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जिनान के कुछ विनाम्नाय प्रथन
प्राप्त
को अपना आकाश न कभी हा पर्यायां के परिवर्तनम्प म उगे नित्य घटाकाश मठाकाण त्यादि कहा जाता है। जो आकाण अभी arega घटाकाश बहलाना था वहीं यट के नष्ट होने पर (मठ मे स्थित होने में ) मठाकाण कहलाया । पर अस्तित्व की जप में नागनी विद्यतेऽभावां नाऽभावां विरान मन । जा गन् ? उसका नाश नहीं नहिं अमन कभी पंदा होता । - नियम | मी परिधि की अपेक्षा णमोकार को अनादि माना गया है ।
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12 | यी अपना
न भी विनाश
माना णमोकार मंत्र के सभी पात्र और की पृथव-पृथक मना आदि की उपेक्षा
- नव लिए नमन व्यकि
जनादि पर यह निश्चय कैसे किया जाय कि णमोकार की श्रृंखला में नगन-गिद्ध आचार्य - उपाध्याय और गर्वसाथ वा ही निश्चित स्थान ( भी ) जनादि है। यदि उन्हीं का स्थान निश्चित है तो मत्र के विभिन्न रूप देखन म गया आनं ? आर यदि वे रूप सत्य है तो ऐसा मानना पड़ेगा किविविधता ज्ञान के कारण णमोकार मंत्र अनादि नहीं है |
या प्रश्न मना
मन पर विचार करन क लिए हम (नामा की अपक्षा) णमाकार
माग पर दृष्टियान करना होगा । नथाहि
प्रथमत्प
द्वितीयप
णमा जनिताण णमा सिद्धाण गमा आर्याग्याण । विज्ञायाण णमो लोए सवमाहूणं ॥'
णभा
-पट्यागम
णमो
लाज मां गिद्भाग णमो आग्याण | उभयाण णमो सबसाहूणं ॥' मा लाए "बगाहून निस्वनिन् पाठ
श्री भगवती सूत्र ( मंगलाचरण) निर्णय मा० म० १६७८
भिधान राजेन्द्र ( आगम कोप) वे उल्लेख के अनुसार- भगवनी वा पग प्रकार है जा मत्र के तृतीय रूप को दगिन करना है - तथाहितृतीयरूप -
'यतो भगवन्यादावेव पचपदान्युक्तानि -
नमो अरिहंताण, नमी मिद्वाण, नमो आयरियाण ।