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________________ अङ्क ११] . जैन समाजके क्षयरोगपर एक दृष्टि। वरके ४ की जगह ६ गोत्र टाले जाते हैं और अन्धकवृष्टि आदि और सुवीरके . भोजकवृष्टि उनके अतिरिक्त किसी गोत्रकी कन्यासे सम्बन्ध. आदि पुत्र हुए । फिर अन्धकवृष्टिके पुत्र समद्रकिया जाता है । कोई कोई जातिवालोंने इनका विजय, वसुदेव आदि और भोजक वृष्टिके भी नम्बर ले लिया है। वे यह देखते हैं कि वर उग्रसेन महासेन आदि हुए । इस हिसाबसे उग्रपक्षके उपर्युक्त चार गोत्र कन्या पक्षके भी सेन और समुद्रविजय बहुत ही निकटके भाई इन्ही चार गोत्रोंमेंसे न होना चाहिए । पर इस थे, फिर भी एककी पुत्री राजीमतीका दसरेके विचारकी चरमसीमा यहीं न समझनी चाहिए, पुत्र अरिष्टनेमिके साथ विवाहसम्बन्ध होना कई जातियोंमें दोनों पक्षके आठ आठ, इस तरह स्थिर हो गया था ! अब कहिए कहाँ तो उस १६ गोत्र बचानेका भी रवाज है ! समयके आदर्श पुरुषों में इतने निकटके सम्बन्ध अपनी ही जातिके अतिरिक्त अन्य किसी करनेकी पद्धति और कहाँ हमारी पंचमकालके : जातिमें विवाह न करनेके नियमसे विवाहका लोगोंकी सोलह सोलह गोत्रोंके बचानेकी चाल! क्षेत्र पहलेहीसे सीमाबद्ध हो रहा था, उस पर हम नहीं कहते हैं कि आप लोग इतने निकइन गोत्रोंके विचारने उसे और भी अधिक टका सम्बन्ध करने लगो, हम केवल यह संकुचित कर दिया है। इससे कन्याओंके लिए चाहते हैं कि इन कथाओं पर विचार करके सयोग्य, वरोंका मिलना और सयोग्य वरोंके अपनी गोत्र टालनेकी जो अमर्यादित सख्ती लिए अच्छी कन्याओंका मिलना बहुत ही है उसको अपने सुभीतेके अनुसार ढीली कर दो। कृठिन हो गया है। विवाहमें इस तरहकी रुका- वैद्यक ग्रन्थोंसे तथा शरीरशास्त्रके नये नये वटोंके कारण अनमेल विवाह बहुत होते हैं, अनुसन्धानोंसे यह निश्चय हुआ है कि कन्या विधवाओंकी संख्या बढ़ती है और अविवाहित और वर एक ही वीर्य या रुधिरसे उत्पन्न हुए पुरुष भी बढ़ जाते हैं । इन सब बातोंका फल न होना चाहिए । यदि पति-पत्नी एक ही यह होता है कि ऐसी जातियोंको क्षयरोग लग रुधिरवीर्यजात हों तो उनके सन्तान नहीं होती जाता है और धीरेधीरे उनका इस संसारसे कूच और यदि होती है तो बहुत कमजोर होती हो जाता है। है । इस लिए एक ही कुटम्बमें उत्पन्न हुए लड़के अब समय आ गया है कि हम लोग अपनी लड़कियोंका परस्पर विवाहसम्बन्ध न होना इन रीतियों पर विचार करें । हम अब नन्हें चाहिए और इसी तरह मामा, फुफा और मौसाकी .नादान नहीं हैं, अपने हानिलाभको समझने लगे लडकीसे भी विवाह वर्जित है; परन्तु, पाँच हैं। इतने गोत्रोंके टालनेकी न तो शास्त्रमें ही सात पीढ़ियोंके बाद वीर्य और रुधिर इतना कोई आज्ञा है और न शरीर शास्त्रकी दृष्टिसे बदल जाता है कि फिर उसके संयोगमें सन्ता. ही इसमें कोई लाभ है । पुराण और कथा- नके न होनेकी या दुर्बल होनेकी संभावना नहीं ग्रन्थोंके देखनेसे मालूम होता है कि पहले सम- रहती । इन सब बातों पर विचार करके अधिक यमें मामाकी लड़की के साथ सम्बन्ध करना तो गोत्र टालनेकी प्रथाको बदल डालना चाहिए। एक बहुत ही मामूली बात थी। मामाकी लड़की कमसे कम दो दो, चार चार, आठ आठ और पर तो भानजेका खास हक होता था । कर्ना- सोलह सोलह गोत्रोंके टालनेकी लोकोत्तर मूर्खटककी कई जातियोंमें अब भी यह रीति प्रच- ताको तो अवश्य छोड़ देना चाहिए । इससे लित है। हरिवंशपुराणमें लिखा है कि राजा न तो किसी धार्मिक आज्ञाका · उल्लवन होगा यदुके शूर और सुवीर नामके दो पुत्र थे। शूरके और न कोई सामाजिक हानि होगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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