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________________ आयुवाले अर्थात् भोगभूमियाँ जीवों का | सान्निध्य में हुई थी उसमें प्रकरणवश पं. | असंयमी हैं, अर्घ्य चढ़ाना किसी प्रकार भी अकाल मरण नहीं होता। इसी सूत्र की सामर्थ्य फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री ने इसी बात का | उचित नहीं कहा जा सकता। मंदिर जी में तो से यह भी सिद्ध होता है कि इनके अतिरिक्त | उल्लेख किया था कि निश्चयनय की दृष्टि में | केवल नवदेवता (पंचपरमेष्ठी, जिनवाणी, अन्य संसारी जीवों का अकाल मरण हो अकाल मरण नहीं होता। तब पू. आ. श्री ने | जिनधर्म जिनमंदिर और जिन बिम्ब) के सकता है। उत्तर दिया था- "प. जी निश्चयनय की दृष्टि | अलावा अन्य किसी की पूजा नहीं होती। अतः तत्त्वार्थ सूत्र 2/53 की सुख बोधा- | में तो मरण ही नहीं होता।" उन देवी-देवताओं की पूजा कदापि करनी टीका में इस प्रकार कहा गया है "तेभ्योऽन्ये यदि वास्तव में अकालमरण घटित | योग्य नहीं है। यदि करेंगे तो सम्यक्त्व में तु संसारिणः सामर्थ्यादपवायुषोपी भव- | नहीं है तो आ. उमास्वामी जी तत्त्वार्थ सूत्र दूषण लगेगा। न्तीति गम्यते" 2/53 में इसका वर्णन क्यों करते। अकाल अतः सभी साधर्मियों से निवेदन है कि अर्थ- उक्त जीवों को छोड़कर शेष मरण नहीं मानने से उनका सूत्र निरर्थक सिद्ध | पृष्ठ 234 के पहले अर्घ्य को शुद्ध करके पढ़ें संसारी अपवर्तन-आयुष्क होते हैं (उनका होता है जो कदापि संभव नहीं है। श्री श्रुतसागर और शेष दो अर्यों को कदापि नहीं बोलें। अकाल मरण भी संभव है) ऐसा सामर्थ्य से सूरि ने तत्त्वार्थवृत्ति में लिखा है- 'अन्यथा प्रश्न- क्या सातवें नरक का जीव नरक ज्ञात होता है। श्लोकवार्तिक टीका में भी इस दया-धर्मोपदेशचिकित्साशास्त्रं च व्यर्थं स्यात्।' | से निकलकर नियम से सिंह ही होता है? तथा प्रकार कहा है- 'कर्मभूमियाँ मनुष्यों व तिर्यचों अर्थ- अकाल मरण न मानने से जितने सिंह होते हैं वे सातवें नरक से ही आते का मरण यदि विष, शस्त्र आदि बाह्य विशेष | दयाधर्म का उपदेश और चिकित्सा शास्त्र हैं? प्रश्नकर्ता - पं. राजकुमार जी शास्त्रीकारणों से होता है तो उनका अकाल मरण व्यर्थ हो जावेंगे. बरायठा होता है। वह मृत्युकाल व्यवस्थित न होकर आ.- कुन्द कुन्द ने भाव पाहुडगाथा उत्तर- सातवें नरक से निकले हुए जीव विषशस्त्र आदि की सापेक्षता से उत्पन्न हो 25 में ऐसा कहा है गर्भज कर्मभूमिज संज्ञी एवं पर्याप्तक तिर्यच जाता है। उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट विसवेयणरत्तक्खयसत्थग्गहणसंकिलेसेणं। ही होते हैं, अन्य नहीं। जैसा कि तिलोयपण्णत्ति है कि जो मरण बँधी हुई आयु को पूर्ण भोगने आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जाए आऊ।। अधिकारी 2/290 में कहा गया है-'तिरियं से पूर्व ही किन्हीं बाह्य कारणों से हो जाता है उसे अकाल मरण कहते हैं। जैसे किसी ने चिय चरम पुढविदो।' अर्थ- विषभक्षण, वेदना, रक्तक्षय, 100 वर्ष की मनुष्य आयु पायी है, यदि भय, शस्त्र, संक्लेश, आहारनिरोध, उच्छ्वास श्री राजवार्तिक भाग-1 पृष्ठ 168 में किसी बाह्य कारणवश वह 100 वर्ष से पूर्व निरोध, इन कारणों से आयु का क्षय होकर कहा है- "सप्तम्यां नारका मिथ्यादृष्टयो अकाल मरण हो जाता है। नरकेभ्यः उदवर्तिता एकामेव तिर्यग्गतिमायान्ति मरण को प्राप्त हो जाता है तो उसे अकाल तिर्यक्ष्वायाताः पञ्चेन्द्रियगर्भजप्रयाप्तकसंख्येय मरण कहा जाता है। अतः उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार वर्षायुषूत्पद्यन्ते नेतरेषु।" कुछ विद्वानों का मत है कि इस समय अकाल मरण की व्याख्या माननी चाहिए। अर्थ- सातवें नरक से मिथ्यादृष्टि से पूर्व मरण को सर्वज्ञ देव ने पहले से ही प्रश्न- 'पूजन पाठ प्रदीप' की ऋषिमं नारकी निकलकर एक तिर्यंच गति में आते जान लिया था। अतः सर्वज्ञ की दृष्टि में तो डल पूजा में पृष्ठ 233 और 234 पर जो हैं, तिर्यंचो में आकर पञ्चेन्द्रिय, गर्भज, इसे कालमरण ही मानना चाहिए, अकाल देवी-देवताओं को अर्घ्य चढ़ाने का विधान है, पर्याप्तक संख्यात वर्ष की आयु वालों में ही मरण नहीं। उन विद्वानों का ऐसा मानना उचित वह उचित है या अनुचित? उत्पन्न होते हैं, अन्य में नहीं। नहीं है। यद्यपि यह सत्य है कि समय से पूर्व उत्तर- पृष्ठ 234 में पहला अर्घ्य इस उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि सातवें होने वाले मरण को भी सर्वज्ञ ने इसी रूप प्रकार है नरक से निकला जीव कर्मभूमिज पञ्चेन्द्रिय, में देखा है। परन्तु उनके देखने में भी यह मरण दसदिश दस दिग्पाल, दिशा नाम सो नाम वर। सैनी गर्भज पर्याप्तक तिर्यंच बनता है, मात्र अकालमरणरूप से ही देखा गया है क्योंकि तिन गृह श्री जिनआल, पूजों मैं वन्दों सदा।। सिंह बनने का नियम नहीं है। ऐसा मरण उपर्युक्त परिभाषाओं के अनुसार अर्थ- दसों दिशाओं में उसी दिशा के सभी सिंह सप्तम नरक से ही आते हैं अकाल मरण के अन्तर्गत ही आता है और नाम वाले दस दिग्पाल हैं, उनके निवास | इस प्रश्न के समाधान में हमको भगवान उपर्युक्त परिभाषाएँ आगमवचन अर्थात् स्थानों में जो जिनेन्द्र भगवान के जिन मन्दिर | महावीर के पूर्व भव देखने चाहिए। भ. सर्वज्ञवचन ही तो हैं। सर्वज्ञ देव भी तो हैं उनकी मैं सदा पूजा करता हूँ। इसका अर्घ्य | महावीर के जिन पूर्व 34 भवों का वर्णन अकालमरण को अकालमरण के रूप में ही मिलता है उसमें वे 23 वें भव में पहले नरक जानेंगे। अतः समय से पूर्व मरण अकाल ऐसा बोलना चाहिए “ऊँ ह्रीं दशदिग्पालवि- के नारकी थे। वहाँ से आकर चौबीसवें भव मरण ही है। मानसम्बन्धि जिनालयोभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति | में पुनः सिंह बने। इस उदाहरण से यह स्पष्ट कुछ विद्वान ऐसा भी कहते हैं कि स्वाहा।" है कि सभी सिंह सातवें नरक से आते हों ऐसा अकालमरण व्यवहार नय से होता है, निश्चय इसके अलावा पृष्ठ 233 पर 'श्री देवी | नियम नहीं हैं। आगम के अनुसार तो चारों नय से नहीं। निश्चय नय से तो वह काल मरण प्रथम बखानी' तथा पृष्ठ 234 पर 'ऋषि | गतियों से चयकर आये हुए जीवों का सिंह है। उन विद्वानों की ऐसी धारणा ठीक नहीं है। मंडल शुभ यंत्र के' ये दो छन्द तथा उनके बनने में कोई विरोध दृष्टिगोचर नहीं होता। ललितपुर में श्री षटखण्डागम की जो वाचना जो अर्घ्य दिये हैं, वे उचित नहीं हैं। इन देवी 1205, प्रोफेसर्स कालोनी पूज्य आ. विद्यासागर जी महाराज के | देवताओं को, जो जिनभक्त होते हए भी | आगरा- 282002 (उ.प्र.) 20 जलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित मान वाले मरण सत्य है कि मानना उचित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524254
Book TitleJinabhashita 2001 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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