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सम्पादकीय
बीसवीं शती के आद्य आचार्य श्री शान्तिसागर जी का समाधि दिवस
भाद्रपद शुक्ल द्वितीया स्व. आचार्य श्री शान्तिसागर जी | नामक छठवीं प्रतिमा में गृहस्थ को रात्रि में मौन धारण करने का वर्णन महाराज का समाधिदिवस है। वे बीसवीं सदी के आद्य आचार्य थे। | कया है। उस पर "श्रावक धर्मसंग्रह" में धर्मात्मा श्रावक सोधिया स्व. पं. सुमेरुचन्द्र जी दिवाकर ने अपने 'चारित्रचक्रवर्ती' नामक ग्रन्थ दरयावसिंह जी लिखते हैं, "उसका भाव ऐसा भासता है कि भोजन, में लिखा है कि बीसवीं शती के आरम्भ होने तक सैकड़ों वर्षों से व्यापार आदि संबंधी विकथा न करे, धर्मचर्चा का निषेध नहीं।" (247 उत्तरभारत के श्रावकों को दिगम्बर जैन मुनियों के दर्शन का सौभाग्य पृष्ठ) आगम के प्रकाश में यह बात अतिरेकपूर्ण है। छठवीं प्रतिमावाला प्राप्त नहीं हुआ था। इसका खुलासा करते हुए वे लिखते हैं- स्वस्त्री सेवन द्वारा संतति तक उत्पन्न करता है, तब उसके विषय
"शाहजहाँ बादशाह के समकालीन विद्वान् कवि बनारसीदासजी में रात्रि में मौन धारण करने का कथन आगम समर्थित नहीं है। के आत्मचरित्र 'अर्ध कथानक' से ज्ञात होता है कि साक्षात् दिगम्बर दौलतरामजी के क्रिया-कोष में पाँचवीं प्रतिमा में सचित्त-भक्षण-त्याग गुरु का दर्शन न होने के कारण वे अजानकारीवश विचित्र प्रवृत्ति में के स्थान में सचित्त-मात्र का त्याग मानकर गृहस्थ को सचित्त मिट्टी तत्पर थे। वे लिखते हैं कि चन्द्रभान, उदयकरण और थानसिंह नामक का स्पर्श न करने को कहा है। उसे मुनितुल्य मान वे पंखा भी हिलाने मित्रों के साथ अध्यात्म की चर्चा करते हुए एक कमरे में नग्न होकर | की अनुमति नहीं देते। उन्होंने लिखा है - फिरते थे और समझते थे कि हम निर्ग्रन्थ मुनिराज बन गये। यदि
माटी हाथ धोयवे काज, सकल संयमधारी दिगम्बर मुनि का दर्शन हुआ होता तो वे नग्नमुनि
लेय अचित्त दया के काज।।1871।। बनने का अद्भुत नाटक नहीं खेलते। मुनि पद में हिंसादि पापों का
पवन करे न करावे सोय, सार्वकालिक परित्याग होता है, यह बात उनकी समझ में आई होती
घट काया को पीहर होय।।1874।। तो वे कुछ समय दिगम्बर बन पश्चात् क्रीड़ा-कौतुक में कभी भी संलग्न __"गृहस्थों में मूलाचार के समान पूज्य माने जाने वाले क्रियन होते।"
कोष में लिखा है कि छठवीं प्रतिमा में रात्रि के समय गमनागमन "जब वास्तविक सत्य रूप का दर्शन नहीं होता तब मनुष्य | नहीं करेकाल्पनिक जगत् में भ्रमण करता हुआ उपहासपूर्ण प्रवृत्ति करता है।
गमनागमन सकल आरंभ, भूधरदासजी आदि प्राचीन हिन्दी के विद्वानों की रचनाओं के स्वाध्याय
तजै रैन में नाँहि अचंभ ||1882।। से यही बात झलकती है कि उन मुनि-भक्त नर रत्नों के नेत्र जिनमुद्रा
छट्टी प्रतिमाधारक सोई, धारी मुनि दर्शन के लिये सदा प्यासे ही रहे आये इसलिये वे अपनी
दिवस नारि को परसत होई ।।1048।। रचना में चतुर्थकालीन वज्रवृषभसंहननधारी दिगम्बर गुरुओं की भक्ति
रात्रि विषै अनशन व्रत धरै, करते हुए उनका ही इस काल में सद्भाव विचारा करते थे।
चउ अहार को है परिहरै। दिवाकर जी आगे लिखते हैं कि "उत्तर भारत में मुनि दर्शन
गमनागमन तजै निसि माँहि, होना असम्भव सरीखा समझा जाता था। इतना ही नहीं उच्च श्रावक
मन वच तन दिन शील धराहिं 1049।। का जीवन व्यतीत करने वाली आत्मायें भी दृष्टिगोचर नहीं होती थीं। "इस प्रकार आज से लगभग तीन-चार सौ वर्ष पूर्व का उस समय चरित्र के समान ज्ञान की ज्योति भी अत्यंत क्षीण-सी | वातावरण तथा लोक धारणा को ध्यान में रखने पर मुनि जीवन की दिखती थी। जो तत्त्वार्थसूत्र तथा भक्तामरस्तोत्र का मूल पाठ कर | तो कथा ही निराली, प्रतिमाधारी श्रावक का पद कोई धारण कर सकेगा, लेता था वह आज के प्रकाण्ड पंडितों से अधिक सम्मान और श्रद्धा | यह अशक्य सोचा जाता था। यदि किसी ने सप्तम श्रावक के व्रत का पात्र समझा जाता था। उस समय धार्मिकता के रस से भींगे | धारण कर लिए, तो उस धर्ममूर्ति का दर्शन ऐसा ही धार्मिक लोगों अन्तःकरणवालों को भाईजी या भगतजी कहा जाता था। वे लोग | को हर्ष प्रदान करता था, जैसा कि पर्व काल में चारणादि ऋषिधारी सोचते थे कि आज का काल, व्रतादि, प्रतिमाओं का पूर्णतया पालन | मुनियों का दर्शन। ऐसे संयम के प्रति प्रोत्साहन-शून्य तथा कृत्रिम करने के भी प्रतिकूल है। इसलिये वे अपने पाप-भीरु मन द्वारा शास्त्रों जटिलताओं के कंटकों से पूर्ण वातावरण में महाव्रती बनने की बात से चुनी गयी बातों का अद्भुत संग्रह करके उसे जीवन का पथ-प्रदर्शक | को सभी लोग असंभव सदृश सोचते थे। ऐसी स्थिति में गुरुभक्त जानते थे।"
गृहस्थ या तो विदेहभूमि में विराजमान साधु-समुदाय को परोक्ष ___ "उनमें अनेक बातें ऋषि-प्रणीत आगम से मेल नहीं खाती। | प्रणामांजलि अर्पित करता था या अपनी मनोभूमि में प्राचीन काल में उदाहरणार्थ दौलतरामजी ने अपने 'क्रिया-कोष' में रात्रि-भक्त-त्याग | हुए साधुओं को विराजमान करके बड़े भाव से पूजता था। इस समय
-जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित
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