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________________ चौदहवाँ भाग । अंक ११ हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । जैनहितैषी Jain Education International न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ ब्राह्मणों की उत्पत्ति । ( २ ) [ लेखक - बाबू सूरजभानजी वकील । ] इससे पहले लेखमें सिद्ध किया गया है कि, ब्राह्मण वर्णकी स्थापना के समय मिथ्यात्वी ब्राह्मण मौजूद थे, जिनका उस समय बड़ा भारी प्रभाव और प्रचार था और ब्राह्मण वर्ण स्थापन करनेकी कथा भरतमहाराजके समय की नहीं, किन्तु उस समयकी है; जब कि हिन्दुस्तान में ब्राह्मणोंकी बड़ा" भारी जोर था और वे जैनि अत्यंत घृणा और द्वेष करते थे । आदिपुराण में वर्णित ब्राह्मणों की उत्पत्तिके शेष कथन को पढ़ने से यह बात और भी ज्यादा दृढ़ हो जाती है और यह नतीजा निकल आता है कि पंचमकालमें ही किसी समय जानियोंने किसी जैनी राजाका सहारा कर मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंके प्रभावसे बचनेके सस्ते कुछ गृहस्थी जैनि कार्तिक २४४३. नवंबर १९१७, I योंको पूजना शुरू कर दिया और उनसे वे सब काम लेने लगे, जो ब्राह्मण लोग किया करते थे; जिससे होते होते उनकी एक जाति ही बन गई मालूम होता है कि, जैन ब्राह्मणोंकी यह उत्पत्ति दक्षिण देशमें ही हुई है । क्योंकि जैन राजा भी वहीं हुए हैं और वहीं अब तक जैन ब्राह्मण मौजूद भी हैं, जो ब्राह्मणोंकी तरह ही जैन-यजमानोंके सब काम करते हैं । किन्तु यह नई सृष्टि जैन सिद्धान्त के विरुद्ध होनेके कारण जैनियों में सब जगह मान्य न हुई, अर्थात दक्षिण देशके सिवाय अन्य कहीं भी इसका प्रचार न हो सका । आदिपुराण में अपने बनाये हुए जैन ब्राह्मणोंको उपदेश देते हुए भरतमहाराजने उनके दस अधिकार बताये हैं । उसमें व्यवहारोशिता अधिकारको वर्णन करते हुए लिखा है कि, जैनागमका आश्रय लेनेवाले इन ब्राह्मणों को प्रायश्चित्त देने का भी अधिकार होना चाहिए। यदि उनको यह अधिकार न होगा तो वे न अपनी शुद्धि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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