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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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नि-शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग
लेखक पपवन शास्त्रो
प्रकाशक सेवा मनिर, २१, परियागंज, नई-दिल्ली-२
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प्रकाशक: वीर सेवा मन्दिर सोसायटी (रजि०)।
२१, दरियागज, नई दिल्ली
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मूल्प : मनन चितन :
दो रुपये
प्रथमावति : १००० वीर निर्वाण मवन् : २५०८ वि०म० २०३८ मन् १९८२ ई.
गीता प्रिटिंग एजंसी, सोलमपुर, दारा विध्यवासिनी पंजिग, न्यू सीलमपुर, दिल्ली।
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अनुक्रमणिका
कम १. प्रकाशकीय २. प्राक्कथन ३. अनादि मूनमत्रोऽयम् ... ४. भगवान पावं के पंचमहावन ५. पर्यषण और दशलक्षण पर्व... ६. अपदेशमत्तमज्नं ... ७. आचार्य कुन्दकुन्द को प्राकृत ८. आत्मा का अमख्यानप्रदशन्त्र ६. म्वम्निक रहस्य १०. पर्गिशष्ट
मेरा अपना कुछ नहीं, सब प्राचारजन । लोग भरम मो पर कर, यानं नीचे नेन ॥
गुम्बापो संचय करन, प्रकट करन जिनन । पुण्य कार्य या जगत में, जान सब ही जन ।।
मन्द-पदि में भक्ति-युत, प्राग्रह मम कछ नहि। तम्य-प्रतम्य विवारिक, सुषो घरो मन माहि॥"
पप्रचन्द्र शास्त्री वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली
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प्रकाशकीय
जैन आचार, तत्त्वज्ञान, इतिहास, पुरातत्त्वादि के अनुसन्धान मे बीर- मेवा मन्दिर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह संस्था ग्रन्थ प्रकाशन एवं 'अनेकान्न' पत्रिका के माध्यम से जनता की सेवा में मतत् संलग्न रही है ।
प्रबुद्ध पाठकों के सुझाव पर 'अनेकान्त' के कुछ लेखों का यह संकलन नए आयामों के विचार में महयोगी होगा। सभी लेख श्री पचचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित और चिन्तनपूर्ण है ।
प्रस्तुत प्रकाशन में विद्वद्वर श्री पं० कैलाशचन्द्र सि० शास्त्री के प्राक्कथन के बाद हमें कुछ लिखना शेष नही रह जाता। पंडित जी ने सभी म्पष्ट कर दिया है । इम कृपा के लिए हम पंडित जी के अति आभारी हैं।
इस प्रकाशन में कम्पोजिंग व छपाई का पूरा व्यय श्री रघुवीरसिंह जन धर्मार्थ ट्रस्ट (जैना वाच कं०) ने तथा कागज-व्यय श्री मुमद्दीलाल जैन बंरी ० ट्रस्ट. दिल्ली ने बहन किया और आवरण-कागज श्री सागरचन्द्र जैन एण्ड मंग के भोजन्य से प्राप्त हुआ। ये उन सभी के धर्म प्रेम और संस्था में रुचि का परिचायक है । हम उनका हृदय में धन्यवाद करते है ।
सुभाष जैन महासचिव, वीर मेवा मन्दिर
२१, दरियागंज, नई दिल्ली-२
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प्राक्कथन
जिन शामन या जैन धर्म आचार और विचार का आकर है । उसमें निहिन-तत्व चितकों और अन्वेषणकर्ताओं के लिए मदा आकर्षण का केन्द्र रहे है । प० पद्मचन्द्र जी ने एक नम्वान्वेषक और तत्व जिज्ञासु के रूप में जिनशासन के कुछ विचारणीय प्रमगो पर अध्ययनपूर्ण प्रकाश डाल कर अध्ययन की रुचिकर मामग्री प्रस्तुत की है। उनका यह अध्ययन व्यापक है। उन्होने दिगम्बर साहित्य की ही तरह श्वेताम्बर साहित्य का भी आलोडन किया है और इसमे उसका महत्व बढ गया है, क्योंकि उसमें जिन शासन की दोनो धाराओं का निष्पक्ष अवगाहन किया गया है ।
१. प्रथम विचारणीय प्रमग है, अनादि मूलमंत्र या पचनमस्कार मंत्र | यह मत्र समस्त जैनी को मान्य मूलमंत्र है । वेताम्बर परम्परा में इसे नवकार मंत्र कहते है क्योंकि पाच नमस्कारों के साथ एम पत्र णमोकारो आदि बार पद जोड कर नौ पद होते है । ध्वेताम्वरीय लघु नवकार फल मे हम मंत्र का माहात्म्य बतलाते हुए हमे जैन शासन का मार और चोदह पूर्वो का उद्धार कहा है ।
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यथा
"जिणमामणम्म मार्ग चउदमपुष्याण जो ममुद्धा | जन्म मणे णवकारी, ममारी तम्म कि कुह ?"
अर्थात् जो जिन शामन का सार है और चौदह पूर्वो का उद्धार रूप है ऐसा नमस्कार मंत्र जिसके मन मे है ममार उसका क्या कर सकता है ? दिगम्बर मप्रदाय में नमस्कार मंत्र का एक ही रूप पाया जाता है किन्तु श्वेताम्बर मप्रदाय में कुछ भेद है। जिसका विवेचन प० पद्मचन्द्र जी ने किया है । नमस्कार मंत्र में प्रथम चार पदों में कोई अन्तर नही है । अन्तिम पद में अन्तर है । भगवती सूत्र मे अन्तिम पद 'णमां बभी निवीए' है अर्थात् माधुओं के स्थान में ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है किन्तु उस पर अभयदेव सूरि की मस्कृत टीका में णमो मन्त्र माहण' पाठ है। तथा णमो लोग मब्ब माहूण' को उसका पाठान्तर कहा है। टम अन्तिम पद में आए 'लोग' ओर 'मव्य' पदों को लेकर दिगम्बर परम्परा में भी विवाद चलता है। किन्तु धवला टीका में लिखा है कि ये दोनों पद अन्नदीपक है । अन उनकी अनति पूर्व के
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छ)
चारी पदों में भी करनी चाहिए। अर्थात् लोक के सब अरहंतों को नमस्कार हो, लोक के सब सिद्धी को नमस्कार हो. इसी तरह पाचां पदों का अर्थ जानो । २. दूसरा प्रसग है- भगवान पार्श्व के पाच महाव्रत । श्वेताम्बर आगमों में ऐसा कथन है कि भगवान पार्श्वनाथ ने चार ही महाव्रत कहे थेमैथुनम्याग अलग नही था उसका ग्रहण परिग्रह त्याग में किया जाना था क्योंकि स्त्री को ग्रहण किए बिना भांगा नही जा मबना । पीछे भगवान महावीर में अपने तीर्थ मे पाच महाव्रतां का उपदेश किया, क्योंकि पार्श्वनाथ के शिष्यां ने उसका दुरुपयोग किया था। इसी का परीक्षण और विवेचन पडित जी ने अपने में किया है जो विशेष रूप से पहने लायक है ।
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दिगम्बर परम्परा के मुलाचार में भी यह कथन मिलता है कि बाईम तीर्थकर सामायिक, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म मापराय और यथाख्यान चारित्र का ही उपदेश करते है, क्योंकि उनके समय के माधु मरल और विद्वान् होने मे मयम में दूपण नही लगाते । किन्तु प्रथम अन्तिम तीर्थकर पाचवे छेदीपस्थापना मयम का भी उपदेश देते है । किन्तु चार और पाच महाव्रतां का कथन दिगम्बर परपरा में नहीं मिलता। यद्यपि चार और पाच मयमों की तरह चार और पाच महाव्रता के उपदेश वा अन्तर मभव है और इसका समर्थन रोद्रध्यान के नार भंदा में हाना है । रौद्र के चार भेद हिमानन्दी, असत्यानन्दी, नौयांनन्दी और विषय मरक्षण आनन्दी है । विषय मरक्षण मं मैथुन और परिग्रह दाना गाभिन है ऐसी ही स्थिति चातुर्याम की हो सकती है। वे. स्वानाग सूत्र (२६६) की टीका में लिखा है मध्य' के बार्टम तीर्थकर तथा विद नीवार नानुर्गाम धर्म का तथा प्रथम तथा अन्तिम नीर्थकर पचयाम भ्रमं नावचन शिष्यों की अपेक्षा में करने है । वास्तव में तो दोनो ही पंच-पंचयाम धर्म का हो प्रतिपादन करते है। विन्तु प्रथम तथा अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ ने गाध नम से ऋजु-जद और वत्र जड होते है। अन परिग्रह छोडने वा उपदेश देन पर परिग्रह त्याग में मंथन त्याग भी गर्भित है यह समझने में और गमत कर उगना त्याग करने में असमर्थ होते है। किन्तु शेष नीवरी के तीर्थ व माधु कज और प्राज्ञ होने के कारण तुरन्त समझ लेते है कि परिग्रह में मंथन भी गनि क्यारि विना ग्रहण किये स्त्री को नही भोगा जा सकता ।'
नीमरा प्रमग
पर्यपण और दशलक्षण पर्व । भगवती आराधना गाथा ४२३ मे माथ वे दम बन्ग बतलाए है। यही गाथा श्वेताम्बर आगमों में भी मिलती है। इनमें अनिम वन्य गज्जांमत्रण है टोकावर अपराजिनमूरि ने
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( ज )
हनवा अर्थ किया है वर्षानाल के नार मामी म भमण का त्याग करके एकत्र रहना। इसका उन्मर्गमाल एम मो बीम दिन कहा है। कारणवश इगम कम और अधिक दिन भी रहना मभव । मीने अनर्गत दिगम्बर्ग में भाद्रमाम वे अन्तिम दन .िना मगनःक्षण पर्व मनाया जाना है। इसका पुगना नाम पर्यषण पर्व ही है। पानी बर मागना को गामने ग्म कर विग्नार में प्रमाश टाला । जापान पार।।
४ नतथं विनारणोग प्रमग ममानार ५वी गाथा तृतीय नरण में मम्बद्ध है। उसके दो पाठ मिला: अग गनमज्म' और 'अपदेशमनमज्न' आचार्ग प्रमननाद नीटी मला गागा का गन्दण व्याख्यान नही है आचार्य जगगन न आगमनमार र TT TIT किया है और उग 'जिणमामण ना पिणाण माना अमननन्द जी न ग व्यायान नहीं वो भी प्रयागनर म TTI IIगान किया। ना लगता ।।१४वी गाथा में कहा , जा बा-गा ।। . ! ग. अननिय प्रविणेग और अमयुक्त दगना उंगे द गय ना..।।।।। गाथा मन पान विणेपणा में म अबद्ध प्रगान मार गिा । र विगगण || । दा विशेषण नियन र गा ! न।।। fro.. अमनना: जी दीका में पूर्गन न बिगाणा गffगा मा ।। अनर्मा। का गमम्म जिन-णामन की जनभान TIPा या पय मागा।ग पर मेगा प्रनीताता है। काटनमा म विगण छिगा । प. जी ने उमी पर विगार ग प्रसार गता। जयगा जी ना पाम्यान किया है. उममे मन पर ना व्यापान नही है यथा शब्द गमय गे वाच्य और ज्ञान ममय में जो परिच्छंद्य है. उस अपदणम वमध्य कहते है। मी नग्ह १० जी ने 'मनमग्न' पर रख कर जो आत्मा को आत्मा के मध्य' अयं किया है वह भी गले नहीं उतरना । गम नी प्रदेण अर्थात् आदि और अन्न महित मध्य में हित अर्थात् आदि अन्न मध्य हिन' अयं अधिक उपयुन जानता है। अमृतचन्द्र जी ने दशवं कलश में गुडनय का बम्प दगन हा मान्मम्वभाव का एक विर्णपण 'आयविमुका' वहा है उन गाथ भी उन अयं की मान बैठ जानी है अन उन चरण का अर्थ अभी भी विचारणीय ही प्रतीत होता है।
. पाचवा प्रमग भापा मम्बन्धी है। आचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत के मम्बन्ध में म्ब० डा. ए. एन. उपाध्याय नं प्रवचनमार की प्रम्नावना में विस्तार में प्रकाश डाला है और वह इस विषय के अधिकारी विद्वान् ।
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( झ )
१० जी ने भी उसको देखा है । प० जी का यह लिखना यथार्थ है कि प्राकृत भाषा के ग्रन्थों को भाषा की दृष्टि में मशोधन करना ठीक नही है मस्कृत भाषा का तो एक बघा हुआ स्वरूप है किन्तु प्राकृत भाषा की विविधता में यह संभव नहीं है उसमे अर्थ मे विश्म का भय रहता है ।
६ छठा प्रसग है आत्मा का अमध्यानप्रदेशित्व | यह कोई विवादग्रस्त विषय नहीं है । तत्वार्थवानिक के पाचवे अध्याय के ये सूत्र में अकलकदेव ने द्रव्यों को प्रदेशकल्पना पर विस्तार में प्रकाश डाला है । निश्चयनय मे आत्मा की अमयान प्रदेशी कहा है। जंनदृष्टि से जो सर्वथा अप्रदेशी है वह अवस्तु है किन्तु अकलकदेव ने शुद्ध नय में उपयोग स्वभाव आत्मा को अप्रदेशी कहा है यहाँ अप्रदेशी वा मतलब एक भी प्रदेश न होना नही है किन्तु अखण्ड अनुभव में है । वही शुद्धनय का विषय है।
अन्तिम प्रभग है स्वास्तिक । प० जी ने उस पर नवीन दृष्टि में विचार किया है अभी तक तो यही माना जाना रहा है कि सीधी और आडी दोनां hi जीव और पुद्गल के सम्बन्ध की सूचक है और उसका फल चार गनियो में भ्रमण है। उसी का प्रतीक स्वास्तिक है। किन्तु प० जी ने उसे बनारिमगल में जोड़ा है यह प्रमग भी पहने योग्य है । १० जो के उक्त प्रसगां के सभी विवेचन पढ़ने योग्य है ।
वाराणसी
२७-२-८२
(सिद्धानाचार्य ) कैलाशचन्द्र शास्त्री
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प्रनादि मूलमंत्रोऽयम् ।
जनमगार मणमाकार माना नान गान ।। गमाग 'गावणागणों ओर पढग य: मगन म माननं 11 मारण करने है। मान्यता भी है कि गिद्ध पर मर नादिमन और अपगजिन 'अनादिगुलमनोऽयम्', 'अपगजिनमत्रोऽयम्' : पाक्षि।
जहा तक मन के अनामिन्त्र की बान , it. " म नंगमाग ।। अपना अर्थात् - 'जो मन है उसका नाम नी' नी गीन ग णगातार नाना: माना जायगा हर नीज के मन को अनादि माना जायगा । या
'मनामनग्गाही जणा:म-नंगी तमा नग्ग ।
उपजद नाभय भय न ग नागा बाथ ॥ नंगमनय गनामाग्राही हाता: । :गी अप. बन गया गया ही होती है चाहे वह किसी भी पर्याय ग क्या ना नावना गा मार मगन के. पाप गरमाया दोनों ही अनादि गिी । पानगागानगार आत्मा ही परमात्मा गिद्र ग्यम् ।। मार प्रागा . विकाग ग ग गाथ
आध्याय आचार्य बार पर भी प्रामा-गग्गामा की भाति प्रगा। ग घाम प्रवाह प ग की न की किगीन निगी ममता वर्तमान ।।
जन पान्यतानुगार पाना माटी जनाधिकार गाहा मार अगनमान नागा हाने मन मना मन । नायनर मनमान म अनन नावीगी हजार नियमान म जन ती गी। वित मनकी गना गर्वकाल विद्यामान ही। गोल अयमा का प्राव गिढ़ हा जो अपम अवस्था को प्राप्त साग व गिद दाग गमगी ग:: नही। अध्याग कशा की धगी में विद्यमान (
भमान-विपतकाली ) नाना पाध्याय बार गायु भी अनादि-मनन (गना को अपना) : , नार हंगे । और जब-जब ये है नव-नब उनको नमन भी है। अन एन नमागभन णमोकार भी [मना की पेक्षा जनादि । गीला कसा है।
'म नमस्कागं. निन्य एव. वस्नुबान नभावन । नापद्यनं नापि बिनण्यनीन्यथं ।
बह नमस्कार निन्य -मदाकाल है, वस्नु हान म । जो जो वस्नु है वह
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जिनान के कुछ विनाम्नाय प्रथन
प्राप्त
को अपना आकाश न कभी हा पर्यायां के परिवर्तनम्प म उगे नित्य घटाकाश मठाकाण त्यादि कहा जाता है। जो आकाण अभी arega घटाकाश बहलाना था वहीं यट के नष्ट होने पर (मठ मे स्थित होने में ) मठाकाण कहलाया । पर अस्तित्व की जप में नागनी विद्यतेऽभावां नाऽभावां विरान मन । जा गन् ? उसका नाश नहीं नहिं अमन कभी पंदा होता । - नियम | मी परिधि की अपेक्षा णमोकार को अनादि माना गया है ।
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12 | यी अपना
न भी विनाश
माना णमोकार मंत्र के सभी पात्र और की पृथव-पृथक मना आदि की उपेक्षा
- नव लिए नमन व्यकि
जनादि पर यह निश्चय कैसे किया जाय कि णमोकार की श्रृंखला में नगन-गिद्ध आचार्य - उपाध्याय और गर्वसाथ वा ही निश्चित स्थान ( भी ) जनादि है। यदि उन्हीं का स्थान निश्चित है तो मत्र के विभिन्न रूप देखन म गया आनं ? आर यदि वे रूप सत्य है तो ऐसा मानना पड़ेगा किविविधता ज्ञान के कारण णमोकार मंत्र अनादि नहीं है |
या प्रश्न मना
मन पर विचार करन क लिए हम (नामा की अपक्षा) णमाकार
माग पर दृष्टियान करना होगा । नथाहि
प्रथमत्प
द्वितीयप
णमा जनिताण णमा सिद्धाण गमा आर्याग्याण । विज्ञायाण णमो लोए सवमाहूणं ॥'
णभा
-पट्यागम
णमो
लाज मां गिद्भाग णमो आग्याण | उभयाण णमो सबसाहूणं ॥' मा लाए "बगाहून निस्वनिन् पाठ
श्री भगवती सूत्र ( मंगलाचरण) निर्णय मा० म० १६७८
भिधान राजेन्द्र ( आगम कोप) वे उल्लेख के अनुसार- भगवनी वा पग प्रकार है जा मत्र के तृतीय रूप को दगिन करना है - तथाहितृतीयरूप -
'यतो भगवन्यादावेव पचपदान्युक्तानि -
नमो अरिहंताण, नमी मिद्वाण, नमो आयरियाण ।
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Arमयम् । गगा। ण णमो बभोग वियोग : : कनि: नमा नाग गलगारण :नि पाठ ।
मधान गरबाग , १८.. का नीना FIR -14 . मिनारगीर है। मनाना FIT गा.7 रन म नाना - ना: । । या पदग:गम ॥ या TI: नाप । गागा ॥ी गुगा मामी जी गमी हमाग पहा । पार। कभी मर गठनन नि गिा म 15 मार्ग निसाना गाना
जब हम ग - | आग " ...|| माहात्म्यम्म म प ग गा पा सा () ग ग
II गगताण व गोंग पाम 'व: मग।। ।पान || साग II 7 जा यह मित्र ग्न, fr गगगग लग गागमा । गा णमाकारा म्यागी, और मामा fun व माग गाण जग म्प अम्पायी भार र प्रतित:।
__ याद णमा व भाग लिam || ना माना जायगा ना प्रय.. चा। उम्बिाहागी निपानि || II म
नमान ग. पि. ना. मर । गा गा|
गाग पनि सम्मान माना ।। मा नान.. जगा frTT जा : ना. मग माऽयम् । पि
याः माना गरम गाना || गमावणाना मगा। 1. गाया गा मा गिना ना. या जा भी नि । भी -
गिनत। पर-ना मिना नहै। माताम्य पाट में जा भिन्नभिन्न पान प्रयाग मिला, वनिम्न मानि: - प्रयमहप
जपानमाकमाग गाणगा।
मग ताण न गांग पढम एव: मगन ।। द्वितीयप -
मिबाण नमानसाग मन्चपावणामण।।
मगलाण च गाम बोय ह. मगल ।। तनीयनप
'मारिय नमाकाग मबावागामणा । मगलाण च मन्बंमि, सावं हवा मगल ॥'
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जिम-शासन के कुछ विचारणीय प्रमंग
पतुप
"माय मांगकाग, मधपावपणामणी । मगलाण च यम्वमि. पउलू हवा मगन ॥
'साहम नमोक्कागं, मवपावपणागणी ।
मगलाण च ममि. पंचवं हवा मगन ।' उक्त प्रमग में यह स्पष्ट होता है कि भगवनी जी के पाठ की प्रचलित मनमा मन्दर्भ में नहीं जोड़ा जा सकता ।
ग. सिवाय एक कारण और भी है और वह है -'नवकार मंत्र के उच्चारण के विधान का प्रमग । एक स्थान पर कहा गया है कि
'वणार्गाड नवपए, नवकारे अट्ठमपया नन्थ । मगमपयपयतुल्ला, मनावर अछमी दुपया ॥२२६।।
मप्रति भाव्यगाथा व्यान्यायन-वर्णा अमगाण अष्टषष्टि , नमस्कार पचपरमप्ठिमहामत्रम्प भवन्तीतिणप. । उक्न च 'पचपयाण पणती मवण चलाइवण नितीम । एक मां ममपट. फुटमातरमट्ठमट्टीए । गनाण मन मन य. नव अट्ठ य अ अट्ट नव पनि । :य पर अक्खममा. अमह पूट अडमी ॥
अभिग. भाग 6, पृ० १८३६ उन पाठ प्रामाणिक स्थला में उसन है और इनमें कहा गया है कि मत्र को पुर्णता - अक्षर प्रमाण मत्र के पढने पर होती है। अन. मत्र को ६८ अमग म पाना चाहिए । अर्थात् पूरा पाठ इम भाति ६८ अमरो का बोलना
चाहिए
गमा अरिहना ण. मोमिता गण मा आरियाण । ण मी व जमा या ण. णमोली एम व माह ण ॥ एमी 7 च न मी सका (या) रो. मध्य पा व प णाम जी। मग ला ण च म बेमि. पर महब हम गल ॥'
यदि उक्त पदों के म्पान में अधूगरूप-'णमा सब्ब माण' बोला जाना है. नो 'लोए ये दो अक्षर कम हो जाते है और यदि 'णमा बभीए लिबीए' गोला जाता है ना एक अक्षर कम हो जाना है। दोनों ही भांति मंत्र सा बुक्तिसगत नही बैठना बंता कि इष्ट है । अत:
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अनादि धूलमंत्रोऽवन् ।
निष्कर्ष निकलता है कि-अभि० राजेन्द्र कोष की पंक्तियां इस दिशा में स्पष्ट हैं
'जायग्यि हरिभदेणं ज नत्थाय मेदिट्ठे न सब्ब ममतीए मोहिऊणं लिहिजं ति अन्नेहि पिमिद्धमेण दिवायर बुबा रजस्ामेण देवगुत जमवण श्रमाममणमीम रविगुल नमिचदजिणदामगणि मावगमष्यमिरियमुहेहि जुनहाण मपहरेहि बहुमन्निर्यामिण नि | महा. ३० | अन्यत्र तु मप्र । वर्तमानाऽऽगम, तत्र मध्यं न कुत्राप्येव नवपदाष्ट-मादादि प्रमाणा नक्कारन ॥ दृश्यते । ततो भगवत्यादावेव पचपदान्युक्तानि 'नमो अरिहताण, नमो गिद्धाण, नमो आर्याग्याणं, नमो उवज्झायाण. नमो बभोए निवीए' इत्यादि ।
| अभि० रा० भाग : पृ० १६३० इसका अर्थ विचारने पर यही मिद्ध होता है कि सभी आचार्य हरिभद्र, सिद्धमेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षमेन देवगुप्त, जमवर्धन, क्षमाश्रमणगिप्य रविगुप्त, नेमिचन्द, जिनदामगणि आदि ६= अगे वाले पाठ की युक्तिसंगत मानते है और वही पागम के पाठ तथा अन्य नागमो के पाठ में [ पचपद व पंतीम अक्षर की मान्यता में भी | टीक बैठना है और मर की एकरूपता को भी सिद्ध करना है। जब वि. श्री भगवती जी का पाठ उक्त श्रेणी मे अनुकूल नहीं बैठना ।
भाषा और लिपि जो भी हो | दोनों ही परिवर्तनशील है | पर मत्रगटन और पात्रां की दृष्टि से मंत्र के युक्ति-मगत अनादित्व को सिद्ध करने वाला रूप- प्रथमरूप ही है. जी पंचपरमेष्ठी गर्भित रूप है। अभी निवीए' मूलमंत्र का अंग नहीं है । हो, यदि इन पद को मंत्र मानना इष्ट हो तो अन्य बहुत में मत्रों की भांति आठ अक्षगं वाला एक पृथक् मत्र स्वीकार किया जा सकता है।
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एक बात और, भगवनी जी मे | जैसा कि पहिले मत्र के द्वितीय रूप में बनलाया जा चुका है। मंत्र के अनिम पद में 'लोग' पद के न होने की बात इससे भी सिद्ध होती है कि वहा मत्र मे गभिन 'मव्य' पद के प्रयोजन को तां मिद्ध किया गया है, जो कि अन्य चार पदों की अपेक्षा विशेष है । पर लोए का प्रयोजन नही बतलाया गया। यदि वहा 'लोए' शब्द होना तो सूत्रकार उसका भी प्रयोजन बनलाते। क्योंकि 'लोए' भी 'मव्य' की भांति अन्य पदों से विशेष है । तथाहि
'यहाँ पर 'मब्बमाहणं' पाठ मे 'मव्व' शब्द का प्रयोग करने मे सामयिक विशेष, अप्रमत्तादिक, जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धिकल्पिक, यथा
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म चिारणीय प्रसंग निमादि कल्पिक, प्रत्येक बुद्ध, म्वयंबुद्ध, गुरुबोधिन प्रमुख गुणवन माधुओं को भी ग्रहण किये है। -विवाहपत्ति [भगवनी] पृ० २, अमो० ऋ०
हो, 'स्वचिन् नमो माग मश्वमाहणं इति पाठ:'-के मंदर्भ में यह उल्लेख अवश्य मिलता है कि- 'नाग' का ग्रहण, गरुड-गण आदि मात्र का ही ब्रहण न माना जाय, आँगन ममम्न माधत्री का प्रण किया जाय-हम भाव में किया गया है। मग 'पर्वानन्' का अर्थ भगवनी में अन्यत्र ग्थलो मे ही लिया मायगा भगवनी में नही।
एक ग्थान पर 'बी निधी' का अर्थ ऋपभदेव किया गया है। अनुमान हना है कि मा अयं किमी प्रयोजन नाम की पूर्ति के लिए किया गया होगा। अन्यथा, निगिना, लिपि ही है उमं ऋषभदेव के अर्थ में कंमें भी नहीं लिया गा माना है। लिपि' मूनि-मात्र है और उसे नमन करना मूर्तिपूजा का घातक गता है. शायद, दगी दांप के निवारण के लिए किन्ही में मा अर्ष किया गया हो अम्न, जो भी हो म्थन हम प्रकार है
यहाँ पर मूत्रकार ने अक्षर स्थापनाप लिपि को नमकार नही करने लिपि बनाने वान ऋषभदेव ग्वामी को नमस्कार किया है और भी वीर. निर्वाण पछि • वर्ष में पुम्नकामन ज्ञान हुआ, इममे लिपि को नमग्कार करना नहीं मभवता है।'
. विवाह गणनि [वही] पृ० ३ टिप्पण अमा० ऋ० उसन प्रमग में यह नो स्पष्ट है कि पटना डागम एवं आगम परम्पग में मभी जगह भगवती के अििग्कन | णमोकार मत्र की एकरूपता अक्षण्ण रही है-- उमप में नही भिन्नता नहीं है । अर्थात् आगम-परम्पग की दृष्टि से भगवनी का पाठभेद मेल नहीं खाना । मम्भव है--विद्वानों ने उम पर विचार किया हो या 'नमो बभीए-लिबीए पद मानने हुए और मूलमत्र में लोए' पद न मानने हा भी मूलमत्र की अनादि एकरूपता पर अपनी महमति प्रकट की हो।
ग्मरण रहे कि उक्त मभी प्रमग णमोकार मत्र के 'अनादिव' की दिशा में प्रग्नत किया गया है। म्बनत्रम्प में जन-आगमों में वर्णिन मभी मंत्रों का हम मम्मान करने है. चाहे वे (बीनग मार्ग मे) किमी गनि मे-किन्ही गन्दी और गठनों में बड क्यो न किये गये हों। बाह्मी लिपि अनादि नही है इस सम्बन्ध में निम्न प्रमग ही पर्याप्त है-- 'लेह नियोपिहाण. जिणेण भोएपहिपकरे ।
-गा. निव० ४,
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बमारि मनोज । 'लेखन मेबो नाम सूत्र नपुंमकना प्राकृतत्वाम्लिपि-विधानं तम्ब जिनेन भगवना ऋषभस्वामिना गाम्या रमिल करेग प्रतिमनाब नदादिन आरभ्य वाच्यते ॥'
-अभि० गति पृ० ११२६ लिपिः पुग्नकादो अक्षरविन्याम मा अप्टादशप्रकागपि श्रीमन्नाभयजिनेन स्वमुनाया नाही नामिकापारशिता, ननो राशीनाम भिधीयनं ।'
__ . . अभि. ग. गरम पृ. १२६४ 'अष्टादलिपि वाहण्या अपसव्येन पानिना।'
4. • T० व. २०६३ उक्न नथ्यो म पष्ट है कि ब्राह्मी लिपि का प्रादुर्भाव नीपंकर ऋषभदेव मे हा जो उन्होंने अपनी पुत्री पाली के माध्यम में ममार में किया फिर ऋषभदेव युग की आदि में हुए उन्हें भी अनादि नही माना जा सकता । एतावता यह टिप्पण भी मत्र के अनादिव की दिशा में निमन बैठना है कि. बाह्मी का अर्थ ऋपभदेव किया जाय । क्योकि मत्र के अनादिन्य में ऋषभ अर्थ का विधान भी (ऋषभ के मान्यि के कारण) वज्यं है। यदि मत्र अनादि है नो उममें ऋषभ (यक्ति) को नमस्कार नहीं, और यदि ऋषभ को नमस्कार है तो मंत्र अनादि नही। अत निष्कर्ष निकालना है कि मूनमत्र-गरमप्टी नमस्कागत्मक म्प है और वही अनादि है जमा कि बल्ग गम तथा अन्य मागनों में कहा गया है
णमो अग्निाण, णमो मिदाण णमा आर्याग्याण, णमो उपनायाण, णमा लोग मव्वामाहणं ।'
पाडागम मगलाचरणम् 'धवला' में पचय मष्ठिया का म्वरूप इस भानि वर्णन किया गया है .
(१) मरिहंत (अरहन)-- जिन्होंने नरक नियंच, कुमानुप और प्रेन इन पर्यायों में निवास करने में होने वाले ममम्न दुखां के मूल कारण मांट
और नदाधीन मानावग्ण, दर्णनावरण और अन्नगय चार कमंडपी गओ कर्मरूपी रज को नष्ट किया है वे अग्हिन होते है। देव अमुर और मनुष्यों के हाग सानिणय पूज्य होने में इन्हें महंन् भी कहा जाता है । और भी
'णिइट-मोह-तरुणी विन्धिण्णाणाण-मायतिष्णा। णिहय-णिय-विग्ध-बग्गा, बह-वाह-विणिग्गया अयला ॥२॥ दनिय-मयण-प्पयावा निकाल-विमाहि नीहि गयणहि । दिट्ठ-मयनमाग, मुदद-निजग मुणि-व्वदणी ॥२०॥
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जिन-मानविन निग्यन-निमूमधाग्यि, मोहंधामुर-कवध-विदकरा।
मिड-मयमय-या बहना दुग्णय-कयंता' ॥२५॥ (२) सिड-जो पूर्णन अपने म्बम्प में स्थित है, कृत्यकृत्य हैं, जिन्होंने अपने माध्य को मिल कर लिया है और जिनकमानावरणादि बाट कर्म नप्ट हो वक है, उन्हे मिड कहते है। (अगहनावस्था बनजानी की मकल-बगैरी अनम्या है और मिद अणगैरी आत्मामात्र निगकार होते है और लोकाग्र-- बभाग में विगजमान हान है) --
fणय विविहट्ट-कम्मा तिहवण-मिर-महग बिव-दुक्या। मह-मायर-मग्न गया णिग्जणा णिच्च अटगृणा' ॥२६॥
(३) आनायं जो दर्णन-जान-चाग्त्रि, नप और वीर्य इन पाच आचार्ग को ग्वय आचरण करने है और दूमा माधुओ मे आचरण कगनं है, उन्हें आचार्य कहते है।
__ 'मगह-णिग्गह-कमलो मुनय-विमाग्ओ महिय-कित्ती ।
मारण-वारण-गाण-किरियुग्जुना हु आग्यिो ॥३१॥
(४) उपाध्याय जो माधु चौदह पूर्वरूपी ममुद्र में प्रवेश कर अर्थात पग्मागम का अभ्याम करके मांक्षमाग में स्थित है नथा मोक्ष मार्ग के इच्छक गोलगे मनियों को उपदेण देते है, उन मुनीश्वगे को उपाध्याय कहते है'चाइम-ब-महाहिगम्म मिव-
पिओ मिवन्धीण । मीलधगण वता हो. मुणी मी उवमायो ।।३२॥
सर्वसाप. जो अनन्त जानादि प शुद्ध आत्मा के म्वरूप की माधना करने है जो पांच महायता की धारण करने है, नीन गुप्नियों में मुरक्षित है. अठार हजार मील के भेदों को धारण करते है और चौगमी नाख उनर गृणां का पालन करने के माधु परमप्ठी होते है।
मीह-गय-बमा-मिय-सम-माग्दमूकबहि-माग्द-मणी।। खिदि-उगवर-मग्मिा परम-पय-विमग्गया माह ॥3॥
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भगवान पार्श्व के पंचमहाव्रत
दिगम्बर मान्यतानुमः र, जैन आगमों की वर्तमान श्रवला. युग के आदिनेता तीर्थकर ऋषभदेव मे अविछिन्न रूप में जुड़ी हुई है। ऋषभदेव द्वारा प्रदर्शित मार्ग को सभी तीर्थकरो ने ममान रूप में प्रवर्तित किया है। इसके मुख्य कारण ये भी हैं कि -
१ - मभी तीर्थकर मम-सर्वज्ञ थे अर्थात् सत्रका ज्ञान पूर्ण मदृणना को लिए था । २ - मभी को देणना निरक्षगे थी ।
३ - मभी की सर्वज्ञावस्था की प्रवृति मन के विकल्पों मे रहिन थी । उमम हीनाधिक वाचन को स्थान | विकल्पों के अभाव में | नहीं था ।
1
तीर्थकरों ने साधुओं के मूलगुण २८, आचायों के ३६ और श्रावकों के व्रत १२ ही बतलाए। इन सबकी मख्या में और सभी के लक्षणों में कोई भ नही किया । डमी प्रकार धर्म १० पाप ५ और मज्ञा ८ की मख्या और लक्षणां में भी उन्होंने कोई भेद नही किया । ऐसी स्थिति में यह कहना कि "भगवान पार्श्वनाथ ने चातुर्याम का उपदेश दिया', 'बीच के बाईम तीर्थकरों के समय मे भी चार ही महाव्रत थे' – आदि, उपयुक्त नहीं जंचना, और ऐसी घोषणाओं मे कि 'तत्कालीन लोगो की बुद्धि तीव्र या मद थी या वे सरल और कुटिलता के भेद को लिए हुए थे' आदि कारण बनाना भी उचित प्रतीत नही होना ।
जहां तक मैं समझता हू 'चातुर्याम' की मान्यता की स्पष्ट घोषणा श्वेताम्बर आगमों की हैं। इसी के अनुरूप सयम के प्रसग में दिगम्बर्ग में भी १. महावीर देह में भी विदेह थे उन्ही की निरक्षरी वाणी की अनुग़ज वातावरण में है ।' ममणमुत, भूमिका पृ० १६ 'गणधर - जां अहं नोपदिष्ट ज्ञान को 'शब्दबद्ध' करते हैं ।
वही, पर० शब्दकोष पृ० २६८ । ममणमुन- -'यह एक सर्व सम्मन प्रातिनिधिक ग्रन्थ है । बही, भूमिका २. 'चाउरजामी य जो धम्मो, जो इमो पचमितिाए ।
- (उत्तरा० २३/१२)
-
देमिओ वमाणेण पामेण य महामुनी ॥
पुम्मिा उज्युजडाउ बक्कजहाय पच्छिमा ।
मन्त्रिमा उज्जुपन्नाउ तेण धम्मे दुहा कए || --- (उत्तराध्ययन, २३/२६ )
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जिन-मानविपरीव प्रसन एक उल्लेन पाया जाना है। दिगम्बर्ग की ओर मे चानुर्याम की कई बार कई विद्वानों ने पुष्टि की है। अंगे-- 1-पार्वनाब मे पातुर्याम का उपदेश दिया था।' २- 'वानुम प धर्म के मम्थापक पार्श्वनाथ थे यह एक ऐतिहामिक तव्य है।' ३ 'भगवान पार्श्वनाथ के दाग मम्थापित चातुर्याम धर्म के आधार पर ही भगवान महावीर ने पत्र महाबनण निगंथ मार्ग की "म्थापना की।' आदि
जहा नक मञ म्मग्ण है--इन्दौर में प्रकाशित 'नीर्षकर-मामिक' के 'गजेन्द्रग्-िविणेपाक में भी दो विद्वानों के लेना में मी ही बातें हगई गई पी। उस समय मेरे ममक्ष अक न होने में उबग्ण नही मिल पा रहा है। यदि f० विद्वानी की चातुर्याम मवधी बात को माना जाय-जमा कि होना भी चाहिए तो निम्न प्रश्नों पर विचार कर लेना आवश्यक है-दि. मान्यता में चातुर्याम म्वीकार करने पर माधुओ के २८ भूनगुणों को मन्या कंमे पूरी होगी? क्यों कि ब्रह्मचर्य अपरिग्रह में गभिन होने में
महावनों में एक कम करना पड़ेगा। २- क्या यही माधुओं के मूलगुण २७ होने का उम्मेन है? . आचायों के मूलगणों में स्थान पर ३५की ही मक्या रह जायगी
(एफ. महावन नो कम हो ही जायगा) पर ब्रह्मचर्य धर्म का अन्तर्भाव (महावना की भानि) आकिंचन्य में करना अनिवार्य हो जायगा। हम
आपान का निराकरण केमे होगा? ४ क्या कही आचार्य के मूलगुण ३५ होने का उल्लेख है। ५ - क्या पातुर्याम और पचमहावन की विभिन्न मान्यताओं में नीर्षकगे की
दशना को विशेष ध्वनि कप या अनक्षरी मानने में बाधा उपम्बिन न
होगी। ६-या विभिन्न स्वभाव और विभिन्न बुद्धि के लोगों की अपेक्षा मे हुई ध्वनि
में मन का उपयोग न होगा? - क्या कही उन पापो की सख्या चार मानी गई है जिनके परिहार सप
चातुर्याम होते है । यदि बाईम नीर्षकग ने चार पाप बनलाए हो नो १. 'बीम निषयग मामायिय सजम उबदिसति ।
दुषठावणिय पुण भयव उमहो व बीरोय ॥' -(मूला० ५३) पुरिमा य पन्छिमा विहु कम्पाकप्प न जाणति ॥' -मूना० ॥५५) २. 'युक्तिमढ़चन यम्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।'
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उल्लेन ढूंढना चाहिए। शायद कही कुगीन को परिबह में समिनिन कर
दिया हो? ८-मंत्रायें चार के म्यान में कही नीन बनाई है क्या ? पन मैथुन परिणा
में अन्तत हो जाएगा। E-महावीर ने दीक्षा के ममय चानर्याम धारण किए या गमावन ? यदि
पचमहावन धारण किए नोवे नोकगे की परमग में केमे मान। जाएगे? पदि चातुर्याम मदीन हा नो आदि नोकर की धर्म
परम्पग में कैमे माने जायेंगे। १०- क्या कही १० धर्मों के स्थान पर. ब्रह्मचर्य को प्रक्रियाय में गभित किया
गया है और धर्मों की मम्या । बतलाई गई। ११--'स्त्री को परिग्रह में गिनाया गया है या नही? यदि गिनाया गया है. मी
मन्या के परिमाण की दृष्टि में अथवा भांग की दृष्टि में
दमी प्रकार के अन्य भी बहन में प्रश्न उपग्थिन हो गायेंगे। ऐसे प्रश्नों के निगकरण के अभाव में ममग्न आगम ही गावरण (महाप)ह जायंगे। अन दि० विहाना में मंग निवेदन है कि वे विचार करें। भगति में नीमा है कि मभी नीर्थकग के उपदंण ममान रहे है। कही किचिन भी अन्ना नहीं आया है। जो भी अन्ना दृष्टिगोचर होता है, वह मब आचार्यो की देन है जा उन्होंने ममय-समय पर लोगों की दृष्टि में किया है।
यदि हम ध्वनाम्बर परपगओं के उल्लयों पर विचार करे ना हमे बहा में उल्लेख भी मिलन है जिनमें यह मिड होना है कि पावं में पूर्व भी पचमहावना का चलन रहना रहा है। प्राचार्य हेमचन्द जी पावनाथ नाग दिा उपदेश को जिम भानि बतलाने है उनमें ब्रह्मचर्य को अपग्रह में गभिन नही माना जा सकता । अर्थात् पाश्वनाथ दाग ब्रह्मवर्य और अपरिग्रह को एक किया गया हो, गंमा सिद्ध नहीं पाता । यथा
द्विधा मर्व वर्गत दवनभदन । संपमावि विधी, अनगागणा म नादिम ॥'
(त्रि. ग० पु. १० पर्व , मर्ग ३) यह पावनाप का उपदेण है। इसमें मुनिधर्म, संबम बादिकम्प में दश प्रकार का बनलाया है। ब्रह्मचर्य का अन्तर्भाव अपरिग्रह में नहीं किया गया। १. क्षेत्र बस्नु धन धान्य, द्विपद च चतुणादम् ।
बालाना गोहिप मणिमुकादीना चतनाचतनानाम् ।'
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यदि नीकर को दोनों में से एक ही ग्बना इप्ट होता है तो वे धर्मों मे पा के म्यान पर नो का ही विधान करनं । आगमी में जो सयम कहे है वे है -
'मनी य महप बग्गव, मुत्ती नब मजमे य बोधम्वे ।
मन्ब माय आकिषण र बम व जड धम्मो ।' (0) पार्श्व में पूर्व नीर्षकर नेमिनाथ ने परदन को जो उपदण दिया है उममे
भी पर महावना की पुष्टि होती है। उन्होंने 'मावच योगविनि' को चाग्त्रि कहा । और अययो (पापी) को मण्या मदा पाच रही है अन पाच पापा की पृथक्-बिर्गन पचमहावना को ही मिड कर मकनी है। ग्लांक हम प्रकार है
सापड यागविनिश्चारित्र मुक्तिकारणम् । मन्मिना यतीन्द्राणा देणन म्यादगाग्णिाम् ॥
-(त्रि. म. पु० च० पर्व - सर्ग) (१) दीक्षा ग्रहण करने ममय नीर्षकर पाचो पापा के मर्वथा त्याग की घोषणा
कग्नं । पग्पिह गभिन अब्रह्म जम चार के त्याग की घोषणा नही करने और न कही पापा की चार मन्या का विधान ही किया गया है। नीर्षकगे की पापणा है
'मब्य में अकरणिज्ज पाव कम्म ।' (6) मुमनिनाप के जीव ने पुरुषमिह गजाप पूर्वपर्याय में विनयनदन आचार्य
मे पाच महावना वा उपदेण मुना- 'मीलमडयो उण धम्मो परमहव्वय परिपानण ननि मद्दव-अग्जव मनोमचिनथिरीकरण..।'
...चउप्पण्ण महापुरुष चग्यि पृ०७३ (५) नौ नीकर मृविधिनाय के उपदेण में मठ शलाका पुरुष चरित्र में पापी
की मल्या ५ है अन फलिन होता है कि पापपरिहार कप महावन भी ५ही
"frमाननम्नेयाजामहारम्भपरिपहा ।'-१२०,
-त्रि० प्र० पु० च० पर्व । मर्ग ७ पृ. ६३ (६) तीर्थकर अरिष्टनेमि के समय में ब्रह्मचर्य की गणना म्बनत्र कम से होती
रही है-अपरिग्रह में नही. ऐसे भी प्रमाण मोजूद है। उस समय भी पूर्ण ब्रह्मचर्य की बात (मुनि अवस्था मे) पृषक रूप से निर्दिष्ट होती रही है। विवाह के प्रमग में (जब नेमिनाप गजुल मे विवाह नहीं करना चाहले नब रायपगने की) जन्य गनिया नेमिनाप से कहती है
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भगवान के पंचमहायत 'समये प्रनिपोषा ग्यापि ययाचि ।। माहम्ध्ये नोचित गए, मत्रोद्गार इवानुगो ।
-(वि . पु. १० पर्व ८1१०५ हेमपन्नाचार्य (७) नीकर नेमिनाय को एक भविष्यवाणी में भी ब्रह्मवयं को बाल मष्ट ।
और अपरिग्रह में उसे नहीं जोला गया है। मग भी ज्ञान होता है कि ब्रह्मचर्य पृषक कप मे स्वतन्त्र कप में माना जाता रहा है .
'पुग नमिजिनेनोक्न नमिरहन् भविष्यनि । कुमार एव मन्नेव. नार्थों गग्र्याश्रयाय नत् ॥३५॥ प्रतीक्षमाण समय जन्मनो एवार्यवम् ।
अदाम्यत परिषज्या मान्यथा कृष्ण चिन्मय ॥६॥ उक्त आकाशवाणी है. जो अगिटनेमि मबध में नोयंकर नमिनाथ नाग कभी (पहिल) की गई भविष्यवाणी को इंगित करनी है। मग मिट है कि पर्व की महिमा नीकर के समय में भी पृथक मप में गाई जाती रही है, अपरिग्रह गभित प में नहीं। (८) भगवान पार्श्वनाथ में पहिले के तीर्थकर आंगटमि में थाव पुत्र को दीक्षा
देकर अपना शिप्य बनाया और उन्हें १०. शिष्याग्वार वाला करके बिहार की आज्ञा दी। थावांपुत्र आन शिव के गा बिहार करन-करम मोगन्धिका नगरी में पहुँचे । उग नगरी में मुनर्णन नामक मंठ रहता था। उम मंठ ने पहिले कभी किमी 'णुक' नामक मन्यामी में मान्यमन का उपदंश मुना था और यह मनियमन का श्रवानी हो गया था। जब वर उनके पास गया। थाव_पुत्र को देखकर मुणन मंठ ने पूछा कि आपका धर्म कया है तब थावापुत्र ने धमापदण में "पचमहावन प धर्म का उपदेन किया। यदि बीच के नीर्षकगं के ममय में चानुम ही धनी गाईमवे नीयंकर के मामान् मिप्य ने पवमहावना को धर्म क्या कहा ? चान्यांम मप में ही उनका व्यख्यान करने । इमका निष्कर्ष ना यही निकलना है कि परमहावतों का पूर्व मभी नीयंकग के समय में एक जमा चलन ही रहा है। प्रमग का मूल इम भानि
'नर्मण पावन्नापुन अणगारं अगहनी अग्निमिम्ब नहानवाण अंगण अनिए मामाइयपाइयार बोहमपुवाइ अहिज्यान बहहिं जाव पात्य विहरति ॥२६॥
'तसं बरहा गरिनेमी पावसापुत्तल अगनारस त इन्चाइय
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जिन-सासन के कुछ विचारणीय प्रसंग मणगार महम्म गोगनाए दर्यान ॥३०॥ -[माताधमंकथा, मेनग गषि
अध्ययन ५. पृ० ४८४ श्री अमोलक ऋपि, मिकद्राबाद प्रकाशन] मुन का पावन्चापुन में प्रश्नांना--
'माण किषयं धम्म पणन ? ननंग थावच्चागुन मुदंमणण एव पुन ममाणे मुदगण वयामी -- मुद्रमणा विणयमूल धम्म पण्णते । मंत्रिय विणए दुबिहे पणनं न नहा- आगार विणाय अणगार विणाय नत्थण से आगार विणा मेवय पत्र अणुबयार मत मिक्खायाड, एक्कारस उवामग पडिमाआत्तो । नयण मे अणगार विणा मण पच महब्बयाई त जहा-मयओ पाणाडवायाओ बंग्मण, मब्बा मुगावायओ बग्मण, मव्याओ महणाओ बेग्मण, गब्बाओ दिन्नाहाणाओ वग्मण, मन्याओ मेहुणाओ बग्मण, मवाओं परिग्गहाओ बग्मण.......||6||
-(वही पृ० २५०) (8) पण अभिधान गजेन्द्रकोप में जहाँ पग्ग्रिही (बाय परिग्रहां) का सकेत
है वहां उनमें हिपद' का उल्लंख है-- म्पाट सप में स्त्री का उल्लेख नहीं है यथा - 'धन धान्य क्षेत्र वास्तु सप्य मुवर्ण कुप्य 'द्विपदः चतुष्पदाश्च ।' नथापि यदि यथावाचन स्त्री को द्विपद रूप पग्नित माना जाता है तो पर मात्र गश्या-रिमाण की दृष्टि में ही माना जा गकना है। मिथुन माधी भाग या मंग सम्बन्धित नहीं माना जा सकता। यर परिमाण की यान पग्मिरण परिमाण नामक श्रावक बन के अनीनागं का वर्णन करने बाल मृग म भी पूर्ण स्पष्ट हो जाती है। उम मूत्र में आचार्य ने 'प्रमाणानिकम' पर देकर 'मग्रह मयांदा" को ही गित किया है अभिधान गंज-काल में एक स्थान पर मा भी लिखा है. 'णाणार्माणकणगग्यण महारहारमल 'मानदार" परिजन दासीदाम ......।'
उन्न पद में आए 'मगुनदार' शब्द का विश्लेषण करने हुए कॉपकार 'लमय है. गामाग मुतगृतवनमाणि ।' इगम भी "परिमाण" को ही बल 'मनमा है। गंग मिनी पाद्वानी या दाग का परिमाण रक्या नो वह उसके परिमाण में बने के लिए 'सुनयुक्त दानी' बी नहीं रख सकता। क्योकि यदि बह वंगा नो उमको एक मख्याग्मिाण में दोप आ जायगा। यन. दामी
माव रहने के कारण उसका पुत्र भी दास कार्य में महायक सिद्ध होगा और बनी बन-भग का कारण होगा।
इन प्रसगो से स्पष्ट है कि जिस भाव में ब्रह्मचर्य है वह भाव अपरिग्रह से बस्ता है अत: एक में दूसरे का समावेश नही हो सकता। हो, यदि नीचतान
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भगवान पार के पंचमहावत
करके समावेश माना हो जाय तो नोगे जादि पात्र भी परिग्रह में गति किए जा सकते है अथवा एक अहिंसा महाद्रत मे भी सभी मम्मिलित हो सकते है। पर, ऐसा किया नही गया । मभी महात्रन आदिनाथ युग में महाबीर युग तक चलते रहे हैं। अतः चातुर्याम धर्म पार्श्व का है ऐगा कथन निर्मून बैठता है । चउप्पण्ण महापुग्गि मे पाचवे नीकर गुमतिनाथ के पूर्वभव गुरिंग मिह राजा न विनयनदन आचार्य से
का वर्णन करते हुए लिखा है धर्मश्रवण किया -
'मोलमइओ उणधम्मोपाल
०७८ त्रिपष्ठिशलाका पुरुष चरित्र पत्रं मर्ग पृष्ठ ६४ का एक
उद्धरण है-
'महावनधग श्रीग अंशमात्रांपजीविन | सामायिकथा धर्मोपदेशका गुम्बो मना ॥६६६ ॥ सर्वाभिलाषिण गर्वभोजिन गग्रहः । अब्रह्मचारिणां मिथ्योपदेश | गुरुबां न तु ॥ ८७॥ इयमे गुरु ( मुनि) के लक्षण का निवेश और यह निर्देशक अजितनाथ के समय का है । उसमे विपुला मामा गणिनी शुद्रभद्र की पन्नी सुलक्षणा कां गुरु की पहिचान बनाने की वि गुरु की सामायिक चारित्री, महावनी, भिक्षोपजीवी जर धर्मोपदेशक होना चाहिए। जो टके विपरीत सर्वाभिन्नापी, सर्व भांजी, सर्पारग्री, अब्रह्मचारी व मिथ्योपदेशकाना है वे गुरु नही है ।
इसमें ध्वनित होता है कि यदि बीच के २: मीयंक के समय मे 'चातुर्याम' ही होते तो उन्त श्लोक में परिग्रह और अब दोनों का पृथक्-पृ निर्दोश न होना अपितु मात्र 'मर्याग्रहा' वा ही गमावण होता ।
'अभिधान गजेन्द्र' मे एक उद्धरण है 'न जहा सध्या पाणावागाओ वेरमण एवं मुमात्रायाओ. आदिन्नादाणाओं, मत्र्याओं, महिलावाणाओ बेमणं...।" - आनि ग० भाग ३ १० ११६८ ठाणा. ८ सूत्र १३६ ) टीका - (बहिडादाणा ओति) बहिडा मंजुनं परिग्रह विशेष आदान ज परिग्रहः – नयांद्वन्द्वं कन्वम् इह च मैथुन परियहेज्नभंवति न परिगृहीता योषित् भुज्यत इति ।'
बही टीकाश; स्थानाग पृ० २०२, भगवती सूत्र शतक ? उद्दे० ६१० २०६ उक्त उद्धरण में चातुर्याय में से अन्तिम याम को 'बहिडादार्णावरमण'
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for-am के विचारणीय प्रसंग नाम से कहा गया है और टोका मे बहिया का अर्थ मैथुन और आदान का अर्थ पग्ग्रिह किया गया है। दोनों में इन ममान करके उन्हें एक बना दिया गया है।
विचारणीय यह है कि इनममाम में जब समस्त दोनो पद उपस्थित हो गव काई पर अपनं मुख्यार्थ को मना को अपने में पृथक् छोड़ देना है क्या ? जर्वाक एक संव-गन समान में (जहा एक पद का अस्तित्व मया लुप्त हो जाता है) भी सुप्त पद का अर्थ पृथक कप स्पष्ट रहता है। यथा-माता च पिता व पिनगे। इसमें मातृपद मर्वया लुप्त है पर उसका अर्थ पृथक् रूप में कदापि सुन नही माना गया- -वह पृथक् ध्वनित होता है। फिर 'बहिबादाण' में नो ममाम होने पर दोनों ही पद मोजद है एनावना दोनों का ही अस्तित्व मिड होना है।
एक नथ्य यह भी ध्यान देने योग्य है कि-यदि 'आदान' का अर्थ परिपत है तो उसकी पूनि नी 'मादिन्नादाणाओं में गृहीत 'आदान' शब्द मे हो जानी है ऐम में 'मिश विरमण' ही पर्याप्त था या अदिन्नादाणाओ के म्यान में 'आदिनाविग्मण' ही पर्याप्त था। उन स्थिति में ना यही फालन होता है कि व्याकरण के नियमानमार आदान पद के दानो प्रयोगों में, एक प्रयोग व्यर्थ है और व्ययं मकर वह जापन कग रहा है कि (व्याकरण में शब्द व्ययं में प्रयुन नहीं होतं) पाची यामी का ही अस्तित्व रहा है -बहावयं और अपरिग्रहदांनी ही म्वनन्त्र अग्नित्व लिए हए है।
मी टीका में एक मष्टीकरण यह भी दिया गया है कि अग्गिलीता गोपिन् भांगी नहीं जानी- मथुन परिगृहीता में ही शक्य है इमलिए बहिया के माष आदान - (पग्गृिहीत) का ममावश है। लेकिन यह विषय भी आगम बाप है यन उमाम्बानि बामी ने जहां ब्रह्मचर्य के दांपा को गिनाया है वहा म्पष्ट लिखा है, 'परिगहीनारिगृहोतागमन' अर्थात् दाना (पग्गिहीना और अग्निहोत्रा) ही मम्बन्ध में उनकी स्पष्ट घोपणा है कि दोनों ही दोप के भागी होग- - यदि अपरिगृहीना में दांप को मभावना ही न होती तो वे उमका ग्रहण न करन।
ऐमा प्रतीत होता है कि 'अग्गृिहीता में मथुन शक्य नहीं यह भ्रम ही 'गपर्व-धाम' को गौण या गुप्त करने में कारण रहा है। यन-कि मुनि सर्वथा स्त्री रहित होता है. उनके पग्गृिहीता मानी ही नहीं गई तो वह समाव से (परिगृहीता रहिन होने से) ब्रह्मचारी ही सिड हुबा-अत: उसके लिए इस बाम की गावापकता प्रतित नहीं की जाती रही बार
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भगवान पाके पंचमहापत चार-याम प्रसिद्ध कर दिए गए। और श्रावक के लिए (उमके गृहस्थ .. परिगृहीता सहिन होने के कारण) इस नियम का विधान जारी रखा गया ताकि वह इसमें सावधान रहता हुआ सयम का (यथाशक्ति) पालन कर सके । इसीलिए दो प्रकार के भेद माने गए-- याम चार और अणुवन पांच । अन्यथा दोनों ही ४-४ या ५-५ होने चाहिए थे।
एक प्रश्न यह भी महत्व का है कि_ 'पुरिमा उजुजड्डाओ, वकणहार पच्छिमा ।
ममिमा उजुपण्णाउ नेण धम्मे दुहा का ॥' आदि की स्थिति यामी पर ही क्यों मानी जाय ' क्यो न अणुवती की भी चार ही माना जाय । क्या उक्त यिनि का प्रभाव मुनियों पर ही परा' या उन दिनो मभी थावक ऋजु-जड थे और मभी मुनि ऋजु-प्रश' मा मो मर्वया अमम्भव है कि ज्ञानावग्णकर्म का अयोपशम मब मुनियों का एक-मा हो और सब थावको का एक-मा? इमर्म तो कर्म के उदय, उपणम और क्षयोपशम आदि का सिद्धान्त हो खटाई में पड जायगा। फिर एक तथ्य यह भी है
एक धाग में यामो की मन्या नीन भी मिलती है। यथा'जामा, तिण्णि उदाहया, जमु दम आग्यिा गबुज्नमाणा गट्टिया।'
. आवागग ८11 भापा- 'भगवन्न ने महावत के मुख्य नीन भेद कहे-हिमा मत्य और निर्ममन्व । क्योंकि ये नोना ममत्व-भाव में होते है। इसमें आयपुरुप ममन के मावधान होते हैं । टिप्पण-चांगे, मधुन व परिग्रह ये तीनों निर्ममत्व में अजाते है।
-वही, अमोलक ऋषिजी बहुन में व्याख्याता जो याम का अर्थ अवस्था करने है उन्हें उक्त प्रमग पर थी शीलाकाचार्य की टीका देखनी चाहिए । नयाहि
'यामा' धन विणेपाः त्रय उदाहना, नवषाप्राणानिपातो मृपाबाद परिग्रहाचेनि ; अदनादानमंधुनयो.परिग्रह एवान्नर्भावान् वय ग्रहणम्।'
इम प्रश्न पर भी विचार करना होगा कि ये नीन याम किन नोर्थकग के बनलाए और किनकं ममय में प्रचलित थे। हम ऊपर के प्रमग म स्पष्ट है कि याम सदा पांच ही रहे-पर लोगों के कपन में (न्यूनाधिक की अपेक्षा में) संख्या भेद रहा । सामान्यतः याम एक भी हो सकता है बीर विमेषतः २ से ५ तक हो सकते हैं।
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जिन-कान के कुछ विचारणीय प्रसंग
आवश्यक सूत्र में कथन आना है कि बाईम तीयंकर संयम का उपवेश
देते हैं
'वाबीम नित्ययरा सामाध्य मजम उवहसंति ।' यही कथन आचार्य हरिभद्रनियुक्ति मे (गाथा १२४६ ) मिलता है। दीक्षा के प्रमग में सभी जीव इम मामायिक चारित्र को धारण करते रहे है और सामायिक सावद्य योग के परियाग मे होता है - 'मामाध्य नाम, मावज्जजोगपरिवज्जणं । ' - इस प्रकार सभी जीव पांचों पापों का त्याग करते हैं या अब्रह्ममिश्रितपरिग्रह रूप बार पापो का ? यह भी एक प्रश्न खडा रहता है ।
अभिधान राजेन्द्र कोप मे एक उद्धरण है कि'मावद्य कर्ममुक्तम्य, दुर्ष्यानरहितस्य च । ममभावां मुहूनं तत् व्रत सामायिकाह्वयम् ॥
- पृ० १०३ (भाग मातवां) धमी मे दुर्ष्यान का स्पष्टीकरण करते हुए कोषकार ने लिखा है कि'दुर्ष्यान - आनंद्ररूप तेन रहिनस्य प्राणिनः । इममें प्रश्न होना है कि ध्यान तो ५ है - हिमानंदी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, अब्रह्मानंदी और परिग्रहानदी । क्या माधु (दीक्षा के ममय) चार दुर्ष्यानों को छोड़ता है या उसकी दृष्टि मे पाचां ही दुर्ध्यान होते है ? 'चातुर्याम' के हिमाब में तो दुर्ष्यान भी बार ही होगे- जैसा कि कही कथन नही है ।
श्री तत्वार्थ राजवातिक मे प्रथम अध्याय के मानवं सूत्र की व्याख्या मे आया "चतुर्याम भेदात्" पद भी विचारणीय है कि इसका समावेश कब और कैसे हुआ । हो मकता है बाद के विद्वानो ने (चातुर्याम धर्म पार्श्वनाथ का है ऐमी धारणा मे) मूल पद मशोधन की चेष्टा की हो अन्यथा, प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिलिपियां मे तो ऐमा मिद्ध नही होता । व्यावर, श्रवणबेलगोला और मूडविडी की ताडपत्रीय प्रतियां मे 'चतुर्यमभेदात्' के स्थान मे 'चतुर्यति भेदात् पाठ है । अब आती है केशी-गोनम सबाद की बात । सो, यह विचारणीय है कि वे केशी पार्श्व परपरा के वे ही केशी है जिन्होंने प्रदेशी राजा को संबोध दिया था या अन्य कोई केशी है ? वे केशी बार ज्ञान के धारक थे और पार्श्व की शिष्य परम्परा के पट्धर आचार्य थे। उन्होंने गौतम से प्रश्न किया हो यह बात जंगी नही । यतः सवाद के ( कथित) समय तक गौतम और केशी दोनों समान ज्ञान धारक ही सिद्ध हो सकते हैं।
केशी के ज्ञान के सम्बन्ध मे रायपसेणी मे लिखा है- 'इन्बेए षं पदेशी अहं तब "चउम्बिहेण नाणेण" इमेवारूवं अम्मत्वियं जाव समुप्यलं जानामि । " भगवती सूत्र से भी उक्त कथन की पुष्टि होती हैं ।
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पाके पंचमहाय
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इम सम्बन्ध में पाठको के विचारार्थ अधिक कुछ न लिखकर यहा एक उद्धरण मात्र दिया जाना ही उपयुक्त है
'भगवान् पार्श्वनाथ के चौथे पट्वर आचार्य केशी भ्रमण हुए जो बड़े ही प्रतिभाजाली, बालब्रह्मचारी, चौदह पूर्वधारी और मति भुत एव अवधिज्ञान के धारक थे । पार्श्व सवत् १६६ से २५० तक आपका कार्यकाल बताया गया है । आपने ही अपने उपदेश से श्वेताम्बिका के महाराज 'प्रदेशी' को घोर नास्तिक में परम आस्तिक बनाया आचार्य कुशिकुमार पार्श्वनिर्वाण सवत् ११६ मे २५० तक अर्थात् ८४ वर्ष तक आचार्य पद पर रहे और अन्त मे ... मुक्त हुए।' इम प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ के चार पट्टधर भगवान् पार्श्वनाथ के निर्वाण बाद के २५० वर्षों मे मुक्त हुए । इस गम्बन्ध मे वाग्नविक स्थिति यह है कि प्रदेशी राजा को प्रतिबोध देने वाले केशी और गोनम गणधर के साथ मवाद करने वाले केशीकुमार श्रमण एक न होकर अलग-अलग समय मे दो केशि भ्रमण हुए है ।'
'आचार्य केशी जो कि भगवान पार्श्वनाथ के चौथे पट्टधर और प्रदेशी के प्रतिबोधक माने गए है उनका काल 'उपकणगच्छ पट्टावली' के अनुमार पार्श्वनिर्वाण सवत् १६६ मे २५० तक का है। यह काल भगवान महावीर की छद्मन्यावस्था तक का ही हो सकता है। इसके विपरीत श्रावस्ती नगरी मे दूसरे केशीकुमार श्रमण और गौतम गणधर का मम्मिलन भगवान महावीर के केवणीचर्या के १५ वर्ष बीत जाने के पश्चात् होता है। इस प्रकार प्रथम केशी श्रमण का काल महावीर के उद्यम्थकाल तक का ठहरना है।'
'इसके अतिरिक्त गयपमेणी सूत्र मे प्रवेशी प्रतिबोधकः केशिभ्रमण को "चार ज्ञान का धारक” बनाया गया है। केणि मे स्वयं कहा है- 'मैं मनि श्रुन अवधि और मन:पर्ययज्ञान मे सम्पन्न है।' - राज प्र० १६०-१६५; जैन
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माहि० इति० भा० २ पृ० ५७-५८ । तथा जिन केशि श्रमण का गौतम गणधर के माथ श्रावस्ती में मवाद हुआ, उनको उत्तराध्ययन सूत्र मे तीन ज्ञान का धारक बताया गया है [केशीकुमार समणे, विज्जाचरणपारगे ओहिनाणमु उत्तरा, अ० २३ ] ।
ऐसी दशा में प्रवेशी प्रतिबोधक चार ज्ञानधारक केणी श्रमण जी महाबीर के उग्रन्थ काल मे ही हो सकते है, उनका महावीर के केवलीचर्या के १५ वर्ष बाद तीन ज्ञान के धारक रूप मे गौतम के माथ मिलना किसी तरह युक्तिसंगत और संभव प्रतीत नही होता ।'
- जैनधर्म का मौलिक इतिहास आ० हम्नीमल जी महाराज । पृ० ३२८-३१ ।
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विन-शासन के विचारणीय प्रसंग अजान मनु ने बुद्ध को बनलाया कि वह स्वयं निगठनाथपुत (महावीर) में मिले और महावीर ने उनमें कहा कि-निर्गव चातुर्याम मवर संवृत' होता है । अर्थात् वह (१) जन के व्यवहार का वारण करना है, (२) सभी पापों का वारण करता है. (३) मभी पापा का वारण करने से धुनपाप होता है, (४) मभी पापो का वारण करने में लगा रहता है। अन वस्तुम्बिनि यह भी हो मकनी है कि चातुर्यामसवर के स्थान में लोगो ने 'सवर' शब्द छोड़ दिया हो
और कालान्तर में 'चातुर्याम' से अहिंमा आदि को जोड दिया हो। बन्यवा 'बानुर्यामसवर' के स्थान पर 'चनु मवर' ही पर्याप्त था। 'याम' का कोई प्रयोजन ही नहीं दिखाई देना। अन फलिन होता है कि ऊपर कहे गए 'चातुर्याममवर' के अतिरिक्त अन्य कोई चानुम नहीं थे।
बोड प्रन्यों में अनेक प्रमगों में चार की मख्या उपलब्ध होती है। कई मेनो कथित-प्रमिड किए गए] चार यामो में पूरी-पूरी ममता भी दृष्टिगोचर होती है। जैसे 'चार कर्मक्लण' 'चार पागजिक' और चार आराम पमन्दी इत्यादि । (१) चार कर्मलेश - इनका वर्णन 'दीघनिकाय' के मिलोगवाद सुन ३१ मे
किया गया है। वहाँ चार्ग के नाम इस प्रकार गिनाए गए है—१. प्राणि
माग्ना, २ अदनादान, : मूठ बोलना, 6. काम । (४) पार पाराविक इनका वर्णन 'विनयपिटक' में इस प्रकार है-१. हत्या,
२. चोगे, : दिव्यक्ति (अविवमान) का दावा, 6. मैथुन । (३) चार माराम पसन्दी -इनका वर्णन 'दीर्घनिकाय पामादि सुत्त में है-०
दुर कहते है कि -१. कोई मूर्य, जीवों का वध करके आनन्दित होता है, २. कोई मूठ बोलकर आनन्दित होता है, ३. कोई चोरी करके आनन्दित होता है, 6. कोई पाच भोगों से सेवित होकर आनन्दिन होता है। ये चार आराम पमन्दी निकृष्ट है।
उक्त मभी प्रसग चातुर्याम से पूर्ण मेन बाते है और यह मानने को बाध्य करते है कि पार्श्वनाथ के पाच महावतो में में बुद्ध ने चार ग्रहण किए हो --या उनमें मकोच कर उन्हें चातुर्यामसबर का रूप दिया हो या जैन ग्रन्थों में चहा पार की सख्या आई हो-वह लोक-प्रचार से प्रभावित हो-ऐसा भी हो सकता है। पाठक विचारे !
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पर्युषण और दशलक्षणधर्म
जैनों के सभी मम्प्रदायों मे पर्यूषण पर्व को विशेष महता है। इस पर्व को मभी अपने-अपने नग में मोत्माह मनाने है । व्यबहारन दिगम्बर श्रावकों मे यह दश दिन और श्वेताम्बर्ग में आठ दिन मनाया जाता है। क्षमा आदि दण भगो मे धर्म का वर्ण करने में दिगम्बर इसे 'दशलक्षण धर्म और श्वेताम्बर आठ दिन का मनाने से अष्टान्हिका (अटाई) कहते है ।
पर्युषण के अर्थ का खुलासा करते हुए राजेन्द्र कोच मे वहा है "पीति मवंन क्रोधादिभावेभ्य उपणम्यते यस्या मा पर्युगणमना" अथवा "परि. सर्वथा एकक्षेत्रे जघन्यत मप्नदिनानि उत्कृष्टत पण्मामान् (2) यमन निरुक्तादेव पर्युपणा ।" अथवा परिनामम्त्येन उपणा ।" अभि० रा० भा० ५
पृ० २३५-२३६ ।
जिसमें क्रोधादि भावां वां सर्वन उपशमन किया जाता है अथवा जिसमे जघन्य रूप मे ७० दिन और उत्कृष्ट रूप मे छह माम (१) एक क्षेत्र में किया जाना है, उसे पर्युषण नहा जाना है । अथवा पूर्ण रूप से बाग करने का नाम पर्युषण है ।
पज्जोमवण, परिवमणा पजुमणा, वामावागां य (नि० ० १०) गं मवशब्द एकार्थबाची है ।
पर्युषण (पर्युपशमन) के व्युत्पतिपरक दो अर्थ निकलते है (१) जिसमे क्रोधादि भावो का मर्बन उपशमन किया जाय अथवा (२) जिनमे जधन्य प मे ७० दिन और उत्कृष्ट रूप में चार माम पर्यन्त एक स्थान में वाम किया जाय । (ऊपर के उद्धरण में जो छह माम का उल्लेख है वह विचारणीय है ।) प्रथम अर्थ का मबध अभेदरूप मे मुनि, श्रावक सभी पर लागू होता है, कोई भी कभी भी क्रोधादि के उपशमन (पर्युषण) को कर सकता है। पर द्वितीय अर्थ मे माधु की अपेक्षा ही मुख्य है, उसे चतुर्माम करना ही चाहिए । यदि कोई श्रावक चार माम की लम्बी अवधि तक एकत्र वास कर धर्म साधन करना चाहे तो उसके लिए भी रोक नही । पर उसे चतुर्माम अनिवार्य नही है । अनिवार्यता का अभाव होने के कारण ही श्रावकों में दिगम्बर दम और श्वेताम्बर आठ दिन की मर्यादित अवधि तक इसे मानते हैं और ऐसी ही परम्परा है ।
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चिनातन विचारणीय प्रसंग दिगम्बर और पवेताम्बर दोनों परम्परायें ऐमा मानती है कि उत्कृष्ट पर्वपण चार माम का होता है। मी हेतु इमे चतुर्माम नाम से कहा जाता है। दोनो ही मम्प्रदाय के माधु चार मास एक स्थान पर ही वास करते हुए तपम्याओ को करते है। यन-उन दिनो (वर्षा ऋत) में जीवोत्पत्ति विशेष होती है। बोर हिमादि दोप की अधिक मम्भावना रहती है और साधु को हिमादि पाप मर्वषा वर्म है। उमे महावनी कहा गया है।
"पग्बुमवणा कप्प का वर्णन दोनो मम्प्रदायो मे है। दिगम्बरों के भगवती भागधना (मृमागधना) में लिखा है :
"परजोममणकापो नाम वणम । वर्षाकालम्प चनु मामेषु एकत्रावम्यान प्रमण त्याग । विणन्यधिक दिवमगन एकत्रावस्थानमिन्ययमुत्मर्ग कारणापेक्षया नुहीनाधिक वाग्वस्थानम् ।।
पग्जामवण नामक दमवा कल्प है। वर्षाकाल के पार मामो में एकत्र ठहरना--अन्यत्र भ्रमण का त्याग करमा, एक मो बीम दिन एक स्थान पर ठहरना उन्मर्ग मार्ग है। कारण विगेप होने पर हीन वा अधिक दिन भी हो मकान ।। भगवती आग (मूला ग०) आग्वाम ४ पृ० ६१६ । श्वेताम्बरो मे 'पर्युषणाकल्प' के प्रमग मे जीनकल्प मूत्र में लिखा है
'बाउम्मामुक्कोमे, मनरि गइदिया जहण्णेण । ठिनमट्टिनगेमनरे, कारणे बच्चामिनऽणयरे ।।--
-जोन क० २०६५ पृ० १७६ विवरण -'उत्कर्षन पy पणाकल्पाचनुर्माम यावद्भवति, अषाढ पूणिमाया पानिकपूणिमा यावदिन्यर्ष । जघन्यन पुन मप्ननिगविदिनानि, भादपदणुक्लपचभ्या कानिकपूर्णिमा यावदिन्यर्थ - अभिवादो कारणे समुत्पन्ने एकनम्मिन् मामकल्पे पर्युपणाकल्पे वा व्यन्यामित विपर्यम्तमपि कुयु ।'
-अभि० ग० भाग० ५ पृ० २५४ पर्वृषण कल्प के ममय की उत्कृन्ट मर्यादा चतुर्माम (१२० दिन राषि) है। जघन्य मर्यादा भाद्रपदणुक्ला पचमी से प्रारम्भ कर कानिक पूर्णिमा तक (मत्तर दिन) की है।-- कारण विशेष होने पर विपर्याम भी हो सकता हैऐमा उक्त कथन का भाव है।
इस प्रकार जनो के मभी मम्प्रदायों में पर्व के विषय मे बर्ष भेद नही है और ना ही ममय की उत्कृष्ट मर्यादा में ही भेद है। यदि भेद है तो इतना ही है कि (१) दिगम्बर श्रावक इस पर्व को धर्मपरक १० भेदो (उत्तम-समा-मार्व
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गाव-बीच-सत्य संबम-सपस्त्याग, अकिपन्य बापर्वाणि धर्म) की अपेक्षा मनाते हैं और प्रत्येक दिन एक धर्म का न्यायान करते है। जबकि स्वेताम्बर सम्प्रदाय के श्रावक इमे माठ दिन मनाने है। बहा इन दिनो मे कही कल्पसूत्र की याचना होती है और कही अन्तकृत सूचकनाग की याचना होती है। और पर्व को नि की गणना माठ होने में 'अष्ट'--आन्हिक (अष्टानितक-अठाई) कहते हैं। साधुबो का पर्दूषण नो चार माम ही है।
दिगम्बगे में उक्त पर्व भाद्रपद शुक्ला परमी में प्रारम्भ होता है और वेताम्बरो में पचमी को पूर्ण होना है। दोनों मम्प्रदायों में दिनो का इतना अन्तर यो ये शोध का विषय है । और यह प्रश्न कई बार उठा भी है। समम वाले लोगो ने पारम्परिक मोहाई बडि हेन ऐम प्रयत्न भी किए है कि पर्युषण मनाने की तिषियों दोनों में एक ही हो । पर, वे अमफन रहे है।
पर्युषण के प्रमग में और मामान्यन भी. जब हम नप प्रोषध आदि के लिए विशिष्ट रूप में निश्चिन निषियों पर विचार करने हैनब हमें विशेष निदंग मिनना है कि--
"एव पर्वमु मर्वेषु चनुर्माम्या पहायने । जन्मन्यपि यथाक्लि ग्वम्व मकर्मणा कृति ।।
- धर्म मा ६९ पृ. २३८ -अप के चतुर्माम के मर्व पवों में और जीवन में भी यथाशन ग्यस्व धार्मिक कुन्य करने चाहिए। (यह विपन गृहस्प धर्म है)। इगी नाक की बाया में पर्वो के सम्बन्ध में कहा गया है कि
"तत्र पर्वाणि चवमुष"बाम्म पनि पुष्णिमा य नहा मावसा हवड पब्ब मासमि पन छक्क, निन्नि अ पम्बाई पामि ॥'
"चाउमट्ठमुट्ठ पुण्णमामी ति मूत्रप्रामाण्यान्, महानिगीचे भान पंचम्यपि पर्वत्वेन विश्रुता । 'भट्ठमी चाउमीन नाण पचमीमु उववाम न करे पन्छित्तमित्यादिवचनान् । – पर्वमु कृन्यानि यथा -पौषधकरण प्रनि पर्व तत्करणामक्ती तु बष्टम्यादिषु नियमेन । यवागम,
'सोनु कालपम्पमु, पसत्यो जिणमा हवा जोगी। अडमि नउमीमु अ नियमेण हवइ पोहियो ।'
-धर्म म० (व्याक्या) ६६ -पर्व इस प्रकार कहे गए है-बष्टमी चतुर्दशी, पूर्णिमा नया अमाबस्या, ये मान के ६ पर्व है और पक्ष के ३ पर्व है। इसमें 'वउद्दमठमदिक
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के कुछ विचारणीय प्रसंग
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पुष्णिमासु' यह सूत्र प्रमाण है । महानिशीथ मे ज्ञान पचमी को भी पर्व प्रसिद्ध किया है । अष्टमी, चतुर्दशी और ज्ञान पचमी को उपवास न करने पर प्रायश्चित का विधान है। इन पर्वो के कृत्यों में प्रोषध करना चाहिए । यदि प्रति पर्व में उपवास की शक्ति न हो तो अष्टमी, चतुर्दशी को नियम से करना चाहिए । आगम में भी कहा है- 'जिनमन में सर्व निश्चित पर्वो में योग को प्रणस्न कहा है और अष्टमी, चतुर्दशी के प्रापध को नियमत करना बतलाया है ।
उक्त प्रसग के अनुसार जब हम दिगम्बरो मे देखते है तब ज्ञात होता है कि उनके पर्व पचमी से प्रारम्भ होवर (ग्न्नत्रय सहित) मासान्त तक चलते हैं, और उनमें आगमविहिन उक्न सर्व (पचमी, अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा) पर्व आ जाते है । जब कि श्वेताम्बर्ग में प्रचलित पर्व दिनों मे अष्टमी का दिन छूट जाता है- उसकी पूति होनी चाहिए। बिना पूर्ति हुए आगम की आज्ञा 'नियमेण हवइ पोमहिल' का उल्लघन ही होता है। वंमे भी इसमें किमी को आपन नही होनी चाहिए कि पर्युपण काल में अधिक से अधिक प्रोषध की निथियो वा नमावेश रहे । यह समावेश और जैनियों के विभिन्न पन्थों की पूर्व तिथियां मे पता भी, तभी सम्भव हो मकती है जब पर्व भाद्रपद शुक्ला पचमी में ही प्रारम्भ माने जायें ।
मल्पसूत्र के पर्युषण ममाचारी में लिखा है- 'ममणे भगव महावीरे वीमाण सवम गए मामे वटक्कते वासावाम पज्जोमेबद्द ।' हम 'पज्जोसेवड' पद का अर्थ अभिधान राजेन्द्र पृ० २३६ भा० ५ मे 'पर्युषणामाकार्षीत्' किया है। अर्थात् 'पण' करते थे। और दूसरी ओर कल्पसूत्र नवम क्षण मे श्री विजयगणि ने इस पद की टीका करते हुए इसकी पुष्टि की है (देखे पृष्ठ २६८ ) -
' तेनार्थेन तेन कारणेन है शिष्या १ एवमुच्यते बर्षाणा विशति रात्रियुक्ने मामे अनित्रान्तं पर्युषणमकार्षीत् ।' दूसरी ओर पर्यूशणाकम्प चूर्णि मे 'अन्नया पज्जांमबणादिवसे आगण अज्जका लगेण सालिवाहणे भणिओ भद्दवजुष्हपचमीए पज्जांमवणा' - (पज्जोमविज्जड ) उल्लेख भी है ।
-अभि० पृ० २३८
उक्त उद्धरणों मे स्पष्ट है कि भ० महावीर पर्युषणा करते थे और वह दिन भाद्रपद शुक्ला पचमी था । इम प्रकार पचमी का दिन निश्चित होने पर भी 'पचमीए' पद की विभक्ति मे मन्देह की गुंजाइश रह जाती है कि पर्युषणा पचमी मे होती थी अथवा पचमी मे होनी थी। क्योंकि व्याकरण शास्त्र के अनु सार 'पचमीए' रूप तीसरी पचमी ओर मानवो तीनो ही विभक्ति का हो सकता है ।
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यदि ऐमा माना जाय कि केवल परमी में ही पyषन है तो पyषण को ७-८ या कम-अधिक दिन मनाने का कोई अर्ष ही नही रह जाता, और ना ही अष्टमी के प्रोषध की अनिवार्यता मिड होती है जबकि अष्टमी को नियम से प्रोषध होना चाहिए। हा, पचमी से पर्दूषण हो तो आगे के दिनों में आठ या दस दिनों की गणना को पूरा किया जा मकता है और अष्टमी को प्रोषध भी किया जा सकता है। सम्भवत इमोलिए कोषकार ने 'भारपद शुक्ल पक्षम्या अनतर' पृ० २५३ और भाद्रपद शुक्ला पचम्या कार्तिक पूर्णिमा यावदित्यर्ष' पृ० २५८ मे लिख दिया है । यहा पवमी विभक्ति की स्वीकृति से स्पष्ट होना है कि 'पचमीए' का अर्थ 'पचमी में होना चाहिए । इम अर्थ की ग्वीकृति में अप्टमी के प्रोषध के नियम की पूनि भी हो जाती है। क्योकि पर्व में अष्टमी के दिन का ममावेश इमी गेनि में शक्य है। अनन्नर' मे तो मन्देह को ग्यान ही नही रह जाता वि पचमी मे पर्यपण शुभ होता है और पर्यषण के जपन्य काल ७० दिन की पूनि भी दमी भौति होती है।
दिगम्बर जैनो में कानिक फाल्गुन और आपात में अन्न के आठ दिनो मे (अप्टमी मे पूणिमा) अष्टाह्निका पर्व माने है ऐमी मान्यता है कि देवगण नन्दीश्वर द्वीप में इन दिनों अकृतिम जिन मन्दिगं में विम्बी के दर्शन-पूजन को जाते है । देवो के नन्दीश्वर द्वीप जाने की मान्यना ध्वनाम्बर्ग में भी है। येनाम्बर्ग की अष्टाह्निका को पर्व निथिया चैत्र मुद्री ८ मे १५ तक नपा आमोग मुदी ८ मे १५ तक है। नीमरी निषि जो (मम्भवत ) भाद्र वदी १३ मे मुदी ५ नक प्रचलित है, होगी। यह नीमगे निथि मृदी ८ मे प्रारम्भ क्यों नही यह विचारणीय ही है- जब कि दो बार की निथिया अष्टमी में गुन है।
हो मकता है- नीर्थकर महावीर के द्वाग वर्षा ऋतु के ५० दिन बाद पर्यपण मनाने में ही यह तिथि परिवर्तन हुभा हो । पर यदि ५० दिन के भीतर किमी भी दि शुरू करने की बात नब हम अप्पालिका को पचमी के पूर्व में शुरू न कर पचमी में ही गुरू वग्ना युपित मगन है । ऐमा करने में 'मबीमगए माम वठक्कने (बीनने पर) की बात भी रह जाती है और 'मग्गिदिया
१. मुनियों का वर्षावाम चतुर्माम लगने में लेकर ५० दिन बीननं नक कभी भी
प्रारम्भ हो मकना है अर्थात् अपान गुक्ला १८ में लककर भाद्रपद शुक्ला ५नक किमी भी दिन शुरु हा मकना है।'
-जैन-आचार (महना) पृ० १८७ ।
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考病
जिनान के कुछ विवादकीय प्रसंग
महमेव' की बात भी रह जाती है। साथ ही पर्व की तिथियां (पंचमी, अष्टमी चतुर्दशी) भी अष्टाङ्किका में समाविष्ट रह जाती हैं जो कि प्रोषध के लिए अनिवार्य हैं ।
एक बात और स्मरण रखनी चाहिए कि जैनों में पर्व सम्बन्धी तिथि काल का निश्चय सूर्योदय काल से ही करना आगम सम्मन है । जो लोग इनके विपरीत अन्य कोई प्रक्रिया अपनाते हों उन्हें भी आगम के वाक्यों पर ध्यान देना चाहिए
अण्णाउ || १ ||
'बाउम्मान अवरिमे, पवित्र अ पंचमीट्ठमीसु नायव्वा । नाओ निहीजी जार्मि, उदेद्द सूरो न पूआ पच्चक्खाणं पडिकमणं तइय निअम जीए उदंह मूगे नीइ निहीए उ
गहणं च ।
कायव्वं ॥२॥ '
धर्म सं० पृ० २३६
वर्ष के चतुर्मान में चतुर्दशी पंचमी और अष्टमी को उन्ही दिनों में जानना चाहिए जिनमे सूर्योदय हो, अन्यप्रकार नहीं । पूजा प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और नियम निर्धारण उनी निधि में करना चाहिए जिसमें सूर्योदय हो ।
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अपदेससत्तम
श्री 'ममयमार' की १५वी गापा के नतीय परण के दो रूप मिलते है-(१) 'अपदेशमुनम' और (२) 'अपदेममंतमम्म'। और हम पर संस्कन टीकार्य भी दो आचार्यों की मिलनी है-श्री जयमेनाचार्य और श्री अमनमा. चार्य की।
आचार्य जयमेन की टीका के देखने मे स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके ममक्ष 'अपदेममुतमन्न' पद रहा और उन्होंने इमी पद को आपब कर. टीका लिखी। टीका में पूरे पद को जिन गामन का विणेपण माना गया है और 'मुक्त' शब्द को दृष्टि में रख कर तदनुमार ही 'अपदेम' गन्द का व्युत्पतिपरक अर्थ बिठाया गया है । उक्न अर्थ 'मुत्त' मन्द के सन्दर्भ में पूरा-पूरा मही और विधिपूर्ण बैठ रहा है । कदाचिन् यदि 'मन' गन्द किन्ही पनियों में न होता तो पूरे पद के अर्थ में मम्भवतः अवश्य ही विवाद न उठना । आचार्य जयमेन आनी टीका में लिखने हैं
'अपदेमनुत्तमम' अपदेशमूत्रमध्यं अपदिश्यतेऽर्थो न म भवत्यपदेणः शब्दो द्रव्यथुनम् इति पावन मूत्रं पर्गिन्छत्तिम्प भाषयुतं जानममय इनि नेन शब्दममयेन वाच्यं जान ममयेन पमियमपदेणमूत्रमध्यं भाष्यत इति ।
जिममे पदार्थ गताया।दर्शाया जाता है, वह 'अपदेम' होता है अर्थात् शब्द । यानी द्रव्यथुन । 'मुन' का भाव है जान-ममय अर्थात् भावथुन । ये भाष उक्न टीका मे स्पष्ट फालन होता है। इन आचार्य ने 'मन' गन्द का अपनी टीका में कहीं कोई भी उल्लेख नहीं किया।
जहां नक थी अमृनचन्द्राचार्य की टीका का सम्बन्ध है, उन्होंने १५वीं गाथा को पूर्व प्रसंग में आई १८वी गाथा के प्रकाश में देखा है। उनके ममक्ष 'मुत्त', शब्द रहा प्रतीत नहीं होना अन्यथा कोई कारण नहीं कि वे टीका में उमे न छुने । उनकी दोनों गाथाओं की (दोनों को टीकाओ में) ममना तो है ही माप ही आत्मा और जिनशामन में अभेरमूलक भाव (गाथाओं के अनुरूप) भी है पर उन्होंने गाथा के तृतीय चरण को श्री जयमेनाचार्य की भांति, गिनवाणी का विशेषण नही बनाया और ननीय चरण की टीका आत्मा का विशेपण बना कर ही लिनी । ऐमा प्रतीत होता है कि अवश्य ही उनकं ममक्ष 'मुन' के स्थान
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२०
मिन-मासन विचारणीय प्रसंग पर कोई ऐमा अन्य मन्द रहा होगा जो ?वी गाथा में गृहीत मात्मा के सभी (पांचो) विशेषगों की मंच्या पूर्ति करता हो। वह मन्द क्या हो सकता है ? क्या 'संत' 'मन' या 'मन' मा कोई अन्य शब्द भी हो सकता है ? यह विचाग्णीय है।
हमारे ममम वी व १५वी दोनों गापायें और दोनों पर श्री अमनचनालार्य की टीकायें उपस्थित हैगाचा १४-'जो पम्मदि अप्पाणं अबळपुळं मणमणियदं ।
अविममममवृत्त..................॥१॥ ममयमार रीका--'या मालु अबसम्पृष्टम्यानन्यम्य नियतम्यावि
पम्यामंयुक्तम्य चात्मनोनुभनि:............
मात्वनुभूनिगमव ।'गाचा १५- 'जो पम्मदि अप्पाणं अबढपुढें अणणमविमेनं ।
अपदेममनमन.............."१५॥ ममयमार । टीका-येयमबम्पृष्टम्यानन्यम्य नियनम्याविषम्या
मंयुक्नम्य पात्मनोनुभूनिः..........."जिन
मामनस्यानुभूनि ।'
उक्त दोनों गाषायें और उनकी टीकायें आत्मानुभूति व जिनशामन अनुनि (होना) में अभेदपन दर्शाती है अर्थात् जो आत्मानुभूति है वही जिनशासन अनुभूति है और जो जिनशासन की अनुभूति है वही आत्मानुभूति है।
प्रथम गाथा नम्बर १४ में आत्मा के पांच विशेषण है-(१) मबर. म्पृष्ट (२) अनन्य (B) नियन (6) अविशेष और (५) अमंयुक्त । दोनों गाथाओं की टीका के अनुसार ये पाचो हो विशेषण गाथा (मूल) १५ में भी बैठने चाहिए । म्यून दृष्टि में देखने पर गापा १५ में अबडम्पृष्ट, अनन्य और अविशेष येनीन विशेषण म्पष्ट समझ में आ जाते है तथा नियन' और 'असंयुक्त' दो विशेषण दृष्टि से आमल रहते है जबकि टीका में पांचो विशेषगों का उल्लेख है । पाठकों को ये ऐमी पहेली बन गए है जैमी पत्रिकाओं में प्रायः चित्रों के माध्यम मे पहेलियां प्रकाशित होती रहती है। जैसे—यहां इस चित्र में दो पुरुष, एक कुत्ता, एक चिड़िया छिपे है उन्हें इंडो। उनके एंड़ने में जैसे दृष्टि और बुद्धि का व्यायाम होता है और ये तब कही मिल पाते हैं । इमी प्रकार गापा के तृतीय परण में ऐमा बीर ऐने से भी अधिक व्यायाम किया जाय तब कही विशेषनो का भाव बुद्धि में फलित हो । पाठक विचारें कि कही ऐसा तो नहीं है ?
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बाचार्य कुन्दकुन्द मूल और आचार्य अमनचन्द्र की टोकाओं के अनुसार 'नियत' और 'असंयुक्त' विशेषण इम भाति ठीक बैठ जाते हो.....
(१) 'निवत' अर्थात् मभी भाति निश्चित. एकाप. अचल, जो अपने स्थान-बल्प आदि में चल न हो, अन्य स्थान में जिमका सम्बन्ध हीन हो
—अपने में ही हो अर्थात् 'अपगता' (दूर्गमना ) अन्ये देशा पम्मान म अपदेशः तं अपदेश-नियतं आत्मानम् । अपवा देणेभ्य (अन्य स्थानेभ्य) अपगत: अपदेश नं नियनं आत्मानम् ।' यह अयं टीका में आग निया विशेषण को विधिवत् बिठा देता है और टीका की प्रामाणिकता भी मिड हो जाती है तथा यह मानने का अवसर भी नहीं आता कि श्री अमनचन्द्राचार्य ने गको टीका छोड़ दी है।
(0) दूमरा विणेषण है अमयुक्त । अमयुक्त का भाव होता है. मांग रहित-एकाकीमत्वम्प या म्बत्व में विद्यमान । जोम्ब में होगा उगम सयोग कंमा? अर्थात् मयोग नहीं हो होगा । जो मयोग में नहीं होगा उममे पर कमा? ये 'अमंयुक्त' अर्थ 'मतमज्म' (मन्चमध्य) में पटिन हो जाता है। क्योंकि-मत (मन्व) का अर्थ 'चेनन' भी है और मान्मा बनन ही है. बतान को चतन के मध्य अर्थात् आत्मा की आत्मा के मध्य, जो देखना वह जिनणागन को देखता है। 'पाडयमह महण्णव' कोप में लिया है. मन [मत्व प्राणी, जीव-चेतन । पृ. १०७६ । मस्कृत में मत्व का अर्थ जीव है ही। यदि 'मन' के स्थान पर 'मत्त' माना जाय नब भी 'अपदममनमम" इम मिति में अपदम +अत्त+मजा' खण्ड करकं अत' शब्द में आत्मा अपं कर मकन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने म्बय भी 'अन' गन्द आत्मा के लिए प्रयोग किया है । नपाहि--
'कत्ता नम्मुवओगम्म हाड मो अनभावम्म । ' , , , , '६५॥ 'जाण अना दु अनाण' ॥
-- ममयमार इस प्रकार सम्भावना है कि 'मन जब्द का मून 'मन' या 'मन' हो रहा हो और जो यदा-कदा मकार के ऊपर बिन्दुले बैठा हो या मकार का सकार हो गया हो-जैमा कि प्राय. लिपिकार्ग में हो जाता है । यह बात तो बिल्कुल ठीक है कि-'बाचार्य अमनचन्द्र जी की टीका देव हा 'अपण...' पद का वही कप होना चाहिए जो नियन और अमयुक्त विषणों की पुष्टि करता हो। 'मुत' भब्द भी विचारणीय है। कदाचित् इसका मकन कप 'मरव' होता हो। क्योंकि 'स्वत्व' का अर्थ स्व-पन-स्वल्प-आमा में होता है। मेरी दृष्टि में नमी 'स्वत्व' की प्राकृत 'मुक्त' देखने में नही बाई। बिग्गन विचारें।
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जिन-शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग
I
एक बात और । आचार्य कुन्दकुन्द की यह परिपाटी भी रही है कि वे एक ही गाथा को यदा-कदा अन्य परिवर्तनो के साथ दुहरा देते रहे है- गाया मे कुछ ही शब्द परिवर्तन करते रहे हैं। यहा भी यही बात हुई है— उदाहरणार्थ जैम
'रार्याम्ह य दीर्माह य कमायकम्मेमु चेव जे भावा । तहि दु परिणमता रायाई वर्धाद पुणां वि ॥२८१|| ' 'गर्याम्ह य दोर्माम्ह य कमायकम्मेसु चेब जे भावा । तेहि परिणमतो रामाई बधदे चेदा ||२८२|| ' 'पण्णाए घितब्बी जो चंदा सो अह तु णिच्छयदां । अवमेमा जे भावा ने मज्म पति णायव्वा ||२७|| पण्णाए धितवो जो दट्ठा मां अह तु णिच्छयदां । अवमेमा जे भावा ते मज्झ परेति णायव्वा ||२६|| पण्णाए वित्तब्बो जो णादा मां अहनु णिच्छयदां । अवसेमा जे भावा ते मज्न पंर्गत णायव्वा ||२६|| -ममयमार- - ( कुन्दकुन्दाचार्य उक्त सदर्भ मे भी इसी बात की पुष्टि होती है कि आचार्य ने आत्मानुभूति और जिनशामनानुभूति में अभेद दर्शाने के लिए १८वी गाथा को थोडे फेरबदल के साथ १५वी गाथा में भी आत्मा के वे सभी विशेषण दुहराए है जो कि गाथा १०वी में है ।
इमे 'मन' शब्द मानकर, उसका शान्त अर्थ करना उचित नही जँचता, यन जिम आत्मस्वरूप वो यहा चर्चा है वह शान्त और अशान्त दोनों ही अवस्थाओं मे रहिन—परमपारिणामिक भाव रूप है ।
इस प्रकार अपदेश शब्द का अप्रदेशी अर्थ भी आगम विरुद्ध है यतः आत्मा निश्चय से अमख्यानप्रदेशी, व्यवहार से शरीरप्रमाणरूप अमख्यानप्रदेशी है । 'शरीरप्रमाणरूप असख्यान: ।'
उक्त सभी विचारों मे मेरा आग्रह नही । पाठक विचारे और जां युक्तियुक्त हो उमे ही ग्रहण करे ।
'म' का अर्थ मध्य होना हो ऐसा ही नही है । आचार्य कुन्दकुन्द ने हम शब्द का प्रयोग 'मेग' अर्थ मे भी किया है। प्रमग मे 'मेरा' अर्थ से भी
पूर्ण समति बैठ जाती है। 'मेरा' अर्थ मे आचार्य के प्रयोग
'होहिदि पुणां वि मज्झ' – २१ 'जं भणति मज्झमिण' – २४ 'मामिषं पोग्ननं द-२५
समयसार
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प्राचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत
प्रायः सभी मानते है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने जन शोमनी प्राकृत को माध्यम बनाकर ग्रन्थ निर्माण किए। कुछ समय में उनके ग्रन्थों मे भाषा की दृष्टि से संशोधन कार्य प्रारम्भ हो गया है और कहा जा रहा है कि इसमें लिपिकारों की संदिग्धता या असावधानी रही है। ये कारण कदाचित हो मकते है और इनके फलस्वरूप अनेक हम्नलिखित या मुद्रित प्रतियों में एक-एक शब्द के विभिन्न रूप भी हो सकते है। ऐसी स्थिति में जबकि आचार्य कुन्दकुन्द की स्वयं की लिखित किमी ग्रन्थ को कोई मूल प्रति उपलब्ध न हो, यह कहना बड़ा कठिन है कि अमुक शब्द का अमुक रूप ही आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी बना में लिखा था । तथा इसकी वास्तविकता में किसी प्राचीन प्रति को भी प्रमाण नही माना जा मकता, यत: - 'पुरार्णामत्येव न साधुमवंम् ।'
जहां तक जैनीमैनी प्राकृत भाषा के नियम का प्रश्न है और कुन्दकुन्ध की रचनाओं का प्रश्न है— उनकी प्राकृत मे उन सभी प्राकृतों के रूप मिलते है जो जैन शौरसेनी की परिधि में आते है। उन्होंने सर्वथा न तो महाराष्ट्री को अपनाया और न सर्वथा शीग्मेनी अथवा अर्धमागधी को ही अपनाया । अपितु उन्होंने उन तीनों प्राकृतों के मिले-जुने सो को अपनाया जो (प्राकृत) जन शीरमेनी में महयांगी है। जनशौरसेनी प्राकृत का रूप निश्चय करने के लिए हम भाषा-विशेषज्ञों के अभिमन जान लें ताकि निर्णय मे सुविधा हां'मागध्यवन्निजा प्राच्या मूरमेन्यर्धमागधी ।
बाल्हीका दाक्षिणात्या व मप्नभाषा प्रकीर्तिताः ॥'
यद्यपि प्राकृत वैयाकरणों ने जैन शौरसेनी को प्राकृत के मूल भेदों मे नही मिनाया, तथापि जैन साहित्य मे उसका अस्तित्व प्रचुरता में पाया जाना है । दिगम्बर माहित्य इम भाषा मे वैसे ही ओत-प्रोत है अंम श्वेताम्बर -मान्य आगम अर्धमागधी मे । सम्भवतः उत्तर से दक्षिण में जाने के कारण दिगम्बराचार्यो ने इस (जैन शौरसेनी) को जन्म दिया हो - प्रचार की दृष्टि मे भी ऐना किया जा सकता है। जो भी हो, पर यह दृष्टि बड़ी विचारपूर्ण और पैनी है—इनमे सिद्धान्त के समझने में सभी को बालानी अनुभव हुई होगी और सिद्धान्त सहज ही प्रचार में जाना रहा होगा । यतः इम भाषा में सभी प्राकृतों के शब्दों का समावेश रहता है-शब्द के किसी एक रूप को ही शुद्ध नहीं माना जाता
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जिन-मालन के कुछ विचारणीय प्रसंग पिनु मुविधानुमार मभी रूप प्रयोगों में लाए जान है-जमा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने भी किया है।
जननीरसेनी के सम्बन्ध में निम्न विचार दृष्टबी बार अधिकागे विद्वानों के विचार है .
'In his obscrvation on the Digambar lest Dr. Denecke discusses various points about some Digamber Prakirit works .. He remarks that the language of there works is influenced by Ardhamagdhi, Jain Maharastri which Approaches it and Saurseni'
-Dr. A.N. Upadhye
(Introduction of Pravachansara) 'Thc Prakrit of the sutras, the Gathas as well as of the commentary, is Saurseni influenced by the order Ardhamagdhi on the one hand and the Maharashtri on the other, and this is excctly the nature of the language called 'Juin Saurseni.'
- Dr. Hiralal
(Introduction of पद खडागम P. IV) 'जन महागष्ट्री का नामचुनाव मर्माचन न होने पर भी काम चलाऊ है। यही बान जैन शामिनी के बारे में और जोर देकर कही जा सकती है। इस विषय में अभी तक जो थोड़ी-मी गांध हुई है. उममें यह बात विदिन हुई है कि हम भाषा में ऐम प और गन्द है जो शोरमनी में बिल्कुल नहीं मिलने बल्कि इसके विपरीत वे रूप और शब्द कुछ महाराष्ट्री और कुछ अचंमागधी में व्यवहन हां है।
-पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण पृ० ३८ प्राचीन आगमो और आचार्य कुन्द-कुन्द की रचनाओं में इसी आधार पर विविध गब्द-सपा के प्रयोग मिलने है--दिगम्बर आचार्य किमी एक प्राकृत के नियमों को लेकर नही चले अपितु उन्होंने अन्य प्राकृना के शब्दरूपों को भी अपनाया । अत. उनकी रचनाबी में भाषा की दृष्टि से सशोधन की बान सर्वया निराधार प्रतीत होती है। आचार्यों के द्वारा अपनाए गए विविध शब्दरूपी को मस पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत है। हमे बाणा है कि पाठक तथ्य तक पहने।
वि० जैन बाबमों में एक ही आचार्य द्वारा प्रयुक्त विविध प्रयोग :
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माचार्य कुन-कुन को प्रात पखंडागम [१,१.१.]
(महाराष्ट्री के नियमानुसार '' को हटाया) -
उपजा (दि) पृ. ११., कुणा .... वणड • ६८, पार पृ. ६६. उन्ना पृ० १७. गच्छा पृ. १७१ दुष्का १०१, भणह पृ० २६६, ममवह पृ०७४
मिच्छाइछि पृ० २०, वाग्गिकालो को गृ• ७१ - इत्यादि । (शौरसेनी के अनुसार '' को रहने रिया) -
मुलाग्गा पृ. ६५. वर्णवि • ६६. उरि पृ. 16. परति पृ० १०५, उपककमांगो पृ. २, गर (न.) पृ. १२ णिगो पृ. १२७,
('' लोप के स्थान में 'य" सभी प्राकृतों के अनुसार) -
मुगमायग्पाग्या पृ. ६६. भणिया गृ• ६५ गुपचया पृ. ६, गुदेवता पृ. ६८, ग्गिाकालीकओ' पृ. १. णवयगया (ना) + १०, कायना पृ. १२५, णिग्गया १०७. मुषणाणाच (निलोयाणान) पृ. ३५ लोप में 'य' और अलोप (दोनो) कुन्द-कुन्द 'प्रष्टपाहुर' के विविध प्रयोग - पन्ध नाम शब और गाथा का कम-निवेश दर्शनपाहुइ हादि होट हाई हर: हदि
मूत्रपाहुड ६.०
११.१.४.१७
१६
रित्रपाहट -- बोधगड - भावपार -
१६,५ - १४६ - १५.११.१
४८.६५ १२२१४० ११०
मांजगहा ३०३ ५२.६० हह १४,१८,८५,६
१०१,
५१,०८,
०,१००
6
१. 'जन महागष्ट्री में नुन वर्ण के स्थान पर 'य' श्रुनि का उपयोग हुआ है
जैसा बन गौरसेनों में भी होता है-पट्टागम भूमिका पृ० ८६ । २. 'द' का लोप है 'य' नहीं किया ।
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जिन-मासन के कुछ विचारणीय प्रसंग
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लिगपाहर - २,१३,१४ - भीमपाइ -
२१ नियममार१८९,५२,632.०.१२७ ५५,५८,६८ ५६,५७ १६:१९
१६.६८१६६,१६८
-
१११,११४ १६१.१६०
५,०० १५०
१७१,१७५ हमी प्रकार अन्य बहन से गद है जो विभिन्न सपा में दिन आगमी में प्रयुक किये गए है । जम--
'गड, गदि । होट, होदि, हदि । गाओ, णादो। भूयत्यो, भूदत्यो। मुगवली, मुदकंबली। गायब्बो, णादब्यो । पुग्गन, पोग्गल । लोए, लोगे । आदि :
उक्त प्रयोगों में 'द' का लोप और अलोप तथा लोप के स्थान में 'य' भी दिखाई देता है। म्मग्ण हे केवल गौरमनी को हो 'द' का अलोप मान्य हैदूमगे प्राकृता में 'कग च जन द य ब इन व्यन्जनो का विकल्पमलोप होने
कारण दोनों ही कप चलते है। जैन गौरमनी में अवश्य ही महाराष्ट्री, अर्धमागधी और गौग्मेनी के मिले-जुले पो का प्रयोग होता है। पुग्गल और पोंग्गल
प्रवचनमार आदि में उक्त दोनों रूप मिलन है। जैसे गापा–२.७६, २.६३ और गापा २-७८, २-६३ ।
पिशल व्याकरण में उल्लन है - "जन भोग्मनी में पुग्गल रूप भी मिलता है"- पंग १२८ । इसी पंग में पिशल ने लिखा है "सयुक्त व्यजनों से पहल 'उ' को 'ओ' हो जाता है....."| मारकण्डेय के पृष्ठ ६६ के अनुमार सौरमनी में यह नियम केवल 'मुक्ता' और 'पुष्कर' में लागू होना है। इस तथ्य को पुष्टि मब पब करने है।"-पैग १२०,
दूमरी बात यह भी है कि श्रोत्-सयोग' वाला (उको बो करने का) नियम मभी जगह इष्ट होता तो 'मुक्केब' (गावा ५) पुषकाल हा (नामा २१) पुपति, दुल्स (गापा ५ समकतार) आदि में भी उकार को बोकार होना पाहिए। पर ऐसा न करके दोनो ही स्पो को स्वीकार किया है-'पवित् प्रवृत्ति परिप्रवृत्तिः ।
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माचार्य न की प्राकृत लोए या लोगे
पटनागम मगनारगन-मूलमा नमोकार में 'लोए अगुण रूप में निना गया जो बाबालपस में बिना किमी मानिकपडाम्पर बना हमा। पिणन ने बप निना है प्राकृत में निम्न उदाहरण मिलन है न' के म्थान में 'ए' बोला जाना है. 'लोके' को 'लोए कहने है। पंग १७६ ।
ग ही 'जन गोग्मनी की प्राचीनतम हम्न-पियो अ आ मे पहले और मभी बगे के बाद अर्थात् इमक बीच में 'य' निमानी !' .
___योतु' म्प जन महागष्ट्री का है और बतु गाग्मनी का। पिणन ने निना है भाग्गनी' में 'वन को मामान्य क्रिया का प कभी 'बोनु नही बोला जाना । किन्नु मदा 'वनु हो रहना है। पंग ५७०
उक पूरी म्पिति के प्रकाश में ऐमारी प्रतीत होता है कि 'जन गोग्मनी' में अर्धमागधी. जैन महागन्दी और शोग्मनी इन नोना प्राकृनों के प्रयोग हो रहे है, अन भागो में आप (उन नियम में मधिम) मभीरूप ठीक है। यदि हम किमी एक को ठीक और अन्य का गबन मान कर बले सब हमे पूर आगम और कुन्दकुन्द के सभी प्रन्या के गम्दी को (भाषाष्टि में) बदलना पडेगा यानी हमारी दृष्टि में मभी गलन हांग जंमा कि हम इष्ट नहीं और न जैन गौग्मनी प्राकृत को ही मा इष्ट हागा। मी गाद में यदि गभी जगह नाग्मनी के नियमानुसार 'द ग्ना इष्ट होगा नो
पदम हो:या रम हवा मगन क ग्थान पर भी 'हदि पहना होगा जमा किचलन जन के किसी भी मम्प्रदाय में नही है आदि । पाठक विचारे ।
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मात्मा का प्रसंख्यात प्रदेशित्व
एकबार आचार्य कुन्दकुन्द के ममय मार को १५वी गाथा मे गृहीत 'अपदेम' गम्द के अर्थ को लेकर चर्चा उठ नही हुई और हम मन्द को आत्मा का विपण मानकर इसका अर्थ अप्रदेश यानी आत्मा अप्रदेणी है ऐसा भी किया जाने लगा। जो मर्वथा- मभी नयां में भी किमी भाति उचित नही था। आत्मा तो मबंधा अमन्यात प्रदेणी ही है। चाहे हम गाथा में मधित अर्थ में हो या पृथक अब कप में । नाहि
. विदि केवलणाण कंवलमांवन्न च कवविग्यि । ___ कंवििट्ठ अमुन, अन्थिन मप्पदमन ।।
__-ममयमार १८१ मप्रदेणवादि म्वभावगुणा भन्नि इनि' टीका।।
मिव भगवान के केवलज्ञान, केवलमुखा, कंबलवीय, कंवलदर्णन, अमूनिकपना, अम्मित्वभाव नथा मप्रदेणोयना अर्थात् अमख्यान प्रदेणोपना है। ये सभी म्वाभाविक गुण होते है जो पृथक नही हो मकन है ।
__ . आत्मा को गणना अस्तिकायो में है और अम्निकाय में एक में अधिक प्रदेश माने गए है। काल द्रव्य जो अग्निकाय नहीं है उस भी किमी अपेला, कम से कम एक प्रदशी नो माना हो गया है। -
अमव्यंया प्रदेशा धर्माधर्म कजीवानाम् । आकाशम्याग्नता । मख्ययासख्ययाश्च पुद्गलानाम् ॥
-तन्वायं मूत्र ५ । प्रवचनमार में आचार्य कुन्दकुन्द ने शुद्ध जीव का अम्निकाय और मप्रदेशो कहा है। गाथा ! .. की टीका में जयमनाचार्य स्पष्ट करने है'पण अप्रदेश कालाणुपग्माग्वादि मपदेम गुडजीवाग्निकायादि पचाम्निकायम्बम्पम् ।' -अर्थात् कालाणु परमाणु आदि अप्रदेश है, सुखजीवास्तिकायादि मप्रदेश है।
1. आत्मा को अप्रदेणी मानने पर उमका अस्तित्व ही नही रह मकंगा -यह शून्य-सविषाणवन् व्हरेगा-उत्पाद-व्यव-प्रीव्य का अभाव होने से श्री सत्ता का सर्वथा अभाव होगा । कहा भी है
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'जम्म कमनि पहेमा पदेनमेनं तु ननदो गादं । मुग्ण जाण तमत्व......""| प्रवचनमार २/५२ ॥ 'उत्पाद-सपनोव्यापुन मन्। मायलमणम् ॥'. मवाळूत्र ३
५. यदि येन केन प्रकारेण आम्मा का अग्निब मिड करने के लिए उमे एक प्रवेणी (कानवन्) भी माना जायेगा नो आत्मा को मिलायम्पा में परमाणु अवगाहमात्र आकाण प्रदेश को अवगाह करके ही रहना परंगा और जैसा कि मिसाल है. मिहामार्ग कणा बग्मती मिडा' धनुषा क्षेत्र परिमाण आकाण को घेरकर विगजमान है का व्यापान होगा।
६. आम्मा में प्रणव गुण नहीं बनेगा. जबकि प्रदेणवगुण का होना अनिवार्य है 'प्रदेणवन्य न माकाकाशप्रणांग्माणप्रण एक आम्मा भनि।' -- अर्थात एक. बान्मा नाकाकाण जिनने (अमनपान) प्रण वाना होना है।'
२० भा• गि.40013 .. प्रदेणन्य गति को मिरिनी होगी, कि आग्मा के इम मकिन की अनिवार्यना.
'आममार महरण-विनगणनभितकिनिनग्मणगैरपरिमाणावरिपतनांकाकाणम्मितान्मावयवत्वलक्षणानियनपणन्याल ।'
ममयमार कमण म्यादादाधिकार/२६३ टीका ८. प्रवचनमार में नियंकप्रचय' और 'म्य-प्रय नामक दो प्रचय बनला है और कहा है कि प्रदेणी के ममूह का नाम नियंकप्रनय है। वह 'निर्यकप्रनय काल के अतिरिका मभी दया और मुनान्मतव्य में भी है। इमस मुडनय में भी गुड आन्मा बहुपदणी ही ठहरना है। 'प्ररंगयो हि निर्यकाचयः' --अमनचन्दाचार्य ।
सप प्रगप्रयलमणाम्पियंकायों यथा मुक्नामो निम्नषा कानं विहाय ग्बकीय-म्बकीयप्रदेणमध्यानमाण गंगद्रव्याणा म मंभवनीति नियंचयो व्याख्याना।
द्रव्यों की पहिचान के लिए आगम में पृथक-पृषक म्प में द्रव्यों के गुणधों को गिनाया गया है, मभी द्रव्यों के अपने-अपने गुणधर्म नियत है । कुछ माधारण है और कुछ विष । जहा माधारणगुण बस्नुके अम्नित्यादि की इंगित करते है वहा विशेषगुण एक द्रव्य को अन्य दयों में पृथकना बनाने है। अस्तित्व, वस्तुन्व, द्रव्यत्व, प्रमपन्य, अगुरुमधुन्च, प्रदेणत्व, चेतनत्व ये जीव
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मिन-मानपिपारवीय प्रसंग व्य के माधारण गुण है और शान' दर्शन, मुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व ये विशेष गुण हैं। कहा भी है
"ममणानि कानि" अम्नित्वं, वस्तुत्वं, द्रव्यत्वं, प्रमेयत्वं, अगुरुलपुत्वं, प्रदेजन्य, चेतनत्वं, अंचनत्व, मूर्नन्वं, अमूर्नत्वं द्रव्याणां दश मामान्य गुणाः । प्रत्येकमष्टावप्टो मर्वपाम्" नानदर्शनमुखवीर्याणि म्पर्णग्मगंधवर्णाः गतिहेतुत्वं, म्पिनिहेतृत्वं अवगाहनहेनुत्वं वर्तनाहेतृत्वं चननमचेतनत्वं मूर्नममूनत्वं द्रव्याणां पोलविणेपगुणाः ।
प्रत्येक जीवपुद्गलयोपेट् ।"- (आलापपनि गुणाधिकार)
जीव में निर्धाग्नि गुणों को जीव कभी भी किमी भी अवस्था में नहीं छोरना। इतना अवश्य है कि कभी कोई गुण मुख्य कर लिया जाता है और दूमो गौर कर लिए जाने है। यह अनेकान्न दृष्टि की अपनी विशेप गेनी है दव्य में गोण किए गए गुण-धर्मो का द्रव्य में मर्वथा अभाव नही हो जानाद्रव्य का बम्प अपने में पूर्ण रहना है । यदि गौण म्प का मर्वथा अभाव माना गाय नो वस्तुम्बाप एकांत-मिथ्या हो जाय और ऐसे में अनेकान्न दृष्टि का भी व्याधान हो जाय । अनेकान्त नभी कार्यकारी है जब वम्न अनेक धर्मा हो-- "अनन्मधर्मणम्तन्वं", "मकनद्रव्य के गुण अनन्त पर्याय अनन्ना।" ___अनेकान्न दृष्टि प्रमाण नयों पर आधारित है और एक देग भाग को जाना होने मे नय दृष्टि पुगपत् वस्तु के पूर्ण रूप को जाना नही हो मकनी--इमलिए नयाधिन जान छपम्प के अधीन होने मे वस्तु के एक देश को जान सकता है। वह अग को जाने-कहे. यहां तक तो ठीक है। पर, यदि वह वस्तु को पूर्ण वैमी
और उननी ही मान बंटे नो मिथ्या है । यन वस्तु, शान के अनुमार नही होती अपि नु वस्तु के अनुमार जान होना है। अन जिमने अपनी गति अनुसार जितना जाना वह उसकी शक्ति में (मम्यग्नयानुमार) उतने रूप में ठीक है। पूर्ण प नो केवलज्ञानगम्य है जमा है वैमा है। नय ज्ञान उमे नही जान मकना है। फलन' -
आत्मा के म्वभाव कप अमंब्यान प्रदेणत्व को किसी भी अवस्था में नकाग नही जा सकता। स्वभावतः आत्मा निश्चय-नय से तो बसच्यात प्रदेशी है ही, व्यवहार नव मे भी जिसे नगर प्रमाण कहा गया है वह भी असंन्यात प्रदेनी ही है। पन: दोनो नयों को द्रव्य के मूल म्यभाव का नाम इष्ट नहीं । असंख्य प्रदेगिन्य आत्मा का मकान रहने वाला गुण-धर्म है, जो नयों में कमी गोग और कभी मुख्य कहा या गाना गाता है। ऐसे में आत्मा को बनेकान्त
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मारना का अर्तस्व
दृष्टि से प्रदेशी मान लेने की बात ही नही ठहरनी। क्योकि "अनेकांतवाद" छद्मस्थों को पदार्थ के सत्स्वरूप मे उसके अश को जानने की कुंजी है, गौण किए गए अशो को नष्ट करने या द्रव्य के स्वाभाविक पूर्ण रूप को जानने की कुंजी नही । यदि हम दृष्टि मे वस्तु का सर्वधा एक अश-रूप ही मान्य होगा तो "अनेकान्त सिद्धान्त" का व्यापान होगा ।
यदि आत्मा मे अमख्य प्रवेशित्व या अप्रदेशिय की सिद्धि करनी हो तो हमें जीव की उक्त शक्ति को लक्ष्य कर 'प्रदेश के मूल लक्षण को देखना पडेगा । उसके आधार पर ही यह संभव होगा। अन यहां सिद्धान्त ग्रन्थों से "प्रवेश" के लक्षण उद्धृत किए जा रहे है
१. "म (परमाणु) यावनिक्षेत्रे व्यवतिष्ठनं स प्रदेश ।"
- परमाणु (पुद्गल का मवसूक्ष्म भाग जिसका पुन न हो मके) जितने क्षेत्र (आकाश) मे रहना है, उस क्षेत्र को प्रदेश कहते है ।
२. " प्रदेशांनामापेक्षिक सर्वसूक्ष्मस्तु परमाणोग्वनाह ।' त० भा० ५-ध -- प्रदेश नाम आपेक्षिक है वह मर्वसूक्ष्म परमाणु का अवगाह (क्षेत्र) है।
?.
तौह आकाणादीना क्षेत्रादिविभाग प्रदिश्यते ।"
12
न० वा० २, ३६, प्रदेशों के द्वारा आकाणादि (मां के) क्षेत्र आदि का विभाग इगित किया जाना है ।
८. जावदिय आयाम अविभागीयुग्गलाणुवट्ट । नम्बु पम जाणे मव्वाणु ठाणदा
॥"
·
जितना आकाण (भाग) अविभागी पुद्गल अण पंन्ना है, उम आकाश भाग को प्रदेश कहा जाता है।
कहलाता है ।
५. "जेलियमेन मेन अणुणाद्व
""
द्रव्यम्य० नयच० १८०
- अणु जिनने ( आकाण) क्षेत्र को व्याप्त करना है उतना क्षेत्र प्रदेश
जाता है ।
६. "परमाणुष्याप्नक्षेत्र प्रदेश "
- प्र० मा० जयचंद वृ०
- परमाणु जितने क्षेत्र को व्याप्न करना है, उतना क्षेत्र प्रदेश कहा
७. "शुद्धपुद्गलपरमाणुगृहीतनभम्यनमेव प्रदेशः ।"
शुद्ध पुद्गल परमाणु मे व्याप्त नभम्बल ही प्रदेश कहलाता है ।
८. "निविभाग आकामावयव. प्रदेश ।"
- निविभाग आकाशाव' प्रदेश होता है ।
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मिन-माल धिारणीय प्रसंग १. "प्रविण्यन इनि प्रदेणा ॥३॥ प्रविण्यन्ने प्रतिपादन इनि प्रदेशाः । कष प्रदिण्यन्ने ' परमानवम्बान परिच्छेदान् ॥ ॥ वध्यमाणममणो द्रव्यपग्माण मयावनि क्षेत्र व्यवनिष्ठने म प्रदेश इनि व्यवलियने ।
न धर्माधर्मकमीवा नृल्यामध्ययप्रदेणा।" -नन्या. गज० ५/८/3 १०. "प्रणम्य भाव प्रदेशव अविभागिद्गल-गग्माणुनावष्टब्धम् ।"
-आलाप पनि आगमी के उन प्रकाण में स्पष्ट है कि "प्रदेण" और प्रदेश मन्द भागमिक और पारिभाषिक है और आकागभाग (क्षेत्र) पग्मिाण में प्रयुक्त होते है। आगम के अनुसार आकाण के जितने भाग को जो द्रव्य जितना व्याप्न करता है वह द्रव्य आकाण के पग्मिाण के अनमार उतने ही प्रदेणां वाला कहा जाना है।
का यदि "पदनामनेकार्थ" के अनुसार "प्रदेण" का "वड" और "भप्रदेश" का "अखण्ड" अर्थ माने नो क्या हानि है?
ममाधान- गन्दी के अनेक अर्थ होते हग भी उनका प्रामगिक अर्थ ही ग्रहण करने का विधान है। जम मधव का अर्थ घोता है और नमक भी । पर, भोजन प्रमग में दम गब्द में "नमक" और यात्रा प्रमग में "घोड़ा" ग्रहण किया जाता है। इसी प्रकार द्रव्य के गुण-मभाव में "प्रदेण" "अप्रदेश" को आमिक परिभाषा के भाव में लिया जायगा । अन्यथा शुद्धपयोगी आत्मा के मवर्भ में . "अप्रदेण" का अर्थ "क प्रदेश" करने पर शुढात्ममिड भगवान में एक प्रदेणी होने की आपनि हांगी जब कि उन्हें "अपदेण" न मान कर मपदण अमल्यान प्रदेणी वाला म्वाभाविक रूप में माना गया है। उनकी स्थिनि "किचिणाचग्मदेहदोमिदा के रूप में है। प्रदेश का परिमाण आकाक्षेत्रावगाह में माना गया है। आत्मा को अखण्ड मानने में कोई बाधा नही -- आत्मा अमंल्यान प्रदेशी और अबण्ड है ही।
आगम में एक में अधिक प्रदेण वाले द्रव्य को "अग्निकाय" और मात्र एक प्रदेशी द्रव्य को "अम्निकाय" में बाहर रखा गया है। कालाणु और अविभाज्य पुद्गल परमाणु के सिवाय मभी द्रव्यो (आत्मा को भी) को अम्निकाय से बाहर (एक प्रदेणी) द्रव्यों में गिनाया हो ऐमा पान और देखने मे नही आया।
आत्मा को अप्रदेगी कहने की इमलिए भी आवश्यकता नही कि "प्रदेशित्व" "अप्रणित्व का आधार आकाम को अवगाहना का क्षेत्र माना गया है-परमपारिणामिक भाव नही । यदि इनका मापदण्ड भावो मे किया
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मालामाल allow गया होना तो वाचार्य बरहंतों और मियो को भी "अप्रतमी" पोषित करते, जबकि उन्होंने ऐमा घोषित नहीं किया।
उक्त विषय में अन्य आचार्यों के पवन ऊपर प्रस्तुत किए गए। भाचार्य कुन्दकुन्द ने संबंधित विषय को जिम रूप में प्रस्तुत किया है उसे भी देखना आवश्यक है क्योकि "ममयमार" उन्ही की ग्चना है। "ममयमार" के मविपुर मानाधिकार में कहा गया है
"अप्पा णिच्ची अनिवपदमो देमियो उ ममन्ति व मी मरकई ननांहीणी अहिली य काउ ॥"
ममयमार १२ "जीवो हि दय्यम्गेण नानियो, अमस्ययप्रदेगी मोकग्मिागाप।"
टीका, अमनचन्द्राचार्य (धात्मण्याति) आन्मा द्रव्याथिकनयेन निन्यग्नथा चामन्यानप्रदमा तमित ममये परमागर्म नम्यान्मन शुद्ध चनन्यान्वयनक्षण द्रव्यत्व नषेवासम्यानप्रणब पूर्वमेव निष्ठति ।"
टीका, जयमनाचार्य, (मापनि -उक्त मन्दर्भ को स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। वह म्पय म्पप्ट है। गाथा में नित्य", आत्मख्याति में "दव्यरण", और नापयति में "दव्यापिकनयन", ये नीनो विगेनिग द्वय्याषिक (निश्चय) नय के कथन को दगिन करने है। एनावन दम प्रमग में आत्मा के अमक्यान प्रणिय का कथन निश्चयनय की दृष्टि में ही किया गया है, व्यवहार नय की दृष्टि में नहीं।
आगम में व्यवहार और निश्चय इन दोनां नयां या गनिमें प्रयोग करने की हम हट नहीं दी गई। इनके प्रयोग की अपनी मर्यादा है। निश्चय नय के कथन में वस्तु को म्वभाव शनि एव गुण धर्म की मुख्यता रहती है और व्यवहार नय में उपचार की। इमक अनुमार आग्मा का बहुमणत्व निश्चयनय का कथन है, व्यवहाग्नया नहीं ।
इमका फलिनार्थ यह भी निकलना है कि जो कुनकुन्दाचार्य पात्मा के म्वभावाप-पग्म पाग्मिाणिक भाव-अप मविषुट जानाधिकाग्म आम्मा को नित्य एव अमन्यप्रदेणी घापित करने है. वही आचार्य आत्मा को कथमपि किमी भी प्रमंग में अप्रसंगी नहीं कह सकतं -
"जीवापोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगामं । मपदमेहि अमवा गन्धि पदमनि कालम्म ।
-कुन्दकुन्द प्रवचनमार १३
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"अम्ति मवर्तविस्तारयोरपि मोकाकामनुल्या संख्येय-प्रदेशापरि. ज्यावान् गोवन्य।"
-ही, अमृतबन्द्राचार्य-तत्वदीपिका "तम्य नावन मंमागवम्यायो विस्तारोपमहारयोरपि प्रदीपवन् प्रदेशानां हानियोग्भावान व्यवहार दहमात्रापि निश्चयेन मोकाकामप्रमितासंपेय प्रमत्वम् ।"
-वही, जयमेनाचार्य, नात्पनि जीव के अमंग्यान प्रदेगिन्य को किमी भी अपेक्षा से उपचार या व्यवहार का कपन नहीं माना जा मकना । प्रदेश व्यवस्था द्रव्यों के म्वाधीन है और वह उनका पभाव ही है और म्वभाव में उपचार नही होना । नत्वा गजवानिक (५/८/१३) का कथन है कि
"हेल्पपेक्षाभावान् ॥३॥ पुद्गलेषु प्रमिहेनुमवेक्ष्य धर्मादिषु प्रदेशोपचार: न क्रियने नेपामपि स्वाधीन प्रदेणत्वात् । तस्मादपचार कल्पना न युक्ता।"
म्वर्गीय, न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी का यह कथन विशेष दृष्टव्य
"पुर नय दृष्टि में अमन उपयोग म्वभाव की विवक्षा मे मामा में प्रदेष भेद न होने पर भी मंमागे पीव अनादि कर्म-बन्धनबर होने मे मावयव
-० वा. (मानपीठ) पृ० ६६६ एक गान और । अपेमाधित होने से नय-दृष्टि में वस्तु का पूर्ण कानिकगुरुस्वभाव गम्य नही होता। पूर्ण ग्रहण तो मकन प्रत्यन केवलनान वागही होना है। इमीलिए आचार्य पदार्षमान को नय-दृष्टि मे अनीन घोपिन करते है।
"णयपमानिक्कतो भन्नदि जो मो समयमागे।" "मवषयपक्चरहिदो भणिदो जो मो ममयमागे।"
-ममयसार, १४२, १४४ मूर्त व्य में तो परमाणु की प्रदेश संज्ञा मानी जा सकती है, पर प्रदेश की भाम्पीय परिभाषा की वहां भी उपेक्षा नही की जा सकती। पुद्गल द्रव्य के मिवाय सभी अमूर्त इम्पों में प्रदेन का भाव याकाम क्षेत्र में ही होगा उपयोग के अनुसार नहीं।
मूतं पुनलाम्ये संमातामन्यातानंताचूनां पिडा कंधास्त एव विविधा प्रदेना भयंते न पत्रप्रदेशाः ।-(मेवानां भेषापेक्षति फनितम्)
- द्रव्य सं० टीका माषा २५
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सिद्धत्व पर्याय में उस पर्याय के उपादान कारमधून पुगात्माबर क्षेत्र का परिमाण-परमदेह से किंचित् न्यून है जो कि तलाव (निन शरीर) परिमाण ही है, एक प्रदेश परिमाण नहीं ।
किचिदूणचरमनगरप्रमाणम्य मिहत्वपर्यापम्योपासनकामनगमद्रव्य तत्पर्यायप्रमाणमेव ।'
दृष्यसंग्रह में संका उठाई गई है कि मिड-आत्मा को परिमाणको कहा ? वहाँ स्पष्ट किया है कि'स्वदेहमिनिम्बापनं नैयायिकमीमांमकमान्यायं प्रनि ।'
.-पही गाला टीका म्मरण रहे कि कोई आत्मा को अणमात्र (अप्रदेणी) कहते है की कोई व्यापक । उनकी मान्यता ममीचीन नहीं, यहाँ यह म्पष्ट किया है।
निश्चयन लोकमात्रोऽपि । विशिष्टाववाहपरिणाम-क्तियुक्तावान् नामकर्म निवृनमणुमहनपरीधिनिष्ठन् व्यवहारण देहमानी। .. (1०ही.)
निश्चयेन लोकाकाणमिनामन्येयप्रदेणमिमापि व्यवहारेज नगर. नामकर्मोदयानिनाणमहमागेप्रमाणवान बदेशमात्री भनि ।'.--
• (नात्पर्य १०) २७, पदि उपयोगावचा में आम्मा अप्रती माना जाना नो वात्मा के अदा होने में यह भी मानना पांगा कि आरम प्रदेश बहन गरीर में मिकाकर अप्रदेणमात्र-अवगाह में हो जाते है और पूरा गरील भाग आत्माहीन (पम्प) रहना है- जमा कि पढ़ने-सुनने में नहीं आया।
छपम्प का मान प्रमाण और नयर्गाभन है और केवली भगवान का जान प्रमाणप है। नय का भाव अगवाही भोर प्रमाण का भाव सर्वग्राही है। दोनों में ही बनेकान्त की प्रवृत्ति है, अनेकान्न की अवहेलना नही की गई 'अनेकान्नेऽप्यनेकान'। प्रमंग में भी इसी आधार परमात्मा के मममातप्रदेणत्व का विधान किया गया है नपाहि -
अनेकान्न की दो कोटिया है। एक ऐसी कोटि जिममें अपेमादृष्टि में अंगों को क्रमम: जाना जाय और इमरी कोटि वह जिममें मकान को युगपन प्रत्यक्ष जाना जाय । प्रथम कोटि में पी पदापों को जानने पाने पारमामधारी नक के ममी छपम्प बाते है। इन मभीमान परमहावापेली बांधिकार कमिक होते हैं। प्रत्यक्ष होने पर भी वेग-अत्यन' ही कहनाने मरे पदों में इन ममी को एक समय में एक प्रदगपाही भी माना जा सकता है यानी ये
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के कुछ विचारणीय प्रसंग
एक प्रवेश (ऊर्ध्वप्रचय) के ज्ञाता होते हैं। दूसरी कोटि मे केवली भगवान को लिया जायना यन: ये एक ओर एकाधिक अनंत प्रदेश ( तिर्यकप्रचय-बहुप्रदेशी द्रव्य) के युगपत् जाना है । आचायों ने इमी को ध्यान में लेकर ऊर्ध्वं प्रचय को 'क्रमांकान्त' और निर्यक् प्रचय को 'अक्रमानेकान्त' नाम दिये हैं
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'निर्यत्र चय तिर्यक् मामान्यमिनि विस्तारमामान्यमिति 'अक्रमाजंकान्न उनि च भव्यते । ऊर्ध्व प्रचय इत्यूर्ध्व मामान्यमित्यायनमामान्यमिति 'क्रमानेकान्न' इति च भव्यनं । - प्रब० सार (न० वृ) १४१।२००१६ 'बस्तु का गुण ममूह अक्रमाऽनेकान्न है क्योंकि गुणां की वस्तु मे युगपदवृत्ति है और पर्यायां का ममूह कमाउनेकान्न, है क्यों पर्यायों की वस्तु मे क्रम में वृद्धि हैं' - जैनेन्द्र मि० कोष पृ० १०८
स्पष्ट है कि क्रमानेकान्न मे वस्तु का स्वाभाविक पूर्णरूप प्रकट नही होना स्वाभाविक पूर्णरूप ती अक्रमाऽनेकान्त में ही प्रकट होता है और बहुप्रवेमित्व का युगपद्याही ज्ञान केवलज्ञान ही है। अनः केवलज्ञानगम्यप्रदेशसम्बन्धी वही रूप प्रमाण है, जो मिद्ध भगवान का रूप है—
किचिणा चरम देहदी मिठा ।' अर्थात्-अमंख्यान प्रदेशी ।
-
आगम में द्रव्य का मूल स्वाभाविक लक्षण उसके गुणों और पर्यायों को बतलाया गया है और ये दोनों ही सदाकामद्रव्य मे विद्यमान हैं । द्रव्य के गुण ध्यापिक नय और पर्यायें पर्यावाधिक नय के विषय है। जब हम कहते है कि 'आत्मा अवन्ड है' तो यह कथन द्रव्यार्थिकनय का विषय होता है और जब कहते है कि 'आत्मा असंख्यात प्रदेशी है' तो यह कथन पर्यायाधिकनय का विषय होना है दोनों ही नय निश्चय में आते है। जिसे हम व्यवहार नय कहते है वह द्रव्य को पर संयोग अवस्थारूप में ग्रहण करता है । चूंकि आत्मा का असंख्यप्रदेशत्व स्वाभाविक है अत: वह इस दृष्टि से व्यवहार का विषय नही - निश्चय काही विषय है । द्रव्याधिक पर्यायामिक दोनो मे एक की मुख्यता मे दूमग गोग हो जाता है- द्रव्यस्वभाव में न्यूनाधिकता नही होती अतः स्वभावतः किमी भी अवस्था में आत्मा अप्रदेशी नही है । वह त्रिकाल असंख्यात प्रदेशी तथा अखण्ड है ।
आत्मा को सर्वथा असंख्यातप्रदेशी मानने पर अर्थक्रियाकारित्व का अभाव भी नही होना । यनः अर्थक्रियाकारित्व का अभाव वहां होता है जहां द्रव्य के अन्य धर्मों की सर्वथा उपेक्षा कर उसे एक कूटम्प धर्मरूप में ही स्वीकार किया जाता है। यहां तो हमे आत्मा के अन्य सभी धर्म स्वीकृत है केवल प्रदेशत्वधर्म
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मात्मा का मसाल्यात मत्व के सम्बन्ध में ही उसके निर्धारण का प्रश्न है यहा अगों के रहने से म्बमावशून्यता भी नही होगी और ना ही व्यापता का अभाव । परि एक धर्म केही आमरे में (अन्य धर्मों के गहने हुए) अभियाकारित की हानि होती हो नब तो एकप्रदेशी होने में कालाणु, पुद्गलाणु में और अमनयामनी होने में मिडो में भी अक्रियाकारिस्व का अभाव हो जायना - परमा होना नही।
गजवानिक में आत्मा के अपनपने का भी कथन है पर यह आन्या के अमख्यानप्रदेशत्व के निषेध में न होकर गदाट को मध्य में कही किया गया है अर्थात आम्मा यद्यपि परमार्थ में अमयामी अबण्य है समापि पबदृष्टि को विवक्षा में बहुप्रवेशीपने को गौण कर अमल में पहण करने के लिए अभिप्रायवण उम अप्रदेणम्प कहा गया। । प्र को मास्त्रीय परिभाषा को लक्ष्य कर नहीं।
प्रकृत में उपमहाराप हसना विग जानना चाहिए कि हाक माजमार्ग का प्रमग है. उसमें निश्चयका अकरने ममय. उगम पानाहान पर भी अभेद और अनुपचार को मुल्यता ग्नी गई है। हम दृष्टि को मात्र कर जब अप्रदेणी का अर्थ किया जाना है नव प्रण का अर्थ भेद या भाग करने पर अप्रदेश का अर्थ अन्नड हो जाता है। इसलिए परमार्थ में जीव के सम्बनभक्ति में अमन्यानप्रदेणी होने पर भी दृष्टि की अपेक्षा उम अनगम अनुभव करना आगम मम्मत है। प्रोण को शास्त्रीय परिभाषा की दृष्टि में आम्मा अमन्यानप्रदणी और अनही और प्रदेणानगाहो होकर भी उम अमव्यप्रदणी हो मन में कोई बाधा नहीं। इगका निरकप किवात्मा अपनी नषा अखण्ड नही, अपितु अमन्यानप्रसंगी नया बना।
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ॐ स्वस्तिक रहस्य
मान्तिक भाग्नीयो में, चाहे वे दिक मनावलम्बी हो या मनाननजन मतालम्बी। गाह्मण, वैश्य और शूद्र सभी को मालिक क्रियाओं में (जमे विवाह वादि पोरण सम्कार, चूल्हा-चक्की स्थापना, दुकानदारो के खाता-बही, नरा-नाट के मुहूर्त में) नीन परिपाटिया मुख्य रूप में देखने को मिलती है। कुछ लोग 'लित कर कार्य प्रारम्भ करते हैं और कुछ म्बनिक अकिन कर कार्य का श्रीगज करते है। इसके सिवाय कुछ लोग ऐसे भी है, जो दोनों को प्रयोग में मात है।'' भी लिखते है और म्याग्निक भी अकिन करते है। ग्रामीण अनपढ स्त्रिया भी इन विधियों को मादर अपनाती है। नियों के आगमा में' और 'म्बनिक' को प्रमुख स्थान दिया गया है। वेदों में भी कार को 'प्रणव' माना गया है, और प्रत्येक वेद मन्त्र का उच्चारण ॐकार में प्रारम्भ होता है। 'म्बग्नि' गब्द भी वेदो में अनेक बार आता है जंग 'म्बम्ति न इन्द्र' इत्यादि । जब एक ओर भारत में इनका इतना प्रचार है, नब दूमगे और जमन देग भी 'म्बम्तिक' से बचित नहीं है। बहा म्बनिक चिह्न को गजकीय सम्मान निना हुआ है। गहराई से खोज की जाय नो अग्रेजो के काम चिह्न में भी 'म्बम्तिक' को मूल मनक मिल मकनी है। मम्भावना हो सकती है कि ईमा को फांसी के बाद चिह्न का नामान्तर या भावान्नर कर दिया गया हो।
के सम्बन्ध में विविध मनावलम्बी विविध-विविध विचार प्रस्नुन करते है और विचार प्रसिड भी है यथा '' परमात्मा वाचक है, 'मगल म्बन्प है इत्यादि । जैनियों को दृष्टि में '' पचपरमेष्ठी वाचक एक लघु सकन है इमं पपरमेष्ठी का प्रतिनिधित्व प्राप्त है। इस प्रकार जिन शामन में नमोकार मन्त्र की अपार महिमा है । प्रत्येक जैन, चाहे वह किमी पन्ध का हो, हिमालय से कन्याकुमारी तक इस मन्त्र को एक स्वर से पढ़ता है। मन्त्र हम प्रकार है
'णमो बरहताण नमो सिसाण गमो बाइग्यिाण ।
नमो उवमायाण गमो लोए सम्बमाहूण ॥' अरहन्तो को नमस्कार, सिडो को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार बार नोकरे सर्व साधुबो (पपर बैन) मुनियो को नमस्कार ।
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परनेटो
यदि उक्त मन्त्र को सर्वगुण सम्पन्न रखते हुए. एकासार उच्चारण करना हो मी ''मात्र कहने में निकाह हो जाता है. क्योंक ''को मात्रा में बोजासर माना गया है। जिस प्रकार छोटे में बीजमल्प होने की मामर्ष है. उसी प्रकार में पूरे नमोकार मन्त्र की मामय है. पाकि पानी परमेष्ठी नपिन है। नाहि..
'बरहना अमरोग आइग्यिा मह उपमनाया मुनिको पदमातार निप्पणी ॐागे पपग्मट्ठी ॥"
अगहन, अमगर (मिड), आचार्य, उपाध्याय और मुनि, म पायो परमप्ठियों के प्रथम अमरममगन है. और यह ''परमेष्ठी वापर है। नवाहि
अगहन्न, का अ, अमगेर (मिर) का अ, आचार्य का उपाध्याय का 3 और मुनि काम् ।
अ+ आ (अक मवणे दोष) + आ आ आ (... .. ..) + आ+3 ओ (आद्गुण) ओम् ओम् - अनुम्बाग्युक हप ॐ
पर परमठियों के आरक्ष में निष्पन्न 'को महमा म प्रकार निदिष्ट है
कार बिन्दुमयुक्त नित्य ध्यान योगिन. । कामद मानद व कागय नमो नमः ॥
बिन्दु महिन प्रकार का योगीजन नित्य ध्यान करते है। यह सकार इच्छिन पदार्प-दाना और मांसप्रदाता है। उस कार को नमस्कार हो।
उपनिषदकार के मन्दी में-कार परमात्मप्रतीके दामकाव्यमाना मनि मन्तनुपान्-छादोग्योपनिषद् नोकर भाप्य ।' १,। इसे 'प्रणव' नाव में भी सम्बोधित किया जाता है. क्योंकि यह कभी भी जी नही होता। इनमें प्रतिक्षण नबीनना का संचार होता है और यह प्राणी को पवित्र और अनुष्ट करना है । 'प्राणान् सर्वान् परमात्मनिषनामयतीत्येतस्मात् प्रणवः ।'
ऊपर कहे गये नमोकार मन्त्र की मंगलस्पता मम्म के माष पाजाने बाने माहात्म्य से निर्विवाद सिद्ध होती है। मानमो में अन्य बनेको मन्त्रों को भी मंचनरुपता प्राप्त है, पर मुखतः दोही प्रसंग ऐसे गाते हैं, जिनमें अनशन
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४.
जिन-मासन के विचारणीय प्रसग का मटन उन्लेन है - णमोकार मन्त्र' और 'मगलानमणरणपाठ ।" गमोकार मन्त्र के सम्बन्ध में कहा गया है
'एमा पच जमायागे मनपावपणाम गो।
मगलाण च मवेमि पदम हवः मगन ।' यह पर नमस्कार मर्व पापों का नाश करने वाला और गर्व मगलो में प्रथम मगन है।
उक विवरण के प्रकाण में, मगल कार्यों में ''का प्रयोग किया जाना म्पटन परिक्षन होता है, जो उचित ही है। पर 'म्बग्निक' के सम्बन्ध में अभी नक निर्णय नही हो पाया है। कोई इमं चतुर्गनि भ्रमण और मुक्ति का प्रतीक मानता चला आ रहा है तो कोई ब्राह्मी लिपि के 'ऋ' वर्ण के ममाकार मानकर इसे ऋषभदेव का प्रतीक मिट करने के प्रयत्न में है। मन मा भी है कि यह 'मन्यापक' के भाव में है। नात्पर्य यह कि अभी कोई निष्कर्ष नहीं मिल रहा है । अन उमकी वाम्नविकना पर विचार करना श्रेयस्कर है।
हस्ति, स्वस्तिक या साथिया 'म्वस्तिक' मस्कृत भाषा का अव्ययपद है। पाणिनीय व्याकरण के अनुमार, इमं याकरण कौमुदी में ५४वे कम पर अव्यय पदों में गिनाया गया है। यह 'म्बग्निक' पद 'मु' उपमर्ग तथा 'अग्नि' अध्यय (क्रम ७१) के योग में बना है, यथा - मु+ अम्ति बाम्न। इनमें 'इकोयचि' सूत्र में उकार के म्बान में बकार हुआ है।
बहन में लोग 'अग्नि को त्रियापद मान कर उसका 'है' या 'हो अर्थ करत है, जो उचित नहीं है. क्योंकि यहा 'अम्नि' पद क्रियाम्प में नहीं है, अपितु निडन्त प्रतिपक अव्यय है। न कि 'अम्निीग'म तिङन्त प्रतिस्पक अव्यय' है। बम 'स्वम्ति' में भी 'अम्नि' को अव्यय माना गया है. और 'म्बग्नि' अव्यय पद का अर्थ कल्याण, मगल. शुभ आदि केम्प में किया गया है। प्रकृत में उग्नि 'म्बम्भिक' शब्द भी इमी 'स्वम्निका बाचक है। जब 'म्बग्नि' अपय में म्याचं में 'क' प्रत्यय हो जाता है. अब यही 'म्बम्नि' प्रकृत में 'म्यमिक' नाम पा जाता है। परन्तु अर्थ में कोई भेद नहीं होता । 'म्बम्ति एव म्बनिक' को हम प्युपनि के अनुमार, जो 'म्बस्ति' है वही 'म्वस्तिक' है और जो 'म्वस्तिक' है वही 'स्वस्ति' है। उक्त प्रमग मे ऐसा फलित हुा कि मभी 'सस्ति' स्वस्तिक है मोर सभी 'स्वस्तिक' 'स्वस्ति' है, अर्थात् 'स्वस्ति' और स्वस्तिक' में कोई भेद नही है । यत:-'स्वस्ति एव स्वस्तिक'।
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स्वस्तिक रहस्य ' प्राकृत भाषा में 'स्वस्ति' या 'ग्वस्निक' के विभिन्न रूप मिलने है। जिन रूपों का प्रयोग मगल, मेम. कल्याण मे प्रसस्त अयो में किया गया है, उनमे कुछ इस प्रकार है
(१) सन्धि (म्बम्ति) 'सन्धि कोई कविनों। ---पउमरिड, ३५१६२,
(२) सत्यि (म्बनिक्षेमकल्याण मगल, पुष्प आदि), हे० २१४५, म० २१ ।
(३) सत्थिा (म्वनिक) प्रश्न व्याकरण, पृ० ६८. मुपामनाह पनि ५२, श्रा० प्र० मू० २७ ।
(४) मत्थिक, ग (म्बनिक) पर मह महग्गव कोष, पनामक प्रकरण १२३ ।
(५) मोत्यय (म्वस्तिक) पाइयम: महण्णव कोष, पचामर प्रकरण । (६) मोत्थिा (म्बम्निक) उववा: मूत्र, मातृ धर्मकथा. पृष्ठ ५।
उक्त सभी शन्द-पी में मगलभावःनित है। अन यह निश्चय ही हो जाना है कि 'स्वम्नि' और 'स्वम्निक का प्रग भी '' की भानि मगन निमित्त होना चाहिए।
अब प्रश्न यह होता है कि जम गो परमेष्ठी का प्रनिनिधित्व प्रान है, वम म्बग्निक को किमका प्रनि धिन्व प्राप्त है? हम प्रान का समाधान यह है कि
जब यह निश्चय ही बुका कि 'वनिक' निर्माण में मगल कामना निहिन है, तो यह भी आवश्यक है कि हममे भी ' की भाति कोई मगन निहिन होना चाहिए। इमको बोत्र के लिए जब हम णमोकार मन्त्र में मागे चलन है, तब हमे उभी पाठ में परमगगन चनु शरण पाठ मिलता है और हम पाठ को स्पष्ट रूप मे मगल घोषित किया गया है, यषा-चत्तारिमनन' इत्यादि । इम पाठ को आज मभी जन आवाज पढ़ने है। पूरा पाठ इस भाति है
पत्तारि मगन' । अरहना मगन । मिया मगल, माहू मंगन, केनि पण्णतो धम्मो मगन।
पनारि लोगुतमा । अरहना मांगुनमा। मिडा मोगुतमा । मार मोगुनमा केवनिपग्णता धम्मो लोगुनमा
पत्तारिमरण पवग्जामि । अरहते मरण पबमामि । मिजे सरप पपयामि । साहसरणं पवग्जामि । फेवनि पणत धम्म सरण पन्जामि।
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जिन-मासन विचारणीय प्रसंग उक्त पूरा पाठ 'मगलोत्तममरण' या 'चतुःशरण' पाठ के नाम से प्रसिद्ध है और नमोकार मन्त्र के क्रम में उमो के बाद बोला जाता है। यह मंगल अर्थात् 'म्बस्ति पाठ' णमोकार मन्त्र की भांति प्राचीनतम प्राकृत भाषा में निवर और मंगल शब्द के निण मे युक्त है। अन्य म्पनों पर हमें बहुत से अन्य मंगन भी मिलते हैं। पर वे न तो प्रतिदिन नियमित रूप मे सर्व साधारण में पंढ़ जाते है और न ही मूल मन्त्र-णमोकारगत पंच परमेष्ठियों का बोध कराते है। अतः 'मंगल' मे चनारि-पाठ की प्रमुखना णमोकार मन्त्र की भांति सहज सिड हो जाती है।
स्थानकवामी मंप्रदाय मे 'चताग्मिगलं' पाठ 'मंगली' के नाम से ही प्रमित है। यन जब कोई थावक मंगल कामना में माधु-माध्वियों में प्रार्थना करता है कि महाराज ! 'मंगली' मुना दीजिए, तो वे महर्ष 'चतारिपाठ' द्वारा उसे बागीर्वाद देते हैं। इस मगन पाठ का भाषागर (हिन्दी रूप) भी बहुत बहलता से प्रचारित है. यषा
'अरिहंत जय जय, मिड प्रभु जय जय ।। माधु जीवन जय जय, जिन धर्म जय जय ।। अरिहंत मगलं. मिट प्रभु मंगलं । माधु जीवन मंगलं. जिन धर्म मंगलं ॥ अग्हित उत्तमा, मिड प्रभु उत्तमा । साधु जीवन उत्तमा, जिन धर्म उत्तमा । मरिहंत शरणा. मिड प्रभु शरणा। साधु जीवन शरणा, जिन धर्म शरणा ॥ ये ही चार शरणा, दुख दूर हग्ना ।
शिव मुख करना, भवि जीव मरणा ॥' . इस सर्व प्रसंग का तात्पर्य ऐमा निकला कि उक्त मूल-पाठ जो प्राकृत मे है और 'चतुः मंगन' रूप में है. वह मगल, कल्याण, शान्ति और सुख के लिए पड़ा जाता है तथा 'स्वस्ति या म्वस्तिक' (मंगल कामना) से सम्बन्धित है।
'दिगम्बर माम्नाय' में पूजा को श्रावक के दैनिक षट्कर्मों में प्रथम गिनाया गया है। वहां प्रथम ही देवशास्त्रगुरु की पूजा की जाती है और पूजा का प्रारम्भ दोनों (णमोकारमत्र और चतु मरण पाठ) और उनके महात्म्य से होता है। जैसे जमोकार मन्त्र वाचन का प्रथम क्रम है, वैसे उसके माहात्म्य पापन का कर भी पवन है, बवा
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अपवित्र पवित्रो व मुःस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। . . प्यायेन् पचनमस्कार सर्वपापः प्रयुचते ॥ अपवित्र. पवित्रो वा सर्वाम्पाङ्गतोपिया। पम्मरेत परमात्मान स. बागायतर. पषिः । अपराजितमन्योन सर्वविघ्नविनाशनः । मगनेषु च मवेषु प्रथम मगन बतः ॥ एमो पवणमोपारो मम पापप्पणामणो।
मगलाण व ममि, पढम हवा मवल । इसी क्रम में जब हम पूजन प्रारम्भ करते हैं. हमे 'मगनोत्तममरण पाठ का माहात्म्य और 'मगलोत्तमारण पाठ' के मूलभूत माहन, सिट, माधु गोर धर्म के विशेष गण पदने को मिलने । यथा -
'म्बग्नि' त्रिलोकगुरुये बिनपुगवाय, ग्बग्नि ग्वभावहिमोदयमुस्थिताय । म्वम्ति प्रकाशमहजोजित रमपाप, म्बग्नि प्रमन्नालनाभूतभवाय ॥ म्बम्यून बिमनबोधमुधाप्मनाय, बग्नि म्वभावपरभाविभासकाय । म्वनि क्लिोविन विद्गमाय, म्वम्नि त्रिकालगकलायतविम्तनाय ॥'
इत्यादि। उक्त प्रमग में हमें यह म्मरण रखना चाहिए कि इन मभी लोकों में ग्रहीन पद 'म्यग्नि' ही है. जो हमे म्बनिक' नाम में मिलता है, क्योंकि यह पहले ही कहा जा चुका है, कि 'म्बम्नि एव म्बनिकम्' । ऊपर के पन में हमें देव (अरहन-सिड) और धर्म (बांध) को स्पष्ट मानक मिल रही है और इनको मगन कहा गया है , नया 'म्बग्नि' और बम्निक दोनों का अर्ष मंगल है। मागे बन कर इमी पूजा प्रमग मे हम माधुओं को 'म्वनिपता' उनकी ऋद्धियों के वर्णन में पढ़ते हैं। अगहन रूप में नीर्षकगं की 'म्बग्नि-पना पढ़ने को मिलनी है। बरहंन और माधुओं के लिए निम्न म्वनि' विधान है-बहन म्पति
श्री वृपभो न. म्वम्ति, स्वस्ति श्री गितः । श्री मभव: स्वनि,म्बम्ति थी अभिनंदनः ।।
इत्यादि।
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जिनके विचारणीय प्रसंग साधुस्वस्तिनित्याप्रकरानकेवलोषाः,
म्फुग्न्मनः पर्यय मुखबोधाः । दिव्यावधिमानवनप्रवोधाः,
म्पम्ति क्रियामु परमर्पयो नः ।। कोप्ठम्य धान्यपममेकवीज,
मभिन्नमंबोतृपदानुमारि । चतुर्विध बुद्धिबलंदधाना,
म्बम्तिक्रियामु परमर्पयो नः ॥ इत्यादि । ऊपर के समस्त प्रमग में यह भली भानि सिद्ध है कि अगहन आदि पागे 'म्बम्ति' रूप है और जमा कि पहिले लिखा जा चुका है यह स्वस्ति उम 'म्बग्निक का ही रूप है, जिमे आकार मे स्थापित किया जाता है। यत.'स्वस्ति एप स्वस्तिक।'
जैन धर्म के अन्पो में मगलो का चलन छह प्रकार में माना गया है। द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव के अनुसार कर्ता [यथाशक्ति] इन छहो मे किमी को भी अपनाकर कार्य प्रारम्भ कर लेना है। * और म्वम्निक ये दोनों स्थापना मगन में आते है और ये दोनो ही बृहन्यक्ति के लघु (बीजरूप) है। मगल के छह प्रकार इन भानि है
णामणिट्ठावणा दव्ववेत्ताणि कालभावा य । इयछम्मेय भणिय, मगलमाणदमजणण ।'
-निलीयपण्णनि ११ नाममगल, स्थापनामंगल, द्रव्यमंगल, क्षेत्र मगल. कालमगल और भावमंगल ये मगल के छह प्रकार है।
जमे शान्ति प्राप्त्यर्ष मुखदाग, भावो द्वारा मंगलाचरण, किए जाते हैं मे ही काय द्वारा स्वस्तिक-रचना-प मगन किया जाता है। यह तो पूर्ण निर्विवाद है कि-- 'मगल कीग्दे पारडकजविग्यपरकम्मविणामणछ ।'
-कसाय पाहुए । 'सविपणंदावतयपमुहा० ।'
-नि०प०१७ प्रारम्भकार्यों में विघ्न निवारण के लिए मंगल किया जाना है। या स्वस्तिक, नवावर्त प्रमुन कार्य किए जाने हैं। भरत जैसे चक्रवर्ती ने भी
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दिग्विजय के बाद शिला पर अपना नाम लिखने में भी 'परित का प्रयोग किया है। तथाहि
'स्वस्नीनुवाकुकुलव्योमनलपालेयदीधिति. ।
चातुरग्नमहीभर्ता भरत शातमातुर ॥" - मादिपुगण ३२१४५
तीर्थकरो के शरीर सवधी १० लक्षणो मे भी ग्बग्निक एक गुपित माना गया है--
इसमें सदेह नही कि मगल, मुख, गानि व कल्याण के लिए गारो मंगलों, चागे उत्तम, और चागे गण (पाठ) का आमग लिया जाना है। गृहस्थाचार मम्बन्धी कार्यों में जो यत्र पूजा-विधानादि में ग्यापित किए जाते हैं, उन यत्रो- - विनायक पत्र, गाग्निविधान पत्र, शानियत्र में 'बत्तारि. मंगलोत्तमशरण' पाठ लिखा होना है. इम मबमे यही मिलहोता किम्बग्निक इन्ही चागे का प्रतिनिधि होना चाहिए।
प्रश्न होता है कि ग्निक का जो कप प्रचलित है उमकी मगलांतम गरण पाठ में मनि कमे बिठाई गई है। पर यह प्रश्न म्वग्निक की बनावट में महज ही हल हो जाता है। म्बग्निक बनाने वाले का भाव मगमोनमगरण की स्थापना का है और वह एक एक पद के लिए एक एक विधि पूरी करना जाता है। पर्याप मूल (आज) विग्मृत होने में वह ऐमा भाव नहीं बिठा पाना जो कि उमे बिठाना चाहिए। वास्तव में ग्वग्निक रचना के ममय जो भावमा गहनी चाहिए उमका रचनाक्रम इस प्रकार है. (म्मग्ण हे कि रचना बनाने ममय प्रनिपद उच्चारण के माथ ही चिह्न बनाना चाहिए)
- चनाग्मिगन, चनारिलांगुनमाऔर चनारिणग्ण की नार मन्या के प्रतिनिधि चार कोण -
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विम-शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग
नोट- - उक्त प्रतीक नीचे अलग-अलग दिनाला कर, शेप मन्त्र के प्रतीक पृथक-पृथक लकीरो मे संकेतो द्वारा स्पष्ट किए गए हैं
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नोट - (१) पाठ उच्चारण करते हुए, क्रमांकों के क्रम से लकीरें खीचना चाहिए । म्बम्निक के प्रचलित अन्य रूप इस भांति भी हैं
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पोसले:
परिशिष्ट
(अपवेलसतम)
धवला टीका मन्दिन पटनागम को जीवम्यान नामक सत्यमपणा की प्रथम पुस्तक हमारे हाथों में है। इसमें आए 'मन' 'अपदेन रोनो मन हमारी दृष्टि में है। ये ही गन्द ममयमार की १५वी गापा अर्थ की दृष्टि से विवाद के विषय बने हए है और इनके स्पष्टीकरण के प्रयत्न हमने भी अपने 'भगदेम. मनममन' प्रमग में किए है। अब मन के मम्बन्ध में इतना विष है कि -
१. पटाडागम मानवे मूत्र में मनपरूबणा' पद का और धवला में 'मनाणियोग' पद का प्रयोग मिलता है । इमी पुग्नक के हमी पृष्ठ १५५ पर एक टिप्पण भी मिलता है जो नया गज वा. मूल का कुछ है 'मन्च पभिचारि' इत्यादि । ऐम ही पदमागम के आठवे मूत्र में 'मन' पर है। यथा- मनपावणदाए । इमो विवरण में मन मन्वमित्यर्ष ' भी मिलता है। इमी पुस्तक में पृ० १५८ पर कही में उन एक गापा भी मिलती है। यथा - 'अन्यित पुणमन अयिनम्म य नहब परिमाण ।" हम गाषा अर्थ में लिया है कि-अम्तित्व का प्रतिपादन करने वाली प्रपणा की मप्रपणा कहनंहै। यहां भी 'मन' गम दृष्टव्य है।
उक्न पूरे प्रमग में दो नय्य मामनं आने । पहिला यह कि सभी जगह 'सन' का प्रयोग '
मन के मन' नन्द के लिए हवा है। यह बात भी किमी मे छिपी नही कि 'मनपम्पणा' में उनी 'मन् का वर्णन है जिम तत्वार्य मूत्रकार ने 'मन्मभ्याक्षेत्र' सत्र में दर्माया है। यानी जिम ममन में 'मन्' कहा वही प्राकृत में 'मन' कहा गया है। अन मन का मन् म्बभावन फलिन है। दूमरा नथ्य यह कि 'मन् मन्द मन्द के भाव में है, अन मन, मन, मत्व, मत ये सभी एकार्यवाची मिड होते है। पुम्नक के अन्त में जो 'सतमुत्त-विवरण सम्मत' बाया है उनमें भी 'मन' का प्रयोग मन् के लिए ही है।
'संत' पद के प्रयोग 'सत्' अर्ष में अन्यत्र भी उपलब्ध है । यथा-- -कम्ममहाहिवारे-नय... ५१२१ प्रस्तावना .प्र.पु.प.
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जिन-बालन के कुछ विचारपोष प्रसंग -एमो संत-कम्मपाहर उवामों-धव० प्र० पु० पृ. २१७ -'माग्यि कहियाण मतकम्पकमायपाहुडाण | वही, पृ० २२१
सत्त महाधवनति के अन्तर्गत ग्रन्थ रचना के आदि में 'संतकम्म पंजिका है। इमक अवतरण में अभी 'मत' शब्द भी मेरे देखने में आया है 'पुणो नहिनी ममछाग्माणियोगट्टागणि सतकम्मे मव्वाणि पविदाणि।'यह संतकम्ममिका नाडपत्रीय महाधवन की प्रति के २ पृष्ठ पर पूर्ण हुई है और पटना डागम पुम्नक ३ में इमका चित्र भी दिया गया है। (देखेंप्रम्नावना, पटनाडागम पुग्नक : पृ० १ व ७) अन इम उद्धरण में इस बान में तनिक भी मन्देह नहीं रहना कि प्रमग मे 'संत' या सस गन्द सत्त्व-आत्मा के अयं में ही है। और मग का अयं मध्य है जो 'आत्मा को आन्मा के मध्य अयं ध्वनिन करता हुआ आत्मा में आत्मा का एकत्वपन मलका कर आत्मा को अन्य पदार्थों में 'अमयुक्त मिट करता है।
एक बात और । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियममार को गाथा २६ में 'अनमजन' पद का और ममयमार की गाथा १५ में 'मतमज्म' या मतमा' का प्रयोग किया है और नियममार को उक्त गाथा की मम्कृत छाया में 'अनमज्म' का अर्थ 'आत्म-मध्य' किया है।' इमी प्रकार 'मतमन्न' या 'मनमजम' की मम्कृत छाया भी मन्मध्य या मन्वमध्य है यह सिद्ध होता है। लेखक-विनय
जैनी हिमक होता है. ममताभाव में और विगंधी में अपना । आचार्यों के प्रमाणों में पूर्ण, प्रस्नुन मकनन भी जिनवाणी के स्वरूप को मुरक्षित रखने की दृष्टि से लिखा गया है-'परिक्तिय संपत्तब।'
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