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________________ शंका-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा ललाट उनका । उनका विस्तार से नीचे की प्रश्न- भगवान की मूर्ति के ऊपर तीन शुद्धोपयोग में स्वस्थान अप्रमत्त गुण वाले को शंका-समाधान "जिनभाषित" छत्र किस प्रकार लगने चाहिए? भी शुद्धोपयोगी कहा है। यदि ऐसा माना जाये उत्तर- भगवान की मूर्ति के ऊपर का स्थायी स्तम्भ है। इसमें पं. रतन- तो समयसार गाथा 14 की टीका में आ. लगाये जाने वाले तीन छत्रों में सबसे बड़ा लाल जी बैनाड़ा जिज्ञासुओं की जैन जयसेन द्वारा कहे गये उपर्युक्त कथन छत्र सबसे नीचे, बीच का छत्र बीच में और सिद्धान्त से सम्बन्धित शंकाओं का (अप्रमत्त विरत में शुभोपयोग भी होता है) सबसे छोटा छत्र सबसे ऊपर लगाया जाना समाधान करते हैं। जिज्ञासु अपनी के साथ सामंजस्य नहीं बैठता। वर्तमान में चाहिए। जितनी भी प्राचीन मूर्तियाँ आज से शंकाएँ उनके पास भेज सकते हैं। कुछ विद्वानों ने अपने लेखों में सातिशय लगभग 1000 वर्ष या उससे पुरानी हैं, जो अप्रमत्तविरत से शुद्धोपयोग माना है। वे पाषाण पर अष्ट प्रतिहार्य सहित निर्मित हैं उन एति... संजम णियमा उप्पाएति॥" विद्वान् स्वस्थान अप्रमत्तविरत में शुद्धोपयोग सबमें इसी प्रकार तीन छत्र दिखाई देते हैं। अर्थ- सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव, स्वीकार नहीं करते। ऐसे कई विद्वानों से जब कुन्दकुन्द श्रावकाचार में छत्र लगाने का कथन देव पर्याय से च्युत होकर एक मनुष्य गति इस प्रसंग पर चर्चा हुई तो वे कोई आगम इस प्रकार हैको ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य गति में उत्पन्न प्रमाण भी नहीं दे पाते हैं। फिर भी यदि ऐसा छत्रत्रयं च नासोत्तारि सर्वोत्तमं भवेत्। | उन मनुष्यों के नियम से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान माना जाये कि शुद्धोपयोग का प्रारंभ नासा भालं तयोमेध्यं कपोले वेधकृत भवेत्॥ | व अवधिज्ञान होते हैं। वे नियम से केवलज्ञान सातिशय अप्रमत्त से ही होता है तब __अर्थ- शिर पर सर्वोत्तम तीन छत्र हो । को उत्पन्न करते हैं तथा नियम से संयम को सातिशय अप्रमत्त तो मात्र श्रेणी आरोहण करने जो नासा के अग्रभाग में उतारवाले न हों, प्राप्त होते हैं। वाले मुनियों के ही होता है जिनका वर्तमान अर्थात् नासिका के समान ऊपर से नीचे की प्रश्न- सप्तम गुण स्थान की दो में एकदम अभाव है अर्थात् पंचम काल में ओर वृद्धिंगत हों। उनका विस्तार नासिका, अवस्थायें कही गयी हैं : स्वस्थान अप्रमत्त श्रेणी आरोहण नहीं होता, तो वर्तमान के ललाट उनका मध्य भाग और दोनों कपोल तथा सातिशय अप्रमत्त। इनमें क्या शुद्धोप समस्त साधुओं में शुद्धोपयोग का अभाव के विस्तार के अनुरूप होना चाहिए। योग सातिशय अप्रमत्त में ही होता है, या मानना पड़ेगा। जो आगमसम्मत प्रतीत नहीं भावार्थ- जिनमूर्ति के मस्तक, कपाल, दोनों में? होता क्योंकि आगम में ऐसा कोई प्रमाण कान और नाक के ऊपर बाहर की ओर निकले