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________________ ४८० जैनहितैषी - भी रद्द करके उसही स्त्रीके साथ दोबारा विवाह करनेका उपदेश है, जिसका कथन आगे आवेगा । ) अब वह देवपूजा आदि षट्कर्म करने लगता है और अपना गोत्र और जाति आदि भी बदल लेता है । यथा: -- जैनोपासक दीक्षा स्यात्समयः समयोचितं । दधतो गोत्रजात्यादि नामांतरमतः परं ॥ ५६ ॥ —पर्व ३९ । वह उसका गोत्र और जाति आदि भी बदल देने का मतलब यह मालूम होता है कि, फिर अपनी पहली ब्राह्मण जातिमें न मिल सके और दो चार पीढ़ी बीत जाने पर इस बातका कुछ भी पता न चल सके कि वह पहले कौन था । फिर वह उपासकाध्ययन सूत्रको पढ़े, जिसमें श्रावकोंकी क्रियायें वर्णन की गई हैं । इसके पढ़ चुकनेके बाद वह गृहस्थ होता है ( इससे भी सिद्ध है कि वह ब्राह्मण ही है, जिसको इस प्रकार जैनी बनाया जा रहा है; क्योंकि धर्म - क्रियाओंको सीखनेके पीछे गृहस्थ होना यह ब्राह्मणका ही कार्य हो सकता है अन्यका नहीं । अन्य वर्णवालोंको तो अपने अपने वर्णका काम सीखने के बाद गृहस्थ होना चाहिए। ) फिर वह अपनी स्त्रीको भी.समझा बुझाकर श्राविका बनाता है और उससे जैनधर्म के संस्कारों के अनुसार दोबारा विवाह करता है। (जैनधर्मके नवीन बनाये हुए संस्कारोंका प्रभाव बढ़ाने के वास्ते ही दोबारा विवाह करनेका तरीका निकाला गया होगा । ) अर्थात् मिथ्यात्व अवस्थामें इसका जो विवाह हुआ था वह रद्द करके उसी स्त्रीके साथ जैन मंत्रों और क्रियाओंके द्वारा फिर विवाह करता है । फिर वह भव्य पुरुष ऐसे श्रावकों के साथजिनको वर्णलाभ हो चुका है और जो समान जीविका करनेवाले हैं - सम्बन्ध जोड़नेके वास्ते चार मुखिया श्रावकोंको बुलाकर अर्थात् Jain Education International + [ भाग १४ पंचोंको इकट्ठा करके प्रार्थना करे कि आप मुझको भी अपने समान करके मेरा उपकार करें, और कहे कि आप संसारसे पार करनेवाले देव ब्राह्मण हैं और संसारमें पूज्य हैं, आपकी कृपासे अब मुझको भी वर्णलाभ होना चाहिए । उसकी ऐसी प्रार्थना पर वे लोग कहें कि बहुत अच्छा, जिस तरह आपने कहा है वैसे ही होगा; क्योंकि आप सर्व प्रकार प्रशंसा के योग्य हैं । अन्य कोई द्विज ( ब्राह्मण ) आपकी क्या बराबरी सकता है ? आप जैसे पुरुषोंके न मिलने पर हम लोगों को समान जीविका करनेवाले मिथ्यादृष्टिय के साथ ही सम्बन्ध करना पड़ता था। इस प्रकार उसको वर्णलाभ हो जाता है, अर्थात् वह भी उन लोगों में मिल जाता है । कोई भी संदेह नहीं रहता है कि यह दीक्षान्वय क्रिया इस वर्णलाभ क्रिया के पढ़नेसे इस विषय में वैदिक ब्राह्मणों को ही जैनी ब्राह्मण बनाने के वास्ते वर्णन की गई है। क्योंकि वह नवीन जैनी जिनसे अपने शामिल कर लेनेकी प्रार्थना करता है, जैनी ब्राह्मण ही होने चाहिए, न कि साधारण जैनी । तभी तो वह उनसे यह कहता है कि आप संसारसे पार करनेवाले देव ब्राह्मण हैं और संसारमें पूज्य हैं । और स्वयम् भी वह जैन ब्राह्मण ही बना हो न कि साधारण जैनी, तब ही तो वह उनसे प्रार्थना कर सकता है कि कृपा करके मुझको भी आप अपने जैसा ही बना लीजिए, और तब ही तो वे लोग उससे कहेंगे कि अन्य द्विज अर्थात् और कोई ब्राह्मण तेरी बराबरी क्या कर सकते हैं ? देवब्राह्मण जिनसे वह अपनेको शामिल कर लेने की प्रार्थना करता है ऐसे ही होने चाहिए जो अन्यमतसे ही जैनी हुए हों। तब ही तो यह लिखा गया है कि वह नवीन जैनी ऐसे, श्रावकोंके साथ सम्बन्ध करनेके वास्ते, जिनको वर्णलाभ हो चुका है, इस प्रकार वर्णलाभ करनेकी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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