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जिन-शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग
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एक बात और । आचार्य कुन्दकुन्द की यह परिपाटी भी रही है कि वे एक ही गाथा को यदा-कदा अन्य परिवर्तनो के साथ दुहरा देते रहे है- गाया मे कुछ ही शब्द परिवर्तन करते रहे हैं। यहा भी यही बात हुई है— उदाहरणार्थ जैम
'रार्याम्ह य दीर्माह य कमायकम्मेमु चेव जे भावा । तहि दु परिणमता रायाई वर्धाद पुणां वि ॥२८१|| ' 'गर्याम्ह य दोर्माम्ह य कमायकम्मेसु चेब जे भावा । तेहि परिणमतो रामाई बधदे चेदा ||२८२|| ' 'पण्णाए घितब्बी जो चंदा सो अह तु णिच्छयदां । अवमेमा जे भावा ने मज्म पति णायव्वा ||२७|| पण्णाए धितवो जो दट्ठा मां अह तु णिच्छयदां । अवमेमा जे भावा ते मज्झ परेति णायव्वा ||२६|| पण्णाए वित्तब्बो जो णादा मां अहनु णिच्छयदां । अवसेमा जे भावा ते मज्न पंर्गत णायव्वा ||२६|| -ममयमार- - ( कुन्दकुन्दाचार्य उक्त सदर्भ मे भी इसी बात की पुष्टि होती है कि आचार्य ने आत्मानुभूति और जिनशामनानुभूति में अभेद दर्शाने के लिए १८वी गाथा को थोडे फेरबदल के साथ १५वी गाथा में भी आत्मा के वे सभी विशेषण दुहराए है जो कि गाथा १०वी में है ।
इमे 'मन' शब्द मानकर, उसका शान्त अर्थ करना उचित नही जँचता, यन जिम आत्मस्वरूप वो यहा चर्चा है वह शान्त और अशान्त दोनों ही अवस्थाओं मे रहिन—परमपारिणामिक भाव रूप है ।
इस प्रकार अपदेश शब्द का अप्रदेशी अर्थ भी आगम विरुद्ध है यतः आत्मा निश्चय से अमख्यानप्रदेशी, व्यवहार से शरीरप्रमाणरूप अमख्यानप्रदेशी है । 'शरीरप्रमाणरूप असख्यान: ।'
उक्त सभी विचारों मे मेरा आग्रह नही । पाठक विचारे और जां युक्तियुक्त हो उमे ही ग्रहण करे ।
'म' का अर्थ मध्य होना हो ऐसा ही नही है । आचार्य कुन्दकुन्द ने हम शब्द का प्रयोग 'मेग' अर्थ मे भी किया है। प्रमग मे 'मेरा' अर्थ से भी
पूर्ण समति बैठ जाती है। 'मेरा' अर्थ मे आचार्य के प्रयोग
'होहिदि पुणां वि मज्झ' – २१ 'जं भणति मज्झमिण' – २४ 'मामिषं पोग्ननं द-२५
समयसार