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अङ्क ११ ]
न यह आज्ञा ही दी; क्योंकि अव्वल तो आदिपुराणमें ही ऐसा नहीं लिखा, वरन् आदिपुराण में तो ये दोनों श्लोक बिलकुल उधारेसे ही रक्खे हुए मालूम होते हैं । इसके सिवाय यदि श्रीभगवानकी तरफ से यह बताया जाता कि चौथा वर्ण ब्राह्मणका भरत द्वारा स्थापन होगा और इसी कारण उस वर्णकी बाबत विवाहका नियम भी पहले से ही बता दिया गया होता, तो सबं प्रजाको और विशेष कर भरतमहाराजको इसकी खबर जरूर होती, परन्तु ऐसा होनेकी अवस्था में ब्राह्मण वर्ण स्थापन करनेके पश्चात् सोलह स्वन आने पर न तो भरतमहाराजो कोई घबराहट ही होती और न वे समवसरण में जाकर श्रीभगवान से ही यह कहते कि मैंने आपके होते हुए ब्राह्मणवर्ण बनाकर बड़ी मूर्खताका काम कर डाला है, कार्य योग्य हुआ है या अयोग्य, चिन्तामें मेरा मन डावांडोल हो रहा है, आप कृपाकर मेरे मनको स्थिर कीजिए । और इसका उत्तर भी श्रीभगवान् वह न देते जो आदिपुराण में लिखा गया है, अर्थात् वे यह न कहते कि तूने जो द्विजोंका सम्मान किया है उसमें अमुक दोष है, किन्तु यही कहते कि हम तो पहले ही कह चुके थे कि तुम्हारे द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापना होगी और हम तो इन ब्राह्मणों के विवाहका नियम भी पहले ही बता चुके हैं ।
ब्राह्मणों की उत्पत्ति |
यह
इस
विश्वस्य धर्मसर्गस्य त्वयि साक्षात्प्रणेतरि । स्थिते मयाऽतिबालिश्यादिदमाचरितं विभो ॥ ३२॥ दोषः कोऽत्र गुणः कोऽत्र किमेतत्सांप्रतं न वा । दोलायमानमिति मे मनः स्थापय निश्चितौ ॥ ३३ ॥
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साधुवत्सत्कृतं साधु धार्मिकद्विजपूजनं । किन्तु दोषानुषंगोऽत्र कोऽप्यस्ति स निशम्यतां ४५ —पर्व ४१ । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि ये दोनों श्लोक वैसे
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ही अप्रमाण हैं, जैसा कि भरत महाराजके द्वारा ब्राह्मण वर्ण स्थापन होनेका कथन ।
विवाह के सम्बंध में ब्राह्मणों के यहाँ बिलकुल यही नियम है जो उक्त श्लोक २४७ में वर्णन किया गया है । इससे मालूम होता है कि गया है, बल्कि इससे भी ज्यादा यह मालूम विवाहका यह नियम भी उन्हींसे उधार लिया होता है कि वेदपाठी ब्राह्मणोंको जैनी बनाने से उनके अनेक रीतिरिवाजों, सिद्धांतों और देवताओंको स्वीकार करते हुए जैनियोंको क्षत्री, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण भी ब्राह्मण वर्णको माननेके कारण ही मानने पड़े हैं, तबही तो जैनकथाग्रन्थों में इन वर्णोंके वे ही लक्षण माने गये हैं, जो वैदिक शास्त्रों में वर्णित हैं ।
ब्राह्मणका सिद्धान्त है कि यह सारी सृष्टि ब्रह्मा के द्वारा सजी गई है । इ अलंकारके तौर पर इस तरह वर्णन करते हैं कि, ब्राह्मण उसकी सृष्टिके मुख हैं, क्षत्री भुजा हैं, वैश्य घड़ हैं और शूद्र पैर हैं; और इसीको वे कभी कभी इस रूपमें भी वर्णन कर देते हैं कि. बाह्मण ब्रह्मा के मुखसे उत्पन्न हुए हैं, क्षत्री भुजासे, वैश्य घड़से और शुद्र पैरोंसे । शोक है कि कुछ ब्राह्मणोंको जैनी ब्राह्मण बनाने के कारण उनके ऐसे ऐसे सिद्धान्त भी जैनधर्ममें शामिल हो गये और सबसे ज्यादा शोक इस बातका है कि उनके अलंकारोंने जैनधर्ममें आकर वास्तविक "रूप धारण कर लिया । तबही तो आदिपुराण में बार बार श्रीआदिनाथ भगवानको ब्रह्मा सिद्ध किया गया है और उनका यह सिद्धान्त स्वीकार करके कि जो ब्रह्मा के मुखसे उत्पन्न हो वही ब्राह्मण है इस बात के सिद्ध करनेकी बारबार कोशिश की गई है कि तीर्थकर भगवानकी वाणीको स्वीकार करनेसे जैनी ब्राह्मण ब्रह्मा के ही मुखसे उत्पन्न हुए हैं ( इसके वास्ते
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