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जिन-मानविपरीव प्रसन एक उल्लेन पाया जाना है। दिगम्बर्ग की ओर मे चानुर्याम की कई बार कई विद्वानों ने पुष्टि की है। अंगे-- 1-पार्वनाब मे पातुर्याम का उपदेश दिया था।' २- 'वानुम प धर्म के मम्थापक पार्श्वनाथ थे यह एक ऐतिहामिक तव्य है।' ३ 'भगवान पार्श्वनाथ के दाग मम्थापित चातुर्याम धर्म के आधार पर ही भगवान महावीर ने पत्र महाबनण निगंथ मार्ग की "म्थापना की।' आदि
जहा नक मञ म्मग्ण है--इन्दौर में प्रकाशित 'नीर्षकर-मामिक' के 'गजेन्द्रग्-िविणेपाक में भी दो विद्वानों के लेना में मी ही बातें हगई गई पी। उस समय मेरे ममक्ष अक न होने में उबग्ण नही मिल पा रहा है। यदि f० विद्वानी की चातुर्याम मवधी बात को माना जाय-जमा कि होना भी चाहिए तो निम्न प्रश्नों पर विचार कर लेना आवश्यक है-दि. मान्यता में चातुर्याम म्वीकार करने पर माधुओ के २८ भूनगुणों को मन्या कंमे पूरी होगी? क्यों कि ब्रह्मचर्य अपरिग्रह में गभिन होने में
महावनों में एक कम करना पड़ेगा। २- क्या यही माधुओं के मूलगुण २७ होने का उम्मेन है? . आचायों के मूलगणों में स्थान पर ३५की ही मक्या रह जायगी
(एफ. महावन नो कम हो ही जायगा) पर ब्रह्मचर्य धर्म का अन्तर्भाव (महावना की भानि) आकिंचन्य में करना अनिवार्य हो जायगा। हम
आपान का निराकरण केमे होगा? ४ क्या कही आचार्य के मूलगुण ३५ होने का उल्लेख है। ५ - क्या पातुर्याम और पचमहावन की विभिन्न मान्यताओं में नीर्षकगे की
दशना को विशेष ध्वनि कप या अनक्षरी मानने में बाधा उपम्बिन न
होगी। ६-या विभिन्न स्वभाव और विभिन्न बुद्धि के लोगों की अपेक्षा मे हुई ध्वनि
में मन का उपयोग न होगा? - क्या कही उन पापो की सख्या चार मानी गई है जिनके परिहार सप
चातुर्याम होते है । यदि बाईम नीर्षकग ने चार पाप बनलाए हो नो १. 'बीम निषयग मामायिय सजम उबदिसति ।
दुषठावणिय पुण भयव उमहो व बीरोय ॥' -(मूला० ५३) पुरिमा य पन्छिमा विहु कम्पाकप्प न जाणति ॥' -मूना० ॥५५) २. 'युक्तिमढ़चन यम्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।'