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________________ अङ्क ११ ] इन तीनों प्रकारकी अनियोंमें इन मंत्रोंसे पूजा करता है वह ब्राह्मण कहलाता है और जिसके घर ऐसी पूजा नित्य होती है उसको आहिताग्नि अर्थात् अग्निहोत्री समझना चाहिए । नित्यपूजन करते समय इन तीनों अग्नियोंका नियोग हव्य के पकाने में, धूप खेने में और दीपकके जलाने में होता है । घरमें बड़े यत्नके साथ इन तीनों अग्नियोंकी रक्षा करनी चाहिए और जिनका संस्कार नहीं हुआ हैं ऐसे लोगों को यह अग्नि नहीं देनी चाहिए, अर्थात् शूद्र आदिका हाथ इन अग्नियोंको नहीं लगना चाहिए और जिन जैनियों के गर्भाधानादि संस्कार नहीं होते हैं उनके भी हाथ नहीं लगने देना चाहिए | अनि स्वयम् ब्राह्मणों की उत्पत्ति । जाती है । ' गार्हपत्यादुद्धृत्य होमार्थे यः संस्क्रियते सः। ' दक्षिणाग्नि वह है, जो दक्षिणकी तरफ रक्खी जाती है । इसे ' अन्वाहार्यपचन भी कहते हैं । पुरोहितको जो चढ़ावा दिया जाता है, वह अन्वाहार्य कहलाता हैं | सायणाचार्य कहते हैं- 'अन्वाहरति यज्ञसम्बन्धिदोषजातं परिहृरत्यनेन इत्यन्वाहार्यो नाम ऋत्विग्भ्यो देय ओदनः।' मनुस्मतिमें लिखा है कि पितृगणोंके मासिक श्राद्धको अन्वाहार्य कहते हैं-' पितॄणा मासिकं श्राद्धमन्वाहार्ये विदुर्बुधाः । ' अन्वाहार्य पचनका • अर्थ होता है, जो अन्वाहार्यमें काम आवे | सबका सारांश यह हुआ कि प्राचीन समयमें प्रत्येक घरमें अ बड़ी रक्षा के साथ रक्खी जाता थी और उसे गार्हपत्य कहते थे । उसमेंसे जो अग्नि होमके वास्ते जला ली जाती थी, वह आहवनीय कहलाती थी और पितृजनों के वास्ते नैवेद्य तेयार करनेके लिए जो जलाई जाती थी उसे दक्षिणाभि कहते थे । • आपटेने लिखा है कि आहवनीय पूर्वकी तरफ, गाईपत्य पश्चिमकी तरफ और तीसरी अन्वाहार्यपचन दक्षिणकी तरफ जलाई जाती थी। तीसरीका दक्षि णानि नाम दक्षिण की ओरं जलानेसे ही हुआ है । आदिपुराण में जो इन अभियोका तीर्थकर गणधरादिके साथ सम्बन्ध मिलाया है, वह बिलकुल असंगत जान पड़ता है । Jain Education International ४७५ पवित्र नहीं है और न कोई देवता ही है, किन्तु अरहंत देवकी मूर्तिकी पूजा के सम्बन्धसे वह पवित्र हो जाती है, इस लिए ही ब्राह्मण लोग इसे पूज्य मानकर पूजा करते हैं । निर्वाणक्षेत्रों की पूजा के समान अग्निकी पूजा करनेमें भी कोई दोष नहीं है । ब्राह्मणोंको व्यवहारनयकी अपेक्षासे ही अग्नि पूज्य है और जैन ब्राह्मणोंको अब यह व्यवहारनय अवश्य काममें लाना चाहिए: त्रयोऽग्नयः प्रणेयाः स्युः कर्मारंभे द्विजोत्तमैः । रत्नत्रितय संकल्पादनद्रमुकुटोद्भवाः ।। ८२ ॥ तीर्थगणभृच्छेष केवल्यंत्य महोत्सवे । पूजांगत्वं समासाद्य पवित्रत्वमुपागताः ॥ ८३ ॥ कुंडये प्रणेतव्यास्त्रय एते महाग्नयः । गार्हपत्याहवनीय दक्षिणाग्निप्रसिद्धयः ॥ ८ ॥ अस्मिन्नमित्रये पूजां मंत्रैः कुर्वन् द्विजोत्तमः । आहिताभिरिति ज्ञेयों नित्येज्या यस्य सद्मनि ॥ ८५ ॥ हविष्पाके च धूपे च दीपोद्बोधन संविधौ । बह्वीनां विनियोगः स्यादमीषां नित्यपूजने ॥ ८६ ॥ प्रयत्नेनाभिरक्ष्यं स्यादिदमनित्रयं गृहे । नैव दातव्यमन्येभ्यस्तेऽन्ये येस्युरसंस्कृताः ॥ ८७ ॥ न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवतारूपमेव वा । किंत्वर्हद्दिव्यमूर्ती ज्या संबंधात्पावनोऽनलः ॥ ८८ ॥ ततः पूजांगतामस्य मत्वाचेति द्विजोत्तमाः । निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजा तो न दुष्यति ॥ ८९ ॥ व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्ममिः ॥ ९० ॥ ! इन श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि, जैन ब्राह्मणोंको अग्निकी पूजा करनेका उपदेश देते समय उपदेशक महाशयको इस बातका पूरा खटका था कि यह उपदेश जैनसिद्धान्त के अनुकूल नहीं, किन्तु विपरीत है, इसी कारण उन्होंने अनेक बातें बनाकर जित तिस तरह अग्निपूजाका दोष हटाने की कोशिश की है और आखिर में यह समझाया है कि आजकल इस For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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