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________________ अङ्क ११] अलंकारोंसे उत्पन्न हुए देवी-देवता। ५११ अपने पतिकी गोदमें ऐसी मालूम होती थी वेशिताः ।' (८१)। स्थापिता वनलक्ष्म्येव मानों स्वर्ग-लक्ष्मी ही रूप धारण करके बैठी है- प्रपा भांतिमक्लच्छिदः ।' (८२)। 'पत्युरंकगता रेजे कल्पश्रीरिव रूपिणी ।' तपोलक्ष्मी । महाराज वज्रसेन तपोलक्ष्मीके ( पर्व ५, श्रो० २९०) । यहाँ लक्ष्मीके वास्ते. 'समागमसे बहुत सन्तुष्ट थे-'तपोलक्ष्मीसमाश्री शब्द आया है और स्वर्गलक्ष्मीका अर्थ संगाद्गुरुरस्याति पिप्रिये ।' (पर्व ११-५०) स्वर्गकी समस्त शोभा है । भगवानके जन्मा- धरणेन्द्रने भगवानके शरीरको तपोलक्ष्मीसे भिषेकके समय स्वर्गसे छोटी छोटी बँटोंके आलिंगित देखकर आश्चर्य किया-'वितिष्मिये साथ जो पुष्पवृष्टि हो रही थी वह ऐसी मालम तपोलमया परिरब्धमधीद्धया।' (प०१८,१०५) होती थी, मानों स्वर्गलक्ष्मीके आनन्दके आँस मोक्षलक्ष्मी। महाराज वज्रसेनने दीक्षा लेकर पड़ रहे हों-'मुक्तानन्दाश्रबिन्दूनां श्रेणीवत्रि- मोक्षलक्ष्मीको प्रसन्न किया- परिनिष्क्रम्य चक्रेसौ दिवश्रिया ।' (पर्व १३, श्लो० २०४)। पर्व मुक्तिलक्ष्मी प्रमोदिनीं । ' (११-४७ ) । भग६ में यशोधर तीर्थकरका कथन करते हुए वन, मुक्तिलक्ष्मी बहुत ही उत्सुक होकर आपमें लिखा है कि उस समय चारों तरफ पुष्पवृष्टि प्रेम रखती है-' त्वयि प्रणयमाधत्ते मुक्तिलक्ष्मीः हो रही थी और उन पुष्पों पर बैठे हुए. भ्रमर समुत्सुक।।' (१३-४६)। ऐसे मालूम होते थे, मानों भगवानके दर्शनके जयलक्ष्मी। वक्षःस्थल पर रहनेवाली लक्ष्मीलिए स्वर्गलक्ष्मीने अपने नेत्र भेजे हों-'स्वर्ग- के गृह तक ऊँचे पहुंचे हुए भगवानके दोनों लक्ष्म्येव तं द्रष्टुं प्रहिता नयनावली ।' (श्लो०८७), कन्धे ऐसे सुशोभित होते थे, मानों जयलक्ष्मीके . निवास करने योग्य दो ऊँची अटारी हों... वनलक्ष्मी । राजा वज्रजंघने जब वनमें 'जयलक्ष्मीकृतावासौ तुंगावट्टालिकाविव ।' डेरा डाला तब वहाँ कपड़ोंके बने हुए तम्बू । ऐसे जान पड़ते थे मानों वनलक्ष्मीने आगामी , (१५-१९)। जयलक्ष्मीने बड़े प्रेमसे भरतकी। होनेवाले तीर्थकरके लिए मन्दिर ही तैयार किये . भुजाओंकी अधीनता स्वीकार की थी ।-'जयश्री 4 भुजयोरस्य बबन्ध प्रेमनिघ्नतां ।' (१५-१९५)। हों-'क्लप्ता वर्त्यज्जिनस्यास्य वनश्रीभिरिवा वा- भगवानके पुत्रोंकी छाती लक्ष्मी द्वारा आलिंगित लयाः।' (पर्व ८, श्लो० १६१)। पर्व २७ थी और उनके कंधे विजयलक्ष्मीसे आलिंगन में लिखा है कि अपनी पूंछका भार धारण किये हए थे । 'वक्षो लक्ष्म्या परिष्वक्तमसौ च करता हुआ यह मोरं इस प्रकार धीरे धीरे चल १ विजयश्रिया ।' (१६-३९)। रहा है, मानों अपनी पूंछके द्वारा वनलक्ष्मीके केशपाशकी. ही शोभाको बढ़ा रहा है-'कलापी शरल्लक्ष्मी । शरतऋतुरूपी लक्ष्मी बड़ी भली ' बहभारेण मन्दं मन्दं ब्रजत्यसौ । केशपासश्रियं मालूम होती थी; नीलकमल उसके नेत्र और तन्वन्वनलक्ष्यास्तनूरुहैः । (श्लोक ७५) । सफेद कमल उसका मुख था।-'नीलोत्पलेक्षणा इसी वनकी शोभामें लिखा है कि वनके घने रेजे शरच्छ्री पंकजानना।' (२६-१२ )। वृक्ष ऐसे जान पड़ते थे, मानों वनलक्ष्मीने मण्डप वीरलक्ष्मी । इन्द्रकी भुजाओं पर नाचती बनाये हों और छोटे छोटे सरोवर ऐसे जान हुई देवांगनायें वीरलक्ष्मियोंके समान जान पड़ती पड़ते थे, मानों वनलक्ष्मीने प्रपा या प्याऊ ही थीं।-'अध्यासीना भुजानस्य वीरसौम्य इवाबिठाई हो-'त्वद्भक्त्यै वनलक्ष्म्येव मंडपा विनि- पराः । (१४-१४०)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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