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भगवान पार के पंचमहावत
करके समावेश माना हो जाय तो नोगे जादि पात्र भी परिग्रह में गति किए जा सकते है अथवा एक अहिंसा महाद्रत मे भी सभी मम्मिलित हो सकते है। पर, ऐसा किया नही गया । मभी महात्रन आदिनाथ युग में महाबीर युग तक चलते रहे हैं। अतः चातुर्याम धर्म पार्श्व का है ऐगा कथन निर्मून बैठता है । चउप्पण्ण महापुग्गि मे पाचवे नीकर गुमतिनाथ के पूर्वभव गुरिंग मिह राजा न विनयनदन आचार्य से
का वर्णन करते हुए लिखा है धर्मश्रवण किया -
'मोलमइओ उणधम्मोपाल
०७८ त्रिपष्ठिशलाका पुरुष चरित्र पत्रं मर्ग पृष्ठ ६४ का एक
उद्धरण है-
'महावनधग श्रीग अंशमात्रांपजीविन | सामायिकथा धर्मोपदेशका गुम्बो मना ॥६६६ ॥ सर्वाभिलाषिण गर्वभोजिन गग्रहः । अब्रह्मचारिणां मिथ्योपदेश | गुरुबां न तु ॥ ८७॥ इयमे गुरु ( मुनि) के लक्षण का निवेश और यह निर्देशक अजितनाथ के समय का है । उसमे विपुला मामा गणिनी शुद्रभद्र की पन्नी सुलक्षणा कां गुरु की पहिचान बनाने की वि गुरु की सामायिक चारित्री, महावनी, भिक्षोपजीवी जर धर्मोपदेशक होना चाहिए। जो टके विपरीत सर्वाभिन्नापी, सर्व भांजी, सर्पारग्री, अब्रह्मचारी व मिथ्योपदेशकाना है वे गुरु नही है ।
इसमें ध्वनित होता है कि यदि बीच के २: मीयंक के समय मे 'चातुर्याम' ही होते तो उन्त श्लोक में परिग्रह और अब दोनों का पृथक्-पृ निर्दोश न होना अपितु मात्र 'मर्याग्रहा' वा ही गमावण होता ।
'अभिधान गजेन्द्र' मे एक उद्धरण है 'न जहा सध्या पाणावागाओ वेरमण एवं मुमात्रायाओ. आदिन्नादाणाओं, मत्र्याओं, महिलावाणाओ बेमणं...।" - आनि ग० भाग ३ १० ११६८ ठाणा. ८ सूत्र १३६ ) टीका - (बहिडादाणा ओति) बहिडा मंजुनं परिग्रह विशेष आदान ज परिग्रहः – नयांद्वन्द्वं कन्वम् इह च मैथुन परियहेज्नभंवति न परिगृहीता योषित् भुज्यत इति ।'
बही टीकाश; स्थानाग पृ० २०२, भगवती सूत्र शतक ? उद्दे० ६१० २०६ उक्त उद्धरण में चातुर्याय में से अन्तिम याम को 'बहिडादार्णावरमण'
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