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________________ . टारिने कूँ समर्थ नाहीं हैं। तातै अरोक (अटल) जानि असाता का उदय में दुःख मति करो, दुःख करोगे तो अधिक असाता कर्म और बंधेगा, अर उदय तो टरेगा नाहीं। असातावेदनीयादिक अशुभकर्म कूँ उदय आवता समय विषै जो विलाप करना, रोवना, संक्लेश करना, दीनता भाखना निरर्थक है, दुःख मेटने को समर्थ नाहीं। केवल वर्तमान काल में दुःख बधावै (बढ़ाता है), अर आगाने (भविष्य में) तिर्यञ्चगति तथा नरक-निगोद । कारण, ऐसा तीव्रकर्म बाँधे, जो अनन्तकाल हूँ में न छूटे। ... तातें कर्म के ऋण से छूट्या चाहो तो कर्म के उदय में आकुलता त्यागि परमधैर्य धारण करो।"" इस प्रकार क्षमा, समता, अहिंसा आदि भाव तीव्रकषायोदय के निमित्तों को निष्प्रभावी बनाकर विशुद्धता का विकास करते हैं। संक्षेप में, संयम और तप शरीर को परद्रव्यों की अधीनता से मुक्त कर उसे परद्रव्येच्छारूप तीव्रकषाय के उदय का निमित्त बनने से रोकते हैं, अपरिग्रह, मूर्छारूप तीव्रकषायोदय के निमित्त को निरस्त करता है, भक्ति और स्वाध्याय विषयों के चिन्तन-स्मरण आदि के निरोध द्वारा चारित्रमोह के तीव्रोदय पर रोक लगाते हैं तथा क्षमा, समता, धैर्य, अहिंसादि भाव कर्मोदय के निमित्तों को प्रभावहीन बनाकर संक्लेशपरिणाम का प्रतीकार करते हैं। इस प्रणाली से विशुद्धता का विकास किस तरह होता है यह बात श्री जिनेन्द्रवर्णी के निम्न वचनों से अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है "व्यक्ति ज्यों-ज्यों हृदय में उतरता हुआ प्रेम (अहिंसाक्षमादिभावों) तथा समता के क्षेत्र में प्रवेश करता है, त्यों-त्यों सत्ता में पड़े अशुभकर्म शुभरूप में संक्रमण करने लगते हैं। आगे जाकर उदय में आने वाले ये शुभकर्म भी अपकर्षण द्वारा नीचे खिंचकर समय से पहले उदय में आने लगते हैं। वर्तमान में उदय में आने योग्य अशुभ निषेक उत्कर्षण द्वारा पीछे चले जाते हैं, अर्थात् वर्तमान में उदय में नहीं आते। फलस्वरूप परिणाम कई गुने अधिक विशुद्ध हो जाते हैं। इन वृद्धिंगत विशुद्ध परिणामों के निमित्त से उपर्युक्त संक्रमण, अपकर्षण तथा उत्कर्षण और अधिक वेग तथा शक्ति के साथ होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि विशुद्धि में अनन्तगुनी वृद्धि होने लगती है।"14 इन युक्तियों और प्रमाणों से सिद्ध है कि भक्ति, स्वाध्याय एवं क्षमादिभाव विशुद्धता के विकास के शक्तिशाली उपकरण हैं। संदर्भ पंचास्तिकाय/तत्त्वदीपिका/गाथा 136 मोक्षमार्गप्रकाशक/पृष्ठ 112 सज्झायं कुव्वंतो पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य। हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्ख ॥ मलाचार/गाथा 971 चारित्रसार/चामुण्डराय/59/2 ज्ञानार्णव 19/38 वही 19/72 समासंतोषजलेण जो धोवदि तिव्वलोहमलपुंज। भोयणगिद्धिविहीणो तस्स सउच्चं हवे विमल ॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा/गाथा 397 ज्ञानार्णव 19/75 कार्तिकयानुप्रेक्षा/गाथा 404 10. सर्वार्थसिद्धि 2/1 "ण च कम्म सगरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलमकम्मभावं गच्छदि विरोहादो।" जयधवला 3/22/430/पृष्ठ 245 12. रत्नकरण्ड श्रावकाचार/षष्ठ-भावना अधिकार/पृष्ठ 265 13. भगवतीआराधना/गाथा 1619-1641 14. कर्मसिद्धान्त/पृष्ठ 145 कविता सवाल ___ डॉ. नरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' दोस्तो! सवाल यह नहीं है कि रोटी, कपड़ा और मकान मिलेगा या नहीं सवाल तो यह है कि इनकी प्राप्ति के उपाय कितने पवित्र हैं धर्म हो या धर्मात्मा सभी कहते हैं कि साधनों की पवित्रता पवित्र साध्य की प्राप्ति कराती है सुख देती है और साधनों की अपवित्रता मिले हुए रोटी, कपड़ा और मकान को भी दुःखदायी बना देती है अब यह तुम्हें तय करना है कि तुम सुख चाहते हो या दुःख? म.दि.जैन हा.से. स्कूल, सनावद-451111 (म.प्र.) भूल अपने को जब हुआ तन्मय डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय 'विजय' भूल अपने को जब हुआ तन्मय, पञ्चतत्त्वी तन हो गया चिन्मय। जग उठी प्रज्ञा, चेतना फैली, हो गई उज्ज्वल वीथियाँ मैली। ढह गये ऊँचे भेद के टीले, हँस उठे लोचन दुःख से गीले॥ द्वन्द्व कुण्ठाएँ गिर चरण रोयेबीच नागों के जी रहा निर्भय। भूल अपने को जब हुआ तन्मय॥ पञ्च तत्त्वी तन हो गया चिन्मय। आ खड़े तीनों काल हम आगे, यम वृषभ काले डर कहीं भागे। रिद्धियाँ बैठीं डाल कर डेरा, जो असम्भव था सिद्धि ने हेरा॥ बन्ध कर्मों के टूट कर बिखरे हो गया अंशी अंश क्या विस्मय। भूल अपने को जब हुआ तन्मय, पञ्च तत्त्वी तन हो गया चिन्मय। 228 बी, विजयभवन, सिविल लाइन्स, कोटा-324001, 2. 18 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524254
Book TitleJinabhashita 2001 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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