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मिन-माल धिारणीय प्रसंग १. "प्रविण्यन इनि प्रदेणा ॥३॥ प्रविण्यन्ने प्रतिपादन इनि प्रदेशाः । कष प्रदिण्यन्ने ' परमानवम्बान परिच्छेदान् ॥ ॥ वध्यमाणममणो द्रव्यपग्माण मयावनि क्षेत्र व्यवनिष्ठने म प्रदेश इनि व्यवलियने ।
न धर्माधर्मकमीवा नृल्यामध्ययप्रदेणा।" -नन्या. गज० ५/८/3 १०. "प्रणम्य भाव प्रदेशव अविभागिद्गल-गग्माणुनावष्टब्धम् ।"
-आलाप पनि आगमी के उन प्रकाण में स्पष्ट है कि "प्रदेण" और प्रदेश मन्द भागमिक और पारिभाषिक है और आकागभाग (क्षेत्र) पग्मिाण में प्रयुक्त होते है। आगम के अनुसार आकाण के जितने भाग को जो द्रव्य जितना व्याप्न करता है वह द्रव्य आकाण के पग्मिाण के अनमार उतने ही प्रदेणां वाला कहा जाना है।
का यदि "पदनामनेकार्थ" के अनुसार "प्रदेण" का "वड" और "भप्रदेश" का "अखण्ड" अर्थ माने नो क्या हानि है?
ममाधान- गन्दी के अनेक अर्थ होते हग भी उनका प्रामगिक अर्थ ही ग्रहण करने का विधान है। जम मधव का अर्थ घोता है और नमक भी । पर, भोजन प्रमग में दम गब्द में "नमक" और यात्रा प्रमग में "घोड़ा" ग्रहण किया जाता है। इसी प्रकार द्रव्य के गुण-मभाव में "प्रदेण" "अप्रदेश" को आमिक परिभाषा के भाव में लिया जायगा । अन्यथा शुद्धपयोगी आत्मा के मवर्भ में . "अप्रदेण" का अर्थ "क प्रदेश" करने पर शुढात्ममिड भगवान में एक प्रदेणी होने की आपनि हांगी जब कि उन्हें "अपदेण" न मान कर मपदण अमल्यान प्रदेणी वाला म्वाभाविक रूप में माना गया है। उनकी स्थिनि "किचिणाचग्मदेहदोमिदा के रूप में है। प्रदेश का परिमाण आकाक्षेत्रावगाह में माना गया है। आत्मा को अखण्ड मानने में कोई बाधा नही -- आत्मा अमंल्यान प्रदेशी और अबण्ड है ही।
आगम में एक में अधिक प्रदेण वाले द्रव्य को "अग्निकाय" और मात्र एक प्रदेशी द्रव्य को "अम्निकाय" में बाहर रखा गया है। कालाणु और अविभाज्य पुद्गल परमाणु के सिवाय मभी द्रव्यो (आत्मा को भी) को अम्निकाय से बाहर (एक प्रदेणी) द्रव्यों में गिनाया हो ऐमा पान और देखने मे नही आया।
आत्मा को अप्रदेगी कहने की इमलिए भी आवश्यकता नही कि "प्रदेशित्व" "अप्रणित्व का आधार आकाम को अवगाहना का क्षेत्र माना गया है-परमपारिणामिक भाव नही । यदि इनका मापदण्ड भावो मे किया