उत्तर- अशुभोपयोग, शुभोपयोग व देखने में नहीं आता। हए तीन छत्र होने चाहिए। शुद्धोपयोग का गुणस्थानपरक वर्णन प्रवचन अतः ऐसा मानना उचित प्रतीत होता उपर्युक्त प्रमाण से यह स्पष्ट है कि सार गाथा 9 की तात्पर्यवृत्ति तथा बृहद्रव्य है कि स्वस्थान अप्रमत्त में, शुद्धोपयोग व सबसे बड़ा छत्र सबसे नीचे, मझोला छत्र संग्रह की टीका में आता है जिसके अनुसार शुभोपयोग दोनों होते हैं तथा सातिशय बीच में और सबसे छोटा सबसे ऊपर होना प्रथम तीन गुणस्थानों में तारतम्य से अप्रमत्त में मात्र शुद्धोपयोग ही होता है। चाहिए। अधिकांश मंदिरों में इसके विपरीत अशुभउपयोग, बाद के तीन गुणस्थानों में विद्वानों से निवेदन है कि उपर्युक्त विषय को अर्थात् सबसे छोटा सबसे नीचे, मध्यम बीच अर्थात् चौथे से छठे गुणस्थान में तारतम्य और स्पष्ट करें। में और सबसे बड़ा सबसे ऊपर लगा दिखाई से शुभोपयोग तथा सातवें से बारहवें प्रश्न- अकाल मरण का क्या स्वरूप देता है जो उचित नहीं है। हमें आशा है कि गुणस्थान तक छह गुणस्थानों में तारतम्य से है? निश्चयनय से अकाल मरण होता है या इस समाधान को पढ़कर उन सभी मंदिरों के शुद्धोपयोग है। इसके अनुसार तो सप्तम नहीं? पदाधिकारीगण तीन छत्रों को उपर्युक्त प्रकार गुणस्थान में शुद्धोपयोग होता है परन्तु इन्हीं उत्तर- आयुकर्म के क्षय होने को मरण से ठीक कर लेंगे। आ. जयसेन ने समयसार गाथा 14 की टीका कहते हैं (श्री धवल पु. 1/234) आयुकर्म प्रश्न- क्या सर्वार्थसिद्धि से चयकर में कहा है- 'शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयता की स्थिति पूर्ण होने से पूर्व ही विशेष मनुष्य गति को प्राप्त सभी देव अवधि ज्ञान पेक्षया" (अर्थात् प्रमत्त और अप्रमत्त संयतों कारणवश आयुकर्म की उदीरणा होकर क्षय सहित होते हैं? की अपेक्षा शुभोपयोग में)। इससे यह स्पष्ट हो जाने को अकाल मरण कहते हैं। आ. उत्तर- श्री धवला टीका (6/500) में होता है कि सप्तम अप्रमत्त गुणस्थान में उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र (अ. 2/53) में कहा गया है - "सव्वट्ठसिद्धि विमाणवासिशुभोपयोग भी होता है। अब प्रश्न यह है कि लिखा है- औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवयदेवा देवेहि चुदसमाणा. एक्कं हि मणुस अप्रमत्त विरत गुणस्थान की उपर्युक्त दो र्षायुषोनपवायुषः। गदिमागच्छति। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुसा अवस्थाओं में से अर्थात् स्वस्थान और अर्थ- उपपाद जन्म वाले देव और तेसिमाभिविबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं च सातिशय में से शुद्धोपयोग किसमें माना | नारकी, चरमोत्तम शरीर वाले अर्थात् तद्भणियमा अस्थि... केवलणाणं णियमा उप्पा| जाए? आ. विरागसागर जी ने अपनी पुस्तक वमोक्षगामी जीव और असंख्यात वर्ष की -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524254
Book TitleJinabhashita 2001 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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