SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेख आचार्यश्री शान्तिसागर : जीवन यात्रा एवं वचनामृत मुनि श्री क्षमासागर जीवन यात्रा में देवेन्द्रकीर्ति (देवप्पा-स्वामी) नामक दिगम्बर वन्दना की और अंत में नेत्रज्योति क्षीण होती मुनिराज के चरणों में जाकर आपने निम्रन्थ-दीक्षा जानकर कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर छत्तीस दिन कर्नाटक प्रान्त के बेलगाम जिले में अंगीकार करने की भावना व्यक्त की। तक सल्लेखना धारण करके समतापूर्वक देह येलगुल नाम का एक गाँव है। आपका जन्म मुनिराज देवप्पा स्वामी भोजग्राम में जब का परित्याग किया। इसी येलगुल ग्राम में अपने नानाजी के घर कभी एक-एक माह तक रहे आते थे, इसलिये कठोर तपस्या, निःस्पृह साधना और में हुआ। आपका बचपन का नाम सत्यगौड़ा आपकी धार्मिक-आस्था और दृढ़ता से अद्भुत आत्मनिष्ठा के बल पर आपने पूरे था। आपके पिता श्री भीमगौड़ा और माता श्री परिचित थे। उन्होंने आपको पहले क्षुल्लक का देश में दिगम्बर जैन मुनि की उज्ज्वल कीर्ति सत्यवती भोजग्राम के अत्यन्त प्रभावशाली व्रत ग्रहण करने की आज्ञा दी। गुरु आज्ञा से स्थापित की और विलुप्तप्राय दिगम्बर गुरु और वैभववान सद्गृहस्थ थे। घर-गृहस्थी में आपने सहर्ष क्षुल्लक-दीक्षा ग्रहण की। आपका परम्परा को पुनर्जीवित करके जैनशासन की रहकर भी आपके पिता का अधिकांश समय नाम शान्तिसागर रखा गया। महती प्रभावना की। संयमपूर्वक व्यतीत हुआ और अंत समय में एक बार श्रावकों का संघ सिद्धक्षेत्र वचनामृत उन्होंने सल्लेखनापूर्वक अपनी देह का गिरिनारजी की यात्रा के लिये जा रहा था। परित्याग किया। आपकी माता अत्यंत श्रावकों के निवेदन को स्वीकार करके आप गुणवती थीं। व्रत-नियम-संयम का पालन हिंसा आदि पापों का त्याग करना धर्म भी सभी के साथ गिरिनार-यात्रा को गए। करने में सदा तत्पर रहती थीं। आपके गर्भ है, इसके बिना विश्व में कभी शान्ति नहीं हो गिरिनार पर्वत पर पहुँचकर भगवान नेमिनाथ में आते ही माता को एक हजार आठ कमलों सकती। अहिंसा-धर्म का लोप होने पर सुख के चरण-चिन्हों को नमस्कार करके आपने के द्वारा भगवान जिनेन्द्र की पूजा करने का । और आनंद का लोप हो जाएगा। धर्म का अत्यंत वैराग्य-युक्त होकर मात्र कौपीन को आधार सब जीवों पर दया करना है। शुभ-भाव हुआ। तब कोल्हापुर के समीप रखकर शेष सब वस्त्रों का परित्याग कर दिया राज्यसंरक्षित सरोवर में से कमल मँगवाए | और एलक पद अंगीकार किया। गए और माता ने अत्यन्त भक्ति-भाव से इस अहिंसा धर्म ने हमें अवर्णनीय गिरिनार-यात्रा से लौटने के उपरान्त जिनेन्द्र भगवान की पूजा की। इस तरह एक | निराकुलता दी है। इससे हमें बड़ी शान्ति आपने यरनाल-ग्राम में होने वाले पंच-कल्याणक संस्कारवान धर्मनिष्ठ परिवार में आप जैसी मिली है। बाह्म-परिग्रह आदि से सुख पाने की के अवसर पर अपने दीक्षागुरु मुनिराज भव्यात्मा ने जन्म लेकर सभी का जीवन इच्छा करना भ्रम है। त्याग में ही सच्चा आनंद देवप्पा-स्वामी से मुनिदीक्षा ग्रहण कर ली। कृतार्थ कर दिया। मिलता है। उपवास आदि हमें इसलिये करते इसके चार वर्ष बाद समडोली में आपने श्री आपका विवाह नौ वर्ष की उम्र में एक हैं कि पूर्व में बाँधे गए कर्मों की निर्जरा हो वीरसागरजी एवं श्री नेमीसागर जी को मुनि सात वर्षीय कन्या के साथ कर दिया गया था। जाए। अग्नि के ताप के बना जैसे सुवर्ण शुद्ध दीक्षा दी और आचार्य-पद से अलंकृत हुए। विवाह के छह माह बाद ही उस कन्या का नहीं होता उसी प्रकार तपश्चरण के बिना संचित गजपंथा में पंचकल्याणक के शुभ-अवसर पर देहावसान हो गया। आपके माता-पिता ने कर्मों का नाश नहीं होता। अतः हम कर्मों की आपको चारित्र्यचक्रवर्ती पद से विभूषित पुनः विवाह करने का आग्रह किया पर आपने निर्जरा के लिय कायक्लेश आदि तप करते किया गया। आपके दीक्षागुरु मुनिराज देवप्पा विवाह करने से इंकार कर दिया और स्वामी ने आपकी शास्त्रानुकूल निर्दोष हैं। इससे हमें दुख नहीं होता। हमें बड़ा सुख सिद्धिसागर मुनिराज के समक्ष आजन्म और शांति मिलती है। मुनिचर्या देखकर आपसे पुनः मुनिदीक्षा ब्रह्मचर्य-व्रत धारण कर लिया। ग्रहण की इसलिए आप गुरूणां गुरु कहलाए। आप असाधारण शक्ति के धारक थे। परिग्रह के द्वारा मन में चंचलता, राग, आपने अपने चौरासी वर्ष के जीवन एक बार आप भोज ग्राम में पधारे मुनिराज द्वेष आदि विकार उत्पन्न होते हैं, जैसे पवन काल में सत्तावन वर्ष अन्न का त्याग किया को अपने कंधे पर बिठाकर वेदगंगा और के बहते रहने से दीपशिखा कंपनरहित नहीं और छत्तीस वर्ष के मुनि जीवन में पच्चीस दूधगंगा नाम की निदयों को सहज ही पार कर हो सकती है। पवन के आघात से समुद्र में वर्ष नौ माह उपवास किए। मुनि जीवन में गए थे। कर्त्तव्य मानकर घर गृहस्थी के कार्य लहरों की परम्परा उठती जाती है। पवन के आप उपसर्ग और परीषह-जय के समय करते हुए भी आप निःस्पृही रहे। सैंतीस वर्ष शान्त होते ही दीपक की लौ स्थिर हो जाती अत्यन्त दृढ़ और स्थिर रहे। समतापूर्वक की उम्र में पिता का देहावसान होते ही घर है। समुद्र प्रशान्त होजाता है। उसी प्रकार रागसहजता से सब सहन किया और सदा में रहकर भी आपने एक उपवास और एक द्वेष के कारणभूत धन, वैभव, कुटुम्ब आदि तपस्या में लीन रहे। दिन आहार करने का नियम ले लिया था। परिग्रह को छोड़ देने पर मन में चंचलता नहीं अनेक नगरों में विहार करके आपने एक दिन कर्नाटक-प्रान्त के उत्तूर ग्राम | लोक-कल्याण के कार्य किए। अनेक तीर्थों की रहती है। परिग्रह रहित निर्मल जीवन जीने से | मानसिक शान्ति मिलती है। -जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524254
Book TitleJinabhashita 2001 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2001
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy