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________________ भी उनके प्रभाव को नष्ट कियाजा सकता है और क्रोधादि के उदय को रोका जा सकता है। निमित्तों के प्रभाव को नष्ट करने की शक्ति आत्मा के क्षमा, समता, धैर्य, अनुकम्पा, आर्जव, मार्दव, विवेक, अहिसा निष्ठा, सत्य निष्ठा, अस्तेय निष्ठा, ब्रह्मचर्य-निष्ठा, अपरिग्रह-निष्ठा, आदि आदर्श भावों में है, जैसा कि ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है - शमाम्बुभिः क्रोधशिखी निवार्यतां, नियम्यतां मानमुदारमार्दवैः । इयं च मायार्जवतः प्रतिक्षणं, निरीहतां चाश्रय लोभशान्तये ।।" क्रोधाग्नि को क्षमारूपी जल से शान्त करना चाहिए, मान को मार्दव से दूर करना चाहिए, माया को आर्जव से तथा लोभ को निःस्पृहता से निरस्त करना चाहिए। स्वामी कुमार का भी कथन है- "जो साधु समभाव और सन्तोषरूपी जल से तीव्रलोभरूपी मल को धोता है, उसी के शौच धर्म होता है। 7 क्षमा, मार्दव, आर्जव, समता, धैर्य आदि भाव ज्ञान से उत्पन्न होते हैं। आत्महितकारी होने से ज्ञानी आत्मा का इनमें अत्यधिक आदरभाव होता है, इनमें उसकी दृढ़ निष्ठा होती है। इन आदरणीय भावों में स्थित रहने का ही विवेकी जीव सदा अभ्यास करता है। ये उसके जीवन के प्रिय लक्ष्य होते हैं। इसलिये जब भी क्रोधादि-कर्मों के उदय के निमित्त उपस्थित होते हैं, वह क्षमादि भावों में स्थिर रहने के लिए दृढ हो जाता है और क्रोधादि के निमित्तों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता। जैसे कोई उसे गाली देता है, तो वह गाली से उत्तेजित होने में अपनी हानि का ख्याल कर क्षमाभाव में स्थित हो जाता है और गाली से विचलित नहीं होता। इससे गाली निष्प्रभाव हो जाती है और क्रोधकर्म के उदय का निमित्त नहीं बनती। इसी प्रकार असातावेदनीय कर्म के उदय में कोई उसे पत्थर मारता है, तो पत्थर की पीड़ा को वह ज्ञान के बल से अनार्तभावपूर्वक सह लेता है। परिणामस्वरूप आर्तभाव के अभाव में तीव्रकषाय का उदय नहीं होता। इसी तरह निःस्पृहता लोभ के निमित्तों को, निर्भयता भय के निमित्तों को. मार्दव मान के निमित्तों को आर्जव माया के निमित्तों को, सम्यक्त्व शोकादि के निमित्तों को प्रभावहीन बनाकर उक्त कषायों के उदय को असम्भव बनाते हैं। कर्मोदय के निमित्तों को शक्तिहीन बना देने वाले साधक को ही योगी और शूर कहा गया हैगुणाधिकतया मन्ये मन्ये स योगी गुणिनां गुरुः । तन्निमित्तेऽपि नाक्षिप्तं क्रोधाद्यैर्यस्य मानसम् ।।' जिस मुनि का मन क्रोधादि के निमित्त मिलने पर भी क्रोधादि से विक्षिप्त नहीं होता, वही गुणाधिक्य के कारण योगी और गुणीजनों का गुरु है। जो णवि जादि वियारं तरुणियण कडक्खबाणविद्धो वि। चेव सूरसूरो रणसूरो णो हवे सूरो। सो - जो युवतियों के कटाक्षरूपी बाणों से बेधा जाने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होता, वही सच्चा शूर है, रणशूर शूर नहीं है। कर्मोदय के निमित्तों को निष्प्रभावी बनाकर ही तीव्र क्रोधादि को रोका जा सकता है, कर्मोंदय हो जाने पर नहीं, क्योंकि कर्म का उदय होने पर कषायादिरूप फल का अनुभव हुए बिना नहीं रहता । फलानुभव कराने का नाम ही विपाक या उदय है, जैसा कि पूज्यपाद Jain Education International स्वामी ने कहा है- " द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणां फलप्राप्तिरुदयः । ' 10 गोम्मटसार कर्मकाण्ड की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका (गाथा (264) में कहा गया है. "स्वस्वभावाभिव्यक्तिरुदयः स्वकार्य कृत्वा स्वरूपपरित्यागो वा ।" अर्थात् अपने फलदानरूप स्वभाव की अभिव्यक्त उदय कहलाती है अथवा अपना फलदानरूप कार्य कर कर्मस्वरूप का परित्याग उदय है। इस प्रकार कर्म स्वरूप या पररूप से फल दिये बिना अकर्मभाव को प्राप्त नहीं होता।" सार यह कि कर्मोदय होने पर जीव के परिणाम उस कार्य की प्रकृति के अनुसार अवश्य हो जाते है, अतः चारित्रमोह की क्रोधादि प्रकृतियों का तीव्रोदय हो जाने पर आत्मा में कालुष्य (क्षोभ, संक्लेश) उत्पन्न हो ही जायेगा, तब कालुष्याभावरूप क्षमा कैसे सम्भव होगी ? अतः निष्कर्ष यही है कि कर्मोदय के निमित्तों को टालकर या निष्प्रभावी बनाकर ही कालुष्याभावरूप क्षमा, मानाभावरूप मार्दव, मायाअभावरूप आर्जव, कामाभावरूप ब्रह्मचर्य आदि फलित होते हैं। . असातावेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न दुःख के समय यदि समताभाव धारण किया जाता है, तो आर्तभाव उत्पन्न नहीं होता । उत्पन्न हुए दुःख से द्वेष होना तथा सुख की आकांक्षा करना आर्तभाव कहलाता है। दुःख से घबराने व्याकुल होने, विलाप आदि करने के रूप में यह द्वेष व्यक्त होता है। इससे नवीन असातावेदनीय का बन्ध होता है। किन्तु समताभाव धारण कर दुःख को धैर्यपूर्वक सहने से नवीन कर्म का बन्ध नहीं होता और उदय में आया हुआ कर्म फल देकर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार समताभाव से संवरपूर्वक निर्जरा होती है, जो मोक्ष के लिए उपयोगी है। इस विषय में पं. सदासुखदास जी का निम्नलिखित विवेचन पठनीय है 2 "बहुरि यो मनुष्यशरीर है सो वातपित्तकफादिक- त्रिदोषमय है। असातावेदनीय कर्म के उदयते त्रिदोष की घटती बघतीते ज्वर, कांस, स्वास, अतिसार, उदरशूल, शिरशूल, नेत्र का विकार, वातादि पीड़ा होते (होने पर) ज्ञानी ऐसा विचार करे हैं जो ये रोग मेरे उत्पन्न भया है सो याकूं असातावेदनीय कर्म को उदय तो अन्तरंग कारण है अर द्रव्यक्षेत्रकालादिक बहिरंग कारण है। सो कर्म के उदयकूं उपशम हुआ (कर्म के उदय का उपशम होने पर) रोग का नाश होयगा। असाता का प्रबल उदयकूं होते बाह्य औषधादिक हूँ रोग मेटने कूं समर्थ नाहीं है अर असाताकर्म के हरने कूं कोऊ देव-दानव, मंत्र-तंत्र, औषधादिक समर्थ है नाहीं याते अब संक्लेशकू छांड़ि समता ग्रहण करना अर बाह्य औषधादिक हैं ते असाता के मन्द उदय होतैं सहकारी कारण हैं। असाता का प्रबल उदय होते औषधादिक बाह्य कारण रोग मेटने कूं समर्थ नाहीं है ऐसा विचारि असाताकर्म के नाश का कारण परम समता धारण करि संक्लेशरहित होय सहना, कायर नाहीं होना सो ही साधुसमाधि है । बहुरि इष्ट का वियोग होतैं अर अनिष्ट का संयोग होतैं ज्ञान की दृढ़ता तैं जो भय को प्राप्त नाहीं होना सो साधुसमाधि है। "12 । 'भगवती आराधना' की टीका के निम्न शब्द भी पठनीय हैं"बड़े-बड़े धन्वन्तरि-सदृश वैद्य, इलाज के करने वाले, तो कर्म के उदयकरि आई रोगजनित वेदना, ताहि दूर करने के समर्थ नाहीं । कूँ तातैं धैर्य धारण करि अपना बाँध्या कर्म का फल समभाव करि भोगो, तातैं तुमारे नवीन कर्म नाहीं होय, अर पूर्वे बाँध्या तिनकी निर्जरा होय उदय में आया कर्म कूँ जिनेन्द्र, अहमिन्द्र, समस्त इन्द्र, देव For Private & Personal Use Only " - जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 17 www.jainelibrary.org
SR No.524254
Book TitleJinabhashita 2001 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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