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किस अचरज में तुम हो पड़ी, रमा तुम्हारा नाम है। सुख-भोग करो तुम आजसे सबका दाता राम है ॥४॥
जैनहितैषी -
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प्रिये ! एकसे दिवस किसीके कभी न बीते, सर सूखेंगे भरे, भरे फिर होंगे रीते ।
सदा अँधेरी रात कभी क्या हो सकती है ? पति- वियुक्त हो सदा न चकई रो सकती है। 'है हारावादी लग रही (?) सदा पतन उत्थानका । अपमानित भी होगा कभी, मनुज पात्र सम्मानका ५ वही मनुज है निपुण धनी जो मानी होवे वही कूप है जहाँ सुशीतल पानी होवे । वही वृक्ष है श्लाध्य जहाँ फल फूल लगे हों, वही काव्य है जहाँ पद्य नवरसों पगे हों। है धन्य वसुमती भी वहीं देश-भक्त रहते जहाँ, है वही सभा भी धर्मकी सभ्य सत्य कहते जहाँ ॥६॥
धन विलोक कर लोट पोट मुनिमन होता है, सबके दुर्गुण शीघ्र एक धन ही खोता है। सब कामों सदा द्रव्य बड़ा सहायक, सब लायक भी दीन कहा जाता नालायक । चाहे कैसा ही मनुज हो, धन पर जिसके पास है । है धन्य वही भी है हुआ त्रिभुवन उसका दास है धनी मनुजके पास धर्म दौड़ा आता है, धनी मनुजके द्वार गुणी धक्के खाता है। निर्बल भी धनवान भीमके सम होता है, निर्धन जन क्या कभी मृतकसे कम होता है ? इस हेतु किसी विध द्रव्यका संग्रह करना चाहिए। मनमें जगके अपवाद कभी न डरना चाहिए ॥ ८ ॥
इतने रुपये मिले और भी शीघ्र मिलेंगे, मुझे देखकर रमे, शत्रुके पैर हिलेंगे । गहने पहने रहो चैनसे दिवस बिताओ, सूतो लंबी तान खूब खाओ खिलवाओ। अब कभी किसी के पास जा कर फैलाना है नहीं। सुख कर लो, नश्वर देहका तनिक ठिकाना है नहीं ॥ ९ ॥ क्या पाओगी पूछ हाल रुपयों के प्यारी, मेरी गति है गुप्त रीति है जग से न्यारी । कभी न मनकी बात विज्ञ सबसे कहते हैं,
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[ माग १४
किन्तु हठीली रमा तुरत मचला कर बोली, उसने मानो नेइ पटकी झोली खोली । मुझसे तो तुम बात कभी भी न थे छिपाते, कहते थे वृत्तान्त, सभी जब घर थे आते । प्रिय ! आज तुम्हें क्या हो गया, क्यों धन पा बौरा गये गिरगिटसे मेरे साथ क्यों, रंग बदलते हो नये ॥ ११॥
रुपये पाये कहाँ आपने मुझपे कहिए. विना बताये आप मौन होकर मत रहिए बहुलावा दे मुझे रिक्षाना उचित नहीं है, भला कटकी बात छिपी क्या कभी कहीं है । मुझसे सब कच्चे हालको, कहिए देर न कीजिए । अब वृधा विछाछल जालको, मुझको जेर न कीजिए ॥
कहिए सच्ची बात किसीसे मैं न कहूँगी, ओ न कहोगे आप, न जीती कमी रहूंगी। मुझसे छिप यदि काम करोगे दुख पाओगे, होकर मुझसे हीन कभी क्या सुख पाओगे ? यदि कुछ भी मुझमें नेह है, तो सच बात बताइए। यह द्रव्य कहाँ कैसे मिला था बात बड़ाइए || रूपचन्द्रको ज्ञात नही की इसी लिए कुछ और कालीन शठकी बोला वह हो शिबात सुन रमे, ध्यानसे, पर सुन कर तू उसे न होना हीन ज्ञानसे । यदि जगमें मेरी बात वह, किसी भाँति खुल जायगी । तो जीवनभर मम साथनें, विविध भाँति दुख पायगी ॥ लक्ष्मीका में ब्याह शीघ्र ही कहीं करूँगा, सुता ब्याहके साथ गेहका दैन्य हरूँगा । पर उसको कुछ कष्ट नहीं होने पावेगा, और स्वकुलका नाम नहीं धुलने पावेगा । जो चतुरोंका सदुपाय है मैंने भी सोचा वही मर जाय साँप जिसमें प्रिये, लाठी भी टूटे नहीं ॥ १५ ॥ हरिसेवक है नाम एक सुन्दर बालकका, मानो वह अवतार हुआ है रति- पालकका । उसका है अभिराम धाम बेनाम नगरमें, जननी उसकी एक सुशीला है उस घर में । लक्ष्मीका पति होगा वहीं, मैंने यह स्थिर कर लिया। उसकी ही माताने मुझे, इन रुपयोंको है दिया ॥ १६ ॥ अभी तीन सौ और वही देनेवाली है,
करते हैं निज काम मौन होकर रहते हैं. । चुप चाप रहो लो यत्नसे रुपये रक्खो पास में । अबसे भी अपने समयको खरचो हास विलास में ॥ १० ॥ सुतका सज धज साथ व्याह करनेवाली हैं ।
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