक उठे मनः प्राण। M - मुनि क्षमासागर अन्तर ये मंदिर इसलिये कि हम आ सकें बाहर से अपने में भीतर ये मूर्तियाँ अनुपम सुन्दर इसलिए कि हम पा सकें कोई रूप अपने में अनुत्तर और श्रद्धा से झुककर गलाते जाएँ अपना मान-मद पर्त-दर-पर्त निरन्तर ताकि कम होता जाए हमारे और प्रभु के बीच का अन्तर 15040 1000000000000000000130000 C Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय श्री वीर जिनवीर जिनचन्द कविवर दौलतराम जय श्री जिनवीर जिनचन्द, कलुष-निकन्द मुनिहद सुखकन्द।। सिद्धारथनंद त्रिभुवन को दिनेन्द-चंद, जा वच-किरन भ्रम-तिमिर-निकन्द। जाके पद अरविन्द सेवत सुरेन्द्रद्वंद, जाके गुण रटत कटत भव-फन्द।। जाकी शांतमुद्रा निरखत हरखत रिषि, जाके अनुभवत लहत चिदानंद। जाके घातिकर्म विघटत प्रगट भये, अनंत दरश-बोध-वीरज-आनन्द।। लोकालोक-ज्ञाता पै स्वभावरत राता प्रभु, जग को कुशलदाता त्राता अद्वंद। जाकी महिमा अपार गणी न सके उचार, 'दौलत' नमत सुख चाहत अमंद।। अर्थ पापों को नष्ट करने वाले और मुनियों के हृदय को अपार सुख देने वाले श्री वीर जिनेन्द्र की जय हो, महावीर जिनेन्द्र की जय हो। श्री महावीर जिनेन्द्र राजा सिद्धार्थ के पुत्र हैं और तीनों लोकों के लिए ऐसे सूर्य-चन्द्र हैं, जिनकी वचनरूपी किरणें भ्रमरूपी अन्धकार को समाप्त कर देती हैं। इन्द्र-समुदाय भी उनके चरण-कमलों का सेवन करते हैं। उनके गुणों के जाप से संसार के बन्धन कट जाते हैं। उन की शान्त मुद्रा को देखकर ऋषिगण भी हर्षित होते हैं, क्योंकि उसका अनुभव करने से चैतन्य के आनन्द की प्राप्ति होती है। उनके चार घातिया कर्म नष्ट हो गये हैं और अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य एवं अनन्त सुख प्रकट हो गये हैं। वे सम्पूर्ण लोकालोक के ज्ञाता हैं, फिर भी अपने स्वभाव में पूर्णतया लीन हैं। वे जगत के प्राणियों को कुशलता प्रदान करने वाले हैं और उनके सच्चे रक्षक हैं। __कविवर दौलतराम कहते हैं कि श्री महावीर जिनेन्द्र की महिमा अपार है, गणधर भी उसका वर्णन नहीं कर सकते, मैं अनन्त सुख को चाहता हुआ उनको नमस्कार करता हूँ। आर.के. मार्बल्स लि. किशनगढ़ (राजस्थान) के सौजन्य से स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित।