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अङ्क ११)
ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति।
यथा-अर्हन्मातुः शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य दृष्टि आदि पद लगाकर वा कुछ काट-तराशकर शरणं प्रपद्यामि (पर्व ४० श्लोक २७-२८)। स्वीकार कर लिया है; किन्तु इन जैन ब्राह्मणोंकी इसी प्रकार आज्ञा दी है कि भगवान्की पूजा- पूजा भी श्रीजिनेंद्रदेवकी पूजाके समान करके साथ ग्रामपतिकी भी पूजा करे, इन्द्रक नेकी आज्ञा दे डाली है । जैनधर्ममें देव, गुरु खजानची कुबेरकी भी पूजा करे । यथा-ग्राम- और शास्त्रकी पूजाकी जाती है; किन्तु वैदिक पतये स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते वै- धर्ममें देव, गुरु और ब्राह्मणकी पूजा मानी गई श्रवण वैश्रवण स्वाहा, (पर्व ४०,श्लोक ३३,३६)। है; जैसा कि पर्व ३८ के श्लोक १११ से-जो इसी प्रकार भूपति, नगरपति, और कालश्रमण ऊपर उद्धृत है-सिद्ध है। इस कारण इन जैन . .अर्थात् यक्षकी पूजाकी भी आज्ञा दी है। यथाः- ब्राह्मणोंको शिक्षा देते समय देव गुरु शास्त्रके सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगर- स्थानमें देव, गुरु और ब्राह्मणकी ही पूजा पते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा (पर्व ४०, करनेकी आज्ञा दी गई है । त्रेपन क्रियाओंकी श्लोक ४४, ४५, ४६ ।) इसी प्रकार इन्द्र शिक्षा देते हुए सातवीं क्रियाकी बाबत पर्व
और उनके नौकरोंका पूजन करना भी बताया ३८ में लिखा है कि अपनी विभूति और है । यथाः-सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये शक्तिके अनुसार देव, साधु और ब्राह्मणका स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परंपरेंद्राय स्वाहा, पूजन करना चाहिए। अहमिन्द्राय स्वाहा (पर्व ४० श्लोक ५०, यथाविभवमत्रेष्टं देवर्षिद्विजपूजनं । ५१, ५२)।
__ शस्तं च नामधेयं तत्स्थाप्यमन्वयवृद्धिकृत्॥८॥ आदिपुराणके पढ़नसे यह भी मालूम होता इसी प्रकार १६ वी क्रियाकी बाबत इसी है कि इन जैन ब्राह्मणोंको श्राद्ध करना आदि पर्वमें लिखा है कि पहले ब्राह्मणकी पूजा करके पितकर्म भी सिखाया गया था, क्योंकि इन जैन फिर व्रतावतरण क्रिया करे:- . ब्राह्मणोंको जहाँ यह समझाया गया है कि वेदपाठी ब्राह्मण क्रोध करके तुमको उलाहना देंगे कृतद्विजार्चनस्यास्य व्रतावतरणेचितं । वहाँ बताया गया है कि वे यह उलाहना देंगे वस्त्राभरणमाल्यादिग्रहणं गुर्वनुज्ञया ।। १२४ ॥ कि यद्यपि तू देव, अतिथि, पितृ, और अग्नि- . इस ही आज्ञाके अनुसार पूजनके मंत्रोंमें भी सम्बन्धी कार्य ठीक ठीक करता है, तो भी तू ऐसे मंत्र लिख दिये हैं जिनका अर्थ है कि देवगुरु और ब्राह्मणको प्रणाम करनेसे विमुख ही अनादि कालके श्रोत्रियोंको समर्पण ( श्रोत्रिय है । यथाः--
एक प्रकारके वेदपाठी ब्राह्मण होते हैं ), देव देवताऽतिथिपितग्निकार्येष्वप्राकृतो भवान् । ब्राह्मणको समर्पण और अच्छे ब्राह्मणको समर्पण। गुरुद्विजातिदेवानां प्रणामान्च पराङ्मुखः ॥१११॥ यथा-अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय
-पर्व ३९॥ स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा ( पर्व ४० श्लोक जैन ब्राह्मणोंको वैदिक ब्राह्मणोंका रूप देनेके ३४, ३५ )। वास्ते केवल इतना ही नहीं किया गया है कि आदिपुराणके इन सब कथनोंसे केवल यह उक्त धर्मके देवता, उनकी पूजनविधि और ही सिद्ध नहीं होता है कि वेदपाठी ब्राह्मणोंका. उनकी धर्मक्रियाओं और संस्कारोंको सम्यक्- ही रूप देकर- जैनब्राह्मण बनाये गये थे और
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