SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • अङ्क ११ विद्वज्जन खोज करें। आवेगी बारात यथा सबके घर आती, लक्ष्मीको सुख पहुँचाइए सदा दान सम्मानसे । ' भेद खुलेगा नहीं, करेंगे क्या उत्पाती। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं रहित हुए क्यों ज्ञानसे?२३: . यदि रमा ! तुम्हारी राय हो और बढ़ा, दामको। रूपचन्द निर्लज्ज रहा, बोला, क्यों चुप हो, मैं कर लेता हूँ युक्तिसे अति टेढ़े भी कामको ॥१७॥ भले लोग भी बुरे हुए जगमें लोलुप हो। . हाय हाय क्या किया लोभ-वश होकर तुमने, दृग पर पट्टी बँधी लोभकी फिर क्यों सूझे ? डुबा दिया निजवंश धर्मको खोकर तुमने । ज्ञान-दृष्टि से हीन मनुज क्यों अनहित बूझे। मुखमें कालिख लगा डूब क्यों मरे नहीं तुम .. तुम रमे ! सीख मुझको न दो,क्या मैं शिशु हूँ चुप रहो जग निन्दासे कुल-कुठार क्यों डरे नहीं तुम, मैं दीन दुखी हो क्यों रहूँ तुम जो चाहो सो कहो।।२४ वह दनुज तुल्य है मनुज जो करता कुत्सित कर्म है। जाति पाँति यदि जाय रसातल चल जाने दो, शठ, उभयलोकमें जीवका सच्चा साथी धर्म है ॥ १८॥ धर्म-जाल यदि जले आगमें जल जाने दो। कन्या-विक्रय आत्म-घातसे न्यून नहीं है, छोड़ो शील सनेह यत्नसे रुपये जोड़ो, .. गो घातकसे सुता-विघातक आधक कही है। मोड़ो जगसे बदन बन्धुसे नाता तोड़ो, करके कन्या-घात कहो तुम कहाँ रहोगे, सुख, सुगति सुयश संपारमें सभी सम्पदा साथ हैं। घोर पापके भार भला किस भाँति सहोगे? वे उभय लोकसे भ्रट हैं जो जन छूछे हाथ हैं ॥ २५ ॥ यदि सुता-मांसको बेंचकर, पेट तुम्हें भरना रहा। मैं मानूँगा नहीं करूँगा जो करता हूँ, तो विष भक्षण कर क्यों नहीं इष्ट तुम्हें मरना रहा॥१९॥ कभी किसीसे नहीं कहीं भी मैं डरता हूँ। इन रुपयों को अधिक दाइल भी जानो, दिनकी होवे रात, रातका दिन हो जाये फेंको इनको बात मारी तुम बालो। अखिल लोक भी कभी किसीकी सुद्री आवे। धर्म-धीन कर दंग रहा है, पर मुझको अपनी बातमें, लानेवाला कौन है ? कभी किसोके पाप किसी दिन ना। या विना पापके द्रव्यको, पानेवाला कौन है ? ॥२६॥ 'उस जीवनको धिक्कार है, जो निन्दित हो लोन। __ असाध्य है रोग रमा विलोकके, जो मर्यादा लंघन करे, क्यों न पड़े वह शोक में ॥२०॥ चली हुई लोचन-धार रोकके। पुत्र पुत्रियों में न भेद पशु भी रखते हैं, जहाँ सुना थी वह भी वहीं गई । सुतालुतोंको तुल्य पखेरू भी लखते हैं। तथापि चिन्ता सनकी नहीं गई ॥ २७ ॥ हा ! उनसे भी मूढ़ हुए किस भौति बता दो कन्याविक्रय पान है किस भाँति जता दो। विजन लोज करें। जो पिता भरोसे है उसे रक्षित रखना धर्म है। किस भाँति उसे हो वेचते तुमको तनिक न शर्म है।२१। निज आत्माको बेंच देहको क्या सुख देोगे, [ले. श्रीयुत बा० जुगलकिशोरजी मुख्तार ।] दुख पावोगे स्वयं उसे नाहक दुख दोगे। लक्ष्मीका भवितव्य पड़ा है हाथ तुम्हारे, १ आमद्भट्टाकलकदवानामत : तत्त्वाथराजरह जावेगा अन्त धर्म ही साथ तुम्हारे। वार्तिक ' में, भिन्नभिन्न स्थानों पर, संस्कृत और इस लिए धर्म मत छोडिए, चाहे कुछ भी क्यों न हो। प्राकृतके जो ' उक्तं च 'पद्य पाये जाते हैं सुख मिला पापियोंको कहाँ ? दुखको सुख समझे रहो उनसे छह पद्य ( गाथायें ) इस प्रकार हैं:महापापका पाप लोभको कहते हैं सब, . " पण्णवणिजा भावा इसी लिए बुध दूर लोभसे रहते हैं सब । अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं । न कन्याका बलिदान द्रव्यके लिए न करिए, पण्णवणिज्जाणं पुण करिए उस पर दया पापसे मनमें डरिए । अणंतभागो सुदणिवद्धो ॥१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy