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for-am के विचारणीय प्रसंग नाम से कहा गया है और टोका मे बहिया का अर्थ मैथुन और आदान का अर्थ पग्ग्रिह किया गया है। दोनों में इन ममान करके उन्हें एक बना दिया गया है।
विचारणीय यह है कि इनममाम में जब समस्त दोनो पद उपस्थित हो गव काई पर अपनं मुख्यार्थ को मना को अपने में पृथक् छोड़ देना है क्या ? जर्वाक एक संव-गन समान में (जहा एक पद का अस्तित्व मया लुप्त हो जाता है) भी सुप्त पद का अर्थ पृथक कप स्पष्ट रहता है। यथा-माता च पिता व पिनगे। इसमें मातृपद मर्वया लुप्त है पर उसका अर्थ पृथक् रूप में कदापि सुन नही माना गया- -वह पृथक् ध्वनित होता है। फिर 'बहिबादाण' में नो ममाम होने पर दोनों ही पद मोजद है एनावना दोनों का ही अस्तित्व मिड होना है।
एक नथ्य यह भी ध्यान देने योग्य है कि-यदि 'आदान' का अर्थ परिपत है तो उसकी पूनि नी 'मादिन्नादाणाओं में गृहीत 'आदान' शब्द मे हो जानी है ऐम में 'मिश विरमण' ही पर्याप्त था या अदिन्नादाणाओ के म्यान में 'आदिनाविग्मण' ही पर्याप्त था। उन स्थिति में ना यही फालन होता है कि व्याकरण के नियमानमार आदान पद के दानो प्रयोगों में, एक प्रयोग व्यर्थ है और व्ययं मकर वह जापन कग रहा है कि (व्याकरण में शब्द व्ययं में प्रयुन नहीं होतं) पाची यामी का ही अस्तित्व रहा है -बहावयं और अपरिग्रहदांनी ही म्वनन्त्र अग्नित्व लिए हए है।
मी टीका में एक मष्टीकरण यह भी दिया गया है कि अग्गिलीता गोपिन् भांगी नहीं जानी- मथुन परिगृहीता में ही शक्य है इमलिए बहिया के माष आदान - (पग्गृिहीत) का ममावश है। लेकिन यह विषय भी आगम बाप है यन उमाम्बानि बामी ने जहां ब्रह्मचर्य के दांपा को गिनाया है वहा म्पष्ट लिखा है, 'परिगहीनारिगृहोतागमन' अर्थात् दाना (पग्गिहीना और अग्निहोत्रा) ही मम्बन्ध में उनकी स्पष्ट घोपणा है कि दोनों ही दोप के भागी होग- - यदि अपरिगृहीना में दांप को मभावना ही न होती तो वे उमका ग्रहण न करन।
ऐमा प्रतीत होता है कि 'अग्गृिहीता में मथुन शक्य नहीं यह भ्रम ही 'गपर्व-धाम' को गौण या गुप्त करने में कारण रहा है। यन-कि मुनि सर्वथा स्त्री रहित होता है. उनके पग्गृिहीता मानी ही नहीं गई तो वह समाव से (परिगृहीता रहिन होने से) ब्रह्मचारी ही सिड हुबा-अत: उसके लिए इस बाम की गावापकता प्रतित नहीं की जाती रही बार