Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 11
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग १३ । श्रीवर्द्धमानाय नमः "जैनहिनेपर 1. नवम्बर १९९७ । विषय सूची | ४६९ १ ब्राह्मणों की उत्पत्ति । ले० बाबू सूरजभान वकील ४ विचित्र व्याह ( काव्य ) । ले०, पं० रामचरित उपाध्याय ३ विद्वज्जन खोज करें। ले० - बाबू जुगलकिशोर मुख्तार • नौकरों से पूजन कराना । ले०- बाबू जुगलकिशोर मुख्तार ४९५ ५ जैनसमाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि । ले० - बाबू रतनलाल जैन ४८७ ४९१ ... ४९८ बी. ए. एल. एल. बी. ६ आदिपुराणका अवलोकन । ले० - बाबू सूरजभान वकील ७ सतयुगकी वेश्यायें । ८ अलंकारों से देवी-देवताओंकी उत्पत्ति । ले ० - बाबू सूरजभान वकील ९ पुस्तक परिचय ५०३ ५०७ संपादक - नाथूराम प्रेमी मुंबईभव प्रेस. · नई जैन पुस्तकें | ग्रन्थपरीक्षा प्रथम भाग मूल्य 1, द्वितीयभाग मू० 17 ], दर्शनसार विवेचनासहित मू० । ], मोक्षमार्ग की कहानियाँ मू०], बच्चों के सुधारने के उपाय मू० ॥], सम्मानपालनं ]||, सर्वार्थसिद्धि मूल संस्कृत २), बुधजन सतसई ), आचारसार ( आचार्य वीरनन्दिकृत ) माणिकचन्द्र जैनग्रन्थमालाका ग्यारहवाँ ग्रन्थ, मूल्य० 17 ] For Personal & Private Use Only ५०९ ५१४ BHAWANAT मैनेजर, जैनग्रन्थरत्वा हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । कार्यालय, अंक १११ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थनायें। रोगोंका इलाज आदि अच्छे २ लेख प्रकाशित होते १ जनहितैषी किसी स्वार्थबद्धिसे प्रेरित होकर निजी हैं। इसकी वार्षिक फीस केवल १) रु. मात्र है। लाभके लिए नहीं निकाला जाता है। इसमें जो समय नमूना मुफ्त मंगाकर देखिये। और शक्तिका व्यय किया जाता है वह केवल अच्छे पता-वैद्य शङ्करलाल हरिशङ्कर विचारोंके प्रचार के लिए । अतः इसकी उन्नति आयुर्वेदोद्धारक-औषधालय, मुरादाबाद।। हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए। २. जिन महाशयों को इसका कोई लेख अच्छा मालूम हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको जितने मित्रोंको आढ़तका काम । वे पढ़कर सुना सकें अवश्य सुना दिया करें। बंबईसे हरकिस्मका माल मँगानेका सुभीता . ३. यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध हमारे यहांसे बंबईका हरकिस्मका माल मालूम हो तो केवल उसीके कारण लेखक या । किफायतके साथ भेजा जाता है। तांबें व पीत. सम्पादकसे द्वेष भाव न धारण करने के लिए सवि. नय निवेदन है। लकी चद्दरें, सब तरहकी मशीनें, हारमोनियम, ४. लेख भेजनेके लिए सभी सम्प्रदायके लेखकोंको ग्रामोफोन, टोपी, बनियान, मोजे, छत्री, जर्मन* आमंत्रण है। -सम्पादक। सिलवर और अलुमिनियमके बर्तन, सब तरहका साबुन, हरप्रकार के इत्र व सुगन्धी तेल, छोटी भारतविख्यात ! हजारों प्रंशसापत्र प्राप्त ! ब 10 बड़ी घड़ियाँ, कटलरीका सब प्रकारका सामान, पेन्सिल कागज, स्याही, हेण्डल, कोरी कापी, अस्सी प्रकारके बात रोगोंकी एकमात्र औषधि व स्लेट, स्याहीसोख, ड्राइंगका सामान, हरप्रकारकी महानारायण तेल। देशी और विलायती दवाइयाँ. काँचकी छोटी हमारा महानारायण तैल सब प्रकारकी वायु- बड़ी शीशियांकी पेटियां, हरप्रका का देशी की पीड़ा, पक्षाघात, (लकवा, फालिज ) गठिया विलायती रेशमी कपड़ा, सुपारी, इलायची, मेवा, सुन्नवात, कंपवात, हाथ पांव आदि अंगोंका कपूर अदि सब तरहका किराना, बंबईकी और जकड़ जाना, कमर और पीठकी भयानक पीडा, बाहरकी हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी पुस्तकें, जैन पुरानीसे पुरानी सूजन, चोट, हड्डी या रगका पुस्तकें, अगरबत्ता, दशांगधूप, केशर, चंदन दबजाना, पिचजाना या टेढ़ी तिरछी होजाना आदि मंदिरोपयोगी चीजें, तरह तरहकी छोटी और सब प्रकारकी अंगोंकी दुर्बलता आदिमें बड़ी रंगीन तसबीरें, अपने नामकी अथवा बहुत बार उपयोगी साबित होचुका है। अपनी दकान के नामकी मुहरें, कार्ड, चिट्ठी, ___ मूल्य २० तालेकी शीशीका दो रुपया। नोटपेपर, मुहूर्तकी चिट्रियाँ ( कंकुपत्रिका ) आदि, हरकिस्मका माल होशयारीके साथ वी. डा० म०॥) आना। पी. से रवाना किया जाता है। एक बार व्यवहार करके देखिये । आपको किसी तरहका धोका न होगा। सर्वोपयोगी मासिक पत्र । ___ हमारा सुरमा और नमकसुलेमानी यह पत्र प्रतिमास प्रत्येक घरमें उपस्थित होकर र अवश्य मँगाइए । बहुत बढ़िया हैं। . एक वैद्य या डाक्टर का काम करता है। इसमें स्वास्थ्य. रक्षाके सुलभ उपाय, आरोग्य शास्त्रके नियम, पता-पूरणचंद नन्हेलाल जैन । प्रावीन और अर्वाचीन वैएकके सिद्धान्त, भारतीय co जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर काय, हीराना, वनौषधिय का अन्वेषण, स्त्री और बालकोंके कठिन * पो भव, बम्ब: । वैद्य। Printed by Chintaman Sakharam Deole, at the Bombay Vibhav Prot. Servas India Society's Building, Sandharst Road, Girg.n, Boahay. Published by Nathuram Premi, Proprietor, Jain-Granth-Ratnaakir Karyalaya, Hirabag, Bhaubay. For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ भाग । अंक ११ हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । जैनहितैषी न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ ब्राह्मणों की उत्पत्ति । ( २ ) [ लेखक - बाबू सूरजभानजी वकील । ] इससे पहले लेखमें सिद्ध किया गया है कि, ब्राह्मण वर्णकी स्थापना के समय मिथ्यात्वी ब्राह्मण मौजूद थे, जिनका उस समय बड़ा भारी प्रभाव और प्रचार था और ब्राह्मण वर्ण स्थापन करनेकी कथा भरतमहाराजके समय की नहीं, किन्तु उस समयकी है; जब कि हिन्दुस्तान में ब्राह्मणोंकी बड़ा" भारी जोर था और वे जैनि अत्यंत घृणा और द्वेष करते थे । आदिपुराण में वर्णित ब्राह्मणों की उत्पत्तिके शेष कथन को पढ़ने से यह बात और भी ज्यादा दृढ़ हो जाती है और यह नतीजा निकल आता है कि पंचमकालमें ही किसी समय जानियोंने किसी जैनी राजाका सहारा कर मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंके प्रभावसे बचनेके सस्ते कुछ गृहस्थी जैनि कार्तिक २४४३. नवंबर १९१७, I योंको पूजना शुरू कर दिया और उनसे वे सब काम लेने लगे, जो ब्राह्मण लोग किया करते थे; जिससे होते होते उनकी एक जाति ही बन गई मालूम होता है कि, जैन ब्राह्मणोंकी यह उत्पत्ति दक्षिण देशमें ही हुई है । क्योंकि जैन राजा भी वहीं हुए हैं और वहीं अब तक जैन ब्राह्मण मौजूद भी हैं, जो ब्राह्मणोंकी तरह ही जैन-यजमानोंके सब काम करते हैं । किन्तु यह नई सृष्टि जैन सिद्धान्त के विरुद्ध होनेके कारण जैनियों में सब जगह मान्य न हुई, अर्थात दक्षिण देशके सिवाय अन्य कहीं भी इसका प्रचार न हो सका । आदिपुराण में अपने बनाये हुए जैन ब्राह्मणोंको उपदेश देते हुए भरतमहाराजने उनके दस अधिकार बताये हैं । उसमें व्यवहारोशिता अधिकारको वर्णन करते हुए लिखा है कि, जैनागमका आश्रय लेनेवाले इन ब्राह्मणों को प्रायश्चित्त देने का भी अधिकार होना चाहिए। यदि उनको यह अधिकार न होगा तो वे न अपनी शुद्धि For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० जैनहितैषी [ भाग १४ कर सकेंगे और न दूसरोंको ही शुद्ध कर सकेंगे। मतियोंकी ही पाठशालामें जावेंगे और उनके इस प्रकार अशुद्ध रहकर यदि वे गैरोंसे शुद्ध शास्त्र पढ़कर अन्यमती ही हो जायेंगे । होनेकी इच्छा करेंगे तो कैसे काम चलेगा?:- दूसरा अधिकार कुलावधिक्रिया अर्थात् अ व्यवहारेशितां प्राहः प्रायश्चित्तादिकर्मणि। पने कुलके आचरणोंकी रक्षा रखना है । इसके स्वतंत्रता द्विजस्यास्य श्रितस्य परमा श्रुति॥१९२॥ विषयमें भी भय दिखलाया है कि, ऐसा न कर नेसे वह दूसरे कुलका हो जावेगा । अर्थात् यदि तदभावे स्वमन्यांश्च न शोधयितुमर्हति। अशुद्धः परतः शुद्धिमभीप्सन्नकृतो भवेत् ॥ १९३ ॥ र वह अन्य मतियोंके बहकानेमें आकर उनकी-पर्व ४०। सी क्रिया करने लगेगा तो उनके ही कुलका हो जावेगा। तीसरा अधिकार वर्णोत्तम क्रिया है, इन श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध है कि, जिस समय अर्थात अपनेको सब वर्गोंसे उत्तम मानना । जैन ब्राह्मण बनाये गये थे, उस समय अन्य क्योंकि ऐसा न माननेसे न तो वह अपनेको मतके ब्राह्मण मौजूद थे जो प्रायश्चित्तादि दिया शद्ध कर सकता है और न दूसरोंको; इसकी बाबत करते थे; किन्तु जैन ब्राह्मण बनानेवाला यह भी भय प्रगट किया है कि यदि वह अपनेको चाहता था कि जैन ब्राह्मण को भी प्रायश्चित्त सबसे बडा न मानेगा तो अपनेको; शुद्ध करनेदेनेका अधिकार हो जावे । इसही कारण वह जोर की इच्छासे मिथ्यादृष्टी कुलिंगियोंकी सेवा क देता है कि यदि जैन ब्राह्मणोंको यह अधिकार लगेगा: और कुब्रह्मको मानकर उनके सब दोष न होगा तो वे भी अपना प्रायश्चित्त अन्य मति- , - प्राप्त कर लेगा । इससे भी सिद्ध है कि जैन योंसे ही कराया करेंगे और तब जैन ब्राह्मण ब्राह्मणोंके बनाये जाने के समय अन्य मतियोंका बनाना व्यर्थ ही रहेगा । इस कारण अन्यमति- बदा भारी प्राबल्य और लोगोंमें उनकी बड़ी योंके समान इनको भी प्रायश्चित्तका अधिकार भारी श्रद्धा थी, और उस समय मिथ्यात्वी मिलना चाहिए। ब्राह्मण ही बड़े माने जाते थे-जैन ब्राह्मण ... अन्य ९ अधिकारोंके पढ़नेसे भी यही बात बहुत घटिया और अशुद्ध समझे जाते थे। इसी निकलती है। (देखो पर्व ४० श्लोक १७८ से कारण जैनब्राह्मण बनानेवाला अपने ब्राह्मणों२१४ तक ।) पहला अधिकार अतिबालविद्या को यह उपदेश देता था कि तुम भी अप अर्थात् बालपनेसे ही उपासकाचार शास्त्रोंका बड़ा मानो और सब जैनी भी इनको बड़ा मानें; पढ़ना है। इसके विषयमें लिखा है कि यदि वे जिससे ये लोग अपनेको घटिया या अशुद्ध सबालपनेसे ही इनको नहीं पढ़ेंगे तो अपनेको मझकर अपनी शुद्धि कराने के वास्ते अन्य मतिझट मठ ब्राह्मण माननेवाले मिथ्यावृष्टियोंसे ठगे यौके पास न जावें। जावेंगे और मिथ्या शास्त्रोंके पढ़ने में लग जावेंगे। चौथा अधिकार पात्रत्व है, अर्थात् ये जैन इससे सिद्ध है कि उस समय साधारण तौरपर ब्राह्मण दान देनेके पात्र हैं, इनको दान अवश्य मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंके ही द्वारा पढ़ाई होती थी देना चाहिए । इस विषयमें भी जैन-ब्राह्मणोंको और जैन ब्राह्मण बनानेवालेको इस बातका भय डराया है कि उनको गुणी पात्र बनना चाहिए। था कि, यदि हमारे बनाये हुए ब्राह्मणोंके बालक यदि वे गुण प्राप्त नहीं करेंगे तो उनको कोई बचपनसे ही जैनशास्त्रोंके पढ़ने में न लगाये नहीं मानेगा और मान्य न होनेसे राजा भी जायेंगे तो प्रचलित रीतिके अनुसार वे अन्य उनका धन हर लेगा। इससे भी यही सिद्ध होता For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] ब्राह्मणों की उत्पत्ति। ४७१ arwarrormarrrrrrrowwww है कि, जैनब्राह्मण बनानेवालेको इस बातका छहा अधिकार प्रायश्चित्तका है, जिसका वर्णन निश्चय था कि मिथ्यात्वी ब्राह्मण तो जातिके पहले हो चुका है । सातवाँ अधिकार अवध्यत्व ब्राह्मण हैं, उनमें गुण हों वा न हों वे तो अवश्य है, अर्थात् जैनी ब्राह्मणको चाहिए कि वह अपना पूजे ही जावेंगे (इस विषयमें देखो प्रथम लेख, यह अधिकार जताता रहे कि मैं ब्राम्हण हूँ, जिससे मालूम हो जायगा कि आदिपुराणमें बार इस कारण मुझको किसी प्रकार मारने वा तिरबार यह बात कही गई है कि गुणहीन होने पर स्कार करनेका किसीको अधिकार नहीं है। भी ये मिथ्यात्वी ब्राह्मण केवल अपनी जातिके यदि वह ऐसा अधिकार पुष्ट न करता रहेगा, तो घमंडसे अपनेको पुजवाते हैं), परन्तु उसको सब लोग उसे मारने लगेंगे और ऐसा होनेसे जैननवीन बनाये हुए जैन ब्राह्मणोंकी बाबत पूरा धर्मकी भी प्रमाणता जाती रहेगी । वैदिक मतके . भय था कि यदि ये लोग गुण प्राप्त न करेंगे तो ग्रन्थोंमें लिखा है कि ब्राह्मण अवध्य है, इससे इनको कोई भी न मानेगा और तब यह सारा ब्राह्मणोंको कोई नहीं मारता था। यही अधिही खेल बिगड़ जावेगा। ___ कार जैन ब्राह्मणों को दिये जानेकी यह कोशिश __ पाँचवाँ सृष्टि अधिकार है, अर्थात् जिस प्रकार की गई थी। शोककी बात है कि, ब्राह्मणोंका अति जैनधर्मकी उत्पत्ति वर्णन की गई है, उसकी रक्षा प्राबल्य होनेके कारण ब्राह्मणोंने जो यह महा-: करना । अभिप्राय यह कि जैन ब्राह्मणोंकी इस जुल्मका अधिकार प्राप्त कर लिया था कि वे नई सृष्टिको नये प्रमाणोंसे पुष्ट करते रहना चाहिए, कैसा ही दोष करें और कितना ही किसीका नुकअर्थात् यह सिद्ध करते रहना चाहिए कि युगकी सान कर दें; परन्तु उनको कोई भी न मार सके। आदिमें तो सब ब्राह्मण जैनी ही बनाये गये और न उनका तिरस्कार कर सके, वही अधिथे; परन्तु पंचमकालमें ये लोग भ्रष्ट होकर मि- कार प्राप्त करनेकी शिक्षा जैन ब्राह्मणोंको दी 'थ्यात्वी हो गये हैं । इस कारण इनमेंसे जो कोई गई है। फिर जैनी बनता है वह अपने प्राचीन सत्य- आठवाँ अधिकार अदंड्यत्व है, अर्थात् राजा मार्गको ही ग्रहण करता है । यहाँ भी डर दि- भी उनको दंड न दे सके । जैनब्राह्मणको खाया है कि यदि वे ऐसा न करते रहेंगे तो शिक्षा दी गई है कि इस अधिकारको भी वह मिथ्यादृष्टि लोग राजा प्रजा सबको बहका लेंगे, अपने वास्ते सिद्ध करता रहे । यह अन्याय्य अर्थात् वे लोग राजाको और प्रजाको समझा देंगे अधिकार भी ब्राह्मणोंने अपनी चलतीमें प्राप्त कर कि जो लोग परम्परासे सन्तान प्रति सन्तान लिया था कि उनसे चाहे जैसा दोष हो जाय, ब्राह्मण-चले आते हैं और वेदको मानते आ रहे परन्तु राजा भी उनको दंड न दे सके । शोककी हैं वे ही ब्राह्मण हैं और वे ही पूजनेके योग्य हैं, बात है कि, इस अधिकारके प्राप्त करनेके लिए ये नवीन बने हुए जैन ब्राह्मण न ब्राह्मण हो सकते भी जैन ब्राह्मणोंको शिक्षा दी गई है । हैं और न पूजने के योग्य हैं । यदि जैनब्राह्मण नवाँ अधिकार मान्यता है, अर्थात् सब लोग इन राजाओंको उपदेश देकर अपने धर्मपर दृढ़ न जैनी ब्राह्मणों को मानें और पूजें । जैनी ब्राह्मरक्खेंगे तो राजा लोग भी अन्य मंतकी धर्म- णोंको समझाया गया है कि उनको बड़ी कोशिशसृष्टिको मानने लगेंगे और तब जैनब्राह्मणोंका के साथ इस मान्यताको प्राप्त करना चाहिए। कुछ भी ऐश्वर्य न रहेगा और तब जैन लोग यदि लोग उनका आदरसत्कार नहीं करेंगे तो भी अन्य मतको मानने लगेंगे। वे अपने पदसे गिर जावेंगे। For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ जैनहितैषी - अर्थात् अनेक दसवाँ अधिकार प्रजातंत्रसम्बन्ध है, अन्यमतियोंके साथ मिलते जुलते और प्रकारका संबंध रखते हुए भी उनके कारण अपने गुणोंको नष्ट न करना । इससे भी यही सिद्ध होता है कि जैन ब्राह्मणोंके बनाये जाते समय अन्य मतका बहुत ही ज्यादा प्रचार था । इस सारे कथनसे स्पष्ट सिद्ध है कि जैन ब्राह्मणों के बनाने में इस बात की बहुत ही ज्यादा कोशिश की गई थी कि इन नवीन जैन ब्राह्म णों को भी वे सब अधिकार प्राप्त हो जावें ज़ो प्राचीन मिथ्यात्वी ब्राह्मणों को प्राप्त हो रहे हैं, वे अधिकार चाहे न्यायरूप हों चाहे महाअन्यायरूप | साथ ही इस बातकी बड़ी सावधानी रक्खी गई थी कि, मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंके प्रबल प्रभाव में आकर ये नवीन ब्राह्मण फिसल न जावें, या किसी प्रकार अपने पद से गिर न जावें । अर्थात् जिस प्रकार बन सके वे अपने इस नवीन पदको जो जैनी राजाओंके सहारेसे उनको प्राप्त हो गया है बनाये रक्खें और बिग - ड़ने न देवें । इस ही कारण इन अधिकारोंके वर्णनमें इस बातकी शिक्षा वहुत ही तकाजेके साथ दी गई है कि ये नवीन ब्राह्मण राजा ओंके श्रद्धानको डावाँडोल न होने दें । क्यों कि उस समय मिथ्यामतका अधिक प्रचार होनेसे जैन राजाओं के फिसलने का खटका बराबर लगा रहता था । यह सारी ही रचना निस्संदेह पंचमकालकी है, भरत महाराज समयकी नहीं; परन्तु फिर भी उक्त दसों अधिकारोंका उपदेश भरत महाराजके मुख से ब्राह्मण वर्णकी स्थापना के दिन दिलाया गया है और साथ ही इसके यह भी लिख दिया गया है कि, भरत महाराजने यह सब उपदेश उपासकाध्ययन सूत्रके ही अनुसार किया है, परन्तु द्वादशांग वाणीमें अन्य मतियोंका इतना प्रबल भय किसी तरह भी नहीं हो सकता [ भाग १४ है । और ऐसे महा जुल्म के अधिकारोंकी प्राप्तिका उपदेश भी जिनवाणी में सम्भव नहीं हो सकता है कि ब्राह्मणको न प्रजा ही दंड दे सके और न राजा ही, जिससे वे दोटंगे सांड़ बनकर बेरोकटोक जो चाहे जुल्म करते रहें और कोई चूँ भी न कर सके । हमारे इस विचारकी पुष्टि - कि पंचम कालमें ब्राह्मणोंका अति प्राबल्य हो जाने पर उनके प्रभावसे बचने के वास्ते उनहीका रूप देकर और उनही की क्रियायें सिखाकर जैन ब्राह्मण बनाये गये हैं- इस बात से भी होती है कि ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्तिके इस सारे कथनमें जो आदिपुराणके पर्व ३८ से ४२ तक में वर्णित है - जैन ब्राह्मणोंको धर्मका उपदेश देते हुए प्रायः उनही शब्दों का प्रयोग किया गया है जो वैदिक मतके खास पारिभाषिक शब्द हैं। श्रुति, स्मृति और वेद ऐसे शब्द हैं जो वैदिकधर्मके शास्त्रोंके वास्ते ही व्यवहार किये जाते हैं । वेदोंको श्रुति कहते हैं और मनु याज्ञवल्क्य आदि ऋषियोंकी आज्ञायें स्मृतियाँ कहलाती हैं। श्रुति, स्मृति और वेद आदि शब्द वैदिकधर्मके ऐसे टकैंसाली शब्द हैं कि स्वयं आदिपुराणके कर्ता ने भी कई स्थानों पर उनका व्यवहार वैदिकधर्म के ग्रन्थोंको ही सूचित करनेके वास्ते किया है । जैसे पर्व ३९ श्लोक में लिखा है कि श्रुि वाक्य भी विचार करने पर ठीक नहीं मालूम होते हैं; दुष्टोंके ही बनाये हुए जान पड़ते हैं:श्रौतान्यपि हि वाक्यानि संमतानि क्रियाविधौ । न विचारसहिष्णूनि दुःप्रणीतानि तानि वै ॥ १० ॥ और भी - ' तान्प्राहुरक्षरम्लेच्छा येऽमी वेदोपजीविन: ' तथा 'सोऽस्त्यमीषां च यद्वेदशास्त्रार्थमधमद्विजाः ' आदि ४२ वें पर्वके श्लोकोंसे भी स्पष्ट होता है कि हिन्दूधर्मके वेदों के लिए ही श्रुति और वेद शब्दों का प्रयोग किया जाता है; किसी जैन शास्त्र के लिए नहीं । For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] श्रुति स्मृति और वेद आदि शब्दोंका ऐसा खुला हुआ और जगत्प्रसिद्ध अर्थ होनेकी अवस्था में भी और आचार्य महाराजको भी यही अर्थ मान्य होनेकी हालत में भी ये शब्द जैन ब्राह्मणोंको शिक्षा देने में जिस प्रकार व्यवहारमें लाये गये हैं, उससे यह बात स्पष्ट सिद्ध होती है कि जैनी ब्राह्मणोंको बिलकुल वही रूप दिया गया था जो वैदिक ब्राह्मणोंका था । पर्व ३९ में लिखा है कि वेद, पुराण, स्मृति, चरित्र, क्रियाविधि, मंत्र, देवता-लिंग और आहारादिकी शुद्धि का यथार्थ रीति से वर्णन जिसमें परम ऋषियोंने किया है वही धर्म है; इसके सिवाय और सब पाखंड है । जिसके १२ अंग हैं, जो शुद्ध है और जिसमें श्रेष्ठ आचरणोंका निरूपण है, वही श्रुतज्ञान है, उसहीको वेद कहते हैं; जो हिंसाका उपदेश करनेवाला वाक्य है वह वेद नहीं है, उसको तो यमराजका वाक्य मानना चाहिए । ! ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति । वेदः पुराणं स्मृतयश्चरित्रं च क्रियाविधिः । मंत्राश्च देवतालिंगमांहाराद्याश्च शुद्धयः ॥ २० ॥ एतेऽथ यत्र तत्त्वेन प्रणीताः परमर्षिणा । स धर्मः स च सन्मार्गस्तदाभासाः स्युरन्यथा ॥ २१॥ श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशांगमकल्मषं । हिंसोपदेशि यद्वाक्यं न वेदोऽसौ कृतांतवाक् ॥ २२ ॥ इसी प्रकार पर्व ३९ में लिखा है कि जब वह श्रावक अपने चारित्र / और अध्ययनसे औरोंका उपकार करता है, प्रायश्चित्त आदि सब विधियोंको जान लेता है और वेद स्मृति और पुराण आदिका जानकार हो जाता है, गृहस्थाचार्य हो जाता है: तब विशुद्धस्तेन वृतेन ततोऽभ्येति गृहीशितां । वृत्ताध्ययनसंपत्त्या परानुग्रहणक्षमः ॥ १३ ॥ प्रायश्चित्तविधानज्ञः श्रुतिस्मृतिपुराणवित् । ' -गृहस्थाचर्यता प्राप्तस्तदा धत्ते 'गृहीशितां ॥ ११४ ॥ *४७३ इसी प्रकार पर्व ३९ में लिखा है कि अन्य यजमान भी जिसकी उपासना करते हैं ऐसा वह बुद्धिमान् भव्य अर्थात् जैन ब्राह्मण स्वयं पूजा करता है और अन्य लोगों से कराता है; वेढ वेदांगके विस्तारको स्वयं पढ़ता है और दूसरोंको पढ़ाता है: स यजन्याजयन् धीमान् यजमानैरुपासितः । अध्यापयन्नवीयाना वेदवेदांगविस्तरं ॥ १०३ ॥ इसी प्रकार पर्व ३९ में ही लिखा है कि: द्विजों अर्थात् जैनी ब्राह्मणों की शुद्धि श्रुति स्मृति, पुराण, चारित्र, मंत्र और क्रियाओं से और देवताओंका चिह्न धारण करने तथा कामका नाश करनेसे होती है : श्रुतिस्मृतिपुरावृत्तवृत्तमंत्र क्रियाश्रिता । देवतालिंगकामांतकृता शुद्धिर्द्विजन्मनां ॥ १३९ ॥ इसी प्रकार पर्व ४० में लिखा है कि, अब मैं श्री ऋषभदेवकी श्रुतिके अनुसार सुरेन्द्रमंत्र कहता हूँ: मुनिमंत्रोऽयमानातो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । वक्ष्ये सुरेंद्रमंत्रं च यथा स्माहार्षभी श्रुतिः ॥ ४७ ॥ फिर इसी पर्व के श्लोक ६३ में लिखा है कि मैं श्रुति के अनुसार परमेष्ठी मंत्र कहता हूँ:मंत्रः परमराजादितोऽयं परमेष्ठिनां । परं मंत्रमितो वक्ष्ये यथाऽऽह परमा श्रुतिः ॥ ६३ ॥ फिर इसी पर्वके श्लोक १९२ में लिखा है कि, श्रुतिका आश्रय लेनेवाले इन द्विजोंको अर्थात् जैनी ब्राह्मणों को जो स्वतंत्रता है उसे व्यवहारेशिता कहते हैं: व्यवहारेशितां प्राहुः प्रायश्चित्तादिकर्मणि । स्वतंत्रतां द्विजस्यास्य श्रितस्य परमां श्रुतिम् ॥ १९२॥ वैदिक धर्म में ग्रहत्यागीको परिवाजक कहते हैं। जैनशास्त्रों में इसके स्थान में मुनि, साधु, निर्ग्रन्थ अनगार आदि शब्द व्यवहार किये जाते हैं; For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १४ ... परन्तु जैन ब्राह्मणोंको उपदेश देते समय आदि- गरज कहाँ तक कहें, जैन ब्राह्मणोंको उप पुराणमें मुनि या साधुके स्थानमें परिव्राजक शब्द- देश देनेमें विशेषतः वैदिक धर्मके ही सिद्धान्तों का प्रयोग किया गया है और इसी कारण मुनि- और पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग किया गया दीक्षाका नाम परिव्राजक क्रिया रक्खा है तथा है; जिससे स्पष्ट सिद्ध है कि जैन ब्राह्मण बनाइसही नामसे इसका उपदेश देते हुए और अन्य नेमें वैदिक ब्राह्मणोंकी ही रीस की गई है। मतियोंकी परिव्राज्य क्रियाका निषेध करते हुए ब्राह्मण वर्ण स्थापन करनेके दिन भरत महारावैदिकधर्मकी दीक्षाकी तरह जैन पारिव्राज्य जकी तरफसे जो उपदेश इन नवीन ब्राह्मणोंको दीक्षाको भी शुभतिथि, शुभ नक्षत्र, शुभयोग दिया जाना आदिपुराणमें लिखा है उसको शुभमुहूर्त और 'शुभलग्नमें ही लेनेकी आज्ञा गौरके साथ पढ़नेसे तो यहाँ तक मालूम होता दी है । यथा है कि, इस उपदेशमें वैदिक धर्मके पारिभाषिक - सद्गृहीतमिदं ज्ञेयं गुणैरात्मोपबृंहणं । , शब्द ही व्यवहार नहीं किये गये हैं, किन्तु __पारिवाज्यमितो वक्ष्ये सुविशुद्ध क्रियांतरं ॥१५४॥ उनके धर्मके सिद्धान्तों और उनके देवताओंको भी मान लिया गया है और कुछ काटतराशकर गार्हस्थ्यमनुपाल्यैवं गृहवासाद्विरज्यतः। यद्दीक्षाग्रहणं तद्धि पारिवाज्यं प्रचक्षते ॥ १५५॥ उनहीका उपदेश इन जैन ब्राह्मणोंको दिया गया है। पारिव्राज्यं परिव्राजो भावो निर्वाणदीक्षणं । तत्र निर्ममतावृत्त्या जातरूपस्य धारणं ॥१५६॥ गर्भाधान आदि क्रियाके आरम्भमें ब्राह्मणों। प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगलग्नग्रहांशकैः।। को रत्नत्रयका संकल्प कर अग्निकुमार देवोंके 6 निग्रंथाचार्यमाश्रित्य दीक्षा ग्राह्या मुमुक्षुणा ॥१५७॥ इन्द्र इन्द्रके मुकुटसे उत्पन्न हुई तीन अग्नियाँ उत्पन्न -पर्व ३९।। " करनी चाहिए । ये तीनों ही 'अग्नियों तीर्थकर, .गणधर और अन्य केवलियोंके मोक्ष कल्याणकके वेदानुयायी लोग ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति ब्रह्माके महोत्सवमें अत्यन्त पूज्य मानी गई थीं, इसी मुखसे ही मानते हैं, जैन ब्राह्मणों को उपदेश देते वास्ते ये अत्यंत पवित्र मानी जाती हैं। इन तीनों समय उनके इस सिद्धान्तको भी मानकर यह सम- आग्नयोंको जो गार्हपत्य, आहवनीय, और दक्षिझाया गया है कि श्रीजिनेन्द्र ही ब्रह्मा हैं और णाग्नि नामोंसे प्रसिद्ध हैं तीन कुंडोंमें स्थापन क. जो कोई उनके मुखकी वाणीको स्वीकार करता रना चाहिए । वैदिक धर्मके शास्त्रोंमें तीन है उसहीको उनके सुखसे उत्पन्न हुआ ब्राह्मण प्रकारकी अग्नि इनही नामोंसे मानी गई हैं और मानना चाहिए । यथा पर्व ३९ में- उक्त शास्त्रोंके कथनके अनुसार इनके यह नाम स्वायंभुवान्मुखाज्जातास्ततो देवद्विजा वयं । सार्थक भी होते हैं; परन्तु जैनधर्मके अनुसार ये व्रतचिह्नं च नः सूत्रं पवित्रं सूत्रदर्शितं ॥ ११७ ॥ नाम किसी तरह भी ठीक नहीं बैठते हैं । * जो ब्रह्माणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः। * वैदिक धर्मके अनसार 'गार्हपत्य' वह अग्नि है, ब्रह्मा स्वयंभूभगवान्परमेष्ठी जिनोत्तमः ॥ १२७ ॥ जिसे प्रत्येक गृहस्थ अपने घरमें सदा बनाये रखता है सह्यादिपरमब्रह्मा जिनेंद्रो गुणबृंहणात् । और जिसे वह अपने पुरुषाओंसे पाता है और सन्तानको परब्रह्म यदायत्तमामनंति मुनीश्वराः ॥ १२८॥ देता है। ऋग्वेदमें अग्निको गृहपति कहा है। गृहपतिसे नैणाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः । ही गार्हपत्य शब्द बना है । आहवनीय वह अमि यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात्।।१२९॥ है, जो गार्हपत्य अग्निमेंसे हवन या होमके वास्ते ली For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] इन तीनों प्रकारकी अनियोंमें इन मंत्रोंसे पूजा करता है वह ब्राह्मण कहलाता है और जिसके घर ऐसी पूजा नित्य होती है उसको आहिताग्नि अर्थात् अग्निहोत्री समझना चाहिए । नित्यपूजन करते समय इन तीनों अग्नियोंका नियोग हव्य के पकाने में, धूप खेने में और दीपकके जलाने में होता है । घरमें बड़े यत्नके साथ इन तीनों अग्नियोंकी रक्षा करनी चाहिए और जिनका संस्कार नहीं हुआ हैं ऐसे लोगों को यह अग्नि नहीं देनी चाहिए, अर्थात् शूद्र आदिका हाथ इन अग्नियोंको नहीं लगना चाहिए और जिन जैनियों के गर्भाधानादि संस्कार नहीं होते हैं उनके भी हाथ नहीं लगने देना चाहिए | अनि स्वयम् ब्राह्मणों की उत्पत्ति । जाती है । ' गार्हपत्यादुद्धृत्य होमार्थे यः संस्क्रियते सः। ' दक्षिणाग्नि वह है, जो दक्षिणकी तरफ रक्खी जाती है । इसे ' अन्वाहार्यपचन भी कहते हैं । पुरोहितको जो चढ़ावा दिया जाता है, वह अन्वाहार्य कहलाता हैं | सायणाचार्य कहते हैं- 'अन्वाहरति यज्ञसम्बन्धिदोषजातं परिहृरत्यनेन इत्यन्वाहार्यो नाम ऋत्विग्भ्यो देय ओदनः।' मनुस्मतिमें लिखा है कि पितृगणोंके मासिक श्राद्धको अन्वाहार्य कहते हैं-' पितॄणा मासिकं श्राद्धमन्वाहार्ये विदुर्बुधाः । ' अन्वाहार्य पचनका • अर्थ होता है, जो अन्वाहार्यमें काम आवे | सबका सारांश यह हुआ कि प्राचीन समयमें प्रत्येक घरमें अ बड़ी रक्षा के साथ रक्खी जाता थी और उसे गार्हपत्य कहते थे । उसमेंसे जो अग्नि होमके वास्ते जला ली जाती थी, वह आहवनीय कहलाती थी और पितृजनों के वास्ते नैवेद्य तेयार करनेके लिए जो जलाई जाती थी उसे दक्षिणाभि कहते थे । • आपटेने लिखा है कि आहवनीय पूर्वकी तरफ, गाईपत्य पश्चिमकी तरफ और तीसरी अन्वाहार्यपचन दक्षिणकी तरफ जलाई जाती थी। तीसरीका दक्षि णानि नाम दक्षिण की ओरं जलानेसे ही हुआ है । आदिपुराण में जो इन अभियोका तीर्थकर गणधरादिके साथ सम्बन्ध मिलाया है, वह बिलकुल असंगत जान पड़ता है । ४७५ पवित्र नहीं है और न कोई देवता ही है, किन्तु अरहंत देवकी मूर्तिकी पूजा के सम्बन्धसे वह पवित्र हो जाती है, इस लिए ही ब्राह्मण लोग इसे पूज्य मानकर पूजा करते हैं । निर्वाणक्षेत्रों की पूजा के समान अग्निकी पूजा करनेमें भी कोई दोष नहीं है । ब्राह्मणोंको व्यवहारनयकी अपेक्षासे ही अग्नि पूज्य है और जैन ब्राह्मणोंको अब यह व्यवहारनय अवश्य काममें लाना चाहिए: त्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारंभे द्विजोत्तमैः । रत्नत्रितय संकल्पादनद्रमुकुटोद्भवाः ।। ८२ ॥ तीर्थगणभृच्छेष केवल्यंत्य महोत्सवे । पूजांगत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ॥ ८३ ॥ कुंडये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः । गार्हपत्याहवनीय दक्षिणाग्निप्रसिद्धयः ॥ ८ ॥ अस्मिन्नमित्रये पूजां मंत्रैः कुर्वन् द्विजोत्तमः । आहिताभिरिति ज्ञेयों नित्येज्या यस्य सद्मनि ॥ ८५ ॥ हविष्पाके च धूपे च दीपोद्बोधन संविधौ । बह्वीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ॥ ८६ ॥ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमनित्रयं गृहे । नैव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये येस्युरसंस्कृताः ॥ ८७ ॥ न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा । किंत्वर्हद्दिव्यमूर्ती ज्या संबंधात्पावनोऽनलः ॥ ८८ ॥ ततः पूजांगतामस्य मत्वाचेति द्विजोत्तमाः । निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजा तो न दुष्यति ॥ ८९ ॥ व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्ममिः ॥ ९० ॥ ! इन श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि, जैन ब्राह्मणोंको अग्निकी पूजा करनेका उपदेश देते समय उपदेशक महाशयको इस बातका पूरा खटका था कि यह उपदेश जैनसिद्धान्त के अनुकूल नहीं, किन्तु विपरीत है, इसी कारण उन्होंने अनेक बातें बनाकर जित तिस तरह अग्निपूजाका दोष हटाने की कोशिश की है और आखिर में यह समझाया है कि आजकल इस For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६. जैनहितैषी [भाग १४ बातकी जरूरत ही आ पड़ी है कि किसी न किसी सम्यग्दृष्टिपदं बोध्ये सर्वमातेति चापरं । हेतुसे ये जैन ब्राह्मण अग्निपूजा भी करते रहें। वसुंधरापदं चैव स्वाहांतं द्विरुदाहरेत् ॥ १२२ ॥ शोक है कि जैन ब्राह्मण बनानेके जोशमें मंत्रणानेन संमंत्र्य भूमौ सोदकमक्षतं । जैनसिद्धांतोंको यहाँ तक भुला दिया गया है क्षिप्वा गर्भमलं न्यस्तपंचरत्नतले क्षिपेत् ॥१२३ ।। कि इन जैन ब्राह्मणोंको शिक्षा देते समय केवल त्वत्पुत्रा इव मत्पुत्रा भूयासुश्चिरजीविनः । अग्निके पूजनेकी ही आज्ञा नहीं दी है; किन्तु इत्युदाहृत्य सस्याहे तक्षेप्तव्यं महीतले ॥ १२४ ॥ विवाह आदि संस्कारोंमें अग्नि जैसे जड़ पदार्थकी -पर्व ४०। साक्षीकी भी आज्ञा दे डाली है । लिखा है कि ___इन श्लोकोंसे सिद्ध है कि जैनसिद्धान्तजैन ब्राह्मणको उचित है कि, वह पहले सिद्ध शास्त्रोंमें अन्य मतके जिन जिन देवताओंको भगवानकी पूजन करे, फिर तीनों अग्नियोंकी मिथ्या देवता सिद्ध किया है और जिनका पूजा करके उनकी साक्षीसे विवाहसम्बंधी पूजना लोकमूढता या देवमूढ़ता बताया है, वे क्रिया करे। इसी प्रकार कछ आगे चलकर लिखा सब ही मिथ्या देव सम्यकदृष्टि कहनेसे सच्चे है कि, वर वधू विवाह होने पर देव और अग्निकी देव हो सकते हैं; जैसा कि उक्त श्लोकोंमें धरतीकों । साक्षीसे सात दिनके वास्ते ब्रह्मचर्य ग्रहण करें। सम्यक्दृष्टि कहकर जैनकी देवी बना लिया है और जैन ब्राह्मणोंको उसके पूजनेकी आज्ञा सिद्धार्चनविधि सम्यक् निर्वयं द्विजसत्तमाः। कृताग्नित्रयसंपूजाः कुर्युस्तत्साक्षिता क्रियां ॥ १२८ ॥ पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्तं तद्वधूवरं । पूजन क विषयमें जैन ब्राह्मणोंको आज्ञा दी आसप्ताहं चरेद्ब्रह्मव्रतं देवाग्निसाक्षिक ॥ १३३ ॥ गई है कि डाभके आसन पर बैठ कर पूजन करनी चाहिए और सबसे पहले अष्ट द्रव्यसे -पर्व ३८ । भूमिका पूजन करना चाहिए:इसी प्रकार धरतीमाताकी पूजा करनेका भी उपदेश दिया गया है। बालकके जन्म होने पर दर्भास्तरणसंबंधस्ततः पश्चादुदीर्यतां । विघ्नोपशांतये दर्पमथनाय नमः पदं ॥ ६ ॥ इन जैन ब्राह्मणोंको आज्ञा दी गई है कि बच्चेकी गंधप्रदानमंत्रश्च शीलगंधाय वै नमः । जरायु और नालको किसी पवित्र पृथिवीमें मंत्र पढ़कर गाड़ देना चाहिए । मंत्रका अर्थ यह पुष्पप्रदानमंत्रोऽपि विमलाय नमः पदं ॥ ७ ॥ है कि हे सम्यकदृष्टि धरती माता, तू कल्याण ___ कुर्यादक्षतपूजार्थमक्षताय नमः पदं। करनेवाली हो । इस मंत्रसे मंत्रित करके उस पर धूपाधं श्रुतधूपाय नमः पदमुदाहरेत् ॥ ८॥ जल और अक्षत डाल कर पाँच रत्नोंके नीचे ज्ञानोद्योताय पूर्वं च दीपदाने नमः पद। गर्भका सब मल रखना चाहिए। फिर यह मंत्र मंत्रः परमसिद्धाय नम इत्यमृतोद्धृतौ ।। ९ ।। पढ़ना चाहिए जिसका अर्थ है कि हे पृथ्वी, तेरे मंत्ररेभिस्तु संस्कृत्य यथावज्जगतीतलं । पत्रोंके समान मेरे पुत्र भी चिरंजीवि हों । यह ततोऽन्वक् पीठिकामंत्रः पठनीयो द्विजोत्तमैः॥१०॥ मंत्र पढ़कर जिस खेतमें धान्य उपजता हो ___-आदिपुराण पर्व ४०। उस में उस गर्भमलको रख देना चाहिए:- नित्यपूजनके मंत्रोंमें ऐसे मंत्र पढ़नेकी आज्ञा जरायुपटलं चास्य नाभिनालसमायुतं । दी है, जिनका अर्थ है कि अरहंतकी माताकी शुचौ भूमौ निखातायां विक्षिपेन्मंत्रमापठन् ॥१२१॥ शरण लेता हूँ, अरहंतके पुत्रकी शरण लेता हूँ। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११) ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति। यथा-अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य दृष्टि आदि पद लगाकर वा कुछ काट-तराशकर शरणं प्रपद्यामि (पर्व ४० श्लोक २७-२८)। स्वीकार कर लिया है; किन्तु इन जैन ब्राह्मणोंकी इसी प्रकार आज्ञा दी है कि भगवान्की पूजा- पूजा भी श्रीजिनेंद्रदेवकी पूजाके समान करके साथ ग्रामपतिकी भी पूजा करे, इन्द्रक नेकी आज्ञा दे डाली है । जैनधर्ममें देव, गुरु खजानची कुबेरकी भी पूजा करे । यथा-ग्राम- और शास्त्रकी पूजाकी जाती है; किन्तु वैदिक पतये स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते वै- धर्ममें देव, गुरु और ब्राह्मणकी पूजा मानी गई श्रवण वैश्रवण स्वाहा, (पर्व ४०,श्लोक ३३,३६)। है; जैसा कि पर्व ३८ के श्लोक १११ से-जो इसी प्रकार भूपति, नगरपति, और कालश्रमण ऊपर उद्धृत है-सिद्ध है। इस कारण इन जैन . .अर्थात् यक्षकी पूजाकी भी आज्ञा दी है। यथाः- ब्राह्मणोंको शिक्षा देते समय देव गुरु शास्त्रके सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगर- स्थानमें देव, गुरु और ब्राह्मणकी ही पूजा पते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा (पर्व ४०, करनेकी आज्ञा दी गई है । त्रेपन क्रियाओंकी श्लोक ४४, ४५, ४६ ।) इसी प्रकार इन्द्र शिक्षा देते हुए सातवीं क्रियाकी बाबत पर्व और उनके नौकरोंका पूजन करना भी बताया ३८ में लिखा है कि अपनी विभूति और है । यथाः-सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये शक्तिके अनुसार देव, साधु और ब्राह्मणका स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परंपरेंद्राय स्वाहा, पूजन करना चाहिए। अहमिन्द्राय स्वाहा (पर्व ४० श्लोक ५०, यथाविभवमत्रेष्टं देवर्षिद्विजपूजनं । ५१, ५२)। __ शस्तं च नामधेयं तत्स्थाप्यमन्वयवृद्धिकृत्॥८॥ आदिपुराणके पढ़नसे यह भी मालूम होता इसी प्रकार १६ वी क्रियाकी बाबत इसी है कि इन जैन ब्राह्मणोंको श्राद्ध करना आदि पर्वमें लिखा है कि पहले ब्राह्मणकी पूजा करके पितकर्म भी सिखाया गया था, क्योंकि इन जैन फिर व्रतावतरण क्रिया करे:- . ब्राह्मणोंको जहाँ यह समझाया गया है कि वेदपाठी ब्राह्मण क्रोध करके तुमको उलाहना देंगे कृतद्विजार्चनस्यास्य व्रतावतरणेचितं । वहाँ बताया गया है कि वे यह उलाहना देंगे वस्त्राभरणमाल्यादिग्रहणं गुर्वनुज्ञया ।। १२४ ॥ कि यद्यपि तू देव, अतिथि, पितृ, और अग्नि- . इस ही आज्ञाके अनुसार पूजनके मंत्रोंमें भी सम्बन्धी कार्य ठीक ठीक करता है, तो भी तू ऐसे मंत्र लिख दिये हैं जिनका अर्थ है कि देवगुरु और ब्राह्मणको प्रणाम करनेसे विमुख ही अनादि कालके श्रोत्रियोंको समर्पण ( श्रोत्रिय है । यथाः-- एक प्रकारके वेदपाठी ब्राह्मण होते हैं ), देव देवताऽतिथिपितग्निकार्येष्वप्राकृतो भवान् । ब्राह्मणको समर्पण और अच्छे ब्राह्मणको समर्पण। गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामान्च पराङ्मुखः ॥१११॥ यथा-अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय -पर्व ३९॥ स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा ( पर्व ४० श्लोक जैन ब्राह्मणोंको वैदिक ब्राह्मणोंका रूप देनेके ३४, ३५ )। वास्ते केवल इतना ही नहीं किया गया है कि आदिपुराणके इन सब कथनोंसे केवल यह उक्त धर्मके देवता, उनकी पूजनविधि और ही सिद्ध नहीं होता है कि वेदपाठी ब्राह्मणोंका. उनकी धर्मक्रियाओं और संस्कारोंको सम्यक्- ही रूप देकर- जैनब्राह्मण बनाये गये थे और For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક૭૮ जैनहितषी [भाग १४ इस कारण उनको हिन्दुओंकी :ही सब क्रियायें तान्प्राहुरक्षरम्लेच्छा येऽमी वेदोपजीविनः । सिखा दी गई थीं; साथ ही यह भी मालूम अधर्माक्षरसम्पाठर्लोकव्यामोहकारिणः ॥१८२॥ होता है कि दक्षिण देशमें जैनराजाओंके सम हमारे इस विचारकी सिद्धि पर्व ३९ में वर्णित यमें वेदपाठी ब्राह्मणोंमेंसे ही कुछ लोगोंको दीक्षान्वय क्रियाके पढ़नेसे और भी अच्छी तरह हो फुसलाकर जैनी बना लिया गया था, उनकी जाती है । यद्यपि इस क्रियाका उपदेश भरत वृत्ति, अधिकार और क्रिया आदि पहली ही महाराजने तमाम अन्य मतियोंको जैनी बनाकायम रखकर उनका नाम जैन ब्राह्मण रख नेके वास्ते ब्राह्मण वर्णकी स्थापनाके दिन अपन लिया गया था, और यह प्रसिद्ध कर दिया गया . बनाये हुए ब्राह्मणोंको दिया है, परन्तु जब इस था कि चौथे कालमें तो सब ही ब्राह्मण जैनी थे जिनको 'श्रीआदिनाथके समयमें अर्थात् उपदेशको आधिक गौरके साथ पढ़ा जाता है तो ए मालूम होता है कि सभी जातिके लोगोंको जैनी युगकी आदिमें भरत महाराजने स्वयं पूजकर 1 बनानेके वास्ते नहीं; किन्तु वेदके माननेवाले और दान आदि देकर ब्राह्मण माना था, किन्तु ब्राह्मणोंको ही जैनी ब्राह्मण बनानेके वास्ते यह पंचम कालमें ये लोग भ्रष्ट होकर वेदके मानने क्रिया वर्णन की गई है। वाले हो गये हैं। अर्थात् जैनब्राह्मण बननेसे ये लोग कोई नवीन पंथ या नवीन मार्ग ग्रहण सारांश इस दीक्षान्वय क्रियाका इस प्रकार नहीं करते हैं, किन्तु अपना प्राचीन धर्म अंगी- है कि जब कोई मिथ्यादृष्टि जैन धर्मको स्वीकार करते हैं। कार करना चाहे तब वह मुनिमहाराज या . गृहस्थाचार्यके पास आकर प्रार्थना करे कि, मुझे हमारे इस विचारकी पुष्टि आदिपुराणके , एक सच्चे धर्मका उपदेश दो, क्यों कि अन्य मतके उस कथनसे होती है, जहाँ जैनराजाओंको , का सिद्धान्त मुझे दूषित मालूम होते हैं। धर्मउपदेश देते हुए कहा है कि प्रजाको दुःख देने- क्रियाओंके करने में जो श्रुति अर्थात् वेदके वाक्य वाले अक्षरम्लेच्छ अपने आसपास जो हों उनको माने जाते हैं वे भी ठीक मालूम नहीं होते हैं, उनकी कुलशुद्धि आदि करके अपने वशमं कर टप लोगोंके बनाये हुए ही प्रतीत होते हैं। (दुनिलेना चाहिये । राजासे इस प्रकार आदरसत्कार या अनेक मिथ्यामत प्रचलित हैं। हिन्दुस्तानमें पाकर वे लोग फिर उपद्रव नहीं करेगे। यदि इस भी बौद्ध, नास्तिक आदि अनेक मत प्रचलित थे। प्रकार उनका आदरसत्कार नहीं किया जावेगा नास्तिकोंका खंडन आदिपुराणमें ही कई स्थानों तो वे रातदिन उपद्रव करते रहेंगे, और साथ ही , पर किया गया है; परंतु यहाँ पर प्रार्थना करनेवाला इसके यह भी बताया है कि वेदपाठी ब्राह्मणोंको र ' केवल एक वेदमतंकी ही निन्दा करता हुआ ही अक्षरम्लेच्छ कहते हैं। अर्थात् वेदपाठी ब्राह्म- . 1- आता है, जिससे जान पड़ता है कि यह दीक्षाणोंका कुल शुद्ध करके उनको अपनेमें मिलाकर , र न्वय क्रिया वेदके माननेवालोंको ही जैनी उनका आदरसत्कार करना चाहिए: बनानेके वास्ते है। (प्रार्थना कर चुकने पर उसको प्रदेशे वाक्षरम्लेच्छान्प्रजाबाधाविधायिनः। समझाना चाहिए कि आप्तवचन ही मानने योग्य कुलशुद्धिप्रदानाद्यैः स्वसाकुर्यादुपक्रमः ।। १७९ ॥ होता है और श्रीअरहंत भगवान ही आप्त हैं। विक्रियां न भजत्येते प्रभुणा कृतसक्रियाः। अरहंतके मतमें शास्त्रों, मंत्रों और क्रियाओंका प्रभोरलब्धसम्माना विक्रियते हि 'तेन्वहं ॥ १८० ॥ बहुत अच्छी तरह निरूपण किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति। जिसमें वेद, पुराण, स्मृति, चरित्र, कियाविधि, पिता है और तत्त्वोंका ज्ञान होना ही संस्कार मंत्र, देवता-लिंग, आहार और शुद्धिका यथार्थ किया हुआ उसका गर्भ है जिससे वह भव्य रीतिसे निरूपण किया है वही धर्म है, शेष सब पुरुष 'धर्मरूप जन्म धारण कर अवतीर्ण होता पाखंड हैं। जिसके बारह अंग हैं और जिसमें है । इस भव्य पुरुषकी यह अवतारक्रिया गर्भाश्रेष्ठ आचरणोंका वर्णन है, वह वेद है । जिसमें धान क्रियाके समान मानी जाती है। हिंसाका उपदेश हो वह वेद नहीं हो सकता, वह . इसके बाद वह व्रत ग्रहण करता है, और तो यमराजका वाक्य है । (वेद, स्मृति आदि उसको श्रावककी दीक्षा दी जाती है, अर्थात् ब्राह्मणधर्मके ही पारभाषिक शब्दोंका प्रयोग पूजनके पश्चात् गुरु मुद्राकी रीतिसे उसके मस्तककरने, क्रियामंत्र आदिका वर्णन करने और जैन का स्पर्श करके उससे कहा जावे कि तू अब शास्त्रोंको वेद बतानेसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि पवित्र हो गया है, फिर उसको नमस्कार मंत्र वेदपाठी ब्राह्मणोंको ही फुसलाने और समझानेके दिया जावे, ‘इसके बाद वह मिथ्यादेवोंको वास्ते ये सब बातें सिखाई जा रही हैं।) अपने घरसे बारह निकाल दे, उन देवताओंसे ___ जिसमें हिंसाका निषेध है वही पुराण और कहे कि मैंने अपने अज्ञानसे इतने दिन तक धर्मशास्त्र है । वे पुराण और धर्मशास्त्र जिनमें बड़े आदरके साथ आप की पूजा की, अब मैं हिंसाका उपदेश है धूर्तीके बनाये हुए हैं। सिर्फ अपने ही मतके देवोंकी पूजा करूँगा; देवपूजा आदि आर्योंके करने योग्य छः कर्म ही इस कारण क्रोध करनेसे कुछ लाभ नहीं है। चारित्र है । गर्भाधानसे लकर निर्वाणपर्यंत- आप 'अब किसी दूसरी जगह ही रहें। ऐसा की जो ५३ क्रियायें हैं वे ही ठीक क्रिया हैं। कहकर वह उन देवताओंको किसी दूसरी जगह गर्भसे मरणपर्यंतकी जो क्रियायें अन्य मतमें रख आवे । ( इससे भी सिद्ध है कि नित्य कही गई हैं वे मानने योग्य नहीं हैं । इन ५३ पूजन करनेवाले वैदिक धर्मके ब्राह्मणको ही जैनी क्रियाओंमें जो मंत्र पढे जाते हैं. वे ही सच्चे बनानेके वास्ते यह क्रिया है, न कि साधारण मंत्र हैं । प्राणियोंकी हिंसा करनेमें जिन मंत्रोंका लोगोंके वास्ते ।) प्रयोग किया जाता है वे खोटे मंत्र हैं । तीर्थकर इसके बाद वह द्वादशांग वाणीका अर्थ आदि देव ही शान्ति करनेवाले देव हैं, मांसभक्षी सुनता है, फिर चौदह पूर्वको भी सुनता है, क्रूर देवता त्यागने योग्य हैं । निथपना ही सच्चा फिर अन्य मतके ग्रन्थ देखता है, फिर उपवासलिंग है, हरिणका चमड़ा आदि रखना कुलिंग के दिन आत्मध्यान करने लगता है, और फिर है । मांसरहित भोजन करना ही आहारशुद्धि उसको जनेऊ दिया जाता है। (इससे भी सिद्ध है, मांसभोजीको सर्वघाती समझना चाहिए। है कि ब्राह्मणको ही जैनी बनानेके वास्ते यह जिनेंद्र मुनि या स्वदारसंतोषी गृहस्थके ही उपदेश है । क्योंकि सर्व साधारणको अर्थात् शूद्र कामशुद्धि हो सकती है और सब बहकाने- आदिको जनेऊ नहीं दिया जाता है। ब्राह्मणको वाले हैं। ( इस सारे ही उपदेशसे प्रगट है कि जनेऊ देनेका यहाँ यह अर्थ है कि मिथ्या वैदिक मतके ब्राह्मणको ही जैनी बनानेके वास्ते संस्कारके द्वारा जो उसने पहलेसे जनेऊ पहन ये बातें सिखाई गई हैं।) इस प्रकार उपदेश रक्खा था वह निकाल दिया जावे और जैनपाने पर वह मिथ्या मार्गको छोड़ता है और सच्चे धर्मके संस्कारके द्वारा उसको जनेऊ पहनाया मार्गमें लगता है । उस समय गुरु ही उसका जावे । इसी प्रकार उसका पहला विवाह भी For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० जैनहितैषी - भी रद्द करके उसही स्त्रीके साथ दोबारा विवाह करनेका उपदेश है, जिसका कथन आगे आवेगा । ) अब वह देवपूजा आदि षट्कर्म करने लगता है और अपना गोत्र और जाति आदि भी बदल लेता है । यथा: -- जैनोपासक दीक्षा स्यात्समयः समयोचितं । दधतो गोत्रजात्यादि नामांतरमतः परं ॥ ५६ ॥ —पर्व ३९ । वह उसका गोत्र और जाति आदि भी बदल देने का मतलब यह मालूम होता है कि, फिर अपनी पहली ब्राह्मण जातिमें न मिल सके और दो चार पीढ़ी बीत जाने पर इस बातका कुछ भी पता न चल सके कि वह पहले कौन था । फिर वह उपासकाध्ययन सूत्रको पढ़े, जिसमें श्रावकोंकी क्रियायें वर्णन की गई हैं । इसके पढ़ चुकनेके बाद वह गृहस्थ होता है ( इससे भी सिद्ध है कि वह ब्राह्मण ही है, जिसको इस प्रकार जैनी बनाया जा रहा है; क्योंकि धर्म - क्रियाओंको सीखनेके पीछे गृहस्थ होना यह ब्राह्मणका ही कार्य हो सकता है अन्यका नहीं । अन्य वर्णवालोंको तो अपने अपने वर्णका काम सीखने के बाद गृहस्थ होना चाहिए। ) फिर वह अपनी स्त्रीको भी.समझा बुझाकर श्राविका बनाता है और उससे जैनधर्म के संस्कारों के अनुसार दोबारा विवाह करता है। (जैनधर्मके नवीन बनाये हुए संस्कारोंका प्रभाव बढ़ाने के वास्ते ही दोबारा विवाह करनेका तरीका निकाला गया होगा । ) अर्थात् मिथ्यात्व अवस्थामें इसका जो विवाह हुआ था वह रद्द करके उसी स्त्रीके साथ जैन मंत्रों और क्रियाओंके द्वारा फिर विवाह करता है । फिर वह भव्य पुरुष ऐसे श्रावकों के साथजिनको वर्णलाभ हो चुका है और जो समान जीविका करनेवाले हैं - सम्बन्ध जोड़नेके वास्ते चार मुखिया श्रावकोंको बुलाकर अर्थात् + [ भाग १४ पंचोंको इकट्ठा करके प्रार्थना करे कि आप मुझको भी अपने समान करके मेरा उपकार करें, और कहे कि आप संसारसे पार करनेवाले देव ब्राह्मण हैं और संसारमें पूज्य हैं, आपकी कृपासे अब मुझको भी वर्णलाभ होना चाहिए । उसकी ऐसी प्रार्थना पर वे लोग कहें कि बहुत अच्छा, जिस तरह आपने कहा है वैसे ही होगा; क्योंकि आप सर्व प्रकार प्रशंसा के योग्य हैं । अन्य कोई द्विज ( ब्राह्मण ) आपकी क्या बराबरी सकता है ? आप जैसे पुरुषोंके न मिलने पर हम लोगों को समान जीविका करनेवाले मिथ्यादृष्टिय के साथ ही सम्बन्ध करना पड़ता था। इस प्रकार उसको वर्णलाभ हो जाता है, अर्थात् वह भी उन लोगों में मिल जाता है । कोई भी संदेह नहीं रहता है कि यह दीक्षान्वय क्रिया इस वर्णलाभ क्रिया के पढ़नेसे इस विषय में वैदिक ब्राह्मणों को ही जैनी ब्राह्मण बनाने के वास्ते वर्णन की गई है। क्योंकि वह नवीन जैनी जिनसे अपने शामिल कर लेनेकी प्रार्थना करता है, जैनी ब्राह्मण ही होने चाहिए, न कि साधारण जैनी । तभी तो वह उनसे यह कहता है कि आप संसारसे पार करनेवाले देव ब्राह्मण हैं और संसारमें पूज्य हैं । और स्वयम् भी वह जैन ब्राह्मण ही बना हो न कि साधारण जैनी, तब ही तो वह उनसे प्रार्थना कर सकता है कि कृपा करके मुझको भी आप अपने जैसा ही बना लीजिए, और तब ही तो वे लोग उससे कहेंगे कि अन्य द्विज अर्थात् और कोई ब्राह्मण तेरी बराबरी क्या कर सकते हैं ? देवब्राह्मण जिनसे वह अपनेको शामिल कर लेने की प्रार्थना करता है ऐसे ही होने चाहिए जो अन्यमतसे ही जैनी हुए हों। तब ही तो यह लिखा गया है कि वह नवीन जैनी ऐसे, श्रावकोंके साथ सम्बन्ध करनेके वास्ते, जिनको वर्णलाभ हो चुका है, इस प्रकार वर्णलाभ करनेकी For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___“ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति। कोशिश करे, और तब ही तो वे लोग उसको वर्णलाभ होने पर वह नवीन जैनी देवयह जवाब देते हैं कि तुम जैसे सम्यदृष्टि- पूजादि षट्कर्म अर्थात् कुलचर्या करने लगता योंकी कमीके कारण ही हमको अपने समान है और फिर जब वह अपनी वृत्ति और पठनजीविका करनेवाले अन्य मतियोंसे ( अर्थात् पाठनसे दूसरोंका उपकार करने लगता है, अर्थात् वैदिक ब्राह्मणोंसे ) सम्बन्ध करना पड़ता है। अन्य ब्राह्मणोंके समान यजमानोंकी सब क्रियायें अर्थात् जब इस प्रकार होते होते जैनी ब्राह्मण कराने लगता है, प्रायश्चित्त आदि सब विधाअधिक हो जावेंगे तब हम अन्यमती ब्राह्मणोंसे नोंको जान लेता है, वेद स्मृति और पुराण बिलकुल ही सम्बंध तोड़ देंगेः आदिका जानकार हो जाता है, तब वह गृहवर्णलाभस्ततोऽस्य स्यात्संबंध संविधित्सतः। स्थाचार्य हो जाता है:समानाजीविभिलब्धवगैरन्यैरुपासकैः ॥ ६१॥ विशुद्धस्तेन वृत्तेन ततोऽभ्येति गृहीशितां । वृत्ताध्ययनसंपत्त्या परानुग्रहणक्षमः ॥ १३ ॥ चतुरः श्रावकान् ज्येष्ठानाहूय कृतसत्कियान् । तान्ब्रूयादरम्यनुग्राह्यो भवद्भिः स्वसमीकृतः ॥ ६२॥ प्रायश्चित्तविधानज्ञः श्रुतिस्मृतिपुराणवित् । गृहस्थाचार्यतां प्राप्तस्तदाधत्ते गृहीशितां ।। १४ ॥ यूयं निस्तारका देवब्राह्मणा लोकपूजिताः । -पर्व ३९ । अहं च कृतदीक्षोऽस्मि गृहीतोपासकवतः ॥ ६३॥ इन श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध हो गया कि वेदपाठी एवं कृतव्रतस्याद्य वर्णलाभो ममोचितः । सुलभः सोऽपि युष्माकमनुज्ञानात्सधर्मणाम् ॥ ६८॥ ब्राह्मणोंको ही जैन ब्राह्मण बनानेके वास्ते यह दीक्षान्वय क्रिया बनाई गई है और श्रुति स्मृति इत्युक्तास्ते च तं सत्यमेवमस्तु समंजसं । पुराण आदिके अनुसार जो कुछ वृत्ति इन स्वयोक्तं श्लाध्यमेवैतत्कोऽन्यस्त्वत्सदृशो द्विजः ॥ ६९ ॥ ब्राह्मणोंकी थी और जो जो कुछ क्रियायें ये युष्मादृशामलाभे तु मिथ्यादृष्टिभिरप्यमा। लोग जैनी होने से पहले करते थे वा यजमानोंसे समानाजीविभिः कर्तु संबंधोऽभिमतो हि नः ॥ ७० ॥ कराते थे, जैन होनेके पश्चात् भी उनकी वे ही -पर्व ३९। वृत्तियाँ और क्रियायें कायम रक्खी गई, यहाँतक वर्णलाभके इस कथनसे यह भी मालूम होता कि मा कि उनकी वृत्तियों और क्रियाओंक नाम भी है कि जब अन्यमती ब्राह्मणोंको जैनी ब्राह्मण वहा - वही रहने दिये जो पहले थे । तब ही तो इस बनाना शुरू किया गया था, तब शरूमें अपनी नवीन जैनीको गृहस्थाचार्य हो जाने और संख्या कम होनेके कारण और वर्णव्यवस्थाकी प्रायश्चित्तादि देनेका अधिकार प्राप्त कर लेनेके मान्यता अधिक होनेके सबब इन जैनी ब्राह्मणों- वास्ते श्रुति, स्मृति और पुराणोंकी जानकारी को अन्यमती ब्राह्मणोंसे ही विवाह आदि संबंध प्राप्त करनेकी आज्ञा इन श्लोकोंमें दी गई है। रखना पड़ता था, इसी कारण उस समय जैन ब्राह्मणको दस अधिकार प्राप्त कर लेनेका लाचार होकर इन जैनी ब्राह्मणोंको अन्यमती जो कथन इस लेखमें पहले किया गया है, और ब्राह्मणोंकी अनेक क्रियायें माननी पड़ी, और इन जैन ब्राह्मणोंको उपदेश देते समय जो इनके ऐसा करनेसे धीरे धीरे अन्य जैनियोंमें वैदिक मतके पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग . भी इस क्रियाओं को प्रवेश हो गया और फिर किया गया है तथा उनके अग्नि, और भूमि होते होते जैन ग्रंथों में भी इनका कथन होने लगा। आदि देवताओंके पूजनेकी जो शिक्षा इन ब्राह्म For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :- - - - ४८२। जैनहितैषी [ भाग १४ णोंको दी गई है, इन सब बातोंको अर्थात् इस कि भरत महाराजके द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापना लेखको इस स्थान पर फिर दोबारा पढ़नेसे होनेसे पहले ब्राह्मण वर्ण ही नहीं था, अर्थात् और इसीके साथ पहले लेखको भी पढ़ लेनेसे उस समय क्षत्री वैश्य और शूद्र ये ही तीन यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि प्रकारके मनुष्य थे, ब्राह्मण कोई था ही नहीं । पंचम कालमें जिस समय हिन्दुस्थानमें ब्राह्म- तब ही तो भगवानके द्वारा तीन वर्गों की णोंका जोर बढ गया था, वे लोग जैन उत्पत्तिका वर्णन करके लिखा है कि अपने और बौद्धोंसे पूरी पूरी घृणा करने लगे थे और मुखसे शास्त्रोंको पढ़ानेवाले ब्राह्मणोंको भरत इनमें वर्ण या जातिका भेद और गर्भाधान आदि रचेगा । पढ़ना पढ़ाना, दान देना लेना और क्रिया न होनेके कारण वे लोग इनको शूद्रोंसे पूजा करना कराना उनकी आजीविका होगी। यह भी घटिया मानते थे और ब्राह्मणोंका अधिक भविष्यवाणी करनेके पश्चात् आदिपुराणमें प्रचार और प्रभाव होनेके कारण जब कि जैनी अगला श्लोक यह लिखा है कि शूद्र शूद्रकी लोग भी पठन पाठन आदि उनहीसे कराते थे, ही कन्यासे विवाह करे, वैश्य अपने वर्णकी उनके अनेक संस्कार, अनेक क्रिया, और उनकी कन्यासे और शूद्रकी कन्यासे विवाह करे, क्षत्री अनेक शीतयाँ मानने लगे थे और लाचार होकर अपने वर्णकी कन्यासे और वैश्य और शूद्रबहुतसे कार्य उनहीसे कराते थे, तब किसी की कन्यासे विवाह करे, और ब्राह्मण अपने समय किसी जैनी राजाका आश्रय पाकर उनही वर्णकी कन्यासे विवाह करे कभी अन्य वर्णकी ब्राह्मणों से कुछ ब्राह्मणोंको फुसलाकर जैनी कन्यासे भी कर ले:" बनाया गया और उनसे वही काम लिया गया मुखतोध्यापयन् शास्त्रं भरतः स्रक्ष्यति द्विजान् । जो वे पहलेसे करते चले आये थे, अर्थात् उनको अधीत्यध्यापने दानं प्रतिक्षेज्यति तक्रियाः॥२४५॥ वैदिक ब्राह्मणके स्थानमें जैन ब्राह्मण बना लिया गया और अन्य जैनियोंको उनका यजमान शद्रा शुद्रेण वोढव्या नान्या स्वां तां च नैगमः । वहेत्स्वाते च राजन्यः स्वां द्विजन्माक्वचिच्चताः॥२४७॥ बना दिया गया । इस समय भी जो जैनी ब्राह्मण दक्षिण देशमें मौजूद हैं, वे भी अन्य -पर्व १६ । ब्राह्मणोंके समान ही जैन यजमानोंका काम भरतमहाराजके द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापनाकरते हैं और प्रायः वे ही सब क्रियायें कराते का कथन तो स्वयम् उस उपदेशके कथनसे ही हैं जो अन्य हिन्दुओंके यहाँ होती हैं। जड़ मूलसे उखड़ जाता है जो ब्राह्मण वर्णकी स्वयम् आदिपुराणका कथन ही इस बातका स्थापनाके दिन भरतमहाराजकी तरफ़से ब्राह्मणोंसाक्षात् सबूत होते हुए-कि ये ब्राह्मण पंचम को दिया जाना आदिपुराणमें वर्णन किया कालमें ही बनाये गये हैं-उसका यह कथन गया है, जैसा कि हमने इस लेखमें और इसकिसी तरह भी माननेके योग्य नहीं हो सकता से पहले लेखमें दिखलाया है; परन्तु इस बातका है कि चौथे कालके प्रारम्भमें ही भरत महाराजके पता नहीं लगता है कि भरत महाराजके द्वारा द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापना हुई थी और यह ब्राह्मण बनाये जानेकी भविष्यवाणी और यह सब उपदेश भरत महाराजने ही ब्राह्मण वर्ण विवाहसम्बंधी आज्ञा जो उक्त श्लोकोंमें लिखी स्थापन करनेके दिन ब्राह्मणोंको दिया था। हुई है किसने दी और किस समय दी। श्रीभग आदिपुराणके उस कथनका आशय यह है वान्ने तो न यह भविष्यवाणी ही कही और For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] न यह आज्ञा ही दी; क्योंकि अव्वल तो आदिपुराणमें ही ऐसा नहीं लिखा, वरन् आदिपुराण में तो ये दोनों श्लोक बिलकुल उधारेसे ही रक्खे हुए मालूम होते हैं । इसके सिवाय यदि श्रीभगवानकी तरफ से यह बताया जाता कि चौथा वर्ण ब्राह्मणका भरत द्वारा स्थापन होगा और इसी कारण उस वर्णकी बाबत विवाहका नियम भी पहले से ही बता दिया गया होता, तो सबं प्रजाको और विशेष कर भरतमहाराजको इसकी खबर जरूर होती, परन्तु ऐसा होनेकी अवस्था में ब्राह्मण वर्ण स्थापन करनेके पश्चात् सोलह स्वन आने पर न तो भरतमहाराजो कोई घबराहट ही होती और न वे समवसरण में जाकर श्रीभगवान से ही यह कहते कि मैंने आपके होते हुए ब्राह्मणवर्ण बनाकर बड़ी मूर्खताका काम कर डाला है, कार्य योग्य हुआ है या अयोग्य, चिन्तामें मेरा मन डावांडोल हो रहा है, आप कृपाकर मेरे मनको स्थिर कीजिए । और इसका उत्तर भी श्रीभगवान् वह न देते जो आदिपुराण में लिखा गया है, अर्थात् वे यह न कहते कि तूने जो द्विजोंका सम्मान किया है उसमें अमुक दोष है, किन्तु यही कहते कि हम तो पहले ही कह चुके थे कि तुम्हारे द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापना होगी और हम तो इन ब्राह्मणों के विवाहका नियम भी पहले ही बता चुके हैं । ब्राह्मणों की उत्पत्ति | यह इस विश्वस्य धर्मसर्गस्य त्वयि साक्षात्प्रणेतरि । स्थिते मयाऽतिबालिश्यादिदमाचरितं विभो ॥ ३२॥ दोषः कोऽत्र गुणः कोऽत्र किमेतत्सांप्रतं न वा । दोलायमानमिति मे मनः स्थापय निश्चितौ ॥ ३३ ॥ साधुवत्सत्कृतं साधु धार्मिकद्विजपूजनं । किन्तु दोषानुषंगोऽत्र कोऽप्यस्ति स निशम्यतां ४५ —पर्व ४१ । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि ये दोनों श्लोक वैसे ४८३ ही अप्रमाण हैं, जैसा कि भरत महाराजके द्वारा ब्राह्मण वर्ण स्थापन होनेका कथन । विवाह के सम्बंध में ब्राह्मणों के यहाँ बिलकुल यही नियम है जो उक्त श्लोक २४७ में वर्णन किया गया है । इससे मालूम होता है कि गया है, बल्कि इससे भी ज्यादा यह मालूम विवाहका यह नियम भी उन्हींसे उधार लिया होता है कि वेदपाठी ब्राह्मणोंको जैनी बनाने से उनके अनेक रीतिरिवाजों, सिद्धांतों और देवताओंको स्वीकार करते हुए जैनियोंको क्षत्री, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण भी ब्राह्मण वर्णको माननेके कारण ही मानने पड़े हैं, तबही तो जैनकथाग्रन्थों में इन वर्णोंके वे ही लक्षण माने गये हैं, जो वैदिक शास्त्रों में वर्णित हैं । ब्राह्मणका सिद्धान्त है कि यह सारी सृष्टि ब्रह्मा के द्वारा सजी गई है । इ अलंकारके तौर पर इस तरह वर्णन करते हैं कि, ब्राह्मण उसकी सृष्टिके मुख हैं, क्षत्री भुजा हैं, वैश्य घड़ हैं और शूद्र पैर हैं; और इसीको वे कभी कभी इस रूपमें भी वर्णन कर देते हैं कि. बाह्मण ब्रह्मा के मुखसे उत्पन्न हुए हैं, क्षत्री भुजासे, वैश्य घड़से और शुद्र पैरोंसे । शोक है कि कुछ ब्राह्मणोंको जैनी ब्राह्मण बनाने के कारण उनके ऐसे ऐसे सिद्धान्त भी जैनधर्ममें शामिल हो गये और सबसे ज्यादा शोक इस बातका है कि उनके अलंकारोंने जैनधर्ममें आकर वास्तविक "रूप धारण कर लिया । तबही तो आदिपुराण में बार बार श्रीआदिनाथ भगवानको ब्रह्मा सिद्ध किया गया है और उनका यह सिद्धान्त स्वीकार करके कि जो ब्रह्मा के मुखसे उत्पन्न हो वही ब्राह्मण है इस बात के सिद्ध करनेकी बारबार कोशिश की गई है कि तीर्थकर भगवानकी वाणीको स्वीकार करनेसे जैनी ब्राह्मण ब्रह्मा के ही मुखसे उत्पन्न हुए हैं ( इसके वास्ते For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ . जैनहितैषी [भाग १३ - देखो पहला लेख) ओर इसी प्रकार अन्यवर्गों के युगकी आदिमें भगवानने उस समयके लोगोंको वास्ते यह बात बनानी पड़ी है कि भगवान्ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्गों में विभाजित करके अपने दोनों हाथोंमें शस्त्र धारण करके क्षत्रि- और उनको पृथक् पृथक् कार्य सिखलाकर योंकी रचना की, क्योंकि जो हाथमें शस्त्र लेकर कर्मभूमिकी प्रथा चलाई । (देखो पर्व १६ दूसरोंकी रक्षा करे वही क्षत्री है, फिर भगवानने श्लोक २४३-४५ ) इससे आगे २४६ वें अपने उरुओंसे यात्रा करना अर्थात् परदेश श्लोकमें यह भविष्यवाणी की गई है कि चौथा जाना दिखलाकर वैश्योंकी सृष्टि की, क्योंकि जल- ब्राह्मण वर्ण भरत बनावेगा । पढ़ना पढ़ना, दान स्थल यात्रा करके व्यापार करना ही वैश्योंकी देना लेना और पजन करना कराना इस वर्णकी मुख्य आजीविका है और नीच कामोंमें तत्पर आजीविका होगी। रहनेवाले शूद्रोंकी रचना भगवानने अपने पैरोंसे ___ आदि पुराणके उक्त कथनका आशय यही की, क्यों कि उत्तम वर्णवालोंकी शुश्रूषा करना , ' है कि भगवानके कैवल्यके ६० हजार वर्ष बादआदि शूद्रोंकी आजीविका है:- . तक इस देशमें ब्राह्मणवर्णका नाम भी नहीं था, स्वदोभ्यो धारणे शस्त्रं क्षत्रियानसृजद्विभुः। , परन्तु इसी ग्रन्थकी कई कथाओंसे इस बातका क्षतत्राणे नियुक्ता हि क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः।२४३। खण्डन होता है। उरूभ्या दर्शयन्यात्रामस्राक्षीद्वणिजः प्रभुः। जलस्थलादियात्राभिस्तवृत्तितिया यतः।।२४४ . १. आदिनाथ भगवान दीक्षा लेनेके एक वर्ष न्यग्वृत्तिनियतान् शूद्रान् पद्भ्यामेवासृजत्सुधीः। बाद जब चर्या करते हुए हास्तिनापुर पहुंचे हैं, बर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तवृत्ति कधा स्मृता ॥२४५ ॥ तब श्रेयांस राजाको कुछ स्वप्न आये थे और । उनका फल उनके निमित्तज्ञानी पुरोहितने बतलाया __था। स्वप्नोंके फल बतलानेके लिए और भी गरज कहाँ तक कहाँ जाय जैन ब्राह्मण कई स्थानों में परोहितोंसे निवेदन किया गया बनानेके लिए जैनधर्ममें हिन्दूधर्मकी बीसौं बात है। अब यह देखना चाहिए कि ये किस वर्णके शामिल कर दी गई और जैनधर्मका ढाँचा ही होते थे। ब्राह्मणेतर तीन वर्षों के तो ये हो नहीं बदल दिया गया। सकते। क्योंकि इन तीन वर्गों के जो लक्षण * * * * उक्त ग्रन्थको मान्य हैं वे उक्त पुराहितोंमें घटित आदिपुराणके कथनानुसार आदिनाथ भग- नहीं हो सकते । अतः ये ब्राह्मण वर्णके ही थे वानको केवलज्ञान. होनेके पश्चात् भरत महाराज और पर्व १६ के २४६ वें श्लोकमें ब्राह्मणोंके दिग्विजयको निकले थे । इस दिग्विजयमें उन्हें कर्मोंसे इनके कर्म बराबर मिलते हैं । आजकल ६० हजार वर्ष लगे थे और उन्होंने इस विजय- भी ब्राह्मण वर्णके ही पुरोहित होते हैं । गरज यात्राके बाद ही ब्राह्मणवर्णकी स्थापना की यह कि राजा श्रेयांसका पुरोहित ब्राह्मण ही था, थी । अर्थात् भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न और जैन ब्राह्मण था। क्योंकि उसने स्वप्नोंका होनेके ६० हजार वर्ष पीछे ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति फल बतलाते हुए कहा था कि आज श्रीभगवान् हुई है । ( देखो पर्व २४ श्लोक २, पर्व २६ णापके घर आयेंगे और उनकी योग्य विनय करश्लोक १-५, और पर्व ३८ श्लोक ३ से २३ नेसे बड़ा भारी पुण्य प्राप्त होगा । (देखो पर्व २० तक । ) आदिपुराणमें यह भी लिखा है कि श्लोक ३९-४३ । ) इससे सिद्ध होता है कि For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] भगवानके दीक्षा लेने के एक वर्ष पीछे, अर्थात् ब्राह्मणवर्णकी स्थापना लगभग ६० हजार वर्ष पहले भी ब्राह्मणवर्ण था और श्रेयांसका पुरोहित उसी वर्णका था । ब्राह्मणों की उत्पत्ति । २. भरतमहाराज के दरबार के रत्नोंमें एक रत्न पुरोहित भी था, जिसका नाम बुद्धिसागर था । लिखा है कि सारी धर्मक्रियायें और देव सम्बन्धी इलाज उसके अधीन थे और वह बड़ा भारी विद्वान् था । यथा: - बुद्धिसागर नामास्य पुरोधाः पुरुधीरभूत् । धर्म्या क्रिया यदायत्ता प्रतीकारोऽपि दैविके ॥१७५॥ - पर्व ३७ । इससे मालूम होता है कि भरतमहाराजकी सारी धर्मक्रियायें यही करता कराता था । यह अयोध्यानगर में ही पैदा हुआ था और भरत महाराजकी दिग्विजय में बराबर साथ रहा है। ' प्रतीकारोऽपि दैविके ' पदसे जान पड़ता है कि वह देवोंके वश करनेमें निपुण था, अर्थात् मंत्रसिद्धि आदिके कार्य भी करता था । २२ वें पर्वके ४५-५५ श्लोकोंमें लिखा है कि दिग्विजयके शुरू में ही जब भरतजी लवणसमुके किनारे पहुँचे तब मागधदेवको जीतने के लिए उन्होंने उपवास किया, मंत्रतंत्रोंसे हाथयारोंका संस्कार किया और अनेक क्रियायें करके पुरोहितके सामने पंचपरमेष्ठीका पूजन किया ।“ पुरोधोऽधिष्ठितः पूजां स व्यधात्परमेष्ठिनां । ' आगे रोहित भरतो मंगल आशीर्वाद दिया है और उनकी विजयकामना की है । इसके बाद सिन्धुनदीके, संगम स्थलके देवको जीतने के समय तो स्पष्ट ही लिख दिया गया है समस्त विधिविधान के जाननेवाले पुरोहितने मंत्रोंके द्वारा विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेकी पूजा की और फिर गन्धोदक मिश्रित शेषाक्षतोंसे चक्रवर्तीको पुण्याशीर्वाद दिया । इन सब बातों से खूब अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि ३-४ ४८५ भरतजीका पुरोहित जैन ब्राह्मण ही था और उन्हींके सदृश जैन ब्राह्मण था जिनका इस कथन के ६० हजार वर्ष पीछे भरतजी द्वारा बनाया जाना बतलाया जाता है । भोभूमिकी रीति समाप्त होने पर भगवानने विचार किया कि पूर्व और पश्चिम विदेहमें जो स्थिति वर्तमान है, प्रजा अब, उसीसे जीवित रह सकती है । वहाँ पर जिस प्रकार षट्कर्मों की और वर्णाश्रम आदि की स्थिति है, वैसी ही यहाँ होनी चाहिए । इन्हीं उपायोंसे इनकी आजीविका चल सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है । इसके बाद इन्द्रने भगवानकी इच्छाके अनुसार नगर, ग्राम, देश आदि बसाये और भगवानने प्रजाको छह कर्म सिखलाकर क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की । ( देखो पर्व १२, श्लोक १४२ - ९० 1 ) इससे मालूम होता है कि विदेहों में तीन ही वर्ण हैं। क्योंकि भगवानने युगकी आदि में पूर्व पश्चिम विदेहों के अनुसार ही प्रबन्ध किया था, और प्रजाको तीन वर्णों में विभाजित किया था । यदि विदेहोंमें ब्राह्मण वर्ण भी होता तो भगवान् यहाँ भी उसे रचते । इससे सिद्ध है कि ब्राह्मण वर्णकी स्थापना दुनियासे निराली और बिलकुल. गैरज़रूरी बात थी । यदि ब्राह्मणवर्णी कामका होता, तो विदेहों में वह भी अवश्य होता । भरत महाराजके द्वारा इसकी स्थापना के धार्मिक आवश्यकता के लिए बतलाई जाती है, न कि किसी लौकिक सिद्धि के लिए, और विदेह क्षेत्रों में सर्वदा ही चौथा काल रहता है, अतएव ऐसी कोई धार्मिक प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती जो विदेहों में न हो। इससे मानना पड़ेगा कि यदि भरतके द्वारा ब्राह्मणवर्णकी स्थापना होनेकी बात सत्य है तो उन्होंने चौथे कालकी रीतिको उल्लंघन करके व्यर्थ ही इसे बनाया, अथवा यह कहना होगा कि इस वर्णकी स्थापना चौथे For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ कालकी बात ही नहीं हो सकती है, यह वर्ण पाँचवें कालमें ही बना है । भरत महाराज के सिर इसके बनाने का दोष व्यर्थ ही मढ़ा जाता है । जिस समय भगवानने प्रजाको तीनों वर्णोंके जुदे जुदे काम सिखलाये थे उस समय यदि ब्राह्मण वर्ण बनाने की जरूरत होती, तो कोई कारण नहीं है कि वे उन्हें न बनाते । यदि कोई ऐसी ही बात होती जिससे बहुत दिन पीछे भरतके द्वारा ही उनका बनाया जाना उचित होता, तो वे भरतको इस बातकी आज्ञा देते कि अमुक समय में अमुक रीतिसे ब्राह्मण वर्णकी स्थापना करना । यदि ऐसा होता तो १६ अनिष्ट स्वप्नोंके आने पर भरतजीको न तो किसी प्रकार की चिंता होती और न वे भगवानके समक्ष यह निवेदन ही करते कि आपके होते हुए भी मैंने यह कार्य मूर्खतावश कर डाला है और अब इस कार्यकी योग्यता या अयोग्यताकी चिन्तासे मेरा मन डावांडोल हो रहा है । ( पर्व ४१ श्लोक ३२ - ३३ । ) इससे मालूम होता है कि ब्राह्मण वर्णकी स्थापना ऐसा कार्य नहीं था जो होना ही चाहिए था । भरतजीने यह व्यर्थ ही अटकलपच्च कर डाला था । • जैन शास्त्रोंसे मालूम होता है कि यहाँ अनन्त चार चौथा काल आया है और अनन्त वार कर्मभूमी रचना हुई है । परन्तु मालूम होता है कि इससे पहले ब्राह्मण वर्णकी स्थापना कभी किसी भी कर्मभूमिकी रचना के समय नहीं हुई । यदि ऐसा होता तो भरत महाराज के पूछने पर भगवान् यही उत्तर देते कि इसमें घबड़ाने की कोई बात नहीं है, क्योंकि ऐसा तो सदा ही होता आया है— चौथे काल में ब्राह्मणवर्ण पहले भी होता रहा है; परन्तु उन्होंने ऐसा उत्तर न देकर यही कहा कि तुमने जो साधुसमान व्रती श्राव - कोंका सत्कार किया, सो इस समय तो अच्छा ही किया है, चौथे कालम तो ये लोग धर्ममें जैनहितैषी [ भाग १४ स्थिर रहेंगे; परन्तु आगे इनसे बड़े बड़े अनर्थ होंगे। ( देखो पर्व ४१ श्लोक ४३ - ५७ । ) भरतजीने ब्राह्मण वर्णकी स्थापना इस लिए नहीं की कि प्रजाको उसकी आवश्यकता थी । यदि ऐसा होता तो स्थापनाके प्रकरण में यह बात अवश्य लिखी जाती । वहाँ ता इससे विपरीत यह लिखा है कि उन्होंने अपना सारा धन परोपकारमें लगाने के लिए यह कार्य किया था । ( पर्व ३८, श्लोक ३-८ । ) उपासकाध्ययनसूत्रमें भी जो द्वादशांग वाणीका सातवाँ अंग है और जिसमें गृहस्थोंकी सारी क्रियाओंका वर्णन है - ब्राह्मणवर्णका जिकर नहीं मालूम होता । क्योंकि आदिपुराणके कथनानुसार ब्राह्मणवर्णकी स्थापना के समय भरतजीको इस उपासकाध्ययनका ज्ञान था । यदि इस अंगमें ब्राह्मणवर्णका कथन होता तो भरतजीको भगवानके समक्ष इस बातकी घबड़ाहट न होती कि ब्राम्हणवर्णकी स्थापनाका कार्य मुझसे योग्य हुआ है या अयोग्य, और वे भगवान से स्पष्ट शब्दों में कहते कि मैंने सातवें अंगके अनुसार ब्राह्मणवर्ण स्थापित किया है । उन्होंने तो केवल यही कहा है कि मैंने उपसिकाध्ययन सूत्र के अनुसार चलनेवाले ' श्रावकाचारचंचु पुरुषोंको ब्राह्मण बनाय | है | ( पर्व ४१ श्लोक ३०|) , इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कि न तो विदेहक्षेत्रों में ही ब्राह्मण वर्ण है - जहाँ सदा ही चौथा काल रहता है, न भरतक्षेत्र में सदासे ब्राह्मणवर्णकी स्थापना होती आई है, न द्वादशांगवाणीमें ही इस वर्णका उल्लेख है, न भगवान आदिनाथने इसे बनाया और न उनकी आज्ञा के अनुसार ही भरतने इसकी स्थापना की । उन्होंने इसे स्वयं ही अटकलपंचू, दूसरे शब्दों में जैनधर्मसे विरुद्ध, बना डाला था । अन्तमें हम अपने पाठकों से इस लेख के दोनों भागों को फिरसे एक बार बाँचनेकी प्रार्थना For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] विचित्र ब्याह। ४८७ करते हैं और इतना और सुचित कर देना गेंद बना दें करका, चाहते हैं कि हमने इस लेखमें आदिपुराणके अपनेकी तो बात अलग है, उस कथन पर बहस नहीं की है जिसमें ब्राह्मण . खेद मिटादें परका ॥ ३ ॥ वर्णकी उत्पत्तिकी विधि लिखी है । उस कथन अबलाको भी प्रबला करता, समय विलक्षण क्षणमें, पर तो इतनी अधिक शंकायें उत्पन्न होती हैं चन्दन-कण भी मिल जाता है, कि यदि उन सब पर विचार किया जाय तो कभी अग्निके कणमें। इससे भी अधिक लिखना पड़े । परन्तु हमें किसी बातको कभी असंभव, आशा है कि अब हमें उन बातोंको लिखना न कहना नहीं भला है, पड़ेगा, इस लेखको पढ़नके बाद हमारे भाई पलमें निबल सबल हो जाते, स्वयं ही उन पर विचार कर लेंगे। चल जाती अचला है ॥ ४ ॥ प्रथम चाहती रही सुशीला, धर्म-ब्याह सुतका हो । विचित्र ब्याह । जिस कारणसे हँसी न हो या, पाप धर्मच्युतका हो। (लेखक, श्रीयुत पं० रामचरित मा।) हरिसेवकको किन्तु देखने, कोई कभी न आया। पक्रम सर्ग। हा.! निर्धन बुधको मी जगमें, मेरे सुतको कोई सज्जन, . किसने कब अपनाया ? ॥५॥ दे देता जो कन्या, धनहीना थी यद्यपि वह पर तो मैं पुत्रवधूको पाकर, उसने मनमें ठाना, जगमें होती धन्या। घर बेचूंगी ब्याह करूँगी. इसी सोचमें पड़ी सुशीला, सुतका निज मन माना। तनिक नहीं सोती थी, निर्धनकी कन्याका उसने, विकल हुई रहती थी हरदम, : झट पट पता लगाया, मन-ही-मन रोती थी ॥१॥ रूपचन्दको किसी युक्तिसे, रत्नाकरसे पंगु रत्नको, अपने पास बुलाया ॥६॥ कैसे पा सकता है ? निकट सुशीलाके निज घरसे, पुण्य-हीन जन पुण्य-लोकमें, रूपचन्द तब आया, कैसे जा सकता है ? और सुताका उसने आकर, मला मनोरथ क्यों पूरा हो, लक्ष्मी नाम बताया। धन-विहीनका जगमें, अति लोभी बनिया था उसका, कल्पवृक्ष क्या उग सकता है,. / लोभ नगरमें घर था, कभी मरुस्थल-मगमें ? ॥२॥ उभय लोकमें पाप, अयशका, पर उद्यमके बल उद्योगी, उसे न कुछ भी डर था ॥७॥ सब कुछ कर सकते हैं, कहा सुशीलाने उससे तब, वे न लिघत्राधाओंसे कुछ, अपना हाल विनयसे, मनमें डर सकते हैं। फिर हरिसेवकके गुणको भी, चाहें तो वे चन्द्र सूर्य को, कथन किया अति नगसे। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जैनहितैषी [भाग १४ wwwimm पर लक्ष्मीको सेंत मेंतमें, देने कहा न उसने, हाय ! धर्मको नहीं गवाँया, लोभ-विवश हो किसने?॥ कहा सुशीलाने तब दृढ हो, क्या लोगे कन्याका दाम, जो माँगोगे मैं देऊँगी, चाहे बिक जावे मम धाम । - किन्तु साहजी ! मेरी आर्थिक, दशा देख करके कहना, केवल लोभ-विवश मत होना, दयाविवश भी हो रहना ॥ ९॥ जो कुछ मेरे घर है उसको, सुता आपकी पावेगी, और उसीसे जैसे तैसे, अपने काम चलावेगी। इसी लिए तुम खूब समझकर वर कन्या पर देना ध्यान, अपने स्वार्थसहित मेरे भी, कार्य पूर्ण करना मतिमान ॥१०॥ रूपचन्द बोला तब यों, भला पिघलता वह कब यों। चाहे. तुम बेंचो निज धाम, मुझको है रुपयेसे काम ॥ ११ ॥ भूखों कन्या मर जावे, जली भाड़में बर जावे । चाहे मैं होऊँ वदनाम, मुझको है रुपयेसे काम ॥ १२ ॥ मुझे पाँच सौ दे देना, लक्ष्मीको तुम ले लेना। छोडूंगा मैं नहीं छदाम, मुझको है रुपयेसे काम ॥ १३ ॥ चाहे वर गुणवाला हो, गोरा हो, या काला हो। बूढ़ा हो, या युवक ललाम, मुझको है रूपयेसे काम ॥ १४ ॥ ऊँच नीचका भेद नहीं, किसी बातका खेद नहीं। सबके जनक एक हैं राम, मुझको है रुपयेसे काम ॥ १५॥ मेरा जीवन है कलदार, मेरा तन मन है कलदार । जपूँ उसे ही आठों याम, मुझको है रुपयेसे काम ॥ १६ ॥ रुपयेवाले मानव हैं, धन-विहीन जन दानव हैं। इसमें कुछ भी नहीं कलाम, मुझको है रुपयेसे काम ॥१७॥ रुपये जब मेरे होंगे, पर भी तब मेरे होंगे। तब मैं पाऊँगा विश्राम, मुझको है रुपयेसे काम ॥ १८ ॥ रुपया जब मिल जावेगा, हृदय-कमल खिल जावेगा। उसके विना हुआ हूँ क्षाम, मुझको है रुपयेसे काम ॥ १९ ॥ मुझे काम क्या झगड़ेसे ? पुण्य, पापके रगड़ेसे। जगमें कुछ भी है न हराम, मुझको है रुपयेसे काम ॥२०॥ कहा सुशीलाने सुनिए, रुपयोंमें कुछ कम करिए। मुझमें उतनी शक्ति नहीं, मेरी है बस विनय यही ॥ २१ ॥ मेरे मनके दुःख हरो, . वर कन्या पर दया करो। फिरसे कहिए बूझ विचार, जिसमें होवे बेड़ा पार ॥ २२॥ रूपचन्द तब तनक गया , , उसने बदला रंग नया । यदि सुतका करना है न्याह, “ पूर्ण करो तब मेरी चाह ॥ २३ ॥ जो मैं मुखसे कहता हूँ, .. उस पर दृढ़ हो रहता हूँ। झूठ बोलना ठीक नहीं, मैं जाता हूँ और कहीं ॥ २४ ॥ . For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] विचित्र ब्याह । . करिए मेरे पर विश्वास, तनिक न होवें आप उदास ॥ ३४ ॥ रूपचंद तब खड़ा हुआ, किड़क झिड़क कर कड़ा हुआ। फिर 'अच्छा' कह लौटा गेह, दिखा लोभके झठे स्नेह ।। ३५।। दो दिवसोंके बाद वहाँ पर फिर वह आया, उसने पाकर द्रव्य चित्तमें अति सुख पाया। रूपचन्द था बड़ा मतलबी और सयाना, . उसने पलमें किया ब्याहका ठीक ठिकाना । ... वह रुपये लेकर घर गया, सुचित सुशीला हो गई। मानो हरिसेवक-व्याहकी, चिन्ता उरसे खो गई। ३६ । । मम कन्या गुण-मंडी है मनो दर्शनी हुंडी है। उसको कहीं भैजा लूंगा, किन्तु नहीं तुमको दूंगा ॥ २५ ॥ जैसी लक्ष्मी सुन्दर है, हरिसेवक वैसा वर है। तदपि पाँच सौ में लँगा, तभी सुताको मैं दूंगा ॥ २६ ॥ बोला, अब मैं जाता हूँ, सत्य शपथ मैं खाता हूँ। कम न करूँगा कौड़ी एक, अपनी ही रक्खूगा टेक ॥ २७ ॥ बिक जावेगी सुता कहीं, ग्राहककी है कमी नहीं। जो कहना हो साफ कहो मत सोचो, मत मौन रहो ॥ २८ ॥ कहा सुशीलाने कर जोड़, . जो न आप कुछ सकते छोड़। तो फिर क्यों होते हैं रुष्ट, द्रव्य लीजिए रहिए तुष्ट ॥ २९ ॥ हरिसेवकका करिए ब्याह, अपनी पूरी करिए चाह ।। बात आपकी है मंजूर, चिन्ता आप कीजिए दूर ॥३०॥ यदि तुमको करना है काज, रोक रुपैया दो सौ आजदेकर मुझे बयाने दो, खाली हाथ न जाने दो॥३१॥ हुई व्यग्र वह बेचारी, क्योंकि अनाथा थी-नारी । बोली बड़ी विनय करके, आँखोंमें आँसू भरके ॥ ३२॥ रुपये दूंगी दो दिन में, चिन्ता मत करिए मनमें। आज कहाँ मैं पाऊँगी, कर्ज कहींसे लाऊँगी ॥३३॥ दो दिनमें फिर आवे आप, -दो सौ ले जावें चुपचाप । षष्ठ सगे। रुपये लेकर रूपचन्द जब घर पर आया, उसने प्रेमसमेत त्रियाको निकट बुलाया । रुपये देने लगा उसे तो वह हँस बोली, कहिए किसने आज आपकी भर दी झोली। किसभाँति आपको एकदम, इतने रुपये मिल गये क्यों अहो अचानक व्योममें, अमित कमल-दल खिल गये ॥१॥ विना मेघकी वृष्टि हुई है आज कहाँसे ? महा दीनको आज मिला है राज कहाँसे? गरल-सिन्धुसे सुधा-कुण्ड कैसे निकला है ? दुर्विधिका हृद्वज्र आज कैसे पिघला है ? सच कहिए कैसे द्रव्य ये आज मिले हैं आपको ।। सुरलोक ओक कैसे अहो आज मिला है पापको १२ दावानलसे शीत समीरण कैसे आया ? । नेत्रहीनने दिव्य दृष्टिको कैसे पाया ! पानीमें उत्पन्न हुआ है मक्खन कैसे ? स्नेह-ढेरमें प्रकट हुआ है कञ्चन कैसे ? दिननाथ नाथ ! कैसे उगा, आज प्रतीची गोदमें । किस विधसे किंशुक-कुसुम भी,आज सना आमोदमें? हँसकर बोला रूपचन्द्र तब गर्वसहित हो... वही काम है ठीक जिसे करनेसे हित हो। जिसकी घरनी रमा और लक्ष्मी कन्या हो, उसकी जीवन-वृत्ति नहीं कैसे धन्या हो? For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० किस अचरज में तुम हो पड़ी, रमा तुम्हारा नाम है। सुख-भोग करो तुम आजसे सबका दाता राम है ॥४॥ जैनहितैषी - , प्रिये ! एकसे दिवस किसीके कभी न बीते, सर सूखेंगे भरे, भरे फिर होंगे रीते । सदा अँधेरी रात कभी क्या हो सकती है ? पति- वियुक्त हो सदा न चकई रो सकती है। 'है हारावादी लग रही (?) सदा पतन उत्थानका । अपमानित भी होगा कभी, मनुज पात्र सम्मानका ५ वही मनुज है निपुण धनी जो मानी होवे वही कूप है जहाँ सुशीतल पानी होवे । वही वृक्ष है श्लाध्य जहाँ फल फूल लगे हों, वही काव्य है जहाँ पद्य नवरसों पगे हों। है धन्य वसुमती भी वहीं देश-भक्त रहते जहाँ, है वही सभा भी धर्मकी सभ्य सत्य कहते जहाँ ॥६॥ धन विलोक कर लोट पोट मुनिमन होता है, सबके दुर्गुण शीघ्र एक धन ही खोता है। सब कामों सदा द्रव्य बड़ा सहायक, सब लायक भी दीन कहा जाता नालायक । चाहे कैसा ही मनुज हो, धन पर जिसके पास है । है धन्य वही भी है हुआ त्रिभुवन उसका दास है धनी मनुजके पास धर्म दौड़ा आता है, धनी मनुजके द्वार गुणी धक्के खाता है। निर्बल भी धनवान भीमके सम होता है, निर्धन जन क्या कभी मृतकसे कम होता है ? इस हेतु किसी विध द्रव्यका संग्रह करना चाहिए। मनमें जगके अपवाद कभी न डरना चाहिए ॥ ८ ॥ इतने रुपये मिले और भी शीघ्र मिलेंगे, मुझे देखकर रमे, शत्रुके पैर हिलेंगे । गहने पहने रहो चैनसे दिवस बिताओ, सूतो लंबी तान खूब खाओ खिलवाओ। अब कभी किसी के पास जा कर फैलाना है नहीं। सुख कर लो, नश्वर देहका तनिक ठिकाना है नहीं ॥ ९ ॥ क्या पाओगी पूछ हाल रुपयों के प्यारी, मेरी गति है गुप्त रीति है जग से न्यारी । कभी न मनकी बात विज्ञ सबसे कहते हैं, [ माग १४ किन्तु हठीली रमा तुरत मचला कर बोली, उसने मानो नेइ पटकी झोली खोली । मुझसे तो तुम बात कभी भी न थे छिपाते, कहते थे वृत्तान्त, सभी जब घर थे आते । प्रिय ! आज तुम्हें क्या हो गया, क्यों धन पा बौरा गये गिरगिटसे मेरे साथ क्यों, रंग बदलते हो नये ॥ ११॥ रुपये पाये कहाँ आपने मुझपे कहिए. विना बताये आप मौन होकर मत रहिए बहुलावा दे मुझे रिक्षाना उचित नहीं है, भला कटकी बात छिपी क्या कभी कहीं है । मुझसे सब कच्चे हालको, कहिए देर न कीजिए । अब वृधा विछाछल जालको, मुझको जेर न कीजिए ॥ कहिए सच्ची बात किसीसे मैं न कहूँगी, ओ न कहोगे आप, न जीती कमी रहूंगी। मुझसे छिप यदि काम करोगे दुख पाओगे, होकर मुझसे हीन कभी क्या सुख पाओगे ? यदि कुछ भी मुझमें नेह है, तो सच बात बताइए। यह द्रव्य कहाँ कैसे मिला था बात बड़ाइए || रूपचन्द्रको ज्ञात नही की इसी लिए कुछ और कालीन शठकी बोला वह हो शिबात सुन रमे, ध्यानसे, पर सुन कर तू उसे न होना हीन ज्ञानसे । यदि जगमें मेरी बात वह, किसी भाँति खुल जायगी । तो जीवनभर मम साथनें, विविध भाँति दुख पायगी ॥ लक्ष्मीका में ब्याह शीघ्र ही कहीं करूँगा, सुता ब्याहके साथ गेहका दैन्य हरूँगा । पर उसको कुछ कष्ट नहीं होने पावेगा, और स्वकुलका नाम नहीं धुलने पावेगा । जो चतुरोंका सदुपाय है मैंने भी सोचा वही मर जाय साँप जिसमें प्रिये, लाठी भी टूटे नहीं ॥ १५ ॥ हरिसेवक है नाम एक सुन्दर बालकका, मानो वह अवतार हुआ है रति- पालकका । उसका है अभिराम धाम बेनाम नगरमें, जननी उसकी एक सुशीला है उस घर में । लक्ष्मीका पति होगा वहीं, मैंने यह स्थिर कर लिया। उसकी ही माताने मुझे, इन रुपयोंको है दिया ॥ १६ ॥ अभी तीन सौ और वही देनेवाली है, करते हैं निज काम मौन होकर रहते हैं. । चुप चाप रहो लो यत्नसे रुपये रक्खो पास में । अबसे भी अपने समयको खरचो हास विलास में ॥ १० ॥ सुतका सज धज साथ व्याह करनेवाली हैं । For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अङ्क ११ विद्वज्जन खोज करें। आवेगी बारात यथा सबके घर आती, लक्ष्मीको सुख पहुँचाइए सदा दान सम्मानसे । ' भेद खुलेगा नहीं, करेंगे क्या उत्पाती। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं रहित हुए क्यों ज्ञानसे?२३: . यदि रमा ! तुम्हारी राय हो और बढ़ा, दामको। रूपचन्द निर्लज्ज रहा, बोला, क्यों चुप हो, मैं कर लेता हूँ युक्तिसे अति टेढ़े भी कामको ॥१७॥ भले लोग भी बुरे हुए जगमें लोलुप हो। . हाय हाय क्या किया लोभ-वश होकर तुमने, दृग पर पट्टी बँधी लोभकी फिर क्यों सूझे ? डुबा दिया निजवंश धर्मको खोकर तुमने । ज्ञान-दृष्टि से हीन मनुज क्यों अनहित बूझे। मुखमें कालिख लगा डूब क्यों मरे नहीं तुम .. तुम रमे ! सीख मुझको न दो,क्या मैं शिशु हूँ चुप रहो जग निन्दासे कुल-कुठार क्यों डरे नहीं तुम, मैं दीन दुखी हो क्यों रहूँ तुम जो चाहो सो कहो।।२४ वह दनुज तुल्य है मनुज जो करता कुत्सित कर्म है। जाति पाँति यदि जाय रसातल चल जाने दो, शठ, उभयलोकमें जीवका सच्चा साथी धर्म है ॥ १८॥ धर्म-जाल यदि जले आगमें जल जाने दो। कन्या-विक्रय आत्म-घातसे न्यून नहीं है, छोड़ो शील सनेह यत्नसे रुपये जोड़ो, .. गो घातकसे सुता-विघातक आधक कही है। मोड़ो जगसे बदन बन्धुसे नाता तोड़ो, करके कन्या-घात कहो तुम कहाँ रहोगे, सुख, सुगति सुयश संपारमें सभी सम्पदा साथ हैं। घोर पापके भार भला किस भाँति सहोगे? वे उभय लोकसे भ्रट हैं जो जन छूछे हाथ हैं ॥ २५ ॥ यदि सुता-मांसको बेंचकर, पेट तुम्हें भरना रहा। मैं मानूँगा नहीं करूँगा जो करता हूँ, तो विष भक्षण कर क्यों नहीं इष्ट तुम्हें मरना रहा॥१९॥ कभी किसीसे नहीं कहीं भी मैं डरता हूँ। इन रुपयों को अधिक दाइल भी जानो, दिनकी होवे रात, रातका दिन हो जाये फेंको इनको बात मारी तुम बालो। अखिल लोक भी कभी किसीकी सुद्री आवे। धर्म-धीन कर दंग रहा है, पर मुझको अपनी बातमें, लानेवाला कौन है ? कभी किसोके पाप किसी दिन ना। या विना पापके द्रव्यको, पानेवाला कौन है ? ॥२६॥ 'उस जीवनको धिक्कार है, जो निन्दित हो लोन। __ असाध्य है रोग रमा विलोकके, जो मर्यादा लंघन करे, क्यों न पड़े वह शोक में ॥२०॥ चली हुई लोचन-धार रोकके। पुत्र पुत्रियों में न भेद पशु भी रखते हैं, जहाँ सुना थी वह भी वहीं गई । सुतालुतोंको तुल्य पखेरू भी लखते हैं। तथापि चिन्ता सनकी नहीं गई ॥ २७ ॥ हा ! उनसे भी मूढ़ हुए किस भौति बता दो कन्याविक्रय पान है किस भाँति जता दो। विजन लोज करें। जो पिता भरोसे है उसे रक्षित रखना धर्म है। किस भाँति उसे हो वेचते तुमको तनिक न शर्म है।२१। निज आत्माको बेंच देहको क्या सुख देोगे, [ले. श्रीयुत बा० जुगलकिशोरजी मुख्तार ।] दुख पावोगे स्वयं उसे नाहक दुख दोगे। लक्ष्मीका भवितव्य पड़ा है हाथ तुम्हारे, १ आमद्भट्टाकलकदवानामत : तत्त्वाथराजरह जावेगा अन्त धर्म ही साथ तुम्हारे। वार्तिक ' में, भिन्नभिन्न स्थानों पर, संस्कृत और इस लिए धर्म मत छोडिए, चाहे कुछ भी क्यों न हो। प्राकृतके जो ' उक्तं च 'पद्य पाये जाते हैं सुख मिला पापियोंको कहाँ ? दुखको सुख समझे रहो उनसे छह पद्य ( गाथायें ) इस प्रकार हैं:महापापका पाप लोभको कहते हैं सब, . " पण्णवणिजा भावा इसी लिए बुध दूर लोभसे रहते हैं सब । अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं । न कन्याका बलिदान द्रव्यके लिए न करिए, पण्णवणिज्जाणं पुण करिए उस पर दया पापसे मनमें डरिए । अणंतभागो सुदणिवद्धो ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwrainrmwarananaara ४९२६ जैनहितषी [भाग १४ . णिञ्चिदरधादुसत्त य उपर्युक्त, 'उक्तंच ' गाथायें 'गोम्मटसार ' ग्रंथसे 'तरुदस वियलिदिएसु छच्चेव । उद्धृत नहीं की गई, यह कहनेमें कोई संकोच सुरणिरय तिरिय चउरो नहीं हो सकता। राजवार्तिकके प्रकरणों तथा चोद्दस मणुए सदसहस्सा ॥२॥ कथनशैलीको देखते हुए, ये गाथायें 'क्षेपक' णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण भी मालूम नहीं होती । एक स्थान पर, ९ वें लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण। अध्यायमें चौथे नम्बरकी गाथाको उद्धृत करके गिद्धस्स लुक्खेण उवेदि बंधो जहण्णवजे विसमे समे वा ॥ ३ ॥ और उसके नीचे ' इत्यागमप्रामाण्यादेकस्मिएगनिगोदसरीरे, निगोदशरीरे जीवाः सिद्धानामनंतगुणाः' इत्यादि जीवा दवप्पमाणदो दिवा। वाक्य देकर भट्टाकलंकदेव उसे स्पष्ट रूपसे सिद्धेहिं अणंतगुणा किसी आगम ग्रंथका वचन भी सूचित करते सव्वेण वितीदकालेण ॥ ४ ॥ हैं। तब यह जरूर कहना होगा कि उक्त गाथायें सम्वद्विदीण मुक्कस्सगो दु किसी दूसरे ही ग्रंथ अथवा ग्रंथोंपरसे उद्धृत की उक्कस्स संकिलेसेण । गई हैं जिसका अथवा जिनका निर्माण भट्टाकलंक विवरीदेण जहण्णो देवके पहले हो चुका था । और बहुत संभव है कि आयुगतिगवजसेसाणं ॥ ५ ॥ नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी वहींसे उनका सुहपयडीण विसोही संग्रह किया हो । क्योंकि 'गोम्मटसार' एक तिव्यो असुहाण संकिलेसेण । संग्रहग्रंथ है और उसका असली नाम भी विवरीदेण जहण्णो 'गोम्मट-संगह-सुत्त' है। आश्चर्य नहीं, जो __ अणुभावो सब्व पयडीणं ॥ ६ ॥ इस ग्रंथकी अधिकांश गाथायें दूसरे प्राचीन इनमेंसे पहली चार गाथायें वे हैं, जो श्री- ग्रंथोंपरसे ही अविकल रूपसे संग्रह की गई नेमिचंद्राचार्यविरचित 'गोम्मटसार' ग्रंथके जीवकांडमें क्रमशः नं. ३३३,८९, ६१४ और 'चामंडराय' के प्रश्न पर रचा गया है। उक्त राचमल्ल१९५ पर दर्ज हैं । शेष दोनों गाथायें उक्त ग्रंथके का समय विक्रमकी ११ वीं शताब्दीका पूर्वाध है। कर्मकांडमें क्रमशः नं० १३४ और १६३ पर चामुंडरायने 'चामुंडराय-पुराण ' नामका एक ग्रंथ पाई जाती हैं । भट्टाकलंकदेव विक्रमकी ८ बनाया है जिसमें २४ तीर्थंकरोंका चरित्र है और वीं और ९- वीं शताब्दीके ग्रंथकार हैं और जिसके अंतमें उसके बननेका समय शक सं० ९.. गोमरसार कर्ना श्रीति गोम्मटसारके कर्ता श्रीनेमिचंद्र सिद्धान्तचक्र- (वि मिटानक (वि० सं० १०३५ ) 'ईश्वर' संवत्सर दिया है. वर्तीका समय विक्रमकी ११ वीं शताब्दि निश्चित । ऐसा मिस्टर राइस साहबने अपनी 'इंस्क्रिपशन्स ऐट् श्रवणबेल्गोल' नामक पुस्तककी भूमिकामें उल्लेख है * । ऐसी हालतमें तत्त्वार्थराजवार्तिककी । किया है। इसके सिवाय 'रन' नामके कविने अपने ____* नेमिचंद्र और चामुंडराय दोनों समकालीन ही 'पुराण-तिलक' नामक ग्रंथमें, जो शक सं० ९१५ नहीं थे, बल्कि उनमें परस्पर गुरुशिष्य जैसा सम्बंध (वि० सं० १०५० ) में बनकर समाप्त हुआ है, था, इसमें किसीको विवाद नहीं है। नेमिचंद्रके प्रधान अपने ऊपर चामुंडरायकी विशेष कृपा होनेका उल्लेख शिष्य माधवचंद्र विद्यदेवने, और केशववर्णीने भी, किया है। इन सब प्रमाणों तथ इसी प्रकारके और भी गोम्मटसारकी अपनी टीकामें यह सूचित किया है कुछ प्रमाणोंसे नेमिचंद्रका समय विक्रमकी ११ वीं कि गोम्मटसार ग्रंथ 'राचमल्ल' राजाके महामंत्री शताब्दि निश्चित किया जाता है। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] विद्वज्जन खोज करें। ४९३ हो । 'शिवार्य ' अथवा 'शिवकोटि' नामके इसके मालूम होनेपर दूसरे अनेक प्रकारके उप आचार्यका बनाया हुआ 'भगवती आराधनासार' योगी अनुसंधानोंका जन्म हो सकेगा। इस लिए नामका एक प्राचीन ग्रंथ है । इस ग्रंथके प्रारं- जैन विद्वानोंको इस विषयकी खोज करनी भिक पाँच सात पत्रों पर ही दृष्टि डालनेसे चाहिए । मालूम हुआ कि इसकी भी अनेक गाथायें २ उक्त तत्त्वार्थ-राजवार्तिकमें नीचे लिखे गोम्मटसारमें ज्योंकी त्यों संग्रहीत हैं। नमू- तीन पद्य भी ' उक्तं च ' रूपसे पाये जाते हैंनेके तौर पर यहाँ उनमेंसे दो गाथायें उद्धृत- १-कारणमेव तदत्यः सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । की जाती हैं: __एकरसगंधवणे द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च ॥ सम्माइट्ठी जीवो २-यदेतद्रविणं नाम प्राणाह्येते बहिश्वरा उवइहें पवयणं तु सद्दहदि । स तस्य हरते प्राणान् यो यस्य हरते धनम् ॥ सद्दहदि असब्भावं ३-रागादीणमणुप्पा अहिंसकत्तेति देसिद समये । अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ 'तेसिं चेदुपपत्ती हिंसेति जिणेहिं णिहिट्ठा । सुत्तादो त सम्म ___ भट्टाकलंक देवके द्वारा 'उक्तं च' रूपसे दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि उद्धृत किये हुए इन तीनों पद्योंमेंसे प्रत्येक पद्य सो चेव हवइ मिच्छा कौनसे मूल ग्रंथका पद्य है ? उसके कर्ता आचार्य इट्टी जीवो तदो पहुदो ॥ ३८ ॥ 'महोदयका क्या नाम है ? और वे किस सनये गाथायें भगवती आराधनासारमें क्रमशः संवत्में हुए हैं ? इन सब बातोंका अभी तक नं. ३२ और ३३ पर दर्ज हैं। इस ग्रंथकी कुछ पता नहीं चला । श्रीअमृतचंद्र आचार्य ४० और ४१ नम्बरकी गाथायें भी गोम्मट- समयादिक निर्णय करनेमें सहायता प्राप्त करसारमें (नं० १८-१७ पर ) पाई जाती हैं । संभव नेके लिए इन तीनों पद्योंका पता मालूम होनेकी है कि आगे मीलान करने पर और भी बहुतसी जरूरत है । क्योंकि उक्त आचार्य महोदयके गाथाओंका पता चले । गोम्मटसारके विषयमें बनाये हुए ' तत्त्वार्थसार ' और 'पुरुषार्थसिएक बात यह भी कही जाती है कि उसकी दयुपाय' नामके ग्रंथोंमें इन पयोंसे मिलते जुलते रचना धवलादि ग्रंथोंके आधार पर हुई है। नीचे लिखे पद्य पाये जाते हैं:यदि यह सत्य है तो उन ग्रंथोंकी गाथाओंका १-सूक्ष्मो नित्यस्तथान्त्यश्च कार्यलिंगश्च कारणम् ।। भी इसमें संग्रह होना संभव है। तब गोम्मटसा- एक गंधरसश्चैकवर्णो द्विस्पर्शवांश्च सः ॥३-६०॥ रकी ऐसी स्थिति होते हुए यह बात और भी - --तत्वार्थसारः। दृढताके साथ कही जा सकती है कि उक्त २-अर्था नाम य एते छहों गाथायें , नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । हरति स तस्य प्राणान् स्वतंत्र रचना नहीं है । अवश्य ही वे किसी दूसरे यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥ १.३॥ आचार्यकी कृति हैं । परंतु दूसरे आचाय 3-अप्रादुर्भावः खलु कौन हैं और उनके कौनसे ग्रंथ अथवा ग्रंथोंसे रागादीनां भवत्यहिंसेति। उक्त गाथायें गोम्मटसारमें संग्रह तथा तत्त्वार्थ- तेषामेवोत्पत्तिराजवार्तिकमें 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत की गई हैं, हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४. यह मालूम होने की बहुत बड़ी जरूरत है। . -पुरुषार्थसिध्शुपायः For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ जैनहितैषी [ भाग १४ ३ तत्त्वार्थराजवार्तिकके अन्तमें, एक ही नृलोकतुल्यविष्कभा सितच्छत्रनिभा शुभा। स्थान पर, ३२ पद्य 'उक्तं च' रूपसे पाये ऊर्ध्वं तस्याः क्षितेः सिद्धाः लोकांते समवस्थिता ॥२०॥ जाते हैं। श्रीयुत पं० पन्नालालजी बाकलीवालने यद्यपि छपे हुए तत्वार्थराजवार्तिकके उक्त एक फुट नोटद्वारा उन सब पद्योंको क्षेपक फटनोटमें इन दोनों पयोंको भी सबके साथ तत्वार्थबतलाया है और उनके क्षेपक होनेमें यह हेतु सारके मोक्ष प्रकरणका बतलाया है, परंतु दिया है कि, ये सब पद्य अमृचंद्राचार्यके बनाये उक्त गुच्छकमें छपे हुए तत्त्वार्थसारमें ढूँढ़ने पर हुए तत्त्वार्थसार ग्रन्थसंबंधी मोक्ष प्रकरणके पद्य भी उनका पता नहीं मिला । संभव है कि ये हैं और इतिहासद्वारा तत्त्वार्थराजवार्तिक के कर्ता दोनों पद्य तत्त्वार्थसारकी प्राचीन हस्तलिखित अकलंकदेवका समय अमृतचंद्रसे पहले निर्णीत प्रतियोंमें मिलते हों और जिस प्रतिपरसे उक्त हो चुका है। परंतु इतिहासद्वारा अभी तक ऐसा गच्छकमें तत्त्वार्थसार छपा है उसमें न हों। कोई निर्णय प्रगट नहीं हुआ। स्वयं बाकलीवा- अतः श्रीयुत पं० पन्नालालजी बाकलीवाल लजीने हालमें अपने एक पत्रद्वार। इस नोटके आदि जिन जिन विद्वानोंको ये दोनों पद्य लेखकको अमृतचंद्रका समय निर्णय करनेकी तत्त्वार्थसारकी हस्तलिखित प्रतियोंमें मिले हाँ प्रेरणा की है। इस लिए हेतु असिद्ध है और उससे उनसे निवेदन है कि, वे कृपया मुझे उससे इन पद्योंका क्षेपक होना सिद्ध नहीं होता। सचित करें। साथ ही यह भी लिखें कि वह श्वेताम्बरोंके यहाँ तत्त्वार्थसूत्र पर तीन खास टीकायें प्रति कौनसे भंडारकी है और किस सन्द-संवत्की पाई जाती हैं। जिनमेंसे एक खुद उमास्वातिकी लिखी हुई है। और यदि थे दोनों पब तत्वार्थबनाई हुई कही जाती है, जिसका नाम 'तत्वार्था या सारकी हस्तलिखित प्रतियों में तो धिगम भाष्य' है; दूसरीका पूर्वार्ध हरिभद्र - उस मूल और उसकी (द्वितीय) का और उत्तरार्ध यशोभद्रका बनाया खोज होने की जरूरत है, जिसके ये दोनों पद्य हैं । इस हुआ है, और तीसरी टीका सिद्धसेन गणिकी २ खोजसे बहुतसी बातों पर प्रकाश पड़ेगा। बतलाई जाती है। इन तीनों टीकाआम भी ये ४ पंचाध्यायी' नामके ग्रंथों (पृ० १३३ सब पद्य एक ही कासे पाये जाते हैं। परन्तु सनातन जैनग्रंथमालाक प्रथम गुच्छकमें छपे । पर ) नीचे लिखी गाथा 'उक्तं च' रूपसे हुए 'तत्त्वार्थसार' को देखने से मालूम होता . पाई जाती है: संवेओ णिव्वेओ जिंदणगरहाय उसमो भत्तो । है कि उसमें ये सब पद्य बिलकल उसी एक वच्छहं अणुकंपा गुणा हंति सम्मत्ते ।। क्रमसे नहीं हैं। तत्त्वार्थसारके मोक्ष प्रकरणमें इन पद्योंका सिलसिला' २० वें नम्बरके पद्यसे यह गाथा 'समयसार' ग्रंथकी जयसेनाप्रारंभ होकर नै० ५४ के पद्य पर समाप्त होता चार्यकृत 'तात्पर्यवृत्ति' टीकामें भी, गाथा नं० है । बीचमें नं० ३७ से ४८ तकके छह पद्य २०१ के नीचे, 'उक्तं च' रूपसे पाई जाती तत्त्वार्थसारमें अधिक हैं । एक पद्य 'दग्धे बीजे' है। और वसुनन्दिश्रावकाचारमें नं०४९ पर इत्यादि इस सिलसिलेमें ही नहीं है । वह इसका मूल रूपसे अवतरण किया गया है । तत्त्वार्थसारमें इस सिलसिलेसे बहुत पहले नं० ७ परंत अभी इसमें संदेह है कि यह गाथा पर दिया है। इसी तरह पर 'ऊर्ध्व गौरव, श्रावकाचार ( उपासकाध्ययन ) के कर्ता वाला पद्य ' यथाधस्तिर्यग् ' वाले पद्यसे पीछे - पाया जाता है इसके सिवाय नीचे लिखे दो पय वसुनन्दि आचार्यकी कृति है । क्यों कि इस तत्वार्थसारमें नहीं मिलतेः श्रावकाचारकी एक पुरानी हस्तलिखित प्रतिमें, तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परमभासुरा। जो लगभग दोसौ तीनसौ वर्षकी लिखी हुई प्राग्भारा नाम वसुधा लोकमूर्ध्निव्यवस्थिता ॥ १९॥ मालूम होती है और बम्बईमें श्रीमान् सेठ. For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] 66 माणिकचंद हीराचंदजी जे. पी. के पुस्तकालय में मौजूद है, इस गाथाका पूर्वार्ध तो ज्योंका. त्यों है परंतु उत्तरार्ध इस प्रकार से दिया है:या अवस्यजननं अरुहाईणं पयत्तेण इसके सिवाय इस आवकाचार में और भी अनेक गाथायें ऐसी पाई जाती हैं, जो दूसरे ग्रंथोंसे संग्रह की गई हैं । ऐसी हालत में विना किसी विशेष अनुसंधान के इस गाथाका मूलकर्ता वसुनन्दि आचार्यको नहीं माना जा सकता। यदि सचमुच ही यह गाथा उक्त वसुनन्दि आचार्यकी कृति हो तो 'पंचाध्यायी' का समय विक्रमकी १२ वीं शताब्दिके बादका समझा जायगा | पंचाध्यायीका समय निर्णय करने और उसके कर्ताका पता लगाने के लिए उक्त गाथाके मूलकर्ता और उनके उस ग्रंथ की खोज लगाने की बहुत बड़ी जरूरत है । क्यों कि यह गांथा पंचाध्यायी क्षेपक नहीं हो सकती । ग्रंथकारने इसके बाद ' उक्त गाथार्थ प इत्यादि वाक्य देकर उसे भले प्रकार स्पष्ट कर दिया है। ५ पंचाध्यायी की इन दो 'उक्तं च ' गाथाओंका भी पता मालूम होनेकी जरूरत है कि वे कौनसे मूल ग्रंथकी हैं और उस ग्रंथके कर्ता कौनसे आचार्य हैं:-- नौकरोंसे पूजन कराना । 7 णाम जिणा जिणणामा ठवणजिणा जिगिंदपडिमाए । दव्वजिणा जिणजीवा भारजिणा समवसरण त्था ॥ आदहिंद का ज िसक्कह परहिंदं च काव्यं । आदहिद पर हिदादो आदहिदं सु कादव्वं ॥ आशा है कि विद्वज्जन उपर्युक्त सभी 'उक्तं च' पद्योंकी खोज लगानेका कष्ट उठायेंगे और अपनी खोजके नतीजे से मुझे शीघ्र सूचित करनेकी कृपा करेंगे। मैं उनकी इस कृपाका अत्यंत आभारी हूँगा। साथ ही, बदले में उनके सामने अनेक प्रकार की नई नई उपयोगी खोजें रखनेका प्रयत्न करूँगा । देवबन्द । ता. ३०-१०-१७ नौकरोंसे पूजन कराना । ४९५ [लेखक-श्रीयुत बा० जुगलकिशोरजी मुख्तार । ] जैनियोंमें दिन पर दिन यह बात बढ़ती जाती है कि मंदिरोंमें पूजा के लिए नौकर रक्खे जाते हैं - श्वेतांबर मंदिरोंमें तो आम तौर पर अजैन ब्राह्मण इस कामके लिए नियुक्त किये जाते हैं और उन्हींसे जिनेंद्र भगवान्का पूजन कराया जाता है । पुजारियोंके लिए अब समाचारपत्रों में खुले नोटिस भी आने लगे हैं । सम झमें नहीं आता कि जो लोग मंदिर बनवाने, प्रतिष्ठा कराने, रथयात्रा निकालने और मंदिरोंमें अनेक प्रकारकी सजावट आदिके सामान इकट्ठा करनेमें हजारों और लाखों रुपये खर्च करते हैं वे फिर इतने भक्तिशून्य और अनुरागरहित क्यों हो जाते हैं जो अपने पूज्यकी उपासना अर्थात् अपने करनेका काम क्यों कराते हैं। क्या उनमें वस्तुतः अपने पूज्य के प्रति भक्तिका भाव ही नहीं होता और वे जो कुछ करते हैं वह सब लोक दिखावा, नुमायश, रुटिपालन और बाहरी वाहवाही लूटने तथा प्राप्तिके लिए ही होता है। कुछ भी हो, सच्चे जैनियोंके लिए यह एक बड़े ही कलंक और लज्जाकी बात है ? लोकमें अतिथियों आराम नोकर जरूर नियुक्त किये जाते हैं, जिसका अभिप्राय और उद्देश्य होता है- अतिथियों तथा इष्टजनोंको और सुख पहुँचना, उनकी प्रसन्नत करना और उन्हें अप्रसन्नचित्त न देना । परन्तु यहाँ मामला इससे बिलकुल ही विलक्षण है । जिनेंद्रदेव की पूजा जिनेंद्र भगवान्को कुछ सुख या आराम पहुँचाना अभीष्ट नहीं होता - वे स्वतः अनंत सुख -- स्वरूप हैं - और न इससे भगवानकी प्रसन्नता य प्राप्त होने For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाहतैषी [ भाग १४ अप्रसन्नताकाही कोई सम्बंध है। क्योंकि जि- कमें 'पूजनसिद्धान्त' को पढ़ना और उसी अच्छी नेंद्रदेव पूर्ण वीतरागी हैं-उनके आत्मामें राग तरहसे समझना चाहिए । इसके सिवाय यदि इस या द्वेषका अंश भी विद्यमान नहीं है-वे किसीकी प्रकारके ( किरायेके आदमियों द्वारा ) पूजनकी स्तुति, पूजा तथा भक्तिसे प्रसन्न नहीं होते और मार गरज पुरीय-संपादन करना कही जाय तो वह भी न किसीकी निन्दा, अवज्ञा या कटुशब्दों पर अप्रसन्नता लाते हैं। उन्हें किसीकी पजाकी जरूरत निरा भूल हैं और उसस भा जनधमक सिद्धानहीं और न निन्दासे कोई प्रयोजन है। जैसा न्तोंकी अनभिज्ञता पाई जाती है । जैनसिद्धाकि स्वामी समंतभद्र के निम्नवाक्यसे भी प्रगट है.- न्तोंकी दृष्टिसे प्रत्येक प्राणी अपने शुभाशुभ न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे भावोंके अनुसार पुण्य और पापका संचय करता न निन्दया नाथ विवान्तवरे । है। ऐसा अंधेर नहीं है कि शुभ भाव तो कोई तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः करे और उसके फलस्वरूप पुण्यका सम्बन्ध पुनातु चित्तं दुरितांजनेभ्यः॥ किसी दूसरे ही व्यक्तिके साथ हो जाय। पूजनमें परमात्माके पुण्य गुणोंके स्मरणसे आत्मामें जो ऐसी हालतमें कोई वजह मालूम नहीं होती पवित्रता आती और पापोंसे जो कुछ रक्षा होती कि जब हमारा स्वयं पूजन करनेके लिए उत्साह नहीं होता तब वह पूजन क्यों है उसका लाभ उसी मनुष्यको हो सकता है किरायेके आदमियोंद्वारा संपादन कराया जाता जो पूजन द्वारा परत्माके पुण्य गुणोंका स्मरण है। क्या इस विषयमें हमारे ऊपर किसीका करता है. । इसी बातको स्वामी समंतभद्रने दुबाब और जब है ? अथवा हमें किसीके अपने उपर्युक्त पद्यके उत्तरार्धमें भले प्रकारसे कुपित हो जानेकी कोई आशंका है ? यदि ऐसा सूचित किया है । इससे स्पष्ट है कि सेवकद्वारा कुछ भी नहीं है तो फिर यह व्यर्थका स्वांग किये हुए पूजनका फल कभी उसके स्वामीको क्यों रचा जाता है ? और यदि सचमुच ही प्राप्त नहीं हो सकता; क्योंकि वह उस पूजनमें पूजन न होनेसे जैनियोंको परमात्माके कुपित परमात्माके पुण्यगुणोंका स्मरणकर्ता नहीं है। हो जानेका कोई भय लगा हुआ है और इस ऐसी हालतमें नौकरोंसे पूजन कराना बिलकुल लिए जिस तिस प्रकारके पूजनद्वारा खुशामद व्यर्थ है और वह अपने पूज्यके प्रति एक प्रकाकरके हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयोंकी तरह ९ रसे अनादरका भाव भी प्रगट करता है। तब परमात्माको राजी और प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते . क्या होना चाहिए ? जैनियोंको स्वयं हैं तो समझना चाहिए कि वे वास्तवमें जैनी नहीं हैं; जैनियोंके वेषमें हिन्दू, मुसलमान या पुन पूजन करना और पूजनके स्वरूपको समईसाई हैं । उन्होंने परमात्माके स्वरूपको नहीं झना चाहिए। अपने पूज्यके प्रति आदरसमझा और न वास्तवमें जैनधर्मके सिद्धान्तोंको सत्काररूप प्रवर्तनका नाम पूजन है। उसके ही पहचाना है। ऐसे लोगोंको इस नोटके लेखककी लिए अधिक आडम्बरकी जरूरत नहीं है । वह बनाई हुई 'जिनपूजाधिकारमीमांसा' नामक पुस्त- पूज्यके गुणोंमें अनुरागपूर्वक बहुत सीधासादा - और प्राकृतिक होना चाहिए । पूजनमें जितना - * यह पुस्तक कई वर्ष हुए, श्रीमान् सेठ नाथारंगजी गांधी, बम्बई ( डवरा लेन, मांडवी) की ओर ही अधिक बनावट, दिखावट और आडम्बरसे जैनहितेषीके उपहारमें निकल चुकी है और इस समय काम लिया जायगा, उतना ही अधिक वह भी संभवतः उक्त सेठ साहबके पाससे विना मूल्य पूजनके सिद्धान्तसे गिर जायगा । जबसे मिलती है। जैनियोंमें बहुआडम्बरयुक्त पूजन प्रचलित For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौकरोंसे पूजन कराना । ४९७ ओंकी देखादेखी उनकी बहुतसी ऐसी बातों को अपने में स्थान दिया है, जिनका जैनसिद्धान्तोंसे प्रायः कुछ भी सम्बंध नहीं है तभी से जैनसमा-जमें बहुआडम्बरयुक्त पूजनका प्रवेश प्रारंभ हुआ है और उसने बढ़ते बढ़ते वर्तमानका रूप धारण किया है कि जिसमें बिना पुजारियोंके नौकर रक्खे नहीं बीतती । पूजनमें मुक्तिको प्राप्त हुए जिनेंद्र भगवान्का आवाहन और विसर्जन भी किया जाता है । उन्हें कुछ मंत्र पढ़कर बुलाया, बिठलाया, ठह-: राया और फिर नैवेद्यदिक अर्पण करनेके बाद. रुख्सत किया जाता है - कहा जाता है कि महा--- राज, अब आप अपने स्थान पर तशरीफ़ ले जाइए और हमारा अपराध क्षमा कीजिए, क्यों कि हमलोग ठीक तौरसे आवाहन, पूजन और विसर्जन करना नहीं जानते । ज़रा सोचनेकी बात है कि, जैनधर्मसे इन सब क्रियाओं का क्या.. सम्बंध है ? जैनसिद्धान्तके अनुसार मुक्त तीर्थकर अथवा जिनेद्र भगवान् किसीके बुलाने से. नहीं आते; न किसीके कहनेसे कहीं बैठते, ठहरते या नैवेद्यादिक ग्रहण करते हैं; और न किसी के रुखसती ( विसर्जनात्मक ) शब्द उच्चा रण करने पर वापिस ही चले जाते हैं। ऐसी हालतमें जैनधर्मसे इन आवाहन और विसर्जनस -- म्बंधी क्रियाओंका कोई मेल नहीं है । वास्तवमें ये सब क्रियायें हिन्दूधर्मकी क्रियायें हैं । हिन्दुओंके यहाँ वेदोंतकमें देवताओंका आवाहन और विसर्जन पाया जाता है । वे लोग ऐसा मानते हैं कि देवता लोग बुलानेसे आते, बैठते, . ठहरते और अपना यज्ञभाग ग्रहण करके, रुखसत करने पर, वापिस चले जाते हैं । इससे वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । -उपासकाचार । जनसे हिन्दुओंके प्राबल्यद्वारा जैनियों पर हिन्दूधर्मका प्रभाव पड़ा है और उन्होंने हिन्दु तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनैः ॥१२- १२॥ हिन्दुओंके यहाँ आवाहन और विसर्जनका यह सब कथन ठीक बन जाता है । परंतु जैनि-योंकी ऐसी मान्यता नहीं है । इसी लिए जैनधर्मसे इनका मेल नहीं मिलता और ये सब अङ्क ११ ] हुआ है तभीसे उन्हें पुजारियोंके नौकर रखनेकी जरूर पड़ी है । अन्यथा जिनेंद्र भगवान् की सच्ची और प्राकृतिक पूजाके लिए किराये के आदमियोंकी कुछ भी जरूरत नहीं है । जैनियोंके प्राचीन साहित्यकी जहाँतक खोज की जाती है, उससे भी यही मालूम होता है, कि पुराने जमाने में जैनियोंमें वर्तमान जैसा बहुआडम्बरयुक्त पूजन प्रचलित नहीं था । उस समय अर्हतभक्ति, सिद्धभक्ति, आचार्यभक्ति और प्रवचनभक्ति आदि अनेक प्रकारकी भक्तियों द्वारा, जिनके संस्कृत और प्राकृतके कुछ प्राचीन पाठ अब भी पाये जाते हैं, पूज्यकी पूजा और उपासना की जाती थी । श्रावक लोग मंदि - रोमें जाकर प्रायः जिनेंद्र प्रतिमा के सम्मुख, खड़े होकर अथवा बैठकर, अनेक प्रकारके समझमें आने योग्य स्तोत्र पढ़ते तथा भक्तिपाठों- का उच्चारण करते थे और परमात्मा के गुणोंका स्मरण करते हुए उनमें तल्लीन हो जाते थे । कभी कभी वे ध्यानमुद्रासे बैठकर परमात्माकी मूर्तिको अपने हृदयमंदिर में विराजमान करके निःशब्द रूपसे गुणों का चिन्तवन करते हुए परमात्माकी उपासना किया करते थे । प्रायः यही सब उनका द्रव्य-पूजन था और यही भावपूजन | उस समयके जैनाचार्य वचन और शरीरको अन्य व्यापारोंसे हटाकर उन्हें अपने पूज्यके प्रति, स्तुतिपाठ करने और अंजुलि जोड़ने आदि रूपसे, एकाग्र करने को द्रव्यपूजा और उसी प्रकार से मन एकाग्र करनेको भावपूजा मानते थे, जैसा कि श्रीअमितगति आचार्यके निम्नलिखित वाक्यसे प्रगट है: For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - ४९८ मालूम होती और हिन्दुओंसे क्रियायें बिलकुल बेजोड़ हैं । इसी प्रकारकी पूजन सम्बंध में भी बहुतसी क्रियायें हैं, जो उधार लेकर रक्खी गई अथवा उनके संस्कारोंसे संस्कारित होकर पीछेसे बना ली गई हैं और जिन सबका जैन सिद्धान्तोंसे प्राय: कुछ भी मेल नहीं है । यहाँ इस छोटेसे नोटमें उन सब पर विचार नहीं किया जा सकता और न इस समय उनके विचारका अवसर ही प्राप्त है । अवसर मिलने पर उन पर फिर कभी प्रकाश डाला जायगा । परन्तु इतना जरूर कहना • होगा कि वर्तमानका पूजन इन्हीं सब क्रियाओंके कारण बिलकुल अप्राकृतिक और आडम्ब - -रयुक्त बन गया है और उससे जैनियोंकी आत्मीय प्रगति, एक प्रकारसे, रुक गई है । यदि सचमुच ही हमारे जैनी भाई अपने पूज्य परमामाकी पूजा, भक्ति और उपासना करना चाहते हैं तो उन्हें सब आडम्बरों को छोड़कर पूजनकी अपनी वही पुरानी, प्राकृतिक और सीधी सादी पद्धति जारी करनी चाहिए; जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है । ऐसा करने पर पुजारियोंक्के नौकर रखने की भी फिर कुछ जरूरत नहीं रहेगी और आत्मोन्नि सब लाभ अपने को प्राप्त होने लगेगा, जिसको लक्ष्य करके ही मूर्तिपूजाका विधान किया गया है और जिसका परिचय पाठकों को, 'जिनपूजाधिकारमीमांसा' के ' पूजनसिद्धान्त प्रकरणको पढ़नेसे भले प्रकार मिल सकता है । विपरीत इसके यदि जैनी लोग अपनी वर्तमान पूजनपद्धतिको न बदलने के कारण नौकरोंसे पूजन कराना जारी रक्खेंगे तो इसमें संदेह नहीं कि वह समय भी शीघ्र निकट आ जायगा जब उन्हें दर्शन, सामायिक, स्वाध्याय, तप, जप, शील, संयम, व्रत, नियम और उपवासादिक सभी धार्मिक कामोंके लिए नौकर रखने या उन्हें सर्वथा छोड़ देनेकी [ भाग १४ जरूरत पड़ने लगेगी । और तब उनका धर्मसे बिलकुल ही पतन हो जायगा । इस लिए जैनयोंको शीघ्र ही सावधान होकर अपनी वर्त्तमान पूजनपद्धति में आवश्यक सुधार करके उसे सिद्धान्तसम्मत बना लेना चाहिए। और नौकरोंके द्वारा पूजनकी प्रथाको एकदम उठा देना चाहिए । आशा है कि, समाजके नेता और विद्वान् लोग इस विषयकी ओर खास तौर से ध्यान देगें । देवबन्द | ता० २९-१०-१७ जैन समाज के क्षयरोग पर एक दृष्टि | Gr [ लेखक, श्रीयुत बाबू रतनलाल जैन, बी. ए., एल एल. बी. ] ( शेषांश ! ) ९ बहुतसे गोत्रोंको टालकर विवाह सम्बन्ध करना । जैन समाजमें जितनी जातियाँ हैं, उन सभीमें इस बातका विचार किया जाता है कि कन्या वरसे भिन्न गोत्रकी हो । पर इस गोत्रभिन्नताका परिमाण सबमें एकसा नहीं है किसीमें कम है और किसीमें अधिक है । अग्रवाल आदि जातियोंमें केवल यह देखा जाता है कि कन्या वरके गोत्रसे किसी भिन्न गोत्रकी हो । कुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनमें यह नियम है कि कन्या वरके गोत्रकी और वरके मामाके गोत्रकी न होनी चाहिए, इनसे अतिरिक्त चाहे जिस गोत्रकी हो । कई जातियोंमें यह देखा जाता है कि कन्या वरके गोत्रकी, वरके मामा के गोत्रकी, वरके पिता के मामा के गोत्रकी और वरकी माताके मामाक गोत्रकी न हो, इनक सिवाय और चाहे जिस गोत्रकी हो । किसी किसी जाति में ल For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] . जैन समाजके क्षयरोगपर एक दृष्टि। वरके ४ की जगह ६ गोत्र टाले जाते हैं और अन्धकवृष्टि आदि और सुवीरके . भोजकवृष्टि उनके अतिरिक्त किसी गोत्रकी कन्यासे सम्बन्ध. आदि पुत्र हुए । फिर अन्धकवृष्टिके पुत्र समद्रकिया जाता है । कोई कोई जातिवालोंने इनका विजय, वसुदेव आदि और भोजक वृष्टिके भी नम्बर ले लिया है। वे यह देखते हैं कि वर उग्रसेन महासेन आदि हुए । इस हिसाबसे उग्रपक्षके उपर्युक्त चार गोत्र कन्या पक्षके भी सेन और समुद्रविजय बहुत ही निकटके भाई इन्ही चार गोत्रोंमेंसे न होना चाहिए । पर इस थे, फिर भी एककी पुत्री राजीमतीका दसरेके विचारकी चरमसीमा यहीं न समझनी चाहिए, पुत्र अरिष्टनेमिके साथ विवाहसम्बन्ध होना कई जातियोंमें दोनों पक्षके आठ आठ, इस तरह स्थिर हो गया था ! अब कहिए कहाँ तो उस १६ गोत्र बचानेका भी रवाज है ! समयके आदर्श पुरुषों में इतने निकटके सम्बन्ध अपनी ही जातिके अतिरिक्त अन्य किसी करनेकी पद्धति और कहाँ हमारी पंचमकालके : जातिमें विवाह न करनेके नियमसे विवाहका लोगोंकी सोलह सोलह गोत्रोंके बचानेकी चाल! क्षेत्र पहलेहीसे सीमाबद्ध हो रहा था, उस पर हम नहीं कहते हैं कि आप लोग इतने निकइन गोत्रोंके विचारने उसे और भी अधिक टका सम्बन्ध करने लगो, हम केवल यह संकुचित कर दिया है। इससे कन्याओंके लिए चाहते हैं कि इन कथाओं पर विचार करके सयोग्य, वरोंका मिलना और सयोग्य वरोंके अपनी गोत्र टालनेकी जो अमर्यादित सख्ती लिए अच्छी कन्याओंका मिलना बहुत ही है उसको अपने सुभीतेके अनुसार ढीली कर दो। कृठिन हो गया है। विवाहमें इस तरहकी रुका- वैद्यक ग्रन्थोंसे तथा शरीरशास्त्रके नये नये वटोंके कारण अनमेल विवाह बहुत होते हैं, अनुसन्धानोंसे यह निश्चय हुआ है कि कन्या विधवाओंकी संख्या बढ़ती है और अविवाहित और वर एक ही वीर्य या रुधिरसे उत्पन्न हुए पुरुष भी बढ़ जाते हैं । इन सब बातोंका फल न होना चाहिए । यदि पति-पत्नी एक ही यह होता है कि ऐसी जातियोंको क्षयरोग लग रुधिरवीर्यजात हों तो उनके सन्तान नहीं होती जाता है और धीरेधीरे उनका इस संसारसे कूच और यदि होती है तो बहुत कमजोर होती हो जाता है। है । इस लिए एक ही कुटम्बमें उत्पन्न हुए लड़के अब समय आ गया है कि हम लोग अपनी लड़कियोंका परस्पर विवाहसम्बन्ध न होना इन रीतियों पर विचार करें । हम अब नन्हें चाहिए और इसी तरह मामा, फुफा और मौसाकी .नादान नहीं हैं, अपने हानिलाभको समझने लगे लडकीसे भी विवाह वर्जित है; परन्तु, पाँच हैं। इतने गोत्रोंके टालनेकी न तो शास्त्रमें ही सात पीढ़ियोंके बाद वीर्य और रुधिर इतना कोई आज्ञा है और न शरीर शास्त्रकी दृष्टिसे बदल जाता है कि फिर उसके संयोगमें सन्ता. ही इसमें कोई लाभ है । पुराण और कथा- नके न होनेकी या दुर्बल होनेकी संभावना नहीं ग्रन्थोंके देखनेसे मालूम होता है कि पहले सम- रहती । इन सब बातों पर विचार करके अधिक यमें मामाकी लड़की के साथ सम्बन्ध करना तो गोत्र टालनेकी प्रथाको बदल डालना चाहिए। एक बहुत ही मामूली बात थी। मामाकी लड़की कमसे कम दो दो, चार चार, आठ आठ और पर तो भानजेका खास हक होता था । कर्ना- सोलह सोलह गोत्रोंके टालनेकी लोकोत्तर मूर्खटककी कई जातियोंमें अब भी यह रीति प्रच- ताको तो अवश्य छोड़ देना चाहिए । इससे लित है। हरिवंशपुराणमें लिखा है कि राजा न तो किसी धार्मिक आज्ञाका · उल्लवन होगा यदुके शूर और सुवीर नामके दो पुत्र थे। शूरके और न कोई सामाजिक हानि होगी। For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० , जैनहितैषी [ भाग १४ . १० एक ही जातिके भीतर ऊँचता मा- अच्छी तरह लागू होती है। अनेक जातियोंका नना । जैनसमाजमें जो बहुतसे अनोखे विचार होना, अनेक गोत्रोंका टालना और एकही फैले हुए हैं, यह विचार भी उनमें से एक है। जा का जातिके भीतर उपर्युक्त ऊँचा-नीचापन मानना ' ये ही सब पंखे हैं जो इस समाजके मरनेकी इसको समझनेके लिए एक उदाहरण लीजिए। सूचना देते हैं। मोहनका एक कुटुंब है जो बहुत बड़ा है और जिसमें अनेक स्त्री पुरुष और बच्चे हैं । उसमें जिन जातियोंमें उपर्युक्त ऊँचता नीचता कितने ही लोग ऐसे हैं जो एक दूसरेसे आठ दस मिटा दें । यह बिलकुल अस्वाभाविक है। माननेका रवाज है, उन्हें चाहिए कि इसको पीढीकी दूरी पर हैं, अर्थात् आठदस पीढ़ियोंके कन्याके देनेसे कोई कुटम्ब नीचा नहीं हो पहले उनका एक पुरुषा था । इतना ही बड़ा एक जाता और लेनेसे कोई ऊँचा नहीं हो जाता । कुटुम्ब रामलालका उसी स्थानमें या अन्य किसी मनुष्य अच्छे बुरे आचरणोंसे ही बड़ा छोटा नगर ग्राममें है । यदि कभी इन दोनों कुटुम्बोंके बनता है। बीच सम्बन्ध हुआ और मोहनके कुटुम्बका ११ जलवायुका प्रभाव । यह बात स्वाकोई लड़का रामलालके कुटुम्बकी किसी लड़की- स्थ्यसम्बंधी प्रकरणमें लिखनेसे रह गई है कि के साथ ब्याहा गया, तो बस उसी समयसे जन संख्या पर जलवायुका भी बहुत कुछ प्रभाव रामलालका कुटुम्ब नीचा हो गया । इसका पड़ता है। कुछ दिन पहले मैं सहारनपुर जिफल यह होगा कि मोहनके कुटुम्बके पुरुष राम. लेके कस्बे · नानोता' में गया, तो मुझे वहाँ इस बातका खूब अनुभव हुआ। इस जिलेकी लालके कुटुम्बकी कन्याओंके साथ तो विवाह अधिकांश पृथिवीमें नमी बहुत है । जमीन कर लेंगे; परन्तु रामलालके कुटुम्बके पुरुष मोह खोदने पर पानी बहुत ही पास निकल आता है। नके कुटुम्बकी कन्याओंके साथ विवाह नहीं इसके कारण वायुमें भाप मिली रहती है, खुश्की कर सकेंगे । अर्थात् रामलालके कुटुम्बकी लड़कियाँ मोहनके कुटुम्बमें तो जा सकती हैं; नहीं होती, पानी बादी करता है और भारी परन्तु मोहनके कुटुम्बकी कोई लड़की राम होता है । इससे यहाँके लोगोंका स्वास्थ्य खराब रहता है और मौतें अधिक होती हैं। सहारनपुर लालके कुटुम्बमें नहीं जा सकती। यह रवाज उस हानिकारक और कठोर विचारसे उत्पन्न जिलेकी जनसंख्याके. घटनेका यह भी एक हुआ है जिसमें स्त्रीजाति पुरुषजातिकी अपेक्षा कारण है । व्यायामके अधिक प्रचारसे और तुच्छ और नीच गिनी जाती है । जब कन्या आरोग्यताके नियमों पर चलनेसे इस प्रभावसे वरसे नीची समझी गई, तब कन्याका कुटुम्ब बचा जा सकता है। वर के कुटम्बसे नीचा हो गया और यह ऊँच १२ जैनोंका आर्यसमाजी हो जाना नीच माननेका रवाज पड़ गया । इस रवाजसे या अन्य हिन्दुओंमें मिल जाना । जैनविवाहका संकुचित क्षेत्र और भी अधिक संकु- समाजमें बड़ी अज्ञानता फैली हुई है। विद्वाचित हो गया है । कहावत है कि जब चींटीके नोंकी इस समाजमें बहुत ही अधिक कमी है । मरनेके दिन आते हैं तो उसके पर निकल ऐसे सैकड़ों स्थान हैं जहाँके जैनी यह नहीं आते हैं । यह कहावत जैनसमाजके ऊपर जानते कि हम पन्दिरजीमें जाकर किसके For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि । अङ्क ११ ] पूजते हैं, नमोकार मंत्र क्या है, सात तत्त्व कौन कौन हैं, आदि । ऐसे स्थानों का कोई जैनी जब आर्यसमाजी भाइयोंकी संगतिमें आता है, उनकी सभाओं में उपदेश सुनता है, उनके धार्मिक काम देखता है तो धीरे धीरे उसका झुकाव उसी ओर होने लगता है और कुछ ही समय में वह पक्का आर्यसमाजी हो जाता है । बहुतसे जैनी युवक – जिनके चित्तमें समाजसेवाका तीव्र उत्साह होता है - जैन समाजमें कोई ऐसा कार्यक्षेत्र न पाकर जिसमें कि वे उत्साहपूर्वक काम कर सकें, आर्यसमाजोंमें काम करने लगते हैं, उनकी सहायता करते हैं, और समय बीतने पर उनके प्रभावसे प्रभावान्वित होकर आर्यसमाजी हो जाते हैं । बहुत से स्थान ऐसे हैं जहाँ जैनी नाममात्रके जैनी हैं - जैनधर्मसे शून्य हैं । न उनमें कोई विद्वान् है जो जैनधर्मका उपदेश दिया करे और न वहाँ उपदेशक लोग ही पहुँच ते हैं। ऐसे स्थानोंके लोग जैनी इसलिए कहलाते हैं कि उनमें जैनधर्म के कुछ चिह्न रहते हैंजैसे प्रतिदिन मन्दिरमें जाकर दर्शन करना, रात्रिभोजन नहीं करना, आदि । इस तरहके लोगों में से जब कोई प्रमादसे अथवा अन्य किसी कारणसे देवदर्शन छोड़ देता है और रात्रिभोजन आदि करने लगता है, तब उसमें जैनत्वका कोई चिह्न, नहीं रह जाता और वह अपनी जातिके साधारण हिन्दुओंकी तरह हो जाता है और यदि उस जाति के हिन्दुओं और जैनियोंमें परस्पर रोटी-बेटीका व्यवहार हुआ जैसा कि अग्रवालों में है, तो उक्त जैनी और हिन्दुओंमें कोई अन्तर नहीं रहता । ऐसी दशामें वह पुरुष और उसकी सन्तान कुछ समयतक तो जैनधर्मावलम्बी कहलाती है, परन्तु फिर एकाध पीढ़ी बीतने पर उसे यह भी याद नहीं रहता कि हमारे यहाँ कभी जैनधर्म भी पाला जाता था । ५-६ इस तरह बहुतसे जैन कुटुम्ब हिन्दूसमाज में मिल गये आरै मिलते जाते हैं । इस कारण से भी जैनसमाजकी जनसंख्यामें हानि हुई है । परन्तु यह हानि उतनी अधिक नहीं हुई है जितनी कि ऊपर लिखे अन्य दस कारणों से हुई है। फिर भी यह हानि हानि ही है और इससे बचनेका उपाय करना चाहिए । इसके लिए सबसे अच्छा उपाय विद्वान् उपदेशकों का प्रत्येक छोटे बड़े स्थानमें घूमना और उपदेश देना है । उन्हें प्रत्येक मनुष्यको जैनधर्मका रहस्य और उसका महत्त्व समझाना चाहिए, और जैनधर्म के ग्रन्थोंको निरन्तर पढ़ने की प्रेरणा करनी चाहिए। इससे वे समझ जावेंगे कि भगवान् महावीरका उपदेश क्या है, उनके उपदेशमें महत्त्व की बातें क्या क्या हैं और उनके धर्म में दूसरे धर्मोसे क्या क्या विशेषतायें हैं । जैन विद्वानों के भ्रमणसे केवल लाभ नहीं होगा कि जैनी जैनधर्मसे च्युत होने से बच जावेंगे, बल्कि बहुतसे अजैन भी जैन बन जावेंगे। भगवान महावीरका उपदेश इतना उत्तम है कि जिन हृदयक्षेत्रों पर यह पड़ेगा वहीं जैनधर्म के अंकुर उत्पन्न होने लगेंगे । उपदेशक जितने ही विद्वान्, निःस्पृह, निरभिमानी, शान्त और सच्चरित्र होंगे, उतना ही अधिक उनका लोगों पर प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि जनतापर उपदेशकी अपेक्षा चरित्रका प्रभाव अधिक पड़ता हैं । जैनधर्मको संसारका सर्वमान्य धर्म बनाने के कर्मवीरोंकी आवश्यकता है, लिए ऐसे जिनके मुख पर जैनधर्मकी झलक हो, जिनके प्रत्येक कार्य पर जैनधर्मकी छाप हो और जिनका हृदय जैनधर्मके उदार सिद्धान्तोंका क्रीडास्थल हो । जिनमें जैनधर्मके / प्रचार करनेका दुर्दममीय उत्साह हो, जिनका अपनी कषायों पर और इन्द्रियों पर अधिकार हो, जो द्रव्य-क्षेत्र-: For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५०२ जैनहितैषी [भाग १३ काल-भावके अनुसार काम करनेवाले हों, किन्तु सेवाके बीसों काम हो रहे हैं और इस समय तो अपने मूल सिद्धान्तसे जरा भी न हटनेवाले हों, इसके नेता भारतको स्वराज्य प्राप्त करानेके अहिंसा धर्म जिनकी जिह्वा पर ही न हो किन्तु बड़ेसे बड़े पुण्य कार्यके अनुष्ठानमें लगे हुए हैं। उनके हर एक कार्यसे टपकता हो, जिनके ऐसे कार्योंका जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। दयासमुद्र में किसी एक खास जाति, देश या यही कारण है जो इस सम्प्रदायकी उन्नति होती धर्मके ही मनुष्य नहीं, किन्तु समस्त संसारके जाती है और सैकड़ों विद्वान् इस सम्प्रदायके केवल मनुष्य ही नहीं वरन् जीवमात्र गोता लगा अनुयायी होते जाते हैं। सकते हों, उन्हीं कर्मवीरोंकी हमें जरूरत है। जैनसमाजकी उन्नतिके लिए भी ऐसे ही मकर . जिस समाजमें और धर्ममें ऐसे कमेवार हात कर्मवीरोकी आवश्यकता है। जैनाचार्योने चार हैं, वह समाज और वह धर्म दिन पर दिन प्रकारका दान करना गृहस्थोंका नित्य कर्म बतउनति करता है; कार्य करनेवाले और सहायता लाया है-भोजनदान, ज्ञानदान, औषधदान देनेवाले उसे स्वयं ही मिल जाते हैं, उसमें आक और अभयदान । संसारमें जितने परोपकारके र्षण शक्ति बढ़ जाती है और उसके समीप बला कार्य हैं, वे सभी इनमें गर्भित हो जाते हैं। ढ्यसे बलाढ्य आत्मायें खिंची हुई चली आती हैं। कर्मवीर इन्हीं कामोंको करेंगे । वे भूखोंको जब जब किसी धर्मने उन्नति की है, तब भोजन देंगे, अकाल पीड़ितोंकी सहायता करेंगे, तब उसमें कर्मवीर मनुष्योंने जन्म लिया है। दो अनाथोंका पालनपोषण करेंगे, विद्यालय, पुस्तहजार वर्ष पहले बौद्ध धर्म सारे भारतमें अग्निकी कालय, स्कूल, कालेज खोलेंगे, छात्रवृत्तियाँ तरह फैल गया था। इसका कारण क्या था? यही कि उसमें ऐसे सैकड़ों स्वार्थत्यागी और देकर ज्ञानलाभ करनेका मार्ग सुगम कर देंगे, औषधालय खोलेंगे, दवाइयाँ मुफ्त बाँटेंगे, रोगिकर्मवीर भिक्षुक हो गये थे जिनका काम था योंकी परिचर्या करेंगे और उनका इलाज जनताको लाभ पहुँचना, दुखियोंका दुःख दूर - . करायँगे, दुखियोंके दुःख दूर करेंगे, कोई किसीको करना, रोगियोंकी सेवा करना और उनकी सता रहा हो तो उसकी रक्षा करेंगे, किसी दवा-दारू करना, बुरा कहनेवालों और मारने देशकी प्रजा पर कोई आपत्ति आई होगी तो वालोंपर भी प्यार करना, और ब्राह्मण हो । उसे हटावेंगे, और उसके स्वत्वोंकी रक्षाके लिए चाहे मेहतर, सबके साथ एकसा वर्ताव करना। इत्यादि । ईसाई धर्म भी ऐसे ही कर्मवीरों घोर आन्दोलन करेंगे। द्वारा फैला। उनमें सैकड़ों वीर ऐसे हो गये, जो जैनसमाजमें जब ऐसे कर्मवीर हो जायेंगे अपने सिद्धान्तोंके ऊपर जीवित जला दिये गये, और वे अपना कार्य शुरू कर देंगे, तब उन्हें पर उन्होंने कायरता धारण नहीं की। फल यह सहायता करनेवालोंकी कमी न रहेगी । जो हुआ कि सारा यूरोप ईसाईधर्मका अनुयायी बी. ए. एम्. ए. आदि समाजकी भलाईके लिए हो गया । हालके थियासोफी सम्प्रदायकी कोई काम नहीं करते हैं उन पर भी इनका ओर ही देखिए । इसके.कर्मवीर कितना काम प्रभाव पड़ेगा और वे बड़ी प्रसन्नतासे सेवा. कर रहे हैं। यद्यपि इनकी संख्या इस देशमें कार्योंमें लग जायँगे । केवल इतना ही नहीं, बहुत थोड़ी है, तो भी इनके द्वारा अनेक हाई- सैकड़ों उत्साही अजैन सज्जन भी इनके आत्म. स्कूल और कालेज आदि चल रहे हैं, देश- बलसे आकर्षित होकर काम करने लगेंगे । इस For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११ ] तरह यह जैनसमाज स्वयमेव ही उन्नति करने लगेगा और इसकी संख्या में वृद्धि होने लगेगी । जैन जनसंख्या की घटीके कारण बतलाये जा चुके और उन सबके दूर करनेके उपाय भी साथ ही साथ बतला दिये गये; अब केवल एक महान उपायकी ओर पाठकोंका ध्यान आकर्षित किया जाता है जो सब कारको दूर करनेका एक और अद्वितीय उपाय है, और वह है अज्ञानताको समाजसे हटाना । अज्ञानता ही सारे पापोंकी, सारे अवनतिके • कारणोंकी और सारे दुःखोंकी जड़ है । इसीके कारण हमारे आन्दोलन सफल नहीं होते, - कुरीतियाँ दूर नहीं होतीं, स्वास्थ्यरक्षा नहीं होती और हमारी संख्या बराबर घटती जाती है । अतएव हमें इसके दूर करनेके लिए हर तरहसे उद्योग करना चाहिए। पुरुषों और स्त्रियों दोनोंमें शिक्षाके और ज्ञानके प्रचारकी आवश्यकता है । यह प्रचार किन किन उपायोंसे होगा, यह बतलाने के लिए इस लेख में उपयुक्त स्थान नहीं है और हम समझते हैं कि अब इसके बतलाने की आवश्यकता भी नहीं रही है । विद्यालय, छात्रालय, पुस्तकालय, आदि खोलने, उपदेशादि देने के उपायोंको सभी जानने लगे हैं । आदिपुराणका अवलोकन । आदिपुराणका अवलोकन । ( लेखक, श्रीयुत बाबू सूरजभानजी वकील । ) ( ४ ) वेश-भूषा । इस समय लोगों को जितनी पृथिवी मालूम 'है वह जम्बूद्वीपका एक बहुत ही छोटा टुकड़ा है, यहाँ तक कि कोई कोई तो इसे भरतखण्डकेही अन्तर्गत मानते हैं; परन्तु इस छोटेसे खण्ड में ५०३. भी सैकड़ों और हजारों प्रकारके वेष दिखलाई दे रहे हैं और आभूषणों के विषयमें तो यहाँ तक विभिन्नता हो रही है कि किसी किसी देशमें तो स्त्रियाँ भी आभूषण नहीं पहनती हैं और किसी किसी देशमें पुरुष भी इनका पहनना जरूरी समझते हैं । दूर क्यों जाइए, अपने इस हिन्दुस्तान में ही पंजाबी, बंगाली, हिन्दुस्तानी, पारसी, गुजराती, मराठी और मद्रासियोंका पह नावा और आभूषण भिन्न भिन्न रूपका है। इसके अतिरिक्त जब हम अबसे सौ दो सौ वर्ष पहलेका हाल मालूम करते हैं तो अबसे भिन्न ही प्रकारके आभूषण पाते हैं और उससे भी सौ दो सौ वर्ष पहले उनसे भी भिन्न तरहके । गरज यह कि इस विचित्र संसार में स्थान और समयके परिवर्तन के साथ मनुष्यों के वेश भी परिवर्तित हुआ करते हैं । परन्तु आदिपुराण में हम इस परिवर्तनका कोई चिह्न नहीं पाते, यह बड़े आश्वर्यकी बात है । उसमें लाखों करोड़ों अब और खर्बो वर्षों के मध्यवर्ती सुदीर्घ समयोंमें और भरत क्षेत्र, विदेह क्षेत्र तथा स्वर्ग आदिके विभिन्न स्थानोंमें भी वस्त्राभूषणोंकी समानता बराबर दिखलाई देती है । आभूषण । कर्मभूमि के आरंभका वर्णन ( पर्व ३) पढ़नसे मालूम होता है कि उस समय नाभिरायने लोगोंको वृक्षोंके फलोंसे जीवननिर्वाह करना बतलाया, मिट्टीके वर्तन बनाकर दिये और उनका बनाना भी सिखलाया । उस समय आभूषण तो क्या बनेंगे, कपड़ोंका भी आविकार न हुआ होगा । परन्तु हम देखते हैं कि उस समय भी आदिपुराणमें आभूषणोंका कथन किया गया है और उन्हीं आभूषणों का जिनका कि प्रत्येक समयके लोगोंके विषय में किया गया है । जिस समय नाभिरायको मिट्टीके वर्तन बनाने के वास्ते दण्ड चक्र आदि मामूली औजार For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ जैनहितैषी [भाग १३ भी प्राप्त नहीं हुए थे और इस कारण उन्होंने शोभित एक हजार आठ लड़का मोतियोंका हाथीके कुम्भ-स्थल पर मिट्टी रखकर जैसे तैसे हार, बाजूबन्द और कमरके पूँघरू थे। ( पर्व वर्तन बना लिये थे, उस समय सोनेके मुकुट, १५ श्लो०५-२० । ) इसी प्रकार भगवान्की कुण्डल, हार, बाजूबन्द, घुघरू, नूपुर, आदि स्त्रियोंके आभूषण मुक्ताहार और बाजने नपुर आभूषण बनानेके औजार कहाँसे आये होगे यह वर्णन किये गये हैं । भगवान्के भरत, बाहुबलि समझमें नहीं आता। और अन्यान्य पुत्रों तथा पुत्रियोंके आभूषण भी लगभग यही बतलाये गये हैं। गजकुम्भस्थले तेन मृदा निवर्ततानि च । पात्राणि विविधान्येषा स्थालादीनि दयालुना ॥२०॥ ____ आगे चलकर भगवान्के राज्याभिषेकका ' वर्णन है । उस समय भी उन्हें वे ही आभूषण -पर्व ३। ' पहनाये गये हैं, जिनका वर्णन पहले किया जा आदिनाथ भगवानके जन्मके दिन ही इन्द्रा- चुका है (पर्व १६, श्लो० २३४-३७ )। णीने भगवानके कानोंमें कुण्डल, गलेमें हार, फिर दीक्षा कल्याणकके समय इन्द्र आया है और भुजाओंमें बाजूबन्द, कटक ( कड़े), अंगद उसने उन्हें दिव्य आभूषण पहनाये हैं; परन्तु ( अनन्त ), कमरमें घुघरुओंकी तागड़ी, और पूर्वोक्त आभूषणोंके सिवाय हम देखते हैं कि पैरोंमें बजता हुआ आभूषण ( पैजना ) उसके पास भी और कोई आभूषण न निकले पहनाया ( पर्व १४ श्लोक १०-१४)। (पर्व १७, श्लो० ११८-२४)। इसमें जन्मके ही दिन कुण्डल पहनानेकी बात इससे आगे २६ वें पर्वमें भरत महाराज बड़ी विलक्षण है और इससे भी अधिक विल- उस समयके आभूषणोंका वर्णन है जब वे क्षण बात यह है कि भगवान् गर्भसे ही कान दिग्वजय करनेको निकले हैं; परन्तु वे भी उन्हीं छिदे हुए पैदा हुए थे ! ग्रन्थकर्ताको कुण्डल आभूषणों से हैं जिनका वर्णन ऊपर आचका पहनाना इतना जरूरी मालूम हुआ कि इसके लिए है, अर्थात् मुकुट, कुण्डल और मणिका हार । उन्होंने गर्भ में ही कान छिद जानेकी असंभव दिग्विजयके पश्चात् भरतकी ९६ हजार रानिकल्पनाको कर डाला, पर बिना कुण्डल पहनाये योंका वर्णन करते हुए उनके हारों और पैरों के उनसे न रहा गया। हम इस बातको बिल- बजनेवाले नृपुरोंकी शोभा बतलाई है ( पर्व कुल असंभव समझते हैं और हमारी इस सम- ३७, श्लोक ९३-९८ ) । इसी बीचमें कुछ झको प्रथम जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण साधारण स्त्रियोंके आभूषणोंका भी जिकर आया पुष्ट करता है । इस ग्रन्थके आठवें सर्गके श्लोक है; परन्तु उनके भी कोई जुदा तरहके आभूषण १७५-७६ में लिखा है कि भगवानक्के वज्रके नहीं हैं । विजयाकी विद्याधरियोंके ( पर्व ४, समान कठोर कानोंका इन्द्र वज्रमयी सूची श्लोक १०० और पर्व १८, श्लोक १९६-२००), द्वारा बड़ी कठिनतासे छेदन कर सका। कर्णवेध- नगरकी स्त्रियोंके (पर्व ४३,श्लोक २४८-५१), के बाद इन्द्रने भगवानके कानोंमें कुण्डल पहनाये। वनकी स्त्रियोंके ( पर्व १९, श्लोक १२९ ) और आगे चलकर जब भगवान कुछ बड़े हुए तब वे गाँवकी स्त्रियोंके (पर्व २६, श्लोक १२६ ); गले में हार और कमरमें धुंघरू पहनते थे (पर्व १४ इस तरह प्रायः सभी स्त्रियों के प्रायः एकहीसे श्लो ०२१३) । इसके बाद उनकी कुमारावस्थाके आभूषण वर्णन किये गये हैं। हारनपुर, कड़े, आभूषण मुकुट, मणिमय कुण्डल, विशालमाणिसे कमरकी तागड़ी, कुण्डल, बस ये ही आभूषण हैं; For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] आदिपुराणका अवलोकन । ५०५ जिन्हें ग्रन्थकर्ता सब स्त्रियोंके लिए उपयोग में होते हैं, तब मालूम नहीं उनके लिए यज्ञो - लाते हैं । पवीतका पहनना कैसे ठीक हो सकता है । इसके सिवाय उनके कर्णछेदनसंस्कार नहीं होता है, फिर भी उनके कानों में कुण्डल पहना दिये गये हैं । यह तो हुई भगवान् आदिनाथके समयकी बात, अब आइए, उनके पहले भवोंके समय के भी आभूषण मालूम कर लें । तीर्थकर भवसे पहले भगवान् सर्वार्थसिद्धिके अहमिन्द्र थे, जहाँ वे सागरों वर्षों तक रहे हैं और उससे भी पहले विदेह क्षेत्र में राजा वज्रनाभ थे । देखते हैं, कि ग्रन्थकर्त्ता इन वज्रनाभको भी जो भगवानसे अर्थों पदमों संख वर्षोंसे भी बहुत पहले हुए हैं और एक बहुत दूरके भिन्न ही क्षेत्रमें हुए हैं - कुण्डल, हार, बाजूबन्द, और कमरके । ही पहनाते हैं ( पर्व ११, श्लोक १७ - ४४) । वज्रनाभसे पहले भगवान्का जीव सोलहवें स्वर्गका इन्द्र था, जहाँ वह सागरों तक रहा और इससे भी पहले राजा सुविधि था, परन्तु वहाँ भी वह कुण्डल, हार, और कटिकिंकिणी पहनता था ( पर्व १० श्लो० १२७ - ३६ ) इससे भी कई भवों के पहले राजा वज्रजंध और महाबल आदिकी पर्यायोंमें वह लगभग इन्हीं • आभूषणोंसे सजाया गया है । स्त्रियोंके विषयमें भी लगभग यही बात है, अर्थात् वे भी प्रायः प्रत्येक समय और देश में एकहीसे आभूषणोंसे भूषित की गई हैं । आगे जब हम स्वर्गके देवों और भोग भूमि योंके शृंगारको देखते हैं, तब हमें और भी अधिक आश्चर्य होता है, अर्थात् हमें वहाँ भी इन्हीं आभूषणोंके नाम मिलते हैं । ग्रन्थकर्ता महाराजने सबको एक ही साँचे में ढालनेका प्रयत्न किया है । यहाँ तक कि उनकी दृष्टिमें कुण्डल पहने बिना देव भी अच्छे न मालूम होते थे, इस कारण उनका कान छिदे हुए ही पैदा होना बताया है! उधर भोगभूमियोंको पूर्वोक्त आभूषणों के साथ ' जनेऊ ' का भी सदा पहने रहना बतलाया है 1 भोगभूमियाँ अब्रती हमारे देशके लोगों को यह जानकर आश्चर्य. होगा कि आचार्य महाराजने । स्त्रियोंके मुख्य आभूषण नथ या बेसरका — जो नाकमें पहना जाता है और स्त्रियोंके सुहागका मुख्य चिन्ह है - तथा काँच, लाख, या हाथीदाँतकी चूड़ि योंका - जिन्हें सौभाग्यवती स्त्रियाँ अवश्य पहनती हैं- क्यों वर्णन नहीं किया । परन्तु हमारी समझमें इसमें आश्चर्य की बात कोई नहीं है। अबतक के कथन पर अच्छी तरह विचार करने से मालूम होता है कि ग्रन्थकर्त्तीने आभूषणों का जो कुछ वर्णन किया है वह अपने ही समय के और देशके अनुसार किया है । अर्थात् उनके समय में, उनकी जन्मभूमिमें और उनके परिचित प्रान्त में स्त्रीपुरुषोंके जो कुछ आभूषण थे, उन्हें ही उन्होंने सब समयों और सब देशों के लोगोंको पहनाया है। इस बातका विचार ही नहीं किया है कि समय और देशादिके भेद से पहनाव ओढ़ावमें परिवर्तन हुआ करता है । दक्षिण प्रान्तकी स्त्रियाँ अपने बालोंमें फूलोंकी माला गुधवाती हैं । यह उनका बहुत ही प्यारा शृंगार है। उनके घूँघटरहित खुलें सिरमें यह फूलोंका शृंगार मालूम भी बहुत भला होता है । आदिपुराण में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक समय और प्रत्येक देशकी स्त्रियाँ फूल-मालाओंसे सिर गुँधवाये हुए हैं। भगवान की स्त्रियों के बिषयमें पर्व १५ श्लोक १५ में लिखा है कि उनके सिरके बाल फूलमालाओं से गुंधे हुए थे, जिनके बंधन ढीले हो गये थे और इस उनमेंसे फूल गिरते थे । भगवानकी माता जब चलती थीं तो उनकी फूलोंसे गुँधी हुई चोटी For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ वस्त्र। ढाली हो जाती थी और उससे फूल झड़ते थे (पर्व बारीक दो वस्त्र पहने हुए थे ( पर्व २६, श्लोक १२, श्लोक ५३)। विजयार्धकी विद्याधरियों ६२) । सोलहवें स्वर्गके इन्द्रका वर्णन करते (पर्व १८,श्लोक १९२) के और स्वर्गकी देवां- हुए उसके कटिवस्त्रका ही उल्लेख किया गया गनाओं (पर्व ३४, श्लोक,१०६) के विषयमें भी है (पर्व १० श्लोक १८१)। राजा वज्रनाभके यही लिखा है । यह इस बातका अच्छा वर्णनमें भी कटिवस्त्रकी ही प्रशंसा की गई है सुबूत है कि ग्रन्थकतने अपने देशके प्रचलित (पर्व ११ श्लोक ४४ )। इसके सिवाय ग्रन्थमें रीति-रवाजोंका ही वर्णन किया है । दाक्षिणात्य यदि दृष्टान्तके तौर पर भी कहीं वस्त्रोंका स्त्रियों में यह फूल गंधवानेकी चाल बहुत पुराने नाम आया है, तो धोती और चादरका ही। समयसे चली आती है । प्रायः सभी समयोंके स्त्रियोंके वर्णनमें इतनी विशेषता है कि चाददाक्षिणात्य कवियोंकी रचनामें इसका उल्लेख रके स्थानमें उनके स्तनवस्त्रका जगह जगह मिलता है। उल्लेख हुआ है । मालूम नहीं है, इससे ग्रन्थकर्तीका अभिप्राय चोलीसे है या साड़ीसे । पर _ यह वस्त्र भी स्वर्ग और मर्त्यलोकमें सर्वत्र एकसा - वस्त्रोंके विषयमें भी यही बात है । सब देशों : २।। है । आठवें पर्वके २४-२५ वें श्लोकमें लिखा और सब समयोंके लिए ग्रन्थकतीने एक ही प्रका है-जलक्रीड़ाके समय श्रीमती भी. वज्रजंघ पर रके वस्त्रोंका वर्णन किया है। पुराने समयकी " पानी फेंकना चाहती थी; परन्तु ऐसा करते समय खोजोंसे मालूम होता है कि, पहले वस्त्रोंमें प्रायः स्तनवस्त्रके खिसक जानेसे वह लज्जित होकर रह अन्तरीय और उत्तरीय अर्थात् धोती और र जाती थी और उसका स्तनवस्त्र पानीसे भीगकर दुपट्टा ये ही दो वस्त्र पहने जाते थे । ग्रन्थकर्ता - स्तनोंसे चिपककर अपूर्व शोभा देता था। आगे महाराजके प्रान्तमें तो अब भी बहुतसे लोग पर्व १२ श्लोक ३४ में माता मरुदेवीका स्वरूप इन्हीं दो वस्त्रोंको पहनते हैं और यही कारण हे वर्णन करते हए लिखा है कि कुंकुम लगे हुए जो आदिपुराणमें वस्त्रोंका नामोल्लेख बहुत ही और वस्त्रसे ढके हए उसके दोनों स्तन ऐसे मालूम कम है और जहाँ कहीं है वहाँ इन्हीं दो वस्त्रोंका। होते थे. मानों आकाशगंगामें लहरोंसे रुके हुए वस्त्रांग जातिके कल्पवृक्षोंके विषयमें लिखा है दो चक्रवाक ही हैं । इसी प्रकार अन्य स्त्रियोंके है कि वे कोमल, चिकने और बहुमूल्य रेशमके भी स्तनवस्त्रका कथन आया है और स्वर्गके प्रावार और परिधान देते हैं: देवियोंके भी स्तनवस्त्रोंकी शोभाका वर्णन किया चीनपट्टदुकूलानि प्रावारपरिधानकं । गया है । गरज यह कि, स्त्रियोंके वस्त्र भी सर्वत्र मृदुश्लक्ष्णमहा_णि वस्त्रांगा दधति द्रुमाः ॥ ४८॥ और सन समयोंमें एकसे बतलाये गये हैं। -पर्व ९। विलेपन । प्रावारका अर्थ ओढ़नेकी चादर और परि- आजकल कोई कोई ब्राह्मण अपने सारे धानका अर्थ अधोवस्त्र या धोती है। इससे मालूम शरीरको विशेष कर छातीको चन्दनसे लीपते होता है कि, भोगभूमियाँ इन्हीं दो वस्त्रोंका हैं । मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताके समयमें उपयोग करते थे। - इसका बहुत आधिक प्रचार था । क्योंकि आदिआगे जल भरतमहाराज दिग्विजयको चले हैं, पुराणमें स्वर्गोंके देवों, भोगभूमियों, सारे क्षेत्रों उस समय लिखा है कि वे सफेद, कोमल और और सारे ही समयोंके कर्मभूमियोंके शृंगाारमें For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ आदि ।) अङ्क ११] सतयुगकी वेश्यायें। ५०७ उनकी छाती पर लगे हुए चन्दनकी शोभाका ऐतिहासिक खोज करनेकी आशा रखना वर्णन किया गया है । (देखो पर्व ३ श्लो० मूर्खता नहीं तो भोलापन अवश्य है । * ७८, पर्व ६ श्लो० ३६, पर्व २६ श्लोक ६१, पर्व ३१ श्लो० ३९ । ) स्त्रियोंकी छातियों पर भी चन्दनके लेपका जगह जगह उल्लेख है। सतयुगकी वेश्यायें। (देखो पर्व १८ श्लो० १४, पर्व ९ श्लो० जैनहितैषीके गत अंकमें श्रीयुत बाबू सूरजभानजी मालूम होता है, उस समय स्त्रियों में स्तनों वकीलने अपने 'आदिपुराणका अवलोकन' शीर्षक पर और स्तनोंके चचकोंपर भी केसर लगा- लेखमें यह दिखलाया था कि सतयुगमें वेश्याओंका नेकी रीति थी । यह बहुत ही शोभाकी बात बहुत अधिक आदर था । इस पर जैनमित्रके समझी जाती थी । अप्सराओं और देवांगनाओं श्रद्धालु सम्पादक ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने लिखा के विषयमें भी इसका कथन किया है. यहाँ है कि चौथे कालमें ऐसी व्यभिचारिणी वेश्यायें तक कि भगवान के समवसरणमें जो बावडियाँ नहीं हो सकती हैं जैसी कि आजकल होती हैं । बनी हुई थीं, उनमें देवांगनाओंके नहाने और वे तो नाच-गाकर ही लोगोंका चित्त प्रसन्न ... उनके स्तनों पर लगी हुई केसरके धुल जानेसे करता से करती थीं। यह एक ऐसी बात है कि, जिसे. उनका पानी पीला हो जाता था ( पर्व २२. साधारण बुद्धिका आदमी भी नहीं मान सकता श्लो० १७४)। है कि जो बड़ी बड़ी सभाओंमें, दरबारोंमें अपने रूपको और हावभावविलासोंको दिखाकर लोगोंको स्त्रियोंके तलवोंको लाक्षारस (महावर ) से रिझाती हैं, वे शीलवती या पतिव्रता होती होंगी। रँगने और कपोलों पर चित्र बनानेका भी प्रायः हमारी समझमें ब्रह्मचारीजीका हृदय भी इस बातको सर्वत्र ही वर्णन है और इन रीतियोंको भी न मानता होगा, परन्तु उन्हें लोगोंकी श्रद्धा घट नारियों और देवांगनाओंमें सबमें एकसा जानेका बड़ा डर है, और श्रद्धालु समाजमें अपनी चलाया है। श्रद्धा बनाये रखनेका बडा चाव है, इस लिए हृदयसे विरुद्ध भी उन्हें ऐसी ऐसी बेसिरपैकी सारांश इन सब बातोंका यह है कि ग्रन्थक- बातें लिखनेके लिए विवश होना पड़ता है।। आने वेष भूषादिके सम्बन्धमें जो कुछ वर्णन आदिपराणके जो श्लोक उस लेखमें दिये किया है, उससे इस बातका पता नहीं लग गये थे उनमें वारनारी, वारयोषा, वेश्या, गणिका सकता कि जिन जिन प्राचीन कालोंकी और जिन आदि शब्दोंका प्रयोग किया गया है । इन शब्दोंजिन स्थानोंकी कथायें लिखी गई हैं, उन सब का वह अर्थ किसी भी जैन अजैन कोशमें नहीं कालों और स्थानोंके रीति रवाज और पहनने- मिलता है, जो ब्रह्मचारीजी करना चाहते हैं। वारस्य ओढ़ने आदिके ढंग क्या थे। अधिकसे अधिक - ____ * यह लेख बहुत बड़ा था-इससे लगभग ढाई ग्रन्थकर्ताके समयकी और परिचयकी ही वेषा. मी - गुना होगा; परन्तु स्थानकी कमीसे संक्षिप्त कर भूषासम्बन्धी बातें इस ग्रन्थसे मालूम हो सकती दिया गया है। संक्षिप्त करने में यदि कोई गलती हो हैं। उन्हें दिव्यध्वनिके अनुसार 'बावन तोला गई हो, तो उसका उत्तरदायित्व सम्पादक पर हैपाव रत्ती' समझ लेना, या उन परसे प्राचीन लेखक पर नहीं। -सम्पादक । For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५०८ जैनहितीषी [भाग १३ जनसमूहस्य योषा साधाणत्वात् वारयोषा ।' अर्थात् उसने सुना कि वैश्याने शीलवत ले लिया है, जो जनसमूहकी स्त्री हो, उसे वारयोषा या वार- इस लिए वह प्रतिकूल हो गया और आभूषण नारी कहते हैं । और 'गणः समूहोऽत्यस्याः भर्तृ- नहीं लाया । दूसरे दिन वेश्याने कोतवालको त्वेन गणिका।' अर्थात् जिसका पुरुष-समूह पति गबाह बनाकर अपना मामला दरबारमें पेश हो, उसे गणिका कहते हैं । प्रायः सर्वत्र ही इन किया। परन्तु पृथुधी आभूषणों की बातसे इंकार शब्दोंकी व्युत्पत्ति इसी रूपमें की गई है । अतः कर गया। तब राजाने अपनी रानीसे इस विषयमें इन शब्दोंका और कोई अर्य बतलाना पूछा । उसने सारे आभूषण सामने लाकर जबर्दस्ती है। रख दिये। इस पर राजा अपने साले पर बहुत ___ और ब्रह्मचारीजीने आदिपुराणको भी तो कुपित हुआ और बोला-इसे मार डालो। अच्छी तरह देखनेकी कृपा नहीं की । उसमें ही यह कथा उक्त पर्वके २८९ वें से लेकर ऐसे कई प्रसङ्ग इन सतयुगकी वेश्याओंके सम्ब- ३१० वें तकके श्लोकोंमें लिखी गई है । जिन न्थमें आये हैं, जिनसे उनका व्यभिचारिणी होना पाठकोंको कुछ सन्देह हो वे वहाँ देख सकते हैं। ही सिद्ध होता है, ब्रह्मचारिणी नहीं। उत्पल मालाके लिए वहाँ गणिका शब्दका ही १. आदिपुराणके पर्व ४६ में एक कथा लिखी प्रयोग किया गया है । कथासे साफ साफ मालूम है कि पुष्कलावती देशकी पुण्डरीकिनी नगरीका होता है कि वह व्यभिचारिणी थी और सर्वराजा गुणपाल था । एक दिन उसके सामने रक्षित, पृथुधी आदि व्यभिचारके लिए ही उसके नाट्यमाला नामकी एक नटपुत्रीने बहुत ही यहाँ आया करते थे । कमसे कम कुबेरप्रिय बढ़िया नृत्य किया। उसे देखकर राजाको बहुत सेठके साथ तो वह व्यभिचार ही करना चाहती ही विस्मय हुआ । तब उत्पलमाला नामकी वेश्या थी। मैं शीलवत ग्रहण करती हूँ, इसका अर्थ बोली-महाराज, नटिनीके इस नृत्यमें कौनसा ही यह है कि मैं पहले व्यभिचारिणी थी। आश्चर्य है ? आश्चर्यकी बात तो यह है कि २. इसी पर्वमें भीम नामक दरिद्रीकी कथा. इस नगरके सेठ कुबेरप्रियका मन डिगानेके का वर्णन करते हुए लिखा है कि मुनिराजने वास्ते मैंने एक दिन बहुत प्रयत्न किया, परन्तु उसे आठ व्रत दिये थे, जिन्हें उसके पिताने न डिगा सकी। इस पर राजा प्रसन्न हुआ और नापसन्द किया और वह भीमको उन्हें वापस बोला कि वर माँग । वेश्याने शील पालनेका वर करानेके लिए मुनिके पास लेकर चला । मार्गमें माँगा; कहा कि मुझे शील ही प्यारा है । राजाने भीमने इन आठों व्रतोंसे विपरीत चलनेवाले वर दे दिया और उसने शीलवत धारण कर आठ मनुष्योंको देखा, जिन्हें घोर दण्ड मिल लिया। दूसरे दिन रातको सर्वरक्षित नामका रहा था । उनमें एक ऐसे अपराधीको भी देखा कोतवाल उसके पास आया। वेश्या बोली, मैं तो जिसने सेठके घरसे एक बहुमूल्य हार चुराकर रजस्वला हूँ । इतनेमें ही राजाका साला प्रथुधी- वेश्याको दे दिया था। इससे भी मालूम होता जो मंत्रीका पुत्र था-वहाँ आ पहुँचा। यह देख है कि वह वेश्या व्यभिचारिणी थी और धनके वेश्याने कोतवालको तो सन्दूकमें छुपा दिया बदलेमें अपना शरीर बेचती थी । मूल श्लोकमें और प्रथुधोसे कहा, तुमने जो मेरे सारे आभूषण यहाँ भी गणिका शब्दका ही प्रयोग हुआ हैअपनी बहनको दे दिये थे, उन्हें वापस ले 'चौर्येण गणिकायै समर्पणात् ।' (पर्व ४६, आओ । वह बोला-हाँ, अभी लाता हूँ। पीछे श्लो० २७५।) For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०९ अङ्क ११] अलंकारोंसे उत्पन्न हुए देवी-देवता। ३. पर्व ८ में एक पुरुषके विषयमें लिखा है हमें भय है कि ब्रह्मचारीजी अब कहीं सतकि, उसने एक दिन राजाके कुठारियोंसे जबर्दस्ती युगके मद्यको भी पवित्र और जीवराशिरहित घी चावल आदि छीनकर वेश्याओंको दे सिद्ध करनेका प्रयत्न न करने लगे। दिये-" बलादादाय वेश्याभ्यः संप्रायच्छत दुर्मदी' (श्लो० २२५ )। यहाँ वेश्या शब्दका प्रयोग हुआ है। अलंकारोंसे उत्पन्न हुए ।' ४. पर्व ६, श्लोक १८१ में महापूत चैत्या' देवी-देवता। लयकी दीवारोंको वेश्याओंकी उपमा दी वर्णसांकर्यसम्भूतचित्रकमान्विता अपि । (ले०, श्रीयुत बाबू सूरजभानजी वकील ।). यद्भित्तयो जगचित्तहारिण्यो गणिका इव ॥ इस देशके साहित्यमें अलङ्कारोंकी भरमार अर्थात् उस मन्दिरकी दीवालें ठीक वेश्या- है। यहाँके कवि और आचार्य सदासे ही अलओंके समान थीं। जिस तरह वेश्यायें वर्णसंक- ड्रार शास्त्रके भक्त रहे हैं। उन्होंने साधारणसे रतासे उत्पन्न हुए विचित्र पापकर्मोकी करने- साधारण बात कहनेमें भी अलंकारोंका प्रयोग वाली होकर भी संसारकी चित्त हरण करती हैं, किया है । इन अलंकारोंने जहाँ यहाँके साहित्यउसी प्रकार वे दीवालें भी अनेक वर्षों से बनाये की शोभाको बढ़ाया, वहाँ एक हानि भी पहुँचाई हुए चित्रोंसे जगत्का चित्त हरण करती थीं । है। इनकी कृपासे प्रकृतिके अनेक दृश्य वास्तविक इसमें वेश्याओंको जो — वर्णसांकर्यसंभूतचित्र- देवी देवता बन गये हैं और सर्व साधारणमें । कर्मान्विता' विशेषण दिया है, वह बतलाता माने पूजे जाने लगे हैं। भारतकी सभ्यता और . है कि, वेश्यायें अनेक वर्णके लोगोंसे सम्बन्ध साहित्यका प्राचीन इतिहास लिखनेवाले विद्वारखती थीं। नोंने इस बातको भली भाँति सिद्ध कर दिया ५. पर्व ४ के ७३ वें श्लोको गन्धला है कि हिन्दू पुराणों के अनेक देवी देवता और देशकी नदियोंको वेश्याओंकी उपमा दी है और उनकी कथायें वेदोंके आलंकारिक वर्णनोंसे गढी उसमें उन्हें वेश्याओंके समान सर्वभोग्या ( सबके गई हैं, जैसा कि ऋग्वेदके सूर्य और उषाके द्वारा भोगी जानेवाली ) बतलाया है:- आलंकारिक वर्णनसे सूर्य देवता और उसकी पुत्री विपंका ग्राहवात्यश्च स्वच्छाः कुटिलवृत्तयः। उषाकी अद्भुत कथाका गढ़ा जाना प्रसिद्ध है। अलभ्याः सर्वभोग्याश्च विचित्रा यत्र निम्नगाः॥ हम देखते हैं कि जैनधर्मके कथाग्रन्थोंमें भी इन प्रमाणोंसे अच्छी तरह सिद्ध होता है कि अलङ्कारोंने वास्तविकताका रूप धारण कर आदिपुराणके कर्ता वेश्याओं या गणिकाओंको लिया है और बहुतसे देवी देवताओंके अस्तित्वब्रह्मचारिणी या शीलवती नहीं समझते थे. जैसा को जैनधर्मके श्रद्धालुओंके हृदयमें स्थापित कि ब्रह्मचारीजी समझते हैं । अतएव अब ब्रह्मचा- कर दिया है। रीजीको लोगोंकी श्रद्धा बनाये रखनेके लिए श्री (शोभा ), ह्री ( लज्जा), धृति (धीरज), और अपनी श्रद्धालुता प्रकट करनेके लिए कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ( विभूति ) ये छः कोई दूसरा प्रयत्न करना चाहिए। ___ बातें मनुष्यकी बड़ाईकी हैं और ये बड़े मनु For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ तस्मिलक्ष्मीसरस्वत्योरतिवालभ्यमाश्रिते। ये छहों शब्द स्त्रीलिंग हैं, इस कारण आलंकारिक ईर्षयेवाभजकीर्तिदिगंतान्विधुनिर्मला ॥ ३४ ॥ वर्णनोंमें इन्हें स्त्रीका रूप दिया गया है। पृथक् आगे पर्व १५ में लिखा है कि भगवान् पृथक् छः स्त्री मानकर ही इनका कथन किया आदिनाथकी बुद्धि और कल्पान्त कालतक रहजाता है । जैसा कि आदिनाथ भगवानकी नेवाली कीर्ति, ये दो ही प्यारी स्त्रियाँ थी; लक्ष्मीमाताके विषयमें लिखा है कि श्री, ह्री, धृति, पर उनका बहुत कम प्रेम था । क्योंकि वह कीर्ति, बुद्धि, और लक्ष्मी ये छः देवियाँ अपने बिजली के समान चंचल होती है:अपने गुणोंसे माताकी सेवा करने लगीं। श्रीने सरस्वती प्रियास्यासीत्कीर्तिश्चाकल्पवर्तिनी.. शोभा बढ़ाई, ह्रीने लज्जा बढ़ाई, धृतिने धीरज लक्ष्मीतडिल्लतालोलं मन्दप्रेम्णैव सोबहत् ॥ ४८ ॥ बढ़ाया, कीर्तिने यश फैलाया बुद्धिने बोध इसी प्रकार पर्व ३१ में भरतजीकी स्तुति दिया, और लक्ष्मीने विभाति बढ़ाई । इस सेवा करते हुए लिखा है कि आपकी कीर्ति निरंकुश संस्कारसे माता ऐसी सुशोभित होने लगी जैसे होकर सारे लोकमें अकेली फिरा करती है और आग्निके संस्कारसे मणिः सरस्वती वाचाल है, न जाने स्वामिन् , आपको श्रीह्रीधृतिश्च कीर्तिश्च बुद्धिलक्ष्म्यौ च देवताः। ... ये दोनो स्त्रियाँ क्यों प्यारी हो रही है:श्रियं लज्जां च धर्य च स्तुति बोधं च वैभवम् ॥ भ्रमत्येकाकिनी लोकं शश्वतकीर्तिरनर्गला। तस्यामादधुरभ्यर्णवर्तिन्यः स्वानिमान् गुणान् । सरस्वती च वाचाला कथं ते ते प्रिये प्रभो १०६ तत्संस्काराचसा रंजे संस्कृतेवामिना माणः ॥१७१॥ यद्यपि श्रीका अर्थ शोभा और लक्ष्मीका -आदिपुराण पर्व १२ । अर्थ विभूति होता है; परंतु श्रीका अर्थ भी आदिपराणमें इसी प्रकार और भी अनेक लक्ष्मी होता है, इस कारण इन दोनों शब्दांका महान् पुरुषोंक वैभव, ज्ञान और यशको प्रशंसा एकार्थवाची मानकर आदिपुराणमें लक्ष्मीको इन तीनों विशेषणोंको तीन स्त्री मानकर और भी प्रायः शोभा या सन्दरताके अर्थमें व्यवहृत उनका लक्ष्मी, सरस्वती और कीर्ति नाम रखकर किया है और उसे स्त्री मानकर उसके अनेक की गई है। वज्रहन्त चक्रवर्तीके विषयमें पर्व रूपक बनाये हैं । जैसे राज्यलक्ष्मी, स्वर्गलक्ष्मा, में लिखा है कि वह लक्ष्मीको तो छाती पर वनलक्ष्मी. तपोलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, शरल्लक्ष्मा धारण करता था और सरस्वतीको मुखकमलमें, आदि । परन्तु अतिशय प्यारी कीर्तिको उसने अकेली ही राज्यलक्ष्मी । राजपुत्र वज्रजंघकी प्रशंसामें लोकके अन्ततक भेज दिया थाः लिखा है कि वह राज्यलक्ष्मीके कटाक्षोंका स बिभ्रद्वक्षसा लक्ष्मी बक्त्राब्जेन चा वाग्बधूं। निशाना बन गया था:- राज्यलक्ष्मीकटाक्षाणां प्राणाय्यामिव लोकान्तं प्राहिणोत्कीर्तिमेकिका २०० लक्ष्यतामगमत्कृती।' (पर्व ६, श्लो० ४५) । आगे पर्व ११ में वज्रनाभिके विषयमें लिखा आगे वज्रनाभिकी प्रशंसामें लिखा है कि वे है कि लक्ष्मी और सरस्वती उससे बहुत ही राज्यलक्ष्मी के समागमसे सन्तुष्ट थे-' राज्यलक्ष्मीज्यादा प्रेम करती थीं, यह देखकर उसकी कीर्ति परिष्वंगाद्वज्रनाभिस्तुतोष सः ।' (पर्व ११, ईर्षावश की गई थी-दिगन्तव्यापिनी हो श्लो० ५०)। . गई थी: स्वर्गलक्ष्मी । ललितांग देवकी देवी स्वयंप्रभा For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] अलंकारोंसे उत्पन्न हुए देवी-देवता। ५११ अपने पतिकी गोदमें ऐसी मालूम होती थी वेशिताः ।' (८१)। स्थापिता वनलक्ष्म्येव मानों स्वर्ग-लक्ष्मी ही रूप धारण करके बैठी है- प्रपा भांतिमक्लच्छिदः ।' (८२)। 'पत्युरंकगता रेजे कल्पश्रीरिव रूपिणी ।' तपोलक्ष्मी । महाराज वज्रसेन तपोलक्ष्मीके ( पर्व ५, श्रो० २९०) । यहाँ लक्ष्मीके वास्ते. 'समागमसे बहुत सन्तुष्ट थे-'तपोलक्ष्मीसमाश्री शब्द आया है और स्वर्गलक्ष्मीका अर्थ संगाद्गुरुरस्याति पिप्रिये ।' (पर्व ११-५०) स्वर्गकी समस्त शोभा है । भगवानके जन्मा- धरणेन्द्रने भगवानके शरीरको तपोलक्ष्मीसे भिषेकके समय स्वर्गसे छोटी छोटी बँटोंके आलिंगित देखकर आश्चर्य किया-'वितिष्मिये साथ जो पुष्पवृष्टि हो रही थी वह ऐसी मालम तपोलमया परिरब्धमधीद्धया।' (प०१८,१०५) होती थी, मानों स्वर्गलक्ष्मीके आनन्दके आँस मोक्षलक्ष्मी। महाराज वज्रसेनने दीक्षा लेकर पड़ रहे हों-'मुक्तानन्दाश्रबिन्दूनां श्रेणीवत्रि- मोक्षलक्ष्मीको प्रसन्न किया- परिनिष्क्रम्य चक्रेसौ दिवश्रिया ।' (पर्व १३, श्लो० २०४)। पर्व मुक्तिलक्ष्मी प्रमोदिनीं । ' (११-४७ ) । भग६ में यशोधर तीर्थकरका कथन करते हुए वन, मुक्तिलक्ष्मी बहुत ही उत्सुक होकर आपमें लिखा है कि उस समय चारों तरफ पुष्पवृष्टि प्रेम रखती है-' त्वयि प्रणयमाधत्ते मुक्तिलक्ष्मीः हो रही थी और उन पुष्पों पर बैठे हुए. भ्रमर समुत्सुक।।' (१३-४६)। ऐसे मालूम होते थे, मानों भगवानके दर्शनके जयलक्ष्मी। वक्षःस्थल पर रहनेवाली लक्ष्मीलिए स्वर्गलक्ष्मीने अपने नेत्र भेजे हों-'स्वर्ग- के गृह तक ऊँचे पहुंचे हुए भगवानके दोनों लक्ष्म्येव तं द्रष्टुं प्रहिता नयनावली ।' (श्लो०८७), कन्धे ऐसे सुशोभित होते थे, मानों जयलक्ष्मीके . निवास करने योग्य दो ऊँची अटारी हों... वनलक्ष्मी । राजा वज्रजंघने जब वनमें 'जयलक्ष्मीकृतावासौ तुंगावट्टालिकाविव ।' डेरा डाला तब वहाँ कपड़ोंके बने हुए तम्बू । ऐसे जान पड़ते थे मानों वनलक्ष्मीने आगामी , (१५-१९)। जयलक्ष्मीने बड़े प्रेमसे भरतकी। होनेवाले तीर्थकरके लिए मन्दिर ही तैयार किये . भुजाओंकी अधीनता स्वीकार की थी ।-'जयश्री 4 भुजयोरस्य बबन्ध प्रेमनिघ्नतां ।' (१५-१९५)। हों-'क्लप्ता वर्त्यज्जिनस्यास्य वनश्रीभिरिवा वा- भगवानके पुत्रोंकी छाती लक्ष्मी द्वारा आलिंगित लयाः।' (पर्व ८, श्लो० १६१)। पर्व २७ थी और उनके कंधे विजयलक्ष्मीसे आलिंगन में लिखा है कि अपनी पूंछका भार धारण किये हए थे । 'वक्षो लक्ष्म्या परिष्वक्तमसौ च करता हुआ यह मोरं इस प्रकार धीरे धीरे चल १ विजयश्रिया ।' (१६-३९)। रहा है, मानों अपनी पूंछके द्वारा वनलक्ष्मीके केशपाशकी. ही शोभाको बढ़ा रहा है-'कलापी शरल्लक्ष्मी । शरतऋतुरूपी लक्ष्मी बड़ी भली ' बहभारेण मन्दं मन्दं ब्रजत्यसौ । केशपासश्रियं मालूम होती थी; नीलकमल उसके नेत्र और तन्वन्वनलक्ष्यास्तनूरुहैः । (श्लोक ७५) । सफेद कमल उसका मुख था।-'नीलोत्पलेक्षणा इसी वनकी शोभामें लिखा है कि वनके घने रेजे शरच्छ्री पंकजानना।' (२६-१२ )। वृक्ष ऐसे जान पड़ते थे, मानों वनलक्ष्मीने मण्डप वीरलक्ष्मी । इन्द्रकी भुजाओं पर नाचती बनाये हों और छोटे छोटे सरोवर ऐसे जान हुई देवांगनायें वीरलक्ष्मियोंके समान जान पड़ती पड़ते थे, मानों वनलक्ष्मीने प्रपा या प्याऊ ही थीं।-'अध्यासीना भुजानस्य वीरसौम्य इवाबिठाई हो-'त्वद्भक्त्यै वनलक्ष्म्येव मंडपा विनि- पराः । (१४-१४०)। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ . जैनहितैषी- भाग १३ इस प्रकार अनेक विशेषणोंको स्त्रीका या सूता यया लक्ष्मीसमद्युतिः । (७-२५९) । लक्ष्मीका रूप देते हुए संसारकी सारी ही शोभा- नाभिराजा मरुदेवीको रूप और लावण्यमें लक्ष्मीके ओंको समुच्चयरूप लक्ष्मीका रूप दे दिया गया समान मानते थे ।- रूपलावण्यसम्पत्या पत्या है और होते होते वह सुन्दरताकी एक आलं- श्रीरिव सा मता।' (१२-६३) । भगकारिक देवी बन गई है। वानके समीप बैठी हुई उनकी स्त्री ऐसी शोभती १. पर्व १४ वें में लिखा है कि इन्द्रकी थी मानों साक्षात् लक्ष्मी ही हो । लक्ष्मीरिव रुचिं भुजाओं पर नाचती हुई देवांगनायें ऐसी मालूम भेजे भर्तुरभ्यर्णवर्तिनी । (१५-१२१) इस प्रकार शोभा या सुन्दरता एक देवी होती थीं मानों अनेक शरीर धारण कर मूर्ति मान ली गई। इसके बाद अब उसके लिए मान लक्ष्मी ही नृत्य कर रही हो । ' रेजिरे परि और और भी तैयारियाँ हुई। उसके स्नानघर, नृत्यन्तो मूर्तिमन्ता इव श्रियः । ( ३९) । इसमें शोभाको ही लक्ष्मी बनाया है। खेलनेके स्थान आदि भी कल्पित किये गये । उसकी विशाल छाती हारकी किरणोंके 2. २. उसके पैरोंमें शंख चक्र आदि शुभ लक्षण जलसे भरी हुई ऐसी मालम होती थी, मानों ऐसे सोहते थे, मानों लक्ष्मीने ही ये सब लक्षण लक्ष्मीके स्नान करनेका धारागृह ही हो। 'पृथुअंकित किये हॉ- शंखचक्रांकुशादीनि लक्ष- वक्षो बभारासौ हाररोचिर्जलप्लवं, धारागृहमिवादार णान्यस्य पादयोः । बभुरालिखितानीव लक्ष्म्या लक्ष्म्या निर्वापणं परं ।' (४-१८०)। राजा लक्ष्माणि चक्रिणः ।। (६-१९८)। इसमें लक्ष्मी महाबलका ऊँचा और विस्तीर्ण ललाट ऐसा शोभाकी एक अधिकारिणी देवी बन गई है। मालूम होता था, मानों लक्ष्मीके विश्रामके लिए ३. भगवानकी दोनों जंघायें ऐसी कान्तियुक्त सुवर्णमय शिलातल ही हो। 'लक्ष्म्या विश्राथीं मानों स्वयं लक्ष्मीने ही उनको उबटन मलकर न्तये कृप्तमिव हैमं शिलातलं ।' ('४-१७४)। उज्ज्वल किया हो-' लक्ष्म्येवोद्वर्तिते भर्तुः परां उसके दोनों कन्धे लक्ष्मीके विहार करनेके कान्तिमवापतां ।। (१५-२५)। क्रीडापर्वत सरीखे मालूम होते थे। 'क्रीडा द्रिरुचिरौ लक्ष्म्या विहारायेव निर्मितौ ।' ४. बाहूबलिके दोनों उरु ऐसे मालूम होते थे, मानों वे लक्ष्मीकी हथेली के बार बार स्पर्श (४-१४१)। उसकी छाती पर लटकती हुई हारवल्लरी लक्ष्मीदेवीके झूलनेकी रस्सी जैसी होनेसे ही बहुत उज्ज्वल हो गये हों-- लक्ष्मी मालूम होती थी। 'लक्ष्मीदेव्या इवान्दोलनवल्लरी तलाजस्रस्पर्शादिव समुज्ज्वलौ।' (२६-२०)। " ( १५-१९४) । इसमें लक्ष्मीके इस प्रकार शोभा या सुन्दरताको एक स्त्रीका साथ देवी विशेषण भी स्पष्ट रूपसे लगा दिया रूपक देकर और उसका नाम श्री या लक्ष्मी रखते गया है । भगवानके उरु लक्ष्मीदेवीके झूलेके रखते मनुष्योंकी सुन्दरताके वर्णनमें उसकी खंभोंके समान मालूम होते थे। लक्ष्मीदेव्या उपमा भी दी जाने लगी। यथा-पर्व ६ श्लोक ५९ इवान्दोलस्तंभयुग्मकमुच्चकः । ' (१५-२४)। में वजदन्तकी रानीको लक्ष्मीके समान सुन्दर भरतका ऊँचा और गोल सिर विधाताके बनाये बतलाया है।-' लक्ष्मीरिवास्यकान्तांगी लक्ष्मीम- हुए लक्ष्मीके दिव्य छत्रके समान जान पड़ता तिरभूत्प्रिया।' वज्रदन्तकी कन्याको भी लक्ष्मीके था।' धात्रा निवेशितं दिव्यमातपत्रमिव समान कान्तियुक्त लिखा है- सत्प्रसूतिरियं श्रियः।' (१५-१७४)। For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ११] अलंकारोंसे उत्पन्न हुए देवी-देवता। इन उदाहरणोंसे पाठकोंने जान लिया होगा इस प्रकार लक्ष्मी अर्थात् शोभाका वास कमलमें कि एक ही अलंकार अधिक काममें आनेसे किस माननेसे और लक्ष्मीको स्त्रीका रूपक देकर प्रकार आहिस्ता आहिस्ता देवी देवताका स्वरूप आलंकारिक वर्णनोंमें उसका अति व्यवहार कर. धारण करने लगता है। नेसे उसको सुन्दरताकी एक विशेष देवी मान ___ आदिपुराण जैसे संस्कृत काव्यग्रन्थोंको लिया है और फिर धीरे धीरे कमलोंको लक्ष्मी पढनेसे मालम होता है कि संस्कृतके कवि संसार देवीका ही निवासस्थान मान लिया है । अब भरकी सब वस्तुओंमें कमलको ही सबसे अधिक जरा आगे चालिए। सुन्दर और शोभायमान मानते हैं। इसी कारण अनेक रत्नोंकी किरणों से अत्यन्त मनोहर वे स्त्री-पुरुषोंके आँख, मख, हाथ, पैर और राजा सुबिधका विशाल वक्षःस्थल ऐसा स्तन आदि अंगोंको प्रायः कमलोंकी ही उपमा मालूम होता था, माना कमलनिवासिनी दिया करते हैं । इसीसे हिन्दीके एक प्रसिद्ध लक्ष्मीका अनेक जलते हुए दीपकोंसे शोभायमान लेखकने एक बार लिखा था कि संस्कृत कवि. निवासस्थान ही हो ।-'ज्वलद्दीपमिवांभोजेवाः योंने तो सुन्दर मनुष्यको मानो कमलोंका ही सिन्या वासगेहकं । ' (१०-१३१ )। मरुदे.. एक ढेर बना दिया है। वीने चौथे स्वममें अपनी ही शोभाके समान लक्ष्मी __ जब कमल इतने, सुन्दर माने गये हैं, तब देखी । लक्ष्मी कमलमय ऊँचे सिंहासन पर बैठी सुन्दरताकी आलंकारिक देवी लक्ष्मीका निवास हुई थी और दो देव-हाथी अपनी सँडमें दबाये हुए कमलोंको छोडकर भला और कहाँ हो सकता स्वर्ण घड़ोंसे उसका अभिषेक कर रहे थे।था ? पर्व २२ में ध्वजाओंकी शोभा वर्णन 'पद्मां पद्ममयोत्तुंगविष्टरे सुरबारणैः । स्नाप्या हिरकरते हुए लिखा है कि उन ध्वजाओंमें जो ण्मयैः कुंभैरदर्शत्स्वमिव श्रियं । (१२-१०७)। कमल बने हुए थे उनकी शोभा अद्वितीय इस प्रकार अलंकारोंसे ही सचमुचकी एक थी। इसी कारण लक्ष्मी सारे कमलोंको छोडकर देवी बनकर उसका निवासस्थान भी हिमवान् उनमें ही जा बसी थी।-'कंजान्युत्सृज्य कार्ये पर्वत पर कायम कर दिया है । पर्व ३२ के १२१ वें श्लोकमें लिखा है कि इस पर्वतके न लक्ष्मीस्तेषु पदं दधे । ' ( पर्व २२-२२७ )। . इस तरह कमलोंमें ही लक्ष्मी अर्थात् शोभाको वीका निवास है। यह सरोवर स्वच्छ जल और ___ मस्तक पर पद्मनामका सरोवर है जिसमें श्रीदेमानते मानते और सुन्दर स्त्री-पुरुषोंके चरणोंको कमलोंसे सुशोभित है :कमलोंकी उपमा देते देते उनके चरणोंमें ही 'मूर्ध्निपद्मह्रदोऽस्यास्ति धृतश्रीबहुवर्णनः । लक्ष्मीका निवास बतलाया जाने लगा । यथा- प्रसन्नवारिरुत्फुल्लहैमपंकजमण्डनः ॥ मरुदेवीके चरण कमलके समान थे और उनमें फिर इसी प्रकार छः कुलाचलॉमेंसे एक साक्षात् लक्ष्मी निवास करती थी । उन चर- एक पर क्रमसे छहों देवियोंका निवास स्थापन णोंकी अंगलियाँ कमलकी पंखरियों और नखोंकी कर दिया है और उन्हें जिनमाताकी सेवा करकान्ति कमलकी केसरके समान थी । मदं- नेवाली बतलाया है:गुलिदले तस्याः पादाब्जे श्रियमूहतुः । नखदीधि- कुलादिनिलया देव्यः श्रीह्रोधीधृतिकर्तियः । तसन्तानलसत्केसरशोभिनी । (१२-१९)। समं लक्ष्म्या षडेताश्च संमता जिनमातृकाः ३८-१२६ पर्व ४ के श्लोक १८७,१५ के २०६ और १६ इस प्रकार इन देवियोंके निवासस्थान कुलके श्लो० २२ में भी इसी तरह चरणोंको पर्वत स्थिर हो गये और फिर ये निवासस्थान भी कमल और लक्ष्मीका निवास वर्णन किया है। अलंकाररूपसे उपयोगमें लाये जाने लगे। देखिए: For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ भरत भुजदण्ड बहुत ही लम्बे थे और उन पर निवास करनेवाली लक्ष्मी उन्हें कुलपर्वत समझकर बहुत सन्तुष्ट रहती थी । - ' बाहुदण्डस्य...। कुलशैलास्थया नूनं तेने लक्ष्मीः परां धृतिं ।' ( १५ - १९६ ) । बाहुबलिकी गहरी नाभि लक्ष्मीके कुलाचल पर्वतस्थ तालाव के समान जान पड़ती थी । - ' कुलाद्रिख पद्मायाः सेवनीयं महत्सरः । ' ( १६-१८ ) । जैनहितैषी - इस प्रकार सचमुचकी देवियाँ और उनका निवासस्थान स्थापित होकर फिर उनके कामोंका भी वर्णन होने लगा । जैसे कि भगवान् के अभिकके समय श्रीआदि देवियाँ पद्मादि सरोका जल लाई थीं - ' श्रीदेवीभिर्यदानीतं पद्मादिसरसां पयः । ' ( १६-२१२ ) चक्राभिषेक क्रियाके वर्णनमें भी लिखा है कि श्री आदि देवियाँ अपने अपने नियोगके अनुसार आकर उनकी सेवा करती हैं । इन्हीं छः देवि "यॉने स्वर्ग लोकसे लाये हुए पवित्र पदार्थोंद्वारा पहले जिन माताका गर्भशोधन किया और फिर वे अनेक प्रकार से उनकी सेवा करने लगीं । इस प्रकार न जाने कितने देवी देवताओंका प्रादुर्भाव संस्कृत-साहित्य में इन अलंकारोंकी ही • बदौलत हो गया है और जैन विद्वानोंके काव्यग्रन्थों के द्वारा वे सब देवी-देवता जैनधर्ममें भी आघुसे हैं, तथा माने पूजे जाने लगे हैं । इस कारण वस्तुस्वभावानुसार सत्य जैनधर्मके ढूँढ़नेबालोंको विचारशक्तिसे काम लेने और परीक्षाप्रधानी बनने की बहुत बड़ी आवश्यकता है । पुस्तक- परिचय | स्वराज्यकी योग्यता । मूल लेखक, बाबू रामानन्द चट्टोपाध्याय एम. ए., अनुवादक, ० नन्दकिशोर द्विवेदी बी. ए. और प्रकाशक, पं० उदयलाल काशलीवाल, व्यवस्थापक हिन्दी गौरव ग्रन्थमाला, हीराबाग, बम्बई | पृष्ठ २२० । [ भाग १३ मूल्य सवा रुपया । इस समय सारे देशको स्वराज्यके अभूतपूर्व आन्दोलन से व्याप्त देखकर कुछ लोगोंने यह कहना शुरू किया है कि भारत अभी स्वराज्यके योग्य ही नहीं है । उसे स्वराज्य दिया जायगा तो अनर्थ हो जायगा । इस अपूर्व पुस्तक में ऐसे लोगों की सारी दलीलों का बड़ी योग्यतासे खण्डन किया है और भारतकी स्वराज्य की योग्यताको सिद्ध किया है । मूल पुस्तककी विद्वानोंने एक स्वरसे प्रशंसा की है । पं० उदयलालजीने बड़ा अच्छा किया, जो इस समय हिन्दी भाषाभाषियोंके लिए भी इसे सुलभ कर दिया । इस विषय के प्रेमियों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए । २ सद्विचार पुस्तकमाला | जैनहितैषी के पाठकोंके सुपरिचित लेखक बाबू दयाचन्दजी गोयलीय बी. ए. ने उक्त नामकी पुस्तकमाला निकालनेका प्रारंभ किया है। इसमें आत्मोन्नति करनेवाले विचारोंकी छोटी छोटी पुस्तकें निकलती हैं । स्थायी ग्राहकों को सब पुस्तकें पौनी कीमत पर दी जाती हैं । स्थायी ग्राहक बनने की निकल चुकी हैं:फीस चार आने है । अब तक पाँच पुस्तकें १ शान्तिमार्ग २ आत्मरहस्य ३ जैसे चाहो वैसे बन जाओ ४ सुख और सफलता के मूल सिद्धांत ५ सुख की प्राप्तिका मार्ग ये पाँचों पुस्तकें अँगरेज के सुप्रसिद्ध आध्या त्मिक लेखक जेम्स एलनकी जुदी जुदी पाँच पुस्तकोंका अनुवाद है । अँगरेजीमें इन सब पुस्तकोंकी बड़ी ख्याति और खप है । मूलकी अपेक्षा इनका मूल्य बहुत ही कम है। विचारशील सज्ज - नोंको इन्हें अवश्य पढ़ना चाहिए और बाबू साहबका उत्साह बढ़ाना चाहिए। मिलनेका पता - मैनेजर, हिन्दी साहित्य भण्डार, लखनऊ । For Personal & Private Use Only मूल्य =) =) 29 ... ܙܕ " ܕܙ =)॥ =) 17) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Deavitevtuotavitadkaviduatestosterdastavtensterstudiaantestantrastrea MUNRousandsaurutOut SatuOUR பேயேபாபபேசியேபோயபபோலே Searchestressurecauscusdeciseasestactarscretreatervadndikandardstercilestosterstanditatumstraige मेहरवान साहब, बम्बईका हर किस्मका माल-स्टेशनरी, हेर आइल, इत्र, ई लवंडर, कोलनवाटर, सब तरहके साबुन, कांच, किताबें, तसबीरें, ग्यास, दबाइयाँ, मोमबत्ती, सोनेचांदीके बटन, घड़ियाँ, मोजा, बुनयाइन, रूमाल, सब तरहका कपड़ा। ई आदि-सस्ता और फायदेसे आर्डर मिलतेही वी. पी. से भेजते हैं। एक बार मँगाकर खातरी कीजिए। मेसर्स जॉली सीन्डेला एण्ड को० केमिस्ट और कमीशन एजेंट है तबावाला बिल्डिंग, प्रिंसेस स्ट्रीट, बम्बई. साहित्य पत्रिका प्रतिभा। ( संपादक, श्रीयुत पं० ज्वालादत्त शर्मा ) , प्रतिभाका दसवाँ अङ्क शीघ्र प्रकाशित होनेवाला है । यह प्रति अँगरेजी मासके पहले सप्ताहमें प्रकाशित होती है । यदि आप साहित्यसंबन्धी लेख है पढ़ना चाहते हैं, तो प्रतिभाके ग्राहक बनिये । प्रतिभामें रसमयी कवितायें है और शिक्षाप्रद पर चुभती हुई गल्पें भी प्रकाशित होती हैं। वार्षिक मूल्य २) ई है । हम इसके विषयमें अधिक न कहकर हिन्दीकी सर्वश्रेष्ठ पत्रिका सरस्वतीहै की सम्पति नीचे उद्धत किये देते हैं:ई “प्रतिभा-यह एक नई मासिक पत्रिका है । मुरादाबादके लक्ष्मीहु नारायण प्रेससे निकली है । हिन्दीके प्रसिद्ध लेखक पं० ज्वालादत्तजी शर्मा । इसके संपादक हैं । सरस्वतीके पाठक आपसे खूब परिचित हैं । वे जानते। हु होंगे कि शर्माजी सरस, बामुहाविरा और साथ ही प्रौढ भाषा लिखनेमें कितने है पटु हैं । ऐसे सुयोग्य संपादकके तत्वावधानमें आशा है प्रतिभाका उत्तरोत्तर विकास होगा। इसका पहला अङ्क अप्रैल १९१० में प्रकाशित हुआ है । उसमें छोटे बड़े १० लेख और ६ कवितायें हैं । साहित्य, शिक्षा, उद्योग धन्धा, विज्ञान, है ई जीवनचरित और आख्यायिका इतने विषयों पर इसमें लेख प्रकाशित हुए हैं। ई लेखोंके संवन्धमें सामयिकता और रोचकताका बहुत ध्यान रक्खा गया है ।" पत्रव्यवहार करनेका पतामैनेजर ' प्रतिभा ' लक्ष्मीनारायण प्रेस, मुरादाबाद। andrenikarstituatsansteistmastendestostradashain 2.บทสวดมนหนองจีน sonagn arrangegrannonwraniganpragnenermeniangragnantan For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितैषी-औषधालय-इटावहकी पवित्र-सस्ती-औषधियाँ। १९१६ नमक सुलेमानी। दवा सफेद दागोंकी। जगत्प्रसिद्ध असली २० वर्षका आजमूदा हा- . इससे शरीरमें जो सफेद २ दाग पड़जाते जमेकी अक्सीर दवा । की० ॥) तीन हैं वह दूर हो जाते हैं । की० १) . सी० १०) श्वास-कुठार । धातु संजीवन। यह स्वास दमें की शर्तिया दवा है। की. १) संपूर्ण धातु विकारको नष्ट कर नया वीर्य गोली दस्तबंदकी। पैदा होकर शरीर हृष्ट-पुष्ट होजाता है । की० १) रक्त, आम, आदि अतिसार, तथा संग्रहणी . प्रदरान्तक-चूर्ण। आदिको शीघ्र दूर करती है। की॥) दवा खांसीकी। स्त्रियोंके श्वेत, लाल आदि प्रदरोंको शर्तिया . " सूखी या तर खांसीको और कफको दूर कदूर कर ताकत बढ़ाता और गर्भस्थिति करता है , ९ रने वाली आजमूदा दवा है । की० ॥) की० १) ___ अर्क कपूर। नयनामृत-सुरमा । हैजेकी अक्सीर दवा । की० ।) सम्पूर्ण विकारोंको दूरकर नेत्रोंकी ज्योति चंद्रकला । बढ़ाता और तरावट पैदा करता है । की० १) यह गोरे व खूबसूरतीकी दवा है। की।) ___दन्त-कुसुमाकर। र दाँतोंके सब रोग दूर होकर दांतोंकी चमक नैन-सुधा-अञ्जन। बढ़ाता और मजबूत करता है। की। इससे आँखका जाला धुन्ध फुली माड़ा आदि दद्रु-दमन। ____ सब अच्छे होते हैं । की० ॥) ' यह खुशबूदार मरहम विना कष्टके दादके ... चाहे कैसा पेट दर्द हो फौरन दूर होता है । दादाको तगादा कर भगाती है । की।) __की०॥) केश-बिहार-तैल। ताम्बूल रंजन । अत्यन्त सुगन्धिसे चित्त प्रसन्न कर केश और पानके साथ खानेका बढ़िया मसाला । की।) मस्तकके रोगोंको दूर करता है । की० ॥) . शिरदर्द-हर तैल । की।) नारायण-तैल। कर्ण-रोग-हर तैल । की।) शरदी आदिसे उत्पन्न हुए दर्द, गठिया, प- खुजली-नाशक तैल । की०।) क्षाघात आदि सर्व वात रोगोंकी शर्तिया दवा बाल उड़ानेका साबुन । की०।) है। की० १) . . कोकिल-कण्ठ-बटिका । की।) पता-चन्द्रसेन जैन वैद्य, चन्द्राश्रम, इटावह U. P. For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) लिखा है । इसमें एकसे एक बढ़कर सुन्दर और भावपूर्ण ९ गल्पें हैं । इनके जोड़की गल्पें आपने शायद ही कभी पढ़ी हों । मूल्य एक रुपया दो आने । हमारी ग्रन्थमालाकी नई । ताराबाई | यह आपके पूर्वपरिचित स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल रायके बंगला नाटकका अनुवाद है । अभी तक आपने इनके जितने नाटक पढ़े हैं, वे सब गद्य में थे पर यह पद्यमें है । अनुवाद भी खड़ी बोली तुकान्तहीन पयोंमें कराया गया है । अनुवादक हैं- सुकवि पं० रूपनारायण पाण्डेय | हिन्दी में यह बिलकुल नई चीज है । ऐतिहासिक नाटक है । यह बढ़िया ' इमिटेशन आर्ट ' कागज पर छपाया गया है । मूल्य एक रुपया छह आने । देश-दर्शन । इसके तैयार होनेकी सूचना वर्षोंसे निकल रही है। बड़ी मुश्किलसे यह अब तैयार हुआ हैं । इसके लेखक ठाकुर शिवनन्दनसिहजी बी. ए. हैं अँगरेजीके पचासों ग्रन्थोंके आधारसे यह लिखा गया है । इसमें देशकी भीतरी दशाओंका आपको दर्शन होगा । यहाँकी घोर दरिद्रताका आयुकी भयंकर घटीका, मृत्युसंख्याका बढ़ती हुई भीषणताका, अल्पजीवी बच्चोंकी अधिक जन्मसंख्याका और इनके साथ बढ़े हुए व्यभिचारका, नशेबाजीका, चरित्रहीनताका वर्णन पढ़कर आप अवाक् हो जायेंगे । शिक्षाकी कमी, व्यापारकी दुर्दशा, विदेशियोंकी सत्ता, किसानों की बुरी हालत, बालविवाह, बृद्धविवाह, अयोग्य विवाह, विवाहका इतिहास, उत्तम संतान उत्पन्न करनेके सिद्धान्त, सन्तान कम उत्पन्न करने की आवश्यकता आदि और भी अनेक त्रिषयोंके सम्बन्धमें आपको इसमें सैकड़ों नई बातें मालूम होंगी। कई चित्र और नकशे भी इसमें दिये गये हैं । पृष्ठसंख्या पौने पाँचसौके लगभग । मूल्य तीन रुपया । हृदयकी परख । जो लोग इस बातकी शिकायत करते हैं, कि हिन्दीमें स्वतंत्र उपन्यास नहीं है उन्हें इस भावपूर्ण उपन्यासको पढ़कर बहुत सन्तोष होगा | इसके लेखक आयुर्वेदाचार्य पं० चतुरसेन शास्त्री हैं। इस पुस्तकमें हमने एक नामी चित्रकारसे पाँच नवीन चित्र बनवाकर छपवायें हैं, जिससे पुस्तक और भी सुन्दर हो गई है । मूल्य एक रुपया दो आने । नवनिधि । इस ग्रन्थको उर्दू के प्रसिद्ध गल्लखक श्री प्रेमचंदजीने स्वयं अपनी कलमसे हिन्दीमें नूरजहाँ । स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल रायके प्रसिद्ध नाटकका अनुवाद | इसके विषय में अधिक लिखने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । शाहजहाँ और नूरजहाँ उनके सर्वश्रेष्ठ नाटक गिने जाते हैं । मूल्य एक रुपया दो आने | इसमें कपड़ेकी जिल्द न रहेगी । राष्ट्रीय ग्रन्थ । स्वराज्य । गुरुकुल काँगड़ीके अर्थशास्त्र प्रोफेसर श्रीयुत बालकृष्ण एम. ए. इसके लेखक हैं । इस विषयका अपने ढंगका यह निराला ही ग्रन्थ है । पृष्ठसंख्या ३०० | मूल्य सवा रुपया अर्थशास्त्र । अर्थात् धनकी उत्पत्ति तथा वृद्धि । लेखक, उपर्युक्त प्रो० बालकृष्ण एम. ए. पृष्ठसंख्या ५५० । ० १ ॥ ) । पार्लमेण्ट । लेखक, श्रीयुत बाबू सुपार्श्वदास गुप्त बी. ए. । हिन्दीमें यह इस विषय की सबसे पहली पुस्तक है । जिस ब्रिटिश पार्लमेण्ट के शासन में हम रहते हैं उसका शुरू से लेकर अब तकका इतिहास, उसका क्रमविकाश, उसकी शासनपद्धति और उसके गुणदोष आदि बातोंका खूब विस्तार के साथ इसमें निरूपण किया गया है । पृष्ठसंख्या २७५ । मूल्य एक रुपया दो आने । सादीका चौदह आने । महादेव गोविंद रानड़े । लेखक, श्रीयुत भारतीय । बम्बई हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज, प्रसिद्ध सुधारक और देशभक्त महात्मा का जीवनचरित । यह अनेक ग्रन्थोंके आधारसे बहुत अच्छे ढंग से लिखा गया है । पृष्ठसंख्या २०० । मूल्य ॥ =) देवी जौन अर्थात् स्वतंत्रता की मूर्ति | अपने जीवन का बलि देकर फ्रान्सको पराधीनता से मुक्त करनेवाली ' जौन आफ आर्क' नामक प्रसिद्ध वीरांगनाका देशभक्तिपूर्ण अपूर्व जीवनचरित | For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखिका, श्रीमती बालाजी / पृष्ठसंख्या 100 से लिए बहुत ही उपयोगी है / यह गुजरातीके ऊपर / मूल्य आठ आने / . प्रसिद्ध लेखक श्रीयुत अमृतलाल पढ़िपारकी स्वराज्यकी योग्यता / 'माडर्न रिव्यू के पुस्तकका अनुवाद है / मूल्य छह आने। . सम्पादक श्रीयुत बाबू रामानन्द चट्टोपाध्यायके शाही लकड़हारा / उर्दूके सुप्रसिद्ध लिखे हुए सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'टूवडू होमरूल' लेखक लाला शिवव्रतलाल वर्मा एम. ए. की का हिन्दी अनुवाद / (प्रथम भाग।) इस विष- दिलचस्प पुस्तकका हिन्दी अनुवाद / मूल्य एक यका यह अद्वितीय ग्रन्थ है / बड़ी ही अकाट्य रुपया। युक्तियोंसे 'भारत स्वराज्यके योग्य नहीं है' सुख और सफलताके मूल सिद्धान्त '. इस प्रवादका खण्डन किया गया है / प्रत्येक सुप्रसिद्ध अँगरेजी लेखक जेम्स एलनकी दिशभक्तके पढ़नकी चीज है / पृष्ठसंख्या 220 / 'फोन्डेशन स्टोन्स टू हेप्पीनेस एण्ड सक्सेस', ल्य सवा रुपया / . नामक पुस्तकका अनुवाद / मूल्य ढाई आना। स्वराज्यकी पात्रता / मूल्य पाँच आने। सुखकी प्राप्तिका मार्ग / जेम्स एलनकी . राष्ट्रीय शिक्षा / मिठं अरण्डेलके , ल* 'पाथ आफ प्रोसपेरिटी' का अनुवाद / व्याख्यानका अनुवाद / मू०।) .. अनुवादक, बाबू दयाचन्द गोयलीय बी. ए. 'स्वराज्यकी पात्रताके प्रमाण और मेरे पृष्ठसंख्या 80 / मूल्य :-) कार्य / मूल्य -) / देवी वसन्तका संदेशा -) // किशोरावस्था / लेखक, श्रीयुत गोपाल . राष्ट्रनिर्माण शरणसिंह बी. ए. / जिन्होंने युवावस्थामें प्रवेश स्थानिक स्वराज्य किंगा है, उन्हें अवश्य पढ़ना चाहिए। बड़ी धर्म और राजनीति -) // अच्छी पुस्तक है / मूल्य॥४) स्वराज्य क्यों चाहिए -) // ज्योतिष शास्त्री लेखक, श्रीयुत बाबू दुर्गास्वाज्यविचार ) प्रसादं खेतान एम. ए. कृत / अनेक चित्रोंसे हिन्दुस्थानकी मांग -) युक्त / मूल्य दश आने / राष्ट्रीय स्वराज्य कर्मक्षेत्र / श्रीशशिभूषणसेनकृत बंगला हमारा भीषण ह्रास, लेखक-पं० मन्नन द्विवेदी पुस्तकका हिन्दी अनुवाद / इसमें निरुद्यमी, बी. ए. मू० ) उत्साहहीन और हतभाग्य भारतवासियोंको अन्यान्य विषयोंके ग्रन्थ। उत्साहित करके कर्मवीर बनाने का प्रयत्न किया a गया है / भारतवर्षके अनेक महापुरुषोंके चरित्र सदाचार-सोपान / प्रतिभा, शान्तिकुटीर पर देकर इन बातोंको पुष्ट किया है / पृष्ठसंख्या आदिके लेखक, श्रीयुत बाबू अविनाशचन्द्रदास / 200 / मू० सादीका चौदह आने / साजएम. ए. बी.एल. की बंगला पुस्तकका अनुवाद / बहुत ही अच्छी शिक्षाप्रद पुस्तक है / मूल्य / ) " राजा और रानी / इसमें सम्राट पंचम मिलनेका पताजार्ज और महाराणी मेरीके चरित्रसे मिलनेवाली व्यवस्थापक-हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, शिक्षाओंपर विचार किया गया है। विद्यार्थियोंके हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई / . (इस अंकके निकलनेकी ता. 3-1-1918 ई० ) For Personal & Private Use Only