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बालवार्ता
एक वृक्ष की अन्तर्वेदना
शुद्धात्मप्रकाश जैन, प्राकृताचार्य
. जेठ माह की दुपहरी थी। सिर पर सूर्य । सुनकर अपने गन्तव्य के लिये विलम्ब करते | अतीव पीड़ा से कराह उठा। अपने अंगों को आग के गोले की भाँति तप रहा था। पसीने | हो? चले जाओ अपने गन्तव्य की ओर | कटते देखकर उसकी आँखों में खून उतर के कारण सारे कपड़े बदन पर चिपक गये थे। अन्यथा...।'
आया पर क्या कर सकता था वह निरुपाय। माथे से निरन्तर पसीना चू रहा था। मैं काफी मैं वृक्ष की बात बीच में ही काटकर कभी प्यास लगती तो यहाँ कौन उसे पानी थक गया था। एक तो लम्बा सफर और दूसरे बोला- 'वृक्षराज, क्यों मुझे संवेदनाशून्य पिलाने आता? इस प्रकार क्षुधा-तृषा सहते भूख भी जोरों की लग आई थी। मैंने सोचा बनाते हो? क्यों मेरे मनुष्यत्व को लज्जित हुए दैव के भरोसे वह धीरे-धीरे बढ़ने लगा। अब कहीं पर थोड़ा विश्राम कर लिया जाये। करना चाहते हो? वह मनुष्य ही क्या जो दूसरों वही पौधा आज तुम्हारे सामने इतने विशाल कुछ दूर जाने पर मार्ग में एक घना वृक्ष दिखाई के दुःखों को नहीं बँटाये? मैं तुम्हारी दर्दकथा रूप में फैला हुआ है।' दिया। मैं वृक्ष के पास जाकर अपने घोड़े से सुनने को आतुर हूँ।'
मैं डबडबाये नेत्रों से उसकी ओर उतरा। उसे थोड़ा चारा-पानी देकर सहलाया 'क्या तुम मेरा दुख दूर कर भी देखता रहा और वृक्ष ने आगे कहना प्रारंभ और सुस्ताने के लिये एक ओर बाँध दिया। | पाओगे?' वृक्ष का कथन था।
किया- 'इस प्रकार कुछ दिन बीते, महीने बीते मैंने भी अपनी पोटली खोली और खाना 'हाँ, मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि अपनी और कई वर्ष गुजर गये। मैं काफी कष्टों को खाया। बावड़ी का शीतल जल पीकर बहुत सामर्थ्य के अनुसार मैं तुम्हारा दुखड़ा दूर सहता हुआ किशोर हुआ। कभी इस मार्ग से राहत मिली। विश्राम के लिये कुछ समय वृक्ष | करूंगा। मैं तुम्हारी अन्तर्वेदना जानने के लिये | ऊँट गुजरता तो वह अपनी लम्बी गर्दन को के नीचे लेटा कि न मालूम कब मेरी आँखें | सन्नद्ध हूँ।'
ऊँचा करके मेरी टहनियों को बेरहमी से लग गईं और मैं स्वप्नलोक में विचरने लगा। तो सुनो।' वृक्ष अपनी वेदनाभरी कथा | तोड़कर चबा कर खा जाता था। कोई पथिक सपने में देखता हूँ कि मैं जिस वृक्ष | सुनाने लगा
अपने पशुओं के आहार के लिये मेरी डालियों के नीचे सोया था वही वृक्ष मुझसे बातें कर 'पथिक! बरसात की ऋतु थी। वर्षों को कुल्हाड़ी के तीक्ष्ण प्रहार से काटकर ले रहा है। वृक्ष ने पूछा- 'राहगीर! कहाँ से आये पहले इसी भूमि पर एक छोटा सा अंकुर फूटा जाता था। बहुत समय बीतने पर वापस मेरे हो और कहाँ जा रहे हो?' मैंने उत्तर दिया- और धीरे-धीरे उसमें कोंपलें निकलने लगीं। घाव भरते थे और मैं पुनः लहलहाने लगता। 'राजस्थान प्रान्त के करौली जिले के वह नन्हा सा पौधा सारा समय अपनी नन्हीं- किसी दिन एक वानर-समूह आकर मेरे शरीर गुढ़ाचन्द्रजी नाम के एक छोटे से कस्बे से नन्हीं आँखों से सृष्टि को निहारा करता था। पर उछल-कूद करने लगा। मेरी डालियों को चला आ रहा हूँ और इन्द्रप्रस्थ की ओर जा वह अकेला ही चुपचाप यहाँ सृष्टि के रंगमंच जोर से झकझोरने लगा, परन्तु उन दुष्ट वानरों रहा हूँ।' वृक्ष बोला- 'पथिक! तुम ग्रीष्म के | पर होने वाले क्रियाकलापों को शान्तभाव से ने मेरी पीड़ा की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया। आतप से बचने के लिये मेरी छाया तले देखता रहता था। कभी जोरों की हवा चलती अपितु उन्होंने जी भरकर मस्ती की, जिससे विश्राम करने बैठे हो, पर यह भी कभी सोचा | थी तो वह भूमि पर चित्त होकर सो जाता था। मेरे बहुत सारे पत्ते जमीन पर गिर गये। कभी कि मैं इस आतप से बचने के लिये कहाँ दिनभर सूर्य की धूप में तपता रहता था। शीत के कारण पाला पड़ा तो मेरे सारे पत्ते जाकर विश्राम करूँ? क्या मैं भी कहीं जा | प्रकृति की कठोर प्रवृत्ति से उसका कोमल जीर्ण-शीर्ण हो गये और कभी तेज गर्मी के सकता हूँ? क्या मेरे पैर हैं?' मैंने वृक्ष पर | गात मुरझा जाता था।
कारण सारे पत्ते सूख गये। मैं प्यास से एक सहानुभूतिपूर्ण नजर डाली। वृक्ष ने कहा एक दिन किसी नटखट बालक ने उस व्याकुल हो जाता था, परन्तु यहाँ मेरी कौन - 'क्या तुम मेरी वेदना समझते हो? क्या पौधे के अनेक पत्ते लकड़ी की मार से गिरा सुनने वाला था? आखिर दैव के द्वारा रक्षित मैं किसी से मेरी वेदना कह भी सकता हूँ? दिये थे। बेचारा पौधा आँसुओं से भीग गया। मैं इतना बड़ा हुआ। यदि मैं किसी से कहूँ भी तो कौन मेरी इतना ही नहीं, एक बार आकाश से ओलों वसन्तऋतु का समय आ गया था। मैं सुनेगा?' मैंने तरुवर को धैर्य बँधाते हुए कहा की बौछारें आईं तब वह पौधा बेसुध होकर | पूरी तरह मस्ती में झूम रहा था। मेरा हरा- 'हे तरुवर! तुम क्यों इतने व्यथित होते हो? लड़खड़ाते हुए अचेत हो गया। काफी समय भरा शरीर प्रातःकालीन सूर्य की आभा में तुम्हें क्या कष्ट है? जरा मुझे भी तो सुनाओ बाद उसके जख्म भरे और कुछ स्वस्थ हुआ दमक रहा था। मैं बहुत खुश होकर गाना गा अपनी दुखभरी कहानी। मैं सुनूँगा तुम्हारी तब फिर से अपने आपको सँभाला, पर अभी रहा था, पर अभी मेरे भाग्य में बहुत दुःख पीड़ा को। बोलो, तुम्हें क्या कष्ट है?' उसका दुर्भाग्य सोया न था। एक दिन इसी देखना बाकी था। इस तरह मेरे कुछ दिन भी
वृक्ष ने एक लम्बी आह भरी और | मार्ग पर जाती हुई एक गाय ने उस पौधे की चैन से न बीते थे कि फिर एक विपदा आ बोला- 'पथिक! क्यों व्यर्थ मेरा दुखड़ा | कुछ टहनियों को चबा डाला। बेचारा पौधा | खड़ी हुई। एक दुष्ट निर्दयी और पापी मनुष्य
34 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित
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