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प्राचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत
प्रायः सभी मानते है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने जन शोमनी प्राकृत को माध्यम बनाकर ग्रन्थ निर्माण किए। कुछ समय में उनके ग्रन्थों मे भाषा की दृष्टि से संशोधन कार्य प्रारम्भ हो गया है और कहा जा रहा है कि इसमें लिपिकारों की संदिग्धता या असावधानी रही है। ये कारण कदाचित हो मकते है और इनके फलस्वरूप अनेक हम्नलिखित या मुद्रित प्रतियों में एक-एक शब्द के विभिन्न रूप भी हो सकते है। ऐसी स्थिति में जबकि आचार्य कुन्दकुन्द की स्वयं की लिखित किमी ग्रन्थ को कोई मूल प्रति उपलब्ध न हो, यह कहना बड़ा कठिन है कि अमुक शब्द का अमुक रूप ही आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी बना में लिखा था । तथा इसकी वास्तविकता में किसी प्राचीन प्रति को भी प्रमाण नही माना जा मकता, यत: - 'पुरार्णामत्येव न साधुमवंम् ।'
जहां तक जैनीमैनी प्राकृत भाषा के नियम का प्रश्न है और कुन्दकुन्ध की रचनाओं का प्रश्न है— उनकी प्राकृत मे उन सभी प्राकृतों के रूप मिलते है जो जैन शौरसेनी की परिधि में आते है। उन्होंने सर्वथा न तो महाराष्ट्री को अपनाया और न सर्वथा शीग्मेनी अथवा अर्धमागधी को ही अपनाया । अपितु उन्होंने उन तीनों प्राकृतों के मिले-जुने सो को अपनाया जो (प्राकृत) जन शीरमेनी में महयांगी है। जनशौरसेनी प्राकृत का रूप निश्चय करने के लिए हम भाषा-विशेषज्ञों के अभिमन जान लें ताकि निर्णय मे सुविधा हां'मागध्यवन्निजा प्राच्या मूरमेन्यर्धमागधी ।
बाल्हीका दाक्षिणात्या व मप्नभाषा प्रकीर्तिताः ॥'
यद्यपि प्राकृत वैयाकरणों ने जैन शौरसेनी को प्राकृत के मूल भेदों मे नही मिनाया, तथापि जैन साहित्य मे उसका अस्तित्व प्रचुरता में पाया जाना है । दिगम्बर माहित्य इम भाषा मे वैसे ही ओत-प्रोत है अंम श्वेताम्बर -मान्य आगम अर्धमागधी मे । सम्भवतः उत्तर से दक्षिण में जाने के कारण दिगम्बराचार्यो ने इस (जैन शौरसेनी) को जन्म दिया हो - प्रचार की दृष्टि मे भी ऐना किया जा सकता है। जो भी हो, पर यह दृष्टि बड़ी विचारपूर्ण और पैनी है—इनमे सिद्धान्त के समझने में सभी को बालानी अनुभव हुई होगी और सिद्धान्त सहज ही प्रचार में जाना रहा होगा । यतः इम भाषा में सभी प्राकृतों के शब्दों का समावेश रहता है-शब्द के किसी एक रूप को ही शुद्ध नहीं माना जाता