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________________ ४७० जैनहितैषी [ भाग १४ कर सकेंगे और न दूसरोंको ही शुद्ध कर सकेंगे। मतियोंकी ही पाठशालामें जावेंगे और उनके इस प्रकार अशुद्ध रहकर यदि वे गैरोंसे शुद्ध शास्त्र पढ़कर अन्यमती ही हो जायेंगे । होनेकी इच्छा करेंगे तो कैसे काम चलेगा?:- दूसरा अधिकार कुलावधिक्रिया अर्थात् अ व्यवहारेशितां प्राहः प्रायश्चित्तादिकर्मणि। पने कुलके आचरणोंकी रक्षा रखना है । इसके स्वतंत्रता द्विजस्यास्य श्रितस्य परमा श्रुति॥१९२॥ विषयमें भी भय दिखलाया है कि, ऐसा न कर नेसे वह दूसरे कुलका हो जावेगा । अर्थात् यदि तदभावे स्वमन्यांश्च न शोधयितुमर्हति। अशुद्धः परतः शुद्धिमभीप्सन्नकृतो भवेत् ॥ १९३ ॥ र वह अन्य मतियोंके बहकानेमें आकर उनकी-पर्व ४०। सी क्रिया करने लगेगा तो उनके ही कुलका हो जावेगा। तीसरा अधिकार वर्णोत्तम क्रिया है, इन श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध है कि, जिस समय अर्थात अपनेको सब वर्गोंसे उत्तम मानना । जैन ब्राह्मण बनाये गये थे, उस समय अन्य क्योंकि ऐसा न माननेसे न तो वह अपनेको मतके ब्राह्मण मौजूद थे जो प्रायश्चित्तादि दिया शद्ध कर सकता है और न दूसरोंको; इसकी बाबत करते थे; किन्तु जैन ब्राह्मण बनानेवाला यह भी भय प्रगट किया है कि यदि वह अपनेको चाहता था कि जैन ब्राह्मण को भी प्रायश्चित्त सबसे बडा न मानेगा तो अपनेको; शुद्ध करनेदेनेका अधिकार हो जावे । इसही कारण वह जोर की इच्छासे मिथ्यादृष्टी कुलिंगियोंकी सेवा क देता है कि यदि जैन ब्राह्मणोंको यह अधिकार लगेगा: और कुब्रह्मको मानकर उनके सब दोष न होगा तो वे भी अपना प्रायश्चित्त अन्य मति- , - प्राप्त कर लेगा । इससे भी सिद्ध है कि जैन योंसे ही कराया करेंगे और तब जैन ब्राह्मण ब्राह्मणोंके बनाये जाने के समय अन्य मतियोंका बनाना व्यर्थ ही रहेगा । इस कारण अन्यमति- बदा भारी प्राबल्य और लोगोंमें उनकी बड़ी योंके समान इनको भी प्रायश्चित्तका अधिकार भारी श्रद्धा थी, और उस समय मिथ्यात्वी मिलना चाहिए। ब्राह्मण ही बड़े माने जाते थे-जैन ब्राह्मण ... अन्य ९ अधिकारोंके पढ़नेसे भी यही बात बहुत घटिया और अशुद्ध समझे जाते थे। इसी निकलती है। (देखो पर्व ४० श्लोक १७८ से कारण जैनब्राह्मण बनानेवाला अपने ब्राह्मणों२१४ तक ।) पहला अधिकार अतिबालविद्या को यह उपदेश देता था कि तुम भी अप अर्थात् बालपनेसे ही उपासकाचार शास्त्रोंका बड़ा मानो और सब जैनी भी इनको बड़ा मानें; पढ़ना है। इसके विषयमें लिखा है कि यदि वे जिससे ये लोग अपनेको घटिया या अशुद्ध सबालपनेसे ही इनको नहीं पढ़ेंगे तो अपनेको मझकर अपनी शुद्धि कराने के वास्ते अन्य मतिझट मठ ब्राह्मण माननेवाले मिथ्यावृष्टियोंसे ठगे यौके पास न जावें। जावेंगे और मिथ्या शास्त्रोंके पढ़ने में लग जावेंगे। चौथा अधिकार पात्रत्व है, अर्थात् ये जैन इससे सिद्ध है कि उस समय साधारण तौरपर ब्राह्मण दान देनेके पात्र हैं, इनको दान अवश्य मिथ्यात्वी ब्राह्मणोंके ही द्वारा पढ़ाई होती थी देना चाहिए । इस विषयमें भी जैन-ब्राह्मणोंको और जैन ब्राह्मण बनानेवालेको इस बातका भय डराया है कि उनको गुणी पात्र बनना चाहिए। था कि, यदि हमारे बनाये हुए ब्राह्मणोंके बालक यदि वे गुण प्राप्त नहीं करेंगे तो उनको कोई बचपनसे ही जैनशास्त्रोंके पढ़ने में न लगाये नहीं मानेगा और मान्य न होनेसे राजा भी जायेंगे तो प्रचलित रीतिके अनुसार वे अन्य उनका धन हर लेगा। इससे भी यही सिद्ध होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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