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________________ जैनहितैषी - ४९८ मालूम होती और हिन्दुओंसे क्रियायें बिलकुल बेजोड़ हैं । इसी प्रकारकी पूजन सम्बंध में भी बहुतसी क्रियायें हैं, जो उधार लेकर रक्खी गई अथवा उनके संस्कारोंसे संस्कारित होकर पीछेसे बना ली गई हैं और जिन सबका जैन सिद्धान्तोंसे प्राय: कुछ भी मेल नहीं है । यहाँ इस छोटेसे नोटमें उन सब पर विचार नहीं किया जा सकता और न इस समय उनके विचारका अवसर ही प्राप्त है । अवसर मिलने पर उन पर फिर कभी प्रकाश डाला जायगा । परन्तु इतना जरूर कहना • होगा कि वर्तमानका पूजन इन्हीं सब क्रियाओंके कारण बिलकुल अप्राकृतिक और आडम्ब - -रयुक्त बन गया है और उससे जैनियोंकी आत्मीय प्रगति, एक प्रकारसे, रुक गई है । यदि सचमुच ही हमारे जैनी भाई अपने पूज्य परमामाकी पूजा, भक्ति और उपासना करना चाहते हैं तो उन्हें सब आडम्बरों को छोड़कर पूजनकी अपनी वही पुरानी, प्राकृतिक और सीधी सादी पद्धति जारी करनी चाहिए; जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है । ऐसा करने पर पुजारियोंक्के नौकर रखने की भी फिर कुछ जरूरत नहीं रहेगी और आत्मोन्नि सब लाभ अपने को प्राप्त होने लगेगा, जिसको लक्ष्य करके ही मूर्तिपूजाका विधान किया गया है और जिसका परिचय पाठकों को, 'जिनपूजाधिकारमीमांसा' के ' पूजनसिद्धान्त प्रकरणको पढ़नेसे भले प्रकार मिल सकता है । विपरीत इसके यदि जैनी लोग अपनी वर्तमान पूजनपद्धतिको न बदलने के कारण नौकरोंसे पूजन कराना जारी रक्खेंगे तो इसमें संदेह नहीं कि वह समय भी शीघ्र निकट आ जायगा जब उन्हें दर्शन, सामायिक, स्वाध्याय, तप, जप, शील, संयम, व्रत, नियम और उपवासादिक सभी धार्मिक कामोंके लिए नौकर रखने या उन्हें सर्वथा छोड़ देनेकी Jain Education International [ भाग १४ जरूरत पड़ने लगेगी । और तब उनका धर्मसे बिलकुल ही पतन हो जायगा । इस लिए जैनयोंको शीघ्र ही सावधान होकर अपनी वर्त्तमान पूजनपद्धति में आवश्यक सुधार करके उसे सिद्धान्तसम्मत बना लेना चाहिए। और नौकरोंके द्वारा पूजनकी प्रथाको एकदम उठा देना चाहिए । आशा है कि, समाजके नेता और विद्वान् लोग इस विषयकी ओर खास तौर से ध्यान देगें । देवबन्द | ता० २९-१०-१७ जैन समाज के क्षयरोग पर एक दृष्टि | Gr [ लेखक, श्रीयुत बाबू रतनलाल जैन, बी. ए., एल एल. बी. ] ( शेषांश ! ) ९ बहुतसे गोत्रोंको टालकर विवाह सम्बन्ध करना । जैन समाजमें जितनी जातियाँ हैं, उन सभीमें इस बातका विचार किया जाता है कि कन्या वरसे भिन्न गोत्रकी हो । पर इस गोत्रभिन्नताका परिमाण सबमें एकसा नहीं है किसीमें कम है और किसीमें अधिक है । अग्रवाल आदि जातियोंमें केवल यह देखा जाता है कि कन्या वरके गोत्रसे किसी भिन्न गोत्रकी हो । कुछ जातियाँ ऐसी हैं जिनमें यह नियम है कि कन्या वरके गोत्रकी और वरके मामाके गोत्रकी न होनी चाहिए, इनसे अतिरिक्त चाहे जिस गोत्रकी हो । कई जातियोंमें यह देखा जाता है कि कन्या वरके गोत्रकी, वरके मामा के गोत्रकी, वरके पिता के मामा के गोत्रकी और वरकी माताके मामाक गोत्रकी न हो, इनक सिवाय और चाहे जिस गोत्रकी हो । किसी किसी जाति में ल For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522837
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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