________________
अनादि धूलमंत्रोऽवन् ।
निष्कर्ष निकलता है कि-अभि० राजेन्द्र कोष की पंक्तियां इस दिशा में स्पष्ट हैं
'जायग्यि हरिभदेणं ज नत्थाय मेदिट्ठे न सब्ब ममतीए मोहिऊणं लिहिजं ति अन्नेहि पिमिद्धमेण दिवायर बुबा रजस्ामेण देवगुत जमवण श्रमाममणमीम रविगुल नमिचदजिणदामगणि मावगमष्यमिरियमुहेहि जुनहाण मपहरेहि बहुमन्निर्यामिण नि | महा. ३० | अन्यत्र तु मप्र । वर्तमानाऽऽगम, तत्र मध्यं न कुत्राप्येव नवपदाष्ट-मादादि प्रमाणा नक्कारन ॥ दृश्यते । ततो भगवत्यादावेव पचपदान्युक्तानि 'नमो अरिहताण, नमो गिद्धाण, नमो आर्याग्याणं, नमो उवज्झायाण. नमो बभोए निवीए' इत्यादि ।
| अभि० रा० भाग : पृ० १६३० इसका अर्थ विचारने पर यही मिद्ध होता है कि सभी आचार्य हरिभद्र, सिद्धमेन दिवाकर, वृद्धवादी, यक्षमेन देवगुप्त, जमवर्धन, क्षमाश्रमणगिप्य रविगुप्त, नेमिचन्द, जिनदामगणि आदि ६= अगे वाले पाठ की युक्तिसंगत मानते है और वही पागम के पाठ तथा अन्य नागमो के पाठ में [ पचपद व पंतीम अक्षर की मान्यता में भी | टीक बैठना है और मर की एकरूपता को भी सिद्ध करना है। जब वि. श्री भगवती जी का पाठ उक्त श्रेणी मे अनुकूल नहीं बैठना ।
भाषा और लिपि जो भी हो | दोनों ही परिवर्तनशील है | पर मत्रगटन और पात्रां की दृष्टि से मंत्र के युक्ति-मगत अनादित्व को सिद्ध करने वाला रूप- प्रथमरूप ही है. जी पंचपरमेष्ठी गर्भित रूप है। अभी निवीए' मूलमंत्र का अंग नहीं है । हो, यदि इन पद को मंत्र मानना इष्ट हो तो अन्य बहुत में मत्रों की भांति आठ अक्षगं वाला एक पृथक् मत्र स्वीकार किया जा सकता है।
7
एक बात और, भगवनी जी मे | जैसा कि पहिले मत्र के द्वितीय रूप में बनलाया जा चुका है। मंत्र के अनिम पद में 'लोग' पद के न होने की बात इससे भी सिद्ध होती है कि वहा मत्र मे गभिन 'मव्य' पद के प्रयोजन को तां मिद्ध किया गया है, जो कि अन्य चार पदों की अपेक्षा विशेष है । पर लोए का प्रयोजन नही बतलाया गया। यदि वहा 'लोए' शब्द होना तो सूत्रकार उसका भी प्रयोजन बनलाते। क्योंकि 'लोए' भी 'मव्य' की भांति अन्य पदों से विशेष है । तथाहि
'यहाँ पर 'मब्बमाहणं' पाठ मे 'मव्व' शब्द का प्रयोग करने मे सामयिक विशेष, अप्रमत्तादिक, जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धिकल्पिक, यथा