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________________ मोक्षमार्गी के लिए चिन्ता नहीं, चिन्तन आवश्यक आचार्य श्री विद्यासागर मोक्षमार्ग पर आरूढ़ हुए मोक्षमार्गी के संकेत को अनुभूति का विषय बनाकर इतने लिये चिन्ता नहीं, चिन्तन की आवश्यकता कोनी जी में 25 जून 2001 को | बड़े भार को उठा लिया है। होती है। संसारमार्ग मोक्षमार्ग से विपरीत होता | आचार्यश्री का 34वाँ मुनिदीक्षादिवस एक बार महाराज ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ है। संसार मार्ग में चिन्ता की मुख्यता होती मनाया गया। उस अवसर पर आचार्यश्री | का स्वाध्याय कराते समय कहा था - पाँचवें है। मुमुक्षु तो अपने हित के बारे में सोचता | द्वारा दिया गया प्रवचन। अध्याय के परस्परोप ग्रहोजीवानाम् को है, चिन्तन करता है। दीक्षित होने का अर्थ है समझाते हुए कहा था- परस्पर में एक दूसरे संकल्पबद्ध होना। आज गुरुदेव ने हम पर वह के उपकार की बात को भी नहीं भूलना चाहिए। उपकार किया। गुरुमहाराज ने जो संकेत दिये हैं, दिशाबोध हमारे लिये | जैसे मुनीम पर मालिक का बड़ा उपकार रहता है, वैसे ही मालिक दिए उनके अनुसार आज चल रहा हूँ। उनकी असीम कृपा से हमारे पर मुनीम का भी उपकार, मालिक के अनुसार काम करने से होता मोह का भार उतर गया, इसका मैं आभार मानता हूँ। मैं सदा सोचता | है। वैसे गुरु का उपकार शिष्य के ऊपर तो है ही लेकिन शिष्य का हूँ कहीं वह दुबारा न चढ़ जाये। मैं इतने बड़े संघ का भार कैसे धारण | गुरु के ऊपर कैसे उपकार होता है? तो कहा था- गुरु की आज्ञा, आगम करूँगा? यह बात मैंने उनके समक्ष कही थी, तो उन्होंने कहा था - की आज्ञा के अनुसार चलना भी सबसे बड़ा उपकार है। यह बात अपना शरीर कभी भार नहीं होता है, यदि शरीर स्वस्थ और नीरोग | हमें संकेत के रूप में उस समय मिली थी। और कहा था अपने आपको है तो वह शरीर कितना भी बड़ा हो सहज रूप में सब कुछ होता | नहीं भूलनारहता है। लेकिन शरीर भले ही दुबला पतला है, यदि अस्वस्थ रहता कोऽहं कीदृग्गुण:क्वत्यः किम्प्राप्यः किन्निमित्तकः। है उसे भी चलने में तकलीफ होती है, भारमय दिखता है। बस उनका इत्यूहः प्रत्यहं नोचेदस्थाने हि मतिर्भवेत्।। संकेत समझ गया उसी के सहारे चल रहा है। संसार मार्ग में ऐसा (क्षत्रचूडामणि) ही होता है, जब अन्य पदार्थ को उठाते हैं तो भारमय अनुभव होता मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? इसको भूलना नहीं। कहाँ से है, लेकिन जब एकदम अकेले हो जाता है तो आये हैं, और किसलिये आये, इसको भूलना भार रहित व्यक्ति हो जाता है। यह सब गुरुदेव नहीं है। हम आज इन महाराजों (मुनिगणों को की कृपा एवं आशीष है, जो इतने बड़े संघ का संकेत करते हुए) से कहना चाहते हैं- आपने जो निर्वाह सहज रूप से हो रहा है। माँगा था, हमने दे दिया, अब इसे भूलना नहीं एक लेखक होता है, वह लिखता है। वह है। अब भीतरी श्रामण्य का क्या स्वरूप है? उस ओर नहीं देखता कि इतना सारा लिख उसको समझना है। यह वह दुकान है जिससे लिया, वह तो यह सोचता है कि अभी कितना इधर-उधर की चीजों का व्यापार नहीं किया जाता और लिखना है। अपने लक्ष्य की ओर उसकी है। शुद्धोपयोगरूपी हीरे जवाहारात का व्यापार दृष्टि रहती है। समय के अनुसार हमें आगे बढ़ना किया जाता है। करोड़पति कौन बनता है? ज्वार, है, आगे बढ़ने में बाधा नहीं आये उस ओर दृष्टि बाजरा बेचने वाला नहीं बनता, हीरे जवाहारात रखना है, अपना रास्ता प्रशस्त करते जाना है। का व्यापार करने वाला बन सकता है। श्रमणों जैसे नदी कभी नहीं सोचती कि आगे पहाड़ है, के लए हीरे जवाहारातरूपी शुद्धोपयोग का अब कैसे होगा? वह तो आगे बढ़ती जाती है, व्यापार करना चाहिए। आत्मानुभूति हीरे-मोती और उस पहाड़ को काटकर आगे बढ़ जाती है। वह नदी अपने निर्धारित | की बात है। ऐसी दुकान से इधर-उधर की बात नहीं होना चाहिए। लक्ष्य को कभी नहीं भूलती और चली जाती है। वैसे ही हमें महाराज | इसके लिये विज्ञापन आदि देकर प्रचार आदि करने की, अनाज आदि (आ.श्री ज्ञानसागरजी) ने कुछ ऐसी युक्तियाँ दी, उनके माध्यम से | की तरह नमूना दिखाने की जरूरत नहीं होती है। बहुत लोग दिन काटने ये भार क्या, इससे बड़ा भार भी उठा सकते हैं। जैसे गाँव के बाहर | में लगे हैं। दिन नहीं कर्म काटने की बात करना है। इस मार्ग में सिंहवृत्ति जो चुंगी नाका होता है, जो बहुत भारी है, लेकिन युक्ति के साथ के साथ चला जाता है। श्वानवृत्ति से इस मार्ग पर नहीं चला जाता उसे लगाया जाता है, जैसे ही कोई वाहन आता है, एक दुबला-पतला | है। जैसे श्वान को कोई लाठी मारता है तो वह लाठी को काटता है, आदमी भी उसे नीचे झुका देता है। वाहन रुक जाता है, टेक्स देने | लेकिन सिंह को कोई मारता है तो सिंह मारने वाले के ऊपर प्रहार पर ऊपर उठा देता है। ऐसा ही युक्तियों का वरद हस्तभरा आशीष करता है। हमें निमित्त के ऊपर नहीं कर्मों के ऊपर प्रहार करना है। हमें मिला है। वरदहस्त का अर्थ ये नहीं कि उनके हाथ के नीचे बैठो | अपने कर्मों को चूर-चूर करना है। हम अपने परिणामों को देखेंगे तो रहो। उन्होंने जैसा कहा वैसा करता गया। वे (आ. श्री ज्ञानसागरजी) | कर्म चूर-चूर कर सकते हैं। ज्यादा बोलते नहीं थे, कम बोलते, लेकिन नपातुला सारभूत बोला महाराज जी (आ. श्री ज्ञानसागरजी) की वृत्ति इतनी वृद्धावस्था करते थे। उनका प्रत्येक संकेत अनुभूतिपरक हुआ करता था। उनके | में एकदम शान्त एवं आत्मानुभूति से जुड़ी हुई थी। प्रत्येक चर्चा में 8 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524254
Book TitleJinabhashita 2001 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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