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________________ जैनहितैषी [भाग १३ तस्मिलक्ष्मीसरस्वत्योरतिवालभ्यमाश्रिते। ये छहों शब्द स्त्रीलिंग हैं, इस कारण आलंकारिक ईर्षयेवाभजकीर्तिदिगंतान्विधुनिर्मला ॥ ३४ ॥ वर्णनोंमें इन्हें स्त्रीका रूप दिया गया है। पृथक् आगे पर्व १५ में लिखा है कि भगवान् पृथक् छः स्त्री मानकर ही इनका कथन किया आदिनाथकी बुद्धि और कल्पान्त कालतक रहजाता है । जैसा कि आदिनाथ भगवानकी नेवाली कीर्ति, ये दो ही प्यारी स्त्रियाँ थी; लक्ष्मीमाताके विषयमें लिखा है कि श्री, ह्री, धृति, पर उनका बहुत कम प्रेम था । क्योंकि वह कीर्ति, बुद्धि, और लक्ष्मी ये छः देवियाँ अपने बिजली के समान चंचल होती है:अपने गुणोंसे माताकी सेवा करने लगीं। श्रीने सरस्वती प्रियास्यासीत्कीर्तिश्चाकल्पवर्तिनी.. शोभा बढ़ाई, ह्रीने लज्जा बढ़ाई, धृतिने धीरज लक्ष्मीतडिल्लतालोलं मन्दप्रेम्णैव सोबहत् ॥ ४८ ॥ बढ़ाया, कीर्तिने यश फैलाया बुद्धिने बोध इसी प्रकार पर्व ३१ में भरतजीकी स्तुति दिया, और लक्ष्मीने विभाति बढ़ाई । इस सेवा करते हुए लिखा है कि आपकी कीर्ति निरंकुश संस्कारसे माता ऐसी सुशोभित होने लगी जैसे होकर सारे लोकमें अकेली फिरा करती है और आग्निके संस्कारसे मणिः सरस्वती वाचाल है, न जाने स्वामिन् , आपको श्रीह्रीधृतिश्च कीर्तिश्च बुद्धिलक्ष्म्यौ च देवताः। ... ये दोनो स्त्रियाँ क्यों प्यारी हो रही है:श्रियं लज्जां च धर्य च स्तुति बोधं च वैभवम् ॥ भ्रमत्येकाकिनी लोकं शश्वतकीर्तिरनर्गला। तस्यामादधुरभ्यर्णवर्तिन्यः स्वानिमान् गुणान् । सरस्वती च वाचाला कथं ते ते प्रिये प्रभो १०६ तत्संस्काराचसा रंजे संस्कृतेवामिना माणः ॥१७१॥ यद्यपि श्रीका अर्थ शोभा और लक्ष्मीका -आदिपुराण पर्व १२ । अर्थ विभूति होता है; परंतु श्रीका अर्थ भी आदिपराणमें इसी प्रकार और भी अनेक लक्ष्मी होता है, इस कारण इन दोनों शब्दांका महान् पुरुषोंक वैभव, ज्ञान और यशको प्रशंसा एकार्थवाची मानकर आदिपुराणमें लक्ष्मीको इन तीनों विशेषणोंको तीन स्त्री मानकर और भी प्रायः शोभा या सन्दरताके अर्थमें व्यवहृत उनका लक्ष्मी, सरस्वती और कीर्ति नाम रखकर किया है और उसे स्त्री मानकर उसके अनेक की गई है। वज्रहन्त चक्रवर्तीके विषयमें पर्व रूपक बनाये हैं । जैसे राज्यलक्ष्मी, स्वर्गलक्ष्मा, में लिखा है कि वह लक्ष्मीको तो छाती पर वनलक्ष्मी. तपोलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, शरल्लक्ष्मा धारण करता था और सरस्वतीको मुखकमलमें, आदि । परन्तु अतिशय प्यारी कीर्तिको उसने अकेली ही राज्यलक्ष्मी । राजपुत्र वज्रजंघकी प्रशंसामें लोकके अन्ततक भेज दिया थाः लिखा है कि वह राज्यलक्ष्मीके कटाक्षोंका स बिभ्रद्वक्षसा लक्ष्मी बक्त्राब्जेन चा वाग्बधूं। निशाना बन गया था:- राज्यलक्ष्मीकटाक्षाणां प्राणाय्यामिव लोकान्तं प्राहिणोत्कीर्तिमेकिका २०० लक्ष्यतामगमत्कृती।' (पर्व ६, श्लो० ४५) । आगे पर्व ११ में वज्रनाभिके विषयमें लिखा आगे वज्रनाभिकी प्रशंसामें लिखा है कि वे है कि लक्ष्मी और सरस्वती उससे बहुत ही राज्यलक्ष्मी के समागमसे सन्तुष्ट थे-' राज्यलक्ष्मीज्यादा प्रेम करती थीं, यह देखकर उसकी कीर्ति परिष्वंगाद्वज्रनाभिस्तुतोष सः ।' (पर्व ११, ईर्षावश की गई थी-दिगन्तव्यापिनी हो श्लो० ५०)। . गई थी: स्वर्गलक्ष्मी । ललितांग देवकी देवी स्वयंप्रभा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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