SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक बड़ा भारी कुल्हाड़ा अपने कंधे पर रखकर मेरे ऊपर चढ़ गया और मेरे एक बड़े हिस्से को काटने के लिये तेजी से मुझ पर प्रहार करने लगा। मेरे दुःख का पारावार नहीं रहा । मैं बुरी तरह चीखता रहा, चिल्लाता रहा। कराहने लगा। आँसू गिराये गिड़गिड़ाया, परन्तु उसने मेरी एक नहीं सुनी और मेरे शरीर पर एक गहरा घाव बना दिया। फिर वह थक जाने पर खाना खाने के लिये अपने घर चला गया और वापस आकर मुझ पर प्रहार करने लगा। मैं तड़फने लगा। मैं मछली की तरह छटपटाता रहा। आखिर मेरा एक बड़ा भारी हिस्सा उसने काटकर जमीन पर गिरा दिया।' वृक्ष की दुःखभरी कहानी सुनकर मेरी आँखें बरसने लगी। मेरा कंठ अवरुद्ध हो गया। मुझमें उस के प्रति असीम सहानुभूति का भाव जागा । मैंने वृक्ष को अनेक प्रकार से ढाढस बँधाया और कहा कि 'सुनो! अब मैं अपना सारा जीवन तुम्हारी रक्षा और सुरक्षा में समर्पित कर दूँगा। मैं स्वयं तो किसी वृक्ष को पीड़ा पहुंचाऊँगा ही नहीं और अन्य लोगों को भी तुम्हारी रक्षा करने के लिये प्रेरित करूँगा। मैं आज से प्रतिदिन नये-नये पौधे लगाऊँगा। मैं अब तुम्हारे उद्धार संबंधी कार्य करूँगा। मैं तुम्हारे उद्धार संबंधी लेख लिखूँगा। इससे संबंधित व्याख्यान दूँगा । पूर्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने भी यह सिद्ध किया है कि तुम एक भौतिक पिण्ड मात्र नहीं हो, अपितु सजीव संवेदनशील चेतन प्राणी हो । उनके भी पूर्व हमारे आचार्यों, ऋषियों एवं मुनियों ने अनेक धर्मग्रन्थों और पुराणों में तुमको चेतन प्राणी कहा है और तुम्हारी रक्षा एवं दया सम्बन्धी उपदेश भी स्थान-स्थान पर दिया है, परन्तु आज इस विज्ञान के युग में लोगों ने उस उपदेश को भुला दिया है, पर अब विज्ञान भी तुम्हारे साथ है। विज्ञान ने तुम्हें जीव सिद्ध कर दिया है। मैं तुम्हारी समृद्धि के लिये जनजागरण का अभियान चलाऊँगा। मुझे आशा है कि लोग मेरी बात को सुनेंगे और समझेंगे। अब तुम्हारे दुःख बहुत दिन नहीं रहेंगे।' वृक्ष के चेहरे पर धीमी सी मुस्कान फूट पड़ी। वह खुश नजर आ रहा था। तभी मेरी निद्रा टूट गई मैं अपने वचनों के प्रति संकल्पबद्ध था। मैं उठा और अपने घोड़े पर बैठकर अपने गन्तव्य की ओर चल दिया। 149-ए, कटवारिया सराय, नई दल्ली- 110016 Jain Education International प्रार्थना गीत वीर प्रभु की हम संतान हमको बनना है भगवान ॥ टेक ॥ सत्य अहिंसा इनका गान जीव सताना दुःख की खान। वीर प्रभु की...... निशि भोजन में हिंसा जान पानी पीना पहले छान कविता जिनदर्शन का रखना ध्यान वीर प्रभु की...... इससे बनते सब भगवान वीर प्रभु की णमोकार का करना ध्यान देह आत्मा पृथक् जान हर मानव की इसमें शान वीर प्रभु की. 'निर्णय' बनना तुम भगवान वीर प्रभु की...... शाकाहार चाहिए ऋषभ समैया 'जलज' तन भी शाकाहार चाहिए, मन भी शाकाहार चाहिए, इन प्रवृत्तियों के पोषण को धन भी शाकाहार चाहिए। " मुनि श्री निर्णयसागर सबको जीने की अभिलाषा, मरने को किसका मन चाहे, जलचर- नभचर - थलचर सबको, जीने का अधिकार चाहिए। काँटे की भी चुभन अगर हो, मूक असहाय प्राणियों को फिर मन के तंतु हिल जाते हैं, क्यों पैनी तलवार चाहिए? एक तरफ रसधार दया की, एक तरफ हिंसा का लावा, बोलो सरस फुहार चाहिए, या जलते अंगार चाहिए? For Private & Personal Use Only ऐसा कोई धर्म नहीं है, जिसकी नींव रही हो बर्बर, प्रबल वासना की तृप्ति को, बस झूठा आधार चाहिए। मनुज जन्म से शाकाहारी, उसकी यह कैसी लाचारी, उदर बना डाला क्यों मरघट, इसका सोच विचार चाहिए। निखार भवन, कटारा बाजार, सागर (म.प्र.) • जुलाई-3 ई-अगस्त 2001 जिनभाषित 35 www.jainelibrary.org
SR No.524254
Book TitleJinabhashita 2001 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy