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________________ ५१२ . जैनहितैषी- भाग १३ इस प्रकार अनेक विशेषणोंको स्त्रीका या सूता यया लक्ष्मीसमद्युतिः । (७-२५९) । लक्ष्मीका रूप देते हुए संसारकी सारी ही शोभा- नाभिराजा मरुदेवीको रूप और लावण्यमें लक्ष्मीके ओंको समुच्चयरूप लक्ष्मीका रूप दे दिया गया समान मानते थे ।- रूपलावण्यसम्पत्या पत्या है और होते होते वह सुन्दरताकी एक आलं- श्रीरिव सा मता।' (१२-६३) । भगकारिक देवी बन गई है। वानके समीप बैठी हुई उनकी स्त्री ऐसी शोभती १. पर्व १४ वें में लिखा है कि इन्द्रकी थी मानों साक्षात् लक्ष्मी ही हो । लक्ष्मीरिव रुचिं भुजाओं पर नाचती हुई देवांगनायें ऐसी मालूम भेजे भर्तुरभ्यर्णवर्तिनी । (१५-१२१) इस प्रकार शोभा या सुन्दरता एक देवी होती थीं मानों अनेक शरीर धारण कर मूर्ति मान ली गई। इसके बाद अब उसके लिए मान लक्ष्मी ही नृत्य कर रही हो । ' रेजिरे परि और और भी तैयारियाँ हुई। उसके स्नानघर, नृत्यन्तो मूर्तिमन्ता इव श्रियः । ( ३९) । इसमें शोभाको ही लक्ष्मी बनाया है। खेलनेके स्थान आदि भी कल्पित किये गये । उसकी विशाल छाती हारकी किरणोंके 2. २. उसके पैरोंमें शंख चक्र आदि शुभ लक्षण जलसे भरी हुई ऐसी मालम होती थी, मानों ऐसे सोहते थे, मानों लक्ष्मीने ही ये सब लक्षण लक्ष्मीके स्नान करनेका धारागृह ही हो। 'पृथुअंकित किये हॉ- शंखचक्रांकुशादीनि लक्ष- वक्षो बभारासौ हाररोचिर्जलप्लवं, धारागृहमिवादार णान्यस्य पादयोः । बभुरालिखितानीव लक्ष्म्या लक्ष्म्या निर्वापणं परं ।' (४-१८०)। राजा लक्ष्माणि चक्रिणः ।। (६-१९८)। इसमें लक्ष्मी महाबलका ऊँचा और विस्तीर्ण ललाट ऐसा शोभाकी एक अधिकारिणी देवी बन गई है। मालूम होता था, मानों लक्ष्मीके विश्रामके लिए ३. भगवानकी दोनों जंघायें ऐसी कान्तियुक्त सुवर्णमय शिलातल ही हो। 'लक्ष्म्या विश्राथीं मानों स्वयं लक्ष्मीने ही उनको उबटन मलकर न्तये कृप्तमिव हैमं शिलातलं ।' ('४-१७४)। उज्ज्वल किया हो-' लक्ष्म्येवोद्वर्तिते भर्तुः परां उसके दोनों कन्धे लक्ष्मीके विहार करनेके कान्तिमवापतां ।। (१५-२५)। क्रीडापर्वत सरीखे मालूम होते थे। 'क्रीडा द्रिरुचिरौ लक्ष्म्या विहारायेव निर्मितौ ।' ४. बाहूबलिके दोनों उरु ऐसे मालूम होते थे, मानों वे लक्ष्मीकी हथेली के बार बार स्पर्श (४-१४१)। उसकी छाती पर लटकती हुई हारवल्लरी लक्ष्मीदेवीके झूलनेकी रस्सी जैसी होनेसे ही बहुत उज्ज्वल हो गये हों-- लक्ष्मी मालूम होती थी। 'लक्ष्मीदेव्या इवान्दोलनवल्लरी तलाजस्रस्पर्शादिव समुज्ज्वलौ।' (२६-२०)। " ( १५-१९४) । इसमें लक्ष्मीके इस प्रकार शोभा या सुन्दरताको एक स्त्रीका साथ देवी विशेषण भी स्पष्ट रूपसे लगा दिया रूपक देकर और उसका नाम श्री या लक्ष्मी रखते गया है । भगवानके उरु लक्ष्मीदेवीके झूलेके रखते मनुष्योंकी सुन्दरताके वर्णनमें उसकी खंभोंके समान मालूम होते थे। लक्ष्मीदेव्या उपमा भी दी जाने लगी। यथा-पर्व ६ श्लोक ५९ इवान्दोलस्तंभयुग्मकमुच्चकः । ' (१५-२४)। में वजदन्तकी रानीको लक्ष्मीके समान सुन्दर भरतका ऊँचा और गोल सिर विधाताके बनाये बतलाया है।-' लक्ष्मीरिवास्यकान्तांगी लक्ष्मीम- हुए लक्ष्मीके दिव्य छत्रके समान जान पड़ता तिरभूत्प्रिया।' वज्रदन्तकी कन्याको भी लक्ष्मीके था।' धात्रा निवेशितं दिव्यमातपत्रमिव समान कान्तियुक्त लिखा है- सत्प्रसूतिरियं श्रियः।' (१५-१७४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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