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जिम-शासन के कुछ विचारणीय प्रमंग
पतुप
"माय मांगकाग, मधपावपणामणी । मगलाण च यम्वमि. पउलू हवा मगन ॥
'साहम नमोक्कागं, मवपावपणागणी ।
मगलाण च ममि. पंचवं हवा मगन ।' उक्त प्रमग में यह स्पष्ट होता है कि भगवनी जी के पाठ की प्रचलित मनमा मन्दर्भ में नहीं जोड़ा जा सकता ।
ग. सिवाय एक कारण और भी है और वह है -'नवकार मंत्र के उच्चारण के विधान का प्रमग । एक स्थान पर कहा गया है कि
'वणार्गाड नवपए, नवकारे अट्ठमपया नन्थ । मगमपयपयतुल्ला, मनावर अछमी दुपया ॥२२६।।
मप्रति भाव्यगाथा व्यान्यायन-वर्णा अमगाण अष्टषष्टि , नमस्कार पचपरमप्ठिमहामत्रम्प भवन्तीतिणप. । उक्न च 'पचपयाण पणती मवण चलाइवण नितीम । एक मां ममपट. फुटमातरमट्ठमट्टीए । गनाण मन मन य. नव अट्ठ य अ अट्ट नव पनि । :य पर अक्खममा. अमह पूट अडमी ॥
अभिग. भाग 6, पृ० १८३६ उन पाठ प्रामाणिक स्थला में उसन है और इनमें कहा गया है कि मत्र को पुर्णता - अक्षर प्रमाण मत्र के पढने पर होती है। अन. मत्र को ६८ अमग म पाना चाहिए । अर्थात् पूरा पाठ इम भाति ६८ अमरो का बोलना
चाहिए
गमा अरिहना ण. मोमिता गण मा आरियाण । ण मी व जमा या ण. णमोली एम व माह ण ॥ एमी 7 च न मी सका (या) रो. मध्य पा व प णाम जी। मग ला ण च म बेमि. पर महब हम गल ॥'
यदि उक्त पदों के म्पान में अधूगरूप-'णमा सब्ब माण' बोला जाना है. नो 'लोए ये दो अक्षर कम हो जाते है और यदि 'णमा बभीए लिबीए' गोला जाता है ना एक अक्षर कम हो जाना है। दोनों ही भांति मंत्र सा बुक्तिसगत नही बैठना बंता कि इष्ट है । अत: