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प्राक्कथन
जिन शामन या जैन धर्म आचार और विचार का आकर है । उसमें निहिन-तत्व चितकों और अन्वेषणकर्ताओं के लिए मदा आकर्षण का केन्द्र रहे है । प० पद्मचन्द्र जी ने एक नम्वान्वेषक और तत्व जिज्ञासु के रूप में जिनशासन के कुछ विचारणीय प्रमगो पर अध्ययनपूर्ण प्रकाश डाल कर अध्ययन की रुचिकर मामग्री प्रस्तुत की है। उनका यह अध्ययन व्यापक है। उन्होने दिगम्बर साहित्य की ही तरह श्वेताम्बर साहित्य का भी आलोडन किया है और इसमे उसका महत्व बढ गया है, क्योंकि उसमें जिन शासन की दोनो धाराओं का निष्पक्ष अवगाहन किया गया है ।
१. प्रथम विचारणीय प्रमग है, अनादि मूलमंत्र या पचनमस्कार मंत्र | यह मत्र समस्त जैनी को मान्य मूलमंत्र है । वेताम्बर परम्परा में इसे नवकार मंत्र कहते है क्योंकि पाच नमस्कारों के साथ एम पत्र णमोकारो आदि बार पद जोड कर नौ पद होते है । ध्वेताम्वरीय लघु नवकार फल मे हम मंत्र का माहात्म्य बतलाते हुए हमे जैन शासन का मार और चोदह पूर्वो का उद्धार कहा है ।
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यथा
"जिणमामणम्म मार्ग चउदमपुष्याण जो ममुद्धा | जन्म मणे णवकारी, ममारी तम्म कि कुह ?"
अर्थात् जो जिन शामन का सार है और चौदह पूर्वो का उद्धार रूप है ऐसा नमस्कार मंत्र जिसके मन मे है ममार उसका क्या कर सकता है ? दिगम्बर मप्रदाय में नमस्कार मंत्र का एक ही रूप पाया जाता है किन्तु श्वेताम्बर मप्रदाय में कुछ भेद है। जिसका विवेचन प० पद्मचन्द्र जी ने किया है । नमस्कार मंत्र में प्रथम चार पदों में कोई अन्तर नही है । अन्तिम पद में अन्तर है । भगवती सूत्र मे अन्तिम पद 'णमां बभी निवीए' है अर्थात् माधुओं के स्थान में ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है किन्तु उस पर अभयदेव सूरि की मस्कृत टीका में णमो मन्त्र माहण' पाठ है। तथा णमो लोग मब्ब माहूण' को उसका पाठान्तर कहा है। टम अन्तिम पद में आए 'लोग' ओर 'मव्य' पदों को लेकर दिगम्बर परम्परा में भी विवाद चलता है। किन्तु धवला टीका में लिखा है कि ये दोनों पद अन्नदीपक है । अन उनकी अनति पूर्व के
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