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________________ ક૭૮ जैनहितषी [भाग १४ इस कारण उनको हिन्दुओंकी :ही सब क्रियायें तान्प्राहुरक्षरम्लेच्छा येऽमी वेदोपजीविनः । सिखा दी गई थीं; साथ ही यह भी मालूम अधर्माक्षरसम्पाठर्लोकव्यामोहकारिणः ॥१८२॥ होता है कि दक्षिण देशमें जैनराजाओंके सम हमारे इस विचारकी सिद्धि पर्व ३९ में वर्णित यमें वेदपाठी ब्राह्मणोंमेंसे ही कुछ लोगोंको दीक्षान्वय क्रियाके पढ़नेसे और भी अच्छी तरह हो फुसलाकर जैनी बना लिया गया था, उनकी जाती है । यद्यपि इस क्रियाका उपदेश भरत वृत्ति, अधिकार और क्रिया आदि पहली ही महाराजने तमाम अन्य मतियोंको जैनी बनाकायम रखकर उनका नाम जैन ब्राह्मण रख नेके वास्ते ब्राह्मण वर्णकी स्थापनाके दिन अपन लिया गया था, और यह प्रसिद्ध कर दिया गया . बनाये हुए ब्राह्मणोंको दिया है, परन्तु जब इस था कि चौथे कालमें तो सब ही ब्राह्मण जैनी थे जिनको 'श्रीआदिनाथके समयमें अर्थात् उपदेशको आधिक गौरके साथ पढ़ा जाता है तो ए मालूम होता है कि सभी जातिके लोगोंको जैनी युगकी आदिमें भरत महाराजने स्वयं पूजकर 1 बनानेके वास्ते नहीं; किन्तु वेदके माननेवाले और दान आदि देकर ब्राह्मण माना था, किन्तु ब्राह्मणोंको ही जैनी ब्राह्मण बनानेके वास्ते यह पंचम कालमें ये लोग भ्रष्ट होकर वेदके मानने क्रिया वर्णन की गई है। वाले हो गये हैं। अर्थात् जैनब्राह्मण बननेसे ये लोग कोई नवीन पंथ या नवीन मार्ग ग्रहण सारांश इस दीक्षान्वय क्रियाका इस प्रकार नहीं करते हैं, किन्तु अपना प्राचीन धर्म अंगी- है कि जब कोई मिथ्यादृष्टि जैन धर्मको स्वीकार करते हैं। कार करना चाहे तब वह मुनिमहाराज या . गृहस्थाचार्यके पास आकर प्रार्थना करे कि, मुझे हमारे इस विचारकी पुष्टि आदिपुराणके , एक सच्चे धर्मका उपदेश दो, क्यों कि अन्य मतके उस कथनसे होती है, जहाँ जैनराजाओंको , का सिद्धान्त मुझे दूषित मालूम होते हैं। धर्मउपदेश देते हुए कहा है कि प्रजाको दुःख देने- क्रियाओंके करने में जो श्रुति अर्थात् वेदके वाक्य वाले अक्षरम्लेच्छ अपने आसपास जो हों उनको माने जाते हैं वे भी ठीक मालूम नहीं होते हैं, उनकी कुलशुद्धि आदि करके अपने वशमं कर टप लोगोंके बनाये हुए ही प्रतीत होते हैं। (दुनिलेना चाहिये । राजासे इस प्रकार आदरसत्कार या अनेक मिथ्यामत प्रचलित हैं। हिन्दुस्तानमें पाकर वे लोग फिर उपद्रव नहीं करेगे। यदि इस भी बौद्ध, नास्तिक आदि अनेक मत प्रचलित थे। प्रकार उनका आदरसत्कार नहीं किया जावेगा नास्तिकोंका खंडन आदिपुराणमें ही कई स्थानों तो वे रातदिन उपद्रव करते रहेंगे, और साथ ही , पर किया गया है; परंतु यहाँ पर प्रार्थना करनेवाला इसके यह भी बताया है कि वेदपाठी ब्राह्मणोंको र ' केवल एक वेदमतंकी ही निन्दा करता हुआ ही अक्षरम्लेच्छ कहते हैं। अर्थात् वेदपाठी ब्राह्म- . 1- आता है, जिससे जान पड़ता है कि यह दीक्षाणोंका कुल शुद्ध करके उनको अपनेमें मिलाकर , र न्वय क्रिया वेदके माननेवालोंको ही जैनी उनका आदरसत्कार करना चाहिए: बनानेके वास्ते है। (प्रार्थना कर चुकने पर उसको प्रदेशे वाक्षरम्लेच्छान्प्रजाबाधाविधायिनः। समझाना चाहिए कि आप्तवचन ही मानने योग्य कुलशुद्धिप्रदानाद्यैः स्वसाकुर्यादुपक्रमः ।। १७९ ॥ होता है और श्रीअरहंत भगवान ही आप्त हैं। विक्रियां न भजत्येते प्रभुणा कृतसक्रियाः। अरहंतके मतमें शास्त्रों, मंत्रों और क्रियाओंका प्रभोरलब्धसम्माना विक्रियते हि 'तेन्वहं ॥ १८० ॥ बहुत अच्छी तरह निरूपण किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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