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"अम्ति मवर्तविस्तारयोरपि मोकाकामनुल्या संख्येय-प्रदेशापरि. ज्यावान् गोवन्य।"
-ही, अमृतबन्द्राचार्य-तत्वदीपिका "तम्य नावन मंमागवम्यायो विस्तारोपमहारयोरपि प्रदीपवन् प्रदेशानां हानियोग्भावान व्यवहार दहमात्रापि निश्चयेन मोकाकामप्रमितासंपेय प्रमत्वम् ।"
-वही, जयमेनाचार्य, नात्पनि जीव के अमंग्यान प्रदेगिन्य को किमी भी अपेक्षा से उपचार या व्यवहार का कपन नहीं माना जा मकना । प्रदेश व्यवस्था द्रव्यों के म्वाधीन है और वह उनका पभाव ही है और म्वभाव में उपचार नही होना । नत्वा गजवानिक (५/८/१३) का कथन है कि
"हेल्पपेक्षाभावान् ॥३॥ पुद्गलेषु प्रमिहेनुमवेक्ष्य धर्मादिषु प्रदेशोपचार: न क्रियने नेपामपि स्वाधीन प्रदेणत्वात् । तस्मादपचार कल्पना न युक्ता।"
म्वर्गीय, न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जी का यह कथन विशेष दृष्टव्य
"पुर नय दृष्टि में अमन उपयोग म्वभाव की विवक्षा मे मामा में प्रदेष भेद न होने पर भी मंमागे पीव अनादि कर्म-बन्धनबर होने मे मावयव
-० वा. (मानपीठ) पृ० ६६६ एक गान और । अपेमाधित होने से नय-दृष्टि में वस्तु का पूर्ण कानिकगुरुस्वभाव गम्य नही होता। पूर्ण ग्रहण तो मकन प्रत्यन केवलनान वागही होना है। इमीलिए आचार्य पदार्षमान को नय-दृष्टि मे अनीन घोपिन करते है।
"णयपमानिक्कतो भन्नदि जो मो समयमागे।" "मवषयपक्चरहिदो भणिदो जो मो ममयमागे।"
-ममयसार, १४२, १४४ मूर्त व्य में तो परमाणु की प्रदेश संज्ञा मानी जा सकती है, पर प्रदेश की भाम्पीय परिभाषा की वहां भी उपेक्षा नही की जा सकती। पुद्गल द्रव्य के मिवाय सभी अमूर्त इम्पों में प्रदेन का भाव याकाम क्षेत्र में ही होगा उपयोग के अनुसार नहीं।
मूतं पुनलाम्ये संमातामन्यातानंताचूनां पिडा कंधास्त एव विविधा प्रदेना भयंते न पत्रप्रदेशाः ।-(मेवानां भेषापेक्षति फनितम्)
- द्रव्य सं० टीका माषा २५