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________________ जैनहितैषी [भाग १३ वस्त्र। ढाली हो जाती थी और उससे फूल झड़ते थे (पर्व बारीक दो वस्त्र पहने हुए थे ( पर्व २६, श्लोक १२, श्लोक ५३)। विजयार्धकी विद्याधरियों ६२) । सोलहवें स्वर्गके इन्द्रका वर्णन करते (पर्व १८,श्लोक १९२) के और स्वर्गकी देवां- हुए उसके कटिवस्त्रका ही उल्लेख किया गया गनाओं (पर्व ३४, श्लोक,१०६) के विषयमें भी है (पर्व १० श्लोक १८१)। राजा वज्रनाभके यही लिखा है । यह इस बातका अच्छा वर्णनमें भी कटिवस्त्रकी ही प्रशंसा की गई है सुबूत है कि ग्रन्थकतने अपने देशके प्रचलित (पर्व ११ श्लोक ४४ )। इसके सिवाय ग्रन्थमें रीति-रवाजोंका ही वर्णन किया है । दाक्षिणात्य यदि दृष्टान्तके तौर पर भी कहीं वस्त्रोंका स्त्रियों में यह फूल गंधवानेकी चाल बहुत पुराने नाम आया है, तो धोती और चादरका ही। समयसे चली आती है । प्रायः सभी समयोंके स्त्रियोंके वर्णनमें इतनी विशेषता है कि चाददाक्षिणात्य कवियोंकी रचनामें इसका उल्लेख रके स्थानमें उनके स्तनवस्त्रका जगह जगह मिलता है। उल्लेख हुआ है । मालूम नहीं है, इससे ग्रन्थकर्तीका अभिप्राय चोलीसे है या साड़ीसे । पर _ यह वस्त्र भी स्वर्ग और मर्त्यलोकमें सर्वत्र एकसा - वस्त्रोंके विषयमें भी यही बात है । सब देशों : २।। है । आठवें पर्वके २४-२५ वें श्लोकमें लिखा और सब समयोंके लिए ग्रन्थकतीने एक ही प्रका है-जलक्रीड़ाके समय श्रीमती भी. वज्रजंघ पर रके वस्त्रोंका वर्णन किया है। पुराने समयकी " पानी फेंकना चाहती थी; परन्तु ऐसा करते समय खोजोंसे मालूम होता है कि, पहले वस्त्रोंमें प्रायः स्तनवस्त्रके खिसक जानेसे वह लज्जित होकर रह अन्तरीय और उत्तरीय अर्थात् धोती और र जाती थी और उसका स्तनवस्त्र पानीसे भीगकर दुपट्टा ये ही दो वस्त्र पहने जाते थे । ग्रन्थकर्ता - स्तनोंसे चिपककर अपूर्व शोभा देता था। आगे महाराजके प्रान्तमें तो अब भी बहुतसे लोग पर्व १२ श्लोक ३४ में माता मरुदेवीका स्वरूप इन्हीं दो वस्त्रोंको पहनते हैं और यही कारण हे वर्णन करते हए लिखा है कि कुंकुम लगे हुए जो आदिपुराणमें वस्त्रोंका नामोल्लेख बहुत ही और वस्त्रसे ढके हए उसके दोनों स्तन ऐसे मालूम कम है और जहाँ कहीं है वहाँ इन्हीं दो वस्त्रोंका। होते थे. मानों आकाशगंगामें लहरोंसे रुके हुए वस्त्रांग जातिके कल्पवृक्षोंके विषयमें लिखा है दो चक्रवाक ही हैं । इसी प्रकार अन्य स्त्रियोंके है कि वे कोमल, चिकने और बहुमूल्य रेशमके भी स्तनवस्त्रका कथन आया है और स्वर्गके प्रावार और परिधान देते हैं: देवियोंके भी स्तनवस्त्रोंकी शोभाका वर्णन किया चीनपट्टदुकूलानि प्रावारपरिधानकं । गया है । गरज यह कि, स्त्रियोंके वस्त्र भी सर्वत्र मृदुश्लक्ष्णमहा_णि वस्त्रांगा दधति द्रुमाः ॥ ४८॥ और सन समयोंमें एकसे बतलाये गये हैं। -पर्व ९। विलेपन । प्रावारका अर्थ ओढ़नेकी चादर और परि- आजकल कोई कोई ब्राह्मण अपने सारे धानका अर्थ अधोवस्त्र या धोती है। इससे मालूम शरीरको विशेष कर छातीको चन्दनसे लीपते होता है कि, भोगभूमियाँ इन्हीं दो वस्त्रोंका हैं । मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताके समयमें उपयोग करते थे। - इसका बहुत आधिक प्रचार था । क्योंकि आदिआगे जल भरतमहाराज दिग्विजयको चले हैं, पुराणमें स्वर्गोंके देवों, भोगभूमियों, सारे क्षेत्रों उस समय लिखा है कि वे सफेद, कोमल और और सारे ही समयोंके कर्मभूमियोंके शृंगाारमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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