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जैनहितैषी
[भाग १४
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परन्तु जैन ब्राह्मणोंको उपदेश देते समय आदि- गरज कहाँ तक कहें, जैन ब्राह्मणोंको उप पुराणमें मुनि या साधुके स्थानमें परिव्राजक शब्द- देश देनेमें विशेषतः वैदिक धर्मके ही सिद्धान्तों का प्रयोग किया गया है और इसी कारण मुनि- और पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग किया गया दीक्षाका नाम परिव्राजक क्रिया रक्खा है तथा है; जिससे स्पष्ट सिद्ध है कि जैन ब्राह्मण बनाइसही नामसे इसका उपदेश देते हुए और अन्य नेमें वैदिक ब्राह्मणोंकी ही रीस की गई है। मतियोंकी परिव्राज्य क्रियाका निषेध करते हुए ब्राह्मण वर्ण स्थापन करनेके दिन भरत महारावैदिकधर्मकी दीक्षाकी तरह जैन पारिव्राज्य जकी तरफसे जो उपदेश इन नवीन ब्राह्मणोंको दीक्षाको भी शुभतिथि, शुभ नक्षत्र, शुभयोग दिया जाना आदिपुराणमें लिखा है उसको शुभमुहूर्त और 'शुभलग्नमें ही लेनेकी आज्ञा गौरके साथ पढ़नेसे तो यहाँ तक मालूम होता दी है । यथा
है कि, इस उपदेशमें वैदिक धर्मके पारिभाषिक - सद्गृहीतमिदं ज्ञेयं गुणैरात्मोपबृंहणं ।
, शब्द ही व्यवहार नहीं किये गये हैं, किन्तु __पारिवाज्यमितो वक्ष्ये सुविशुद्ध क्रियांतरं ॥१५४॥ उनके धर्मके सिद्धान्तों और उनके देवताओंको
भी मान लिया गया है और कुछ काटतराशकर गार्हस्थ्यमनुपाल्यैवं गृहवासाद्विरज्यतः। यद्दीक्षाग्रहणं तद्धि पारिवाज्यं प्रचक्षते ॥ १५५॥ उनहीका उपदेश इन जैन ब्राह्मणोंको दिया
गया है। पारिव्राज्यं परिव्राजो भावो निर्वाणदीक्षणं ।
तत्र निर्ममतावृत्त्या जातरूपस्य धारणं ॥१५६॥ गर्भाधान आदि क्रियाके आरम्भमें ब्राह्मणों। प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगलग्नग्रहांशकैः।।
को रत्नत्रयका संकल्प कर अग्निकुमार देवोंके 6 निग्रंथाचार्यमाश्रित्य दीक्षा ग्राह्या मुमुक्षुणा ॥१५७॥ इन्द्र
इन्द्रके मुकुटसे उत्पन्न हुई तीन अग्नियाँ उत्पन्न -पर्व ३९।।
" करनी चाहिए । ये तीनों ही 'अग्नियों तीर्थकर,
.गणधर और अन्य केवलियोंके मोक्ष कल्याणकके वेदानुयायी लोग ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति ब्रह्माके महोत्सवमें अत्यन्त पूज्य मानी गई थीं, इसी मुखसे ही मानते हैं, जैन ब्राह्मणों को उपदेश देते वास्ते ये अत्यंत पवित्र मानी जाती हैं। इन तीनों समय उनके इस सिद्धान्तको भी मानकर यह सम- आग्नयोंको जो गार्हपत्य, आहवनीय, और दक्षिझाया गया है कि श्रीजिनेन्द्र ही ब्रह्मा हैं और णाग्नि नामोंसे प्रसिद्ध हैं तीन कुंडोंमें स्थापन क. जो कोई उनके मुखकी वाणीको स्वीकार करता रना चाहिए । वैदिक धर्मके शास्त्रोंमें तीन है उसहीको उनके सुखसे उत्पन्न हुआ ब्राह्मण प्रकारकी अग्नि इनही नामोंसे मानी गई हैं और मानना चाहिए । यथा पर्व ३९ में- उक्त शास्त्रोंके कथनके अनुसार इनके यह नाम
स्वायंभुवान्मुखाज्जातास्ततो देवद्विजा वयं । सार्थक भी होते हैं; परन्तु जैनधर्मके अनुसार ये व्रतचिह्नं च नः सूत्रं पवित्रं सूत्रदर्शितं ॥ ११७ ॥ नाम किसी तरह भी ठीक नहीं बैठते हैं । * जो ब्रह्माणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः।
* वैदिक धर्मके अनसार 'गार्हपत्य' वह अग्नि है, ब्रह्मा स्वयंभूभगवान्परमेष्ठी जिनोत्तमः ॥ १२७ ॥ जिसे प्रत्येक गृहस्थ अपने घरमें सदा बनाये रखता है सह्यादिपरमब्रह्मा जिनेंद्रो गुणबृंहणात् । और जिसे वह अपने पुरुषाओंसे पाता है और सन्तानको परब्रह्म यदायत्तमामनंति मुनीश्वराः ॥ १२८॥ देता है। ऋग्वेदमें अग्निको गृहपति कहा है। गृहपतिसे नैणाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः । ही गार्हपत्य शब्द बना है । आहवनीय वह अमि यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात्।।१२९॥ है, जो गार्हपत्य अग्निमेंसे हवन या होमके वास्ते ली
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