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मालामाल allow गया होना तो वाचार्य बरहंतों और मियो को भी "अप्रतमी" पोषित करते, जबकि उन्होंने ऐमा घोषित नहीं किया।
उक्त विषय में अन्य आचार्यों के पवन ऊपर प्रस्तुत किए गए। भाचार्य कुन्दकुन्द ने संबंधित विषय को जिम रूप में प्रस्तुत किया है उसे भी देखना आवश्यक है क्योकि "ममयमार" उन्ही की ग्चना है। "ममयमार" के मविपुर मानाधिकार में कहा गया है
"अप्पा णिच्ची अनिवपदमो देमियो उ ममन्ति व मी मरकई ननांहीणी अहिली य काउ ॥"
ममयमार १२ "जीवो हि दय्यम्गेण नानियो, अमस्ययप्रदेगी मोकग्मिागाप।"
टीका, अमनचन्द्राचार्य (धात्मण्याति) आन्मा द्रव्याथिकनयेन निन्यग्नथा चामन्यानप्रदमा तमित ममये परमागर्म नम्यान्मन शुद्ध चनन्यान्वयनक्षण द्रव्यत्व नषेवासम्यानप्रणब पूर्वमेव निष्ठति ।"
टीका, जयमनाचार्य, (मापनि -उक्त मन्दर्भ को स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। वह म्पय म्पप्ट है। गाथा में नित्य", आत्मख्याति में "दव्यरण", और नापयति में "दव्यापिकनयन", ये नीनो विगेनिग द्वय्याषिक (निश्चय) नय के कथन को दगिन करने है। एनावन दम प्रमग में आत्मा के अमक्यान प्रणिय का कथन निश्चयनय की दृष्टि में ही किया गया है, व्यवहार नय की दृष्टि में नहीं।
आगम में व्यवहार और निश्चय इन दोनां नयां या गनिमें प्रयोग करने की हम हट नहीं दी गई। इनके प्रयोग की अपनी मर्यादा है। निश्चय नय के कथन में वस्तु को म्वभाव शनि एव गुण धर्म की मुख्यता रहती है और व्यवहार नय में उपचार की। इमक अनुमार आग्मा का बहुमणत्व निश्चयनय का कथन है, व्यवहाग्नया नहीं ।
इमका फलिनार्थ यह भी निकलना है कि जो कुनकुन्दाचार्य पात्मा के म्वभावाप-पग्म पाग्मिाणिक भाव-अप मविषुट जानाधिकाग्म आम्मा को नित्य एव अमन्यप्रदेणी घापित करने है. वही आचार्य आत्मा को कथमपि किमी भी प्रमंग में अप्रसंगी नहीं कह सकतं -
"जीवापोग्गलकाया धम्माधम्मा पुणो य आगामं । मपदमेहि अमवा गन्धि पदमनि कालम्म ।
-कुन्दकुन्द प्रवचनमार १३