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के कुछ विचारणीय प्रसंग
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पुष्णिमासु' यह सूत्र प्रमाण है । महानिशीथ मे ज्ञान पचमी को भी पर्व प्रसिद्ध किया है । अष्टमी, चतुर्दशी और ज्ञान पचमी को उपवास न करने पर प्रायश्चित का विधान है। इन पर्वो के कृत्यों में प्रोषध करना चाहिए । यदि प्रति पर्व में उपवास की शक्ति न हो तो अष्टमी, चतुर्दशी को नियम से करना चाहिए । आगम में भी कहा है- 'जिनमन में सर्व निश्चित पर्वो में योग को प्रणस्न कहा है और अष्टमी, चतुर्दशी के प्रापध को नियमत करना बतलाया है ।
उक्त प्रसग के अनुसार जब हम दिगम्बरो मे देखते है तब ज्ञात होता है कि उनके पर्व पचमी से प्रारम्भ होवर (ग्न्नत्रय सहित) मासान्त तक चलते हैं, और उनमें आगमविहिन उक्न सर्व (पचमी, अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा) पर्व आ जाते है । जब कि श्वेताम्बर्ग में प्रचलित पर्व दिनों मे अष्टमी का दिन छूट जाता है- उसकी पूति होनी चाहिए। बिना पूर्ति हुए आगम की आज्ञा 'नियमेण हवइ पोमहिल' का उल्लघन ही होता है। वंमे भी इसमें किमी को आपन नही होनी चाहिए कि पर्युपण काल में अधिक से अधिक प्रोषध की निथियो वा नमावेश रहे । यह समावेश और जैनियों के विभिन्न पन्थों की पूर्व तिथियां मे पता भी, तभी सम्भव हो मकती है जब पर्व भाद्रपद शुक्ला पचमी में ही प्रारम्भ माने जायें ।
मल्पसूत्र के पर्युषण ममाचारी में लिखा है- 'ममणे भगव महावीरे वीमाण सवम गए मामे वटक्कते वासावाम पज्जोमेबद्द ।' हम 'पज्जोसेवड' पद का अर्थ अभिधान राजेन्द्र पृ० २३६ भा० ५ मे 'पर्युषणामाकार्षीत्' किया है। अर्थात् 'पण' करते थे। और दूसरी ओर कल्पसूत्र नवम क्षण मे श्री विजयगणि ने इस पद की टीका करते हुए इसकी पुष्टि की है (देखे पृष्ठ २६८ ) -
' तेनार्थेन तेन कारणेन है शिष्या १ एवमुच्यते बर्षाणा विशति रात्रियुक्ने मामे अनित्रान्तं पर्युषणमकार्षीत् ।' दूसरी ओर पर्यूशणाकम्प चूर्णि मे 'अन्नया पज्जांमबणादिवसे आगण अज्जका लगेण सालिवाहणे भणिओ भद्दवजुष्हपचमीए पज्जांमवणा' - (पज्जोमविज्जड ) उल्लेख भी है ।
-अभि० पृ० २३८
उक्त उद्धरणों मे स्पष्ट है कि भ० महावीर पर्युषणा करते थे और वह दिन भाद्रपद शुक्ला पचमी था । इम प्रकार पचमी का दिन निश्चित होने पर भी 'पचमीए' पद की विभक्ति मे मन्देह की गुंजाइश रह जाती है कि पर्युषणा पचमी मे होती थी अथवा पचमी मे होनी थी। क्योंकि व्याकरण शास्त्र के अनु सार 'पचमीए' रूप तीसरी पचमी ओर मानवो तीनो ही विभक्ति का हो सकता है ।