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संयम के प्रति भक्ति थी, ममता थी, किन्तु मन में भय का भाव भरा था, इससे संयम के पथ पर चलने की कल्पना भी कोई नहीं करता था । "
विषय- लंपटतापूर्ण वातावरण
"इस काल के पश्चात् नवीन वैज्ञानिक युग का आविर्भाव हुआ। इसने अपने संमोहन अस्त्रों, जलकल, वायुयान, रेल, मोटरों आदि के द्वारा लोगों को बहुत आश्चर्यप्रद इंद्रियपोषक सामग्री प्रदान की। लोग अधिक आमोद-प्रमोदप्रिय बन गए। अतः आचार-विचारों में अद्भुत शिथिलता का आविर्भाव हो गया। अब संयम का अनुराग भी नहीं दिखता है। संयमी को देखकर असंयमी समुदाय के मन में आदर का भाव नहीं जगता है। कारण उन असंयमी लोगों के आराध्य और वंदनीय लोग वे हैं, जो भोग, विषयलंपटता में सर्वोपरि बन रहे हैं। इससे आदर्श, सदाचार की बात चर्चा की वस्तु बन गई है। लोग यही कहने लगे हैं कि आचार में क्या धरा है? अपने विचार ठीक रखो यही सार की बात है आज शिथिलाचार में अपरिमित वृद्धि होने के कारण कौन सोच सकता था कि ऐसी भी कोई युगान्तर उत्पन्न करने वाली आत्मा होगी जो इस पंचम काल में चतुर्थकालीन महामुनि की उच्च तपस्या की स्मृति को साक्षात् रूप में दर्शन करायेगी। अविचलित शांति के सागर परीषहविजेता की कीर्ति का प्रसार
"पुद्गल के विकास का वैभव बताने वाले विज्ञान के चमत्कार पूर्ण इस युग में (सन् 1953 से) लगभग 50 वर्ष पूर्व एक समाचार प्रकाश में आया था कि अपने आध्यात्मिक पवित्र जीवन में भव्यात्माओं के अंतःकरण में अपरिमित आनन्द की वर्षा करने वाली एक विलक्षण आत्मा दक्षिण प्रान्त में दिगम्बर जैन मुनिराज के रूप में विराजमान है। उनकी तपस्या सब को चकित करती है। वे मुनिराज किसी जंगल की गुफा में आत्मध्यान कर रहे थे कि एक नागराज ने उन पर उपसर्ग किया। वह उनके शरीर में ऐसे लिपट गया था मानो वह सचमुच में संतापहारी शान्तिदायी, सुवाससंपन्न चंदन का वृक्ष ही हो। वे मुनिराज सद्गुणों से अलंकृत थे। शान्ति के सागर थे। इससे उनकी आत्मा सर्पराज के लिपटने पर चंदन के समान अचल रही आयी। दो-तीन घंटे के बाद वह विषधर चला गया । "
"यह दृश्य काल्पनिक अथवा पौराणिक नहीं है। इसे अनेक गृहस्थों ने अपने धर्मचक्षुओं से देखा था। मृत्यु के अत्यन्त विश्वस्त प्रतिनिधि सर्पराज की अग्निपरीक्षा में पूर्णतया उत्तीर्ण होनेवाले अविचलित धर्मधारी उन शान्ति के सागर महामुनि की कीर्ति और महिमा साधर्मी समुदाय ने अवर्णनीय आनन्द, प्रेम, भक्ति तथा ममतापूर्वक सुनी। लोग चकित हो उठे। प्रत्येक सहृदय इस भीषण पंचमकाल में चतुर्थकालीन दृश्य को नयनगोचर बनाने वाले उन तपोनिधि की मनोमंदिर में पूजा करने लगा।"
चित्रदर्शन
"जब उन निर्मन्थ गुरुदेव का वीतरागतापूर्ण दिगम्बर मुद्रामय चित्र प्रकाश में आया, तब सभी मानव अपने धर्म या सम्प्रदाय का मोह भुला उन श्रमणराज को बड़ी ममता से प्रमाण करते थे। उनकी
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जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित
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मुद्रा में अपार शांति थी। उनके रोम-रोम से वीतरागता का रस छलकता सा लगता था। वे सर्वपरिग्रहमुक्त, पूर्णतया स्वावलम्बी बन परिग्रह के पीछे पागल बननेवाले जनसमुदाय को अमर जीवन और सच्चे कल्याण का पथ बताते थे कि वैभव के विलास में फँसनेवाली आत्मा अपने विनाश की सामग्री एकत्रित करती है। जिसे अविनाशी आनन्द चाहिए, उसे अपरिग्रहवाद के प्रकाश में अपने अन्तःकरण को धोना चाहिए । उनका जीवन अहिंसामय था ।
मुनिराज के चित्र का प्रभाव
" एक बार हमारे यहाँ उनके चित्र का दर्शन अनेक हिन्दू, मुस्लिम, पारसी आदि साक्षरों ने किया, तो उनकी आत्मा आश्चर्ययुक्त हो आनन्दविभोर हो गईं। सहृदय मुसलिम जागीरदार कह उठे, 'धन्य है ऐसी आत्मा को ।' उनके दिगम्बरत्व पर उन्होंने एक पद्य सुनाया
तन की उरवानी से बेहतर है नहीं कोई निवास। यह वह जाता है कि जिसका नहीं उल्टा सीधा 'दिगम्बरत्व से बढ़कर और दूसरा कोई भी वेष नहीं है। यह वह पोशाक है, जिसमें सीधे या उल्टे का भेदभाव नहीं है।
एक दूसरे तत्वप्रेमी भाई बोल उठे कि श्रेष्ठ और उच्च जीवन तो इन महात्मा का है, जिन्होंने अपनी इंद्रियों को जीता है। जिन्होंने व्याघ्र सर्प आदि भीषण जन्तुओं को मारा है, उन्होंने कोई बड़ा काम नहीं किया। सबसे बड़ा शैतान इन्द्रियों की लालसा है। जिसने इंद्रियों पर विजय प्राप्त की है, यथार्थ में वही व्यक्ति महान है। उससे बड़ा और कौन हो सकता है? पारे को मारकर सिद्ध रसायन बनाने वाले ने क्या बड़ा काम किया! यथार्थ में अपने अहंकार को जिसने मारा वही आत्मा श्रेष्ठ है। "
ऋषिराज का दर्शन
"कुछ वर्षों के पश्चात् उन ऋषिराज का साक्षात् दर्शन मिला, तब ज्ञात हुआ कि उनका असाधारण व्यक्तित्व पूर्णतया उनके निकट संपर्क में आने से ही समझा जा सकता है। उनकी समस्त क्रियाओं को देखकर प्रत्येक विवेकी विद्वान् यह अनुभव करता था कि वे इस पंचमकाल में चतुर्थ कालीन मुनियों के समान निर्दोष आचरण करते थे। वे ही चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के नाम से श्रमण संघ के शिरोमणि के रूप में विख्यात थे। " ( चारित्रचक्रवर्ती पृ.1-7)
बीसवीं सदी के इन विश्वविश्रुत प्रथम आचार्य की जीवनयात्रा का संक्षिप्त दृश्य पूज्य मुनि श्री क्षमसागर जी ने 'श्रद्धा' नामक लघु पुस्तिका में उतारा है, साथ ही उनके उपदेशांशों (वचनामृत) का भी संग्रह किया है। इस महान व्यक्तित्व के गुणों की अष्टद्रव्यात्मक पूजा पूज्य मुनि योगसागर जी द्वारा रची गई है। यह सामग्री उनके समाधिदिवस के सन्दर्भ में 'जिनभाषित' में प्रस्तुत की जा रही है।
अत्यधिक व्यस्तता के कारण जुलाई 2001 का अंक समय पर प्रकाशित करना हमारे लिये संभव नहीं हो पाया। इसलिये जुलाई और अगस्त दोनों महीनों का संयुक्तांक प्रकाशित करने के लिये बाध्य हुए हैं। इसके लिये कुछ पृष्ठों की वृद्धि भी की गई है। पाठक क्षमा करेंगे।
रतनचन्द्र जैन
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