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धार्मिक और धर्मात्मा : दो भिन्न व्यक्तित्व
मुनि श्री समतासागर
टीकमगढ में दिये गये रविवारीय प्रवचन का अंश
श्रद्धा ऐसी होती है, भावना व भक्ति | डगमगा जाये, देशभक्ति डगमगा जाये तो | और न ही जी सकेगा। जिस व्यक्ति ने धर्म ऐसी होती है, जहाँ समर्पण हो, जहाँ सेवा हो। | देश का काम नहीं चल सकता। यदि देश में | के मूल स्वरूप को अपने जीवन में उतार भक्ति और श्रद्धा की कोई जाति-पाति नहीं | धार्मिक वातावरण है, यदि लोग शांतिपूर्वक | लिया, संसार की कोई प्रतिकूलता उसका कुछ होती, कोई वर्ग भेद नहीं होता, जो भी श्रद्धा | रह रहे हैं और धर्म कर रहे हैं तो यह मानिये | नहीं कर सकती। जिसने धर्म का आश्रय को धारण करता है उसी की प्यास
लिया, बड़ी से बड़ी बाधाएँ उसका कुछ बुझती है। वही संतृप्त होता है। सच्ची
नहीं कर सकती। इसलिये सम्पन्न जीवन श्रद्धा को अपनाकर ही व्यक्ति धर्म से
जीने के लिये धर्म का आलम्बन बहुत जुड़ सकता है। जब तक सच्ची श्रद्धा,
जरूरी है। सच्ची आस्था धर्म के प्रति नहीं होगी
जिस व्यक्ति के जीवन में धर्म तब तक आत्मा का कल्याण संभव
स्थान पा लेता है उस व्यक्ति के जीवन नहीं है। श्रद्धा तो जल के समान है। जल
का वृत्त बदल जाता है। संसार की कोई ने कभी भेदभाव नहीं किया कि हम
भी प्रतिकूलता वहाँ नहीं रहती। धर्म वहाँ गरीब की या अमीर की प्यास बुझायेंगे
है जहाँ अधर्म नहीं है। चोरी अधर्म है, कि हम मनुष्य की या पशु पक्षियों की
हिंसा अधर्म है, झूठ अधर्म है तो करुणा, ही प्यास बुझायेंगे। जल को तो जिन्होंने
दया, प्रेम, वात्सल्य, कर्तव्य और श्रद्धा पिया उसी की प्यास समाप्त हुई। जल
धर्म हैं। यदि हमारे जीवन में करुणा, तो सब की प्यास बुझाने के लिये है।
दया, प्रेम, कर्तव्य, श्रद्धा का अंश मात्र इसीलिए आचार्य ने कहा है कि सच्ची
भी है तो उसकी झलक हमारे व्यवहार श्रद्धा से जिन्होंने भी धर्म का आश्रय
में दिखाई अवश्य पड़ेगी। इसलिये दया, लिया, धर्म ने उन सभी प्राणियों की
करुणा आदिभाव हमारे जीवन में जब प्यास बुझाई है। धर्म तो सूर्य के प्रकाश
तक नहीं आते, तब तक धर्म को की तरह है कि यदि आप दरवाजे और
पहचानना बहुत कठिन है। और जब तक खिड़कियाँ बंद भी करलें तो भी सूर्य उजाले | कि कानूनी व्यवस्था ठीक है। देश की सीमाएँ | धर्म को नहीं पहचानोगे तब तक जीवन का को उस घर में जरूर भेजता है। धर्म तो उस | सुरक्षित हैं तो धार्मिक आयोजनों का छठवाँ | रूपांतरण बहुत कठिन है। जिसने धर्म के उद्यान के समान है जिसमें सभी प्रकार के पुष्प हिस्सा राजा के खाते में जाता है। वैभव के स्वरूप को नहीं समझा उसका जीवन व्यर्थ पुष्पित हो रहे हैं, लेकिन सुगन्ध किस पुष्प महल बहुत दिनों तक नहीं टिकते, रघुवीर की है। धार्मिक और धर्मात्मा दो प्रकार के व्यक्ति की है यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। गंध | कुटिया तो शाश्वत है क्योंकि वहाँ श्रद्धा का | होते हैं। धार्मिक होना अत्यंत सरल है। धार्मिक पर किसी एक फूल का अधिकार नहीं माना धर्म है। श्रद्धा के वशीभत हो श्रीराम ने शबरी | होने का मतलब धर्म की प्रक्रिया करना है। जा सकता। सुगंध कभी बँट नहीं सकती। | के बेर खाये। श्रद्धा की खातिर ही चन्दन बाला | धर्मात्मा होना बहुत कठिन है, क्योंकि धर्म पानी और प्रकाश कभी बँट नहीं सकते और की रक्षा हई। वैभव के महल तो खण्डहर में | को अपनी आत्मा में बसा लेना ही धर्मात्मा यही धर्म की पहचान है कि धर्म कभी बँटता बदल गये पर आस्था/श्रद्धा के बल पर धर्म की पहचान है। इसलिये आप धार्मिक होने को नहीं है। धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा की सौंधी की कुटिया सम्पूर्ण देश में जगमगा रही है। अपने जीवन की उपलब्धि मान लेने की भूल सुगंध ही सम्पूर्ण मानव समाज का कल्याण | इसलिये हे मानव श्रद्धावान बनो, तभी मत करना। जब तक धर्मात्मा के गुण अपने कर सकती है। रोशनी जहाँ भी जायेगी प्रकाश | तुम्हारा कल्याण संभव है।
जीवन में न आ जायें, तब तक लोक में तो फैलायेगी। देश की खुशहाली के लिये सैनिक, दुनिया के लोग अपने जीवन को बगैर | प्रतिष्ठा मिल सकती है, परलोक में प्रतिष्ठा अनाज एवं राष्ट्र के प्रति सच्ची आस्था का मूल्यों के खराब करना चाहते हैं, लेकिन वह | प्राप्त नहीं हो सकती है। इसलिय धर्मात्मा ही होना बहुत जरूरी है। इन तीनों में से अनाज नहीं जानते कि धर्म वह आधार है, वह | बनो, तभी आत्मा का कल्याण संभव है।
और सैनिक की कमी भी पड़ जाये तो कोई बुनियाद है जिस पर अपने जीवन के महल | धार्मिक की सुगंध तो कागज की फूल की तरह बात नहीं, इनकी कमी से भी काम चल को खड़ा कर सकते हो। धर्म के अभाव में | होती है, धर्मात्मा की सुगंध डाल के फूल की सकता है। परन्तु राष्ट्र के प्रति यदि आस्था | न तो कोई व्यक्ति संसार में जी सकता है | तरह होती है। पा
हाता है। प्रस्तुति : अखिलेश सतभैया 10 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित
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