SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११ आदि ।) अङ्क ११] सतयुगकी वेश्यायें। ५०७ उनकी छाती पर लगे हुए चन्दनकी शोभाका ऐतिहासिक खोज करनेकी आशा रखना वर्णन किया गया है । (देखो पर्व ३ श्लो० मूर्खता नहीं तो भोलापन अवश्य है । * ७८, पर्व ६ श्लो० ३६, पर्व २६ श्लोक ६१, पर्व ३१ श्लो० ३९ । ) स्त्रियोंकी छातियों पर भी चन्दनके लेपका जगह जगह उल्लेख है। सतयुगकी वेश्यायें। (देखो पर्व १८ श्लो० १४, पर्व ९ श्लो० जैनहितैषीके गत अंकमें श्रीयुत बाबू सूरजभानजी मालूम होता है, उस समय स्त्रियों में स्तनों वकीलने अपने 'आदिपुराणका अवलोकन' शीर्षक पर और स्तनोंके चचकोंपर भी केसर लगा- लेखमें यह दिखलाया था कि सतयुगमें वेश्याओंका नेकी रीति थी । यह बहुत ही शोभाकी बात बहुत अधिक आदर था । इस पर जैनमित्रके समझी जाती थी । अप्सराओं और देवांगनाओं श्रद्धालु सम्पादक ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने लिखा के विषयमें भी इसका कथन किया है. यहाँ है कि चौथे कालमें ऐसी व्यभिचारिणी वेश्यायें तक कि भगवान के समवसरणमें जो बावडियाँ नहीं हो सकती हैं जैसी कि आजकल होती हैं । बनी हुई थीं, उनमें देवांगनाओंके नहाने और वे तो नाच-गाकर ही लोगोंका चित्त प्रसन्न ... उनके स्तनों पर लगी हुई केसरके धुल जानेसे करता से करती थीं। यह एक ऐसी बात है कि, जिसे. उनका पानी पीला हो जाता था ( पर्व २२. साधारण बुद्धिका आदमी भी नहीं मान सकता श्लो० १७४)। है कि जो बड़ी बड़ी सभाओंमें, दरबारोंमें अपने रूपको और हावभावविलासोंको दिखाकर लोगोंको स्त्रियोंके तलवोंको लाक्षारस (महावर ) से रिझाती हैं, वे शीलवती या पतिव्रता होती होंगी। रँगने और कपोलों पर चित्र बनानेका भी प्रायः हमारी समझमें ब्रह्मचारीजीका हृदय भी इस बातको सर्वत्र ही वर्णन है और इन रीतियोंको भी न मानता होगा, परन्तु उन्हें लोगोंकी श्रद्धा घट नारियों और देवांगनाओंमें सबमें एकसा जानेका बड़ा डर है, और श्रद्धालु समाजमें अपनी चलाया है। श्रद्धा बनाये रखनेका बडा चाव है, इस लिए हृदयसे विरुद्ध भी उन्हें ऐसी ऐसी बेसिरपैकी सारांश इन सब बातोंका यह है कि ग्रन्थक- बातें लिखनेके लिए विवश होना पड़ता है।। आने वेष भूषादिके सम्बन्धमें जो कुछ वर्णन आदिपराणके जो श्लोक उस लेखमें दिये किया है, उससे इस बातका पता नहीं लग गये थे उनमें वारनारी, वारयोषा, वेश्या, गणिका सकता कि जिन जिन प्राचीन कालोंकी और जिन आदि शब्दोंका प्रयोग किया गया है । इन शब्दोंजिन स्थानोंकी कथायें लिखी गई हैं, उन सब का वह अर्थ किसी भी जैन अजैन कोशमें नहीं कालों और स्थानोंके रीति रवाज और पहनने- मिलता है, जो ब्रह्मचारीजी करना चाहते हैं। वारस्य ओढ़ने आदिके ढंग क्या थे। अधिकसे अधिक - ____ * यह लेख बहुत बड़ा था-इससे लगभग ढाई ग्रन्थकर्ताके समयकी और परिचयकी ही वेषा. मी - गुना होगा; परन्तु स्थानकी कमीसे संक्षिप्त कर भूषासम्बन्धी बातें इस ग्रन्थसे मालूम हो सकती दिया गया है। संक्षिप्त करने में यदि कोई गलती हो हैं। उन्हें दिव्यध्वनिके अनुसार 'बावन तोला गई हो, तो उसका उत्तरदायित्व सम्पादक पर हैपाव रत्ती' समझ लेना, या उन परसे प्राचीन लेखक पर नहीं। -सम्पादक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy