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________________ अङ्क ११ ] भगवानके दीक्षा लेने के एक वर्ष पीछे, अर्थात् ब्राह्मणवर्णकी स्थापना लगभग ६० हजार वर्ष पहले भी ब्राह्मणवर्ण था और श्रेयांसका पुरोहित उसी वर्णका था । ब्राह्मणों की उत्पत्ति । २. भरतमहाराज के दरबार के रत्नोंमें एक रत्न पुरोहित भी था, जिसका नाम बुद्धिसागर था । लिखा है कि सारी धर्मक्रियायें और देव सम्बन्धी इलाज उसके अधीन थे और वह बड़ा भारी विद्वान् था । यथा: - बुद्धिसागर नामास्य पुरोधाः पुरुधीरभूत् । धर्म्या क्रिया यदायत्ता प्रतीकारोऽपि दैविके ॥१७५॥ - पर्व ३७ । इससे मालूम होता है कि भरतमहाराजकी सारी धर्मक्रियायें यही करता कराता था । यह अयोध्यानगर में ही पैदा हुआ था और भरत महाराजकी दिग्विजय में बराबर साथ रहा है। ' प्रतीकारोऽपि दैविके ' पदसे जान पड़ता है कि वह देवोंके वश करनेमें निपुण था, अर्थात् मंत्रसिद्धि आदिके कार्य भी करता था । २२ वें पर्वके ४५-५५ श्लोकोंमें लिखा है कि दिग्विजयके शुरू में ही जब भरतजी लवणसमुके किनारे पहुँचे तब मागधदेवको जीतने के लिए उन्होंने उपवास किया, मंत्रतंत्रोंसे हाथयारोंका संस्कार किया और अनेक क्रियायें करके पुरोहितके सामने पंचपरमेष्ठीका पूजन किया ।“ पुरोधोऽधिष्ठितः पूजां स व्यधात्परमेष्ठिनां । ' आगे रोहित भरतो मंगल आशीर्वाद दिया है और उनकी विजयकामना की है । इसके बाद सिन्धुनदीके, संगम स्थलके देवको जीतने के समय तो स्पष्ट ही लिख दिया गया है समस्त विधिविधान के जाननेवाले पुरोहितने मंत्रोंके द्वारा विधिपूर्वक जिनेन्द्रदेकी पूजा की और फिर गन्धोदक मिश्रित शेषाक्षतोंसे चक्रवर्तीको पुण्याशीर्वाद दिया । इन सब बातों से खूब अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि ३-४ Jain Education International ४८५ भरतजीका पुरोहित जैन ब्राह्मण ही था और उन्हींके सदृश जैन ब्राह्मण था जिनका इस कथन के ६० हजार वर्ष पीछे भरतजी द्वारा बनाया जाना बतलाया जाता है । भोभूमिकी रीति समाप्त होने पर भगवानने विचार किया कि पूर्व और पश्चिम विदेहमें जो स्थिति वर्तमान है, प्रजा अब, उसीसे जीवित रह सकती है । वहाँ पर जिस प्रकार षट्कर्मों की और वर्णाश्रम आदि की स्थिति है, वैसी ही यहाँ होनी चाहिए । इन्हीं उपायोंसे इनकी आजीविका चल सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है । इसके बाद इन्द्रने भगवानकी इच्छाके अनुसार नगर, ग्राम, देश आदि बसाये और भगवानने प्रजाको छह कर्म सिखलाकर क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की । ( देखो पर्व १२, श्लोक १४२ - ९० 1 ) इससे मालूम होता है कि विदेहों में तीन ही वर्ण हैं। क्योंकि भगवानने युगकी आदि में पूर्व पश्चिम विदेहों के अनुसार ही प्रबन्ध किया था, और प्रजाको तीन वर्णों में विभाजित किया था । यदि विदेहोंमें ब्राह्मण वर्ण भी होता तो भगवान् यहाँ भी उसे रचते । इससे सिद्ध है कि ब्राह्मण वर्णकी स्थापना दुनियासे निराली और बिलकुल. गैरज़रूरी बात थी । यदि ब्राह्मणवर्णी कामका होता, तो विदेहों में वह भी अवश्य होता । भरत महाराजके द्वारा इसकी स्थापना के धार्मिक आवश्यकता के लिए बतलाई जाती है, न कि किसी लौकिक सिद्धि के लिए, और विदेह क्षेत्रों में सर्वदा ही चौथा काल रहता है, अतएव ऐसी कोई धार्मिक प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती जो विदेहों में न हो। इससे मानना पड़ेगा कि यदि भरतके द्वारा ब्राह्मणवर्णकी स्थापना होनेकी बात सत्य है तो उन्होंने चौथे कालकी रीतिको उल्लंघन करके व्यर्थ ही इसे बनाया, अथवा यह कहना होगा कि इस वर्णकी स्थापना चौथे For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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