SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जागृति रहती थी। हम उनके पास जाते थे, उनके पास रहते-रहते हमारी भी वैसी ही शान्त वृत्ति हो जाती थी। आचार्य कुन्दकुन्द, अकलंक देव आदि का परिचय हमें उनसे मिलता रहता था। वीतरागता उनकी दृष्टि में बनी रहती थी। ऐसे वीतरागी गुरुओं के चरणों के अनुसार चलते चले जायें तो हमारी वृत्ति शान्त बन जाती है। महाराज ने कहा था - अपने आपको लघु भी समझो और गुरु भी समझो, अपने आपको देखने की बात को याद रखो जब हम दूसरे को देखते हैं तो अपने आपको लघु समझो चार बातें कुन्दकुन्द महाराज ने मोक्षमार्गी को याद रखने के लिये कही है उववरणं जिणमरगे, लिंग जहजादस्वमिदि भणिदं । गुरुवयणं विय विणओ, सुतज्झणं च णिहि ॥ प्रवचनसार गा. 225 ।। यथाजात रूप लिंग, जिनमार्ग में उपकरण कहा गया है। गुरु के वचन, सूत्रों का अध्ययन और विनय भी उपकरण कहे गये हैं। अपने गुरुमहाराज ने हमें इन्हें याद रखने को कहा। गुरुमहाराज (ज्ञानसागरजी) की काया का हमारे बीच से अभाव हो सकता है, लेकिन उनके दिये गये सूत्र तो आज भी हमारे पास हैं। ये गुरुमंत्र रूप संकेत है, उनके सहारे ही आज हम चल रहे हैं। जैसे बेटरी को चार्ज करा देते हैं, तो वह काम करने लगती है, प्रकाश मिलने लगता है वैसे ही गुरुओं के वाक्य याद करने से हमें सही दिशाबोधरूपी प्रकाश मिल जाता है। काल कभी जाता नहीं है, वह तो सदा रहता है। आने-जाने का काम तो लगा रहता है, यह सब काल का परिणमन है। उसको जानना है, पहचानना है। काल को पहचानने की आवश्यकता नहीं है। जब हम अजर-अमर हैं तो हमें काल को जानने की आवश्यकता नहीं है, उसमें जो परिणमन हो रहा है उसको जानकर अपने आपको जानने की आवश्यकता है। साधुत्व के साथ जो निजानुभव की अनुभूति है। वर्षायोग प्रतिष्ठापन मेरठ। 4.7.2001 को दोपहर में सराकोद्धारक परम पूज्य उपाध्याय 108 श्री ज्ञान सागर जी महाराज, मुनि श्री वैराग्य सागरजी | महाराज एवं क्षु. श्री सम्यक्त्व सागर जी महाराज के वर्षायोग का | स्थापना समारोह का शुभारम्भ श्रीमती सपना जैन के मंगलाचरण से हुआ। गुरुभक्ति का दीप प्रज्वलित करते हुए इसी कड़ी में श्रीमती | पूनम जी एवं बहिन मोनिका जी ने भजन प्रस्तुत कर सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। ब्र जय कुमार निशान्त (टीकमगढ़) ने वर्षायोग का महत्त्व बताते हुए कहा कि वर्षायोग की पावन बेला अध्यात्म की यात्रा कराने में, अन्धकार से प्रकाश की ओर आने में माध्यम बनती है। साधु सन्तों के समागम से जीने की कला आ जाती है। पश्चात् ध्वजारोहण, दीप प्रज्वलन, शास्त्रभेंट, आरती तथा मंगल कलश की बोलियों का कार्य सम्पन्न हुआ। श्री सुनील शास्त्री ने ज्ञान की महिमा बताते हुए कहा कि परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद तथा सराकोद्धारक परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञान सागर जी महाराज की प्रेरणा से जम्बू स्वामी निर्वाण स्थली चौरासी मथुरा की पावन धरा पर जैन धर्म की शिक्षा के लिए श्रमण ज्ञान भारती संस्था की स्थापना की गयी है जिसका शुभ आरम्भ 11 जुलाई 2001 को होने जा रहा है। उसमें 15 विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जायेगा। Jain Education International वह आचार्य, उपाध्याय पद के साथ नहीं होती । दिगम्बरत्व की अपेक्षा से तीनों एक हैं, वीतरागता तीनों के पास है। व्यापक रूप में यदि है तो साधु ही होता है। अरहन्त परमेष्ठी जो हैं वे भी अपने सारे समवशरण आदि के वैभव को छोड़कर साधुत्व को स्वीकार करके मुक्तिश्री को प्राप्त करते हैं। यानि जीवन का उपसंहार इस साधुत्व के साथ ही हुआ करता है। हम अपना दीक्षा दिवस क्यों मनायें ? ये तो आप लोग इस प्रकार के समारोह करके मना रहे हैं। मैं तो सोच रहा था आज मुझे बोलना नहीं पड़ेगा। मैं तो अपने अनुसार दीक्षा दिवस मनाता । दीक्षा दिवस का अर्थ संकल्पदिवस है। इस दिवस के माध्यम से अपने आपके संकल्प को दृढ़ बनाया जाता है। इसके लिये ही दीक्षादिवस मनाया जाता है। हम इस प्रकार दिवसों के माध्यम से समता की साधना को बढ़ाते जायें। समता के अभाव में श्रमण अपने आपको भूल जाता है। समता तो श्रमण का भूषण है। सम्मान, अपमान को भूलकर अपने आपको जानना श्रमण का लक्षण है। इसलिये कुन्दकुन्द महाराज ने प्रवचनसार चूलिका अधिकार में लिखा हैसमसत्तुबंधुवग्गो, समसुदुक्खो पसंसदिसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ 249 ।। अर्थात् जो शत्रु और बन्धु वर्ग को समान दृष्टि से देखता है, सुख और दुख में समान भाव रखता है, प्रशंसा और निन्दा में समता भाव रखता है, और पत्थर और स्वर्ण को समान दृष्टि से देखता है, और जीवन मरण के प्रति जिसको समता है वह श्रमण है। आप लोगों को समय को याद रखना है, उसका सदुपयोग करना चाहिए। इन तिथियों के माध्यम से अपने आपका भान होता रहे कि मैं साधु हूँ। अपने आपका अनुभव करते जायें। णमो लोए सव्वसाहूणं... प्रस्तुति : मुनि श्री अजितसागर उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी परम पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने कहा कि वर्षायोग का समय हम सभी को परपदार्थों से दृष्टि मोड़कर अपने आपसे दृष्टि जोड़ने में माध्यम बनता है। वर्षाऋतु के दिनों में चारों ओर हरियाली छा जाती है। जीव राशि की बहुलता हो जाती है। ऐसे समय साधु-सन्त चार माह एक स्थान पर रहकर आत्म-साधना करते हैं, श्रावकों का भी सीजन मन्दा रहता है, इस कारण श्रावक भी साधु सन्तों के द्वारा धर्म का लाभ लेते हैं। आप सभी वर्षायोग की बेला में संगठित उत्साहित होकर कार्य करें, कार्यकर्ताओं को इस बेला में समता का परिचय देकर मेरठ महानगर के गौरव को महान बनाये | रखना है। आने वाला प्रत्येक अतिथि आपके व्यवहार की जन-जन के सामने चर्चा करे। यह वर्षायोग जैन बोर्डिंग हाउस, वीरनगर, कचहरी रोड़, कमलानगर में नहीं हो रहा है, बल्कि यह मेरठ महानगर में हो रहा है। परस्पर के भेद भाव 'को' 'भुलाकर एकता के सूत्र में बँधकर कार्य करें। चारों दिशाओं में 20-20 कि.मी. की मर्यादा करते हुए उपाध्याय श्री ने कहा कि आज से हम सभी दीपावली तक के लिए बन्धन में बँध रहे हैं। चातुर्मास स्थापना की क्रियाओं के पश्चात् बाजों की ध्वनि के साथ श्रीचन्द्र जी के कर कमलों द्वारा मंदिर में मंगलकलश स्थापित किया गया। हंस कुमार जैन, वैभव कैरियर्स, प्रथम तल, 247, दिल्ली रोड, मेरठ • जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 9 www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.524254
Book TitleJinabhashita 2001 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy