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मात्मा का मसाल्यात मत्व के सम्बन्ध में ही उसके निर्धारण का प्रश्न है यहा अगों के रहने से म्बमावशून्यता भी नही होगी और ना ही व्यापता का अभाव । परि एक धर्म केही आमरे में (अन्य धर्मों के गहने हुए) अभियाकारित की हानि होती हो नब तो एकप्रदेशी होने में कालाणु, पुद्गलाणु में और अमनयामनी होने में मिडो में भी अक्रियाकारिस्व का अभाव हो जायना - परमा होना नही।
गजवानिक में आत्मा के अपनपने का भी कथन है पर यह आन्या के अमख्यानप्रदेशत्व के निषेध में न होकर गदाट को मध्य में कही किया गया है अर्थात आम्मा यद्यपि परमार्थ में अमयामी अबण्य है समापि पबदृष्टि को विवक्षा में बहुप्रवेशीपने को गौण कर अमल में पहण करने के लिए अभिप्रायवण उम अप्रदेणम्प कहा गया। । प्र को मास्त्रीय परिभाषा को लक्ष्य कर नहीं।
प्रकृत में उपमहाराप हसना विग जानना चाहिए कि हाक माजमार्ग का प्रमग है. उसमें निश्चयका अकरने ममय. उगम पानाहान पर भी अभेद और अनुपचार को मुल्यता ग्नी गई है। हम दृष्टि को मात्र कर जब अप्रदेणी का अर्थ किया जाना है नव प्रण का अर्थ भेद या भाग करने पर अप्रदेश का अर्थ अन्नड हो जाता है। इसलिए परमार्थ में जीव के सम्बनभक्ति में अमन्यानप्रदेणी होने पर भी दृष्टि की अपेक्षा उम अनगम अनुभव करना आगम मम्मत है। प्रोण को शास्त्रीय परिभाषा की दृष्टि में आम्मा अमन्यानप्रदणी और अनही और प्रदेणानगाहो होकर भी उम अमव्यप्रदणी हो मन में कोई बाधा नहीं। इगका निरकप किवात्मा अपनी नषा अखण्ड नही, अपितु अमन्यानप्रसंगी नया बना।
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