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जैनहितैषी
[भाग १३
- देखो पहला लेख) ओर इसी प्रकार अन्यवर्गों के युगकी आदिमें भगवानने उस समयके लोगोंको वास्ते यह बात बनानी पड़ी है कि भगवान्ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्गों में विभाजित करके अपने दोनों हाथोंमें शस्त्र धारण करके क्षत्रि- और उनको पृथक् पृथक् कार्य सिखलाकर योंकी रचना की, क्योंकि जो हाथमें शस्त्र लेकर कर्मभूमिकी प्रथा चलाई । (देखो पर्व १६ दूसरोंकी रक्षा करे वही क्षत्री है, फिर भगवानने श्लोक २४३-४५ ) इससे आगे २४६ वें अपने उरुओंसे यात्रा करना अर्थात् परदेश श्लोकमें यह भविष्यवाणी की गई है कि चौथा जाना दिखलाकर वैश्योंकी सृष्टि की, क्योंकि जल- ब्राह्मण वर्ण भरत बनावेगा । पढ़ना पढ़ना, दान स्थल यात्रा करके व्यापार करना ही वैश्योंकी देना लेना और पजन करना कराना इस वर्णकी मुख्य आजीविका है और नीच कामोंमें तत्पर आजीविका होगी। रहनेवाले शूद्रोंकी रचना भगवानने अपने पैरोंसे
___ आदि पुराणके उक्त कथनका आशय यही की, क्यों कि उत्तम वर्णवालोंकी शुश्रूषा करना ,
' है कि भगवानके कैवल्यके ६० हजार वर्ष बादआदि शूद्रोंकी आजीविका है:- .
तक इस देशमें ब्राह्मणवर्णका नाम भी नहीं था, स्वदोभ्यो धारणे शस्त्रं क्षत्रियानसृजद्विभुः।
, परन्तु इसी ग्रन्थकी कई कथाओंसे इस बातका क्षतत्राणे नियुक्ता हि क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः।२४३।
खण्डन होता है। उरूभ्या दर्शयन्यात्रामस्राक्षीद्वणिजः प्रभुः। जलस्थलादियात्राभिस्तवृत्तितिया यतः।।२४४ . १. आदिनाथ भगवान दीक्षा लेनेके एक वर्ष न्यग्वृत्तिनियतान् शूद्रान् पद्भ्यामेवासृजत्सुधीः। बाद जब चर्या करते हुए हास्तिनापुर पहुंचे हैं, बर्णोत्तमेषु शुश्रूषा तवृत्ति कधा स्मृता ॥२४५ ॥ तब श्रेयांस राजाको कुछ स्वप्न आये थे और
। उनका फल उनके निमित्तज्ञानी पुरोहितने बतलाया
__था। स्वप्नोंके फल बतलानेके लिए और भी गरज कहाँ तक कहाँ जाय जैन ब्राह्मण कई स्थानों में परोहितोंसे निवेदन किया गया बनानेके लिए जैनधर्ममें हिन्दूधर्मकी बीसौं बात है। अब यह देखना चाहिए कि ये किस वर्णके शामिल कर दी गई और जैनधर्मका ढाँचा ही होते थे। ब्राह्मणेतर तीन वर्षों के तो ये हो नहीं बदल दिया गया।
सकते। क्योंकि इन तीन वर्गों के जो लक्षण * * * * उक्त ग्रन्थको मान्य हैं वे उक्त पुराहितोंमें घटित
आदिपुराणके कथनानुसार आदिनाथ भग- नहीं हो सकते । अतः ये ब्राह्मण वर्णके ही थे वानको केवलज्ञान. होनेके पश्चात् भरत महाराज और पर्व १६ के २४६ वें श्लोकमें ब्राह्मणोंके दिग्विजयको निकले थे । इस दिग्विजयमें उन्हें कर्मोंसे इनके कर्म बराबर मिलते हैं । आजकल ६० हजार वर्ष लगे थे और उन्होंने इस विजय- भी ब्राह्मण वर्णके ही पुरोहित होते हैं । गरज यात्राके बाद ही ब्राह्मणवर्णकी स्थापना की यह कि राजा श्रेयांसका पुरोहित ब्राह्मण ही था, थी । अर्थात् भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न और जैन ब्राह्मण था। क्योंकि उसने स्वप्नोंका होनेके ६० हजार वर्ष पीछे ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति फल बतलाते हुए कहा था कि आज श्रीभगवान् हुई है । ( देखो पर्व २४ श्लोक २, पर्व २६ णापके घर आयेंगे और उनकी योग्य विनय करश्लोक १-५, और पर्व ३८ श्लोक ३ से २३ नेसे बड़ा भारी पुण्य प्राप्त होगा । (देखो पर्व २० तक । ) आदिपुराणमें यह भी लिखा है कि श्लोक ३९-४३ । ) इससे सिद्ध होता है कि
